Chapter 6 Meri Zaat Zarra-e-Benishan Novel
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सारा मैं परसों सबा के लिए कुरान ख्वानी करवा रहा हूँ. सब खानदान वाले आयेंगे और भी काफ़ी लोग होंगे. मैंने मुलाज़िमों से कह दिया है, वह सारे इंतज़ामात देख लेंगे. मगर फिर भी तुम ख़ुद उनकी निगरानी करना.
सुबह नाश्ता कर आफ़रीन अब्बास ने उससे कहा.
हैदर ने बाप के चेहरे को गौर से देखा. उनकी आँखें सुर्ख हो रही थी. शायद वो रात को सोये नहीं थे. वह उनसे कुछ कहते-कहते रुक गया. उसने एक नज़र सारा पर डाली. वह चाय के कप के गिर्द हाथ जमाये किसी सोच में गुम थी. चंद लम्हों तक उसने नज़र सारा के चेहरे पर जमाये रखी. ना-महसूस (जो महसूस न हो) तौर पर उसे एहसास हुआ कि उसके चेहरे के नकूश (नैन-नक्श, चेहरा-मोहरा) बहुत दिलकश थे. ख़ासतौर पर दराज़ पलकों वाली आँखें. ‘उसकी अम्मी भी इसी तरह होंगी, वरना पापा जैसे शख्स को मोहब्बत जैसा रोग कैसे हो सकता है? मगर क्या सिर्फ़ अच्छी शक्ल की वजह से पापा उनकी मोहब्बत में गिरफ्तार हो गए थे? क्या मम्मी से ज्यादा ख़ूबसूरत थी वो?’
वो उसके चेहरे को देखते हुए मुसलसल सोच रहा था. एकदम उसने सारा को चौंकते हुए देखा. यकीनन उससे ला-शऊरी (un-consciousness) तौर पर अहसास हो गया था कि कोई उसे देख रहा है.
हैदर ने बड़े सुकून से अपनी नज़र नाश्ते की प्लेट पर मरकूज़ (ठहराना) कर ली. सारा ने आफ़रीन अब्बास को देखा. वह ब्रेड पर जैम लगा रहे थे. वह अपनी प्लेट पर झुका छुरी से अंडे को काटने और कांटे से उसे खाने में मशरूफ़ था. वो एक बार फिर सोचो मैं गुम हो गया.
‘आफ़रीन अब्बास को तो अम्मी से कोई शिकायत नहीं थी. मगर बाकी खानदान वालों का रद्द-ओ-अमल (प्रतिक्रिया) क्या होगा?’
ये वो सवाल था, जो बार-बार उसे तंग कर रहा था. दर-हकीकत (वास्तव में, हक़ीकत में) वो यह सुन सुनकर खौफ़ज़दा हो गई थी कि उसे अम्मी के खानदान वालों का सामना करना होगा.
उस दिन वो काफ़ी बेचैन रही. दोपहर को आफ़रीन घर नहीं आये, न ही हैदर. आफ़रीन ने उसे फोन करके लंच करने के लिए कह दिया था. उसे अजीब सी आज़ादी का एहसास हुआ. उसने भी दोपहर का खाना नहीं खाया, बल्कि वह लोन में आकर बैठ गई.
‘मेरे अब्बू में ऐसी कौन सी ख़ास बात थी, जो अम्मी ने आफरीन अब्बास जैसे शख्स को छोड़ दिया. वह यहाँ अच्छी ज़िन्दगी गुज़ार सकती थीं. उस जिंदगी से बहुत बेहतर, जो उन्होंने वहाँ गुज़ारी.’
उसे बार-बार सीलन-ज़दा एक कमरे का फ्लैट याद आ रहा था, जो बरसात में बहुत सी जगहों से टपकता और वह बहुत दिल-गिरफ्तगी से पानी के उन कतरों को देखती रहती, जो आहिस्ता-आहिस्ता पूरे कमरे को गीला कर देते.
‘अगली दफ़ा बरसात से पहले कुछ रुपये जमा करके इसकी मरम्मत करवा लेंगे.’ हर बरसात में वह अपनी अम्मी से यही कहती, मगर कभी भी इतने पैसे जमा नहीं हो पाये, जिससे वह उस छत की मरम्मत करवा पाती. सिर्फ़ सारा थी, जो उस फ्लैट और वहाँ मौजूद चीज़ों के बारे में फ़िक्रमंद रहती थी, वरना उसने अपनी अम्मी को कभी उन चीजों के बारे में परेशान नहीं देखा था. हाँ, शायद वह अगर किसी चीज की परवाह करती थी, तो वह सारा का वजूद था. उसे याद था, वह बचपन में उसे ख़ुद स्कूल छोड़ने जाती और फिर स्कूल से लेकर आती. उन्होंने कभी भी उसे दूसरे बच्चों के साथ कहीं आने-जाने नहीं दिया.
सारा को स्कूल से लेकर वह सीधा अपनी फैक्ट्री चली जाती थी, जहाँ वह रेडीमेड कपड़ों की पैकिंग किया करती थी और सारा वही एक कोने में बैठकर स्कूल का होमवर्क करती थी और बाज़ दफ़ा थक जाने पर वही एक तरफ़ सो जाती.
उसने अपनी अम्मी को फैक्ट्री में भी कभी किसी के साथ ज़रूरत से ज्यादा बातचीत करते नहीं देखा था. उनका पूरा ध्यान सिर्फ़ अपने काम पर होता था. शायद यही वजह थी कि सारा ने कभी अपनी माँ को किसी की झाड़ खाते हुए नहीं देखा. वह एक मशीन की तरह कपड़ों को लिफाफफ़े में और बाद में डब्बों में बंद करती थी और सारा को यह सब एक दिलचस्प खेल की तरह लगता था. फिर वह आहिस्ता-आहिस्ता बड़ी होती गई और इस खेल से उससे उकताहट होने लगी थी. अभी वह स्कूल से माँ के साथ ही फैक्ट्री चली जाती और मैट्रिक तक उसकी यही रूटीन रही.
मैट्रिक के बाद उसने अपनी अम्मी से कहा कि वह पढ़ने के बजाय कोई काम करना चाहती है. मगर अब अम्मी ने उसे सख्ती से मना कर दिया था. उसने कॉलेज में दाखिला ले लिया, मगर वह ज्यादा ख़ुश नहीं थी. मम्मी की सेहत आहिस्ता-आहिस्ता खराब हो रही थी और हर गुज़रता दिन उसे खौफ़ज़दा कर देता था. वह फोर्थ ईयर में थी, जब उसकी अम्मी बहुत बीमार हो गई थी. वह काम पर नहीं जा पाती थी.
चंद माह तक ज्यों-त्यों करके जमा पूंजी से घर चलाया गया, फिर बीए के पेपर देने के बाद सारा ने उसी फैक्ट्री में सुपरवाइजर के तौर पर काम शुरू कर दिया, जहाँ उसकी अम्मी काम करती थी.
फैक्ट्री उसके घर के करीब थी और अब वहाँ जॉब हासिल करने के लिए उसे किसी गारंटी की ज़रूरत नहीं पड़ी. कुछ अर्से बाद अम्मी की हालत ठीक हो गई और उन्होंने दोबारा फैक्ट्री जाना शुरू कर दिया था. सारा ने उनके इसरार पर जॉब छोड़ दी थी और एक बार फिर से प्राइवेट तौर पर इकोनॉमिक्स में एम.ए. की तैयारी शुरू कर दी थी, मगर आठ-नौ माह बाद फिर अम्मी पहले की तरह बीमार पड़ गई और इस बार वह काफ़ी अर्से तक बीमार रही. सारा ने एक बार फिर उसी फैक्ट्री में जॉब कर ली थी और फिर अम्मी के ठीक होने और उनके इसरार के बावजूद उसने जॉब नहीं छोड़ी. फैक्ट्री से उससे इतने रुपए मिल जाते थे, जिससे फ्लैट का किराया और बाकी अख्राजात (खर्चे) पूरे हो जाते थे और सारा के लिए यह काफ़ी था.
किसी दूसरी जगह पर उसने जब भी जॉब हासिल करने की कोशिश की, गारंटी का मसला उसके लिए सबसे बड़ी रुकावट बन कर सामने आता और अब उसे जॉब की जरूरत नहीं रही थी. उसने एक तवील (लंबी) साँस लेकर सिर कुर्सी पर टिका दिया.
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