Chapter 24 Meri Zaat Zarra-e-Benishan Novel
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वो उसे पहचान नहीं सका। ज़र्द रंगत, दुश हलकों (डार्क सर्कल) में धंसी हुई आँखें और उभरी हुई हड्डियों वाला वह चेहरा सबा का नहीं हो सकता था, मगर वह था। उसकी आँखों में वह चमक नहीं थी, जो उसको मशहूर कर देती थी। उसकी आँखों में कुछ भी नहीं था। उसे लगा, उसका पूरा वजूद पानी बनकर बहने लगा हो। वह घर पर नहीं थी और शाम तक उसके दरवाजे पर खड़ा उसका इंतज़ार करता रहा था, फिर सबा आ गई थी। गोद में एक छोटी बच्ची को उठाये जिस्म को एक काली चादर में छुपाये उसने दरवाजे पर आफ़रीन को देख लिया था। एक नज़र डालने के बाद उसने दोबारा आफ़रीन पर नज़र नहीं डाली।
“सबा! मैं तुम्हें लेने आया हूँ।” आफ़रीन को लगा था, यह जुमला बोलते हुए उसके हलक में कितनी ही काटे चुभ गए थे।
सबा ख़ामोश रही और अपनी बच्ची को उसने दहलीज पर बिठा दिया और एक चाबी से ताला खोलने लगी।
“सबा! क्या मुझे माफ़ कर दोगी?”
ताला खुल गया था। उसने अपने बच्चे को उठाया और दरवाजा खोलकर अंदर जाने लगी।
“सबा! मेरी बात का जवाब दो।” आफ़रीन ने दरवाजा पकड़ कर कहा।
“अंदर आ जाओ। यहाँ तमाशा मत बनाओ।” वो दरवाजा खुला छोड़कर अंदर चली गई। आफ़रीन उसके पीछे अंदर आया। सबा ने अंदर जाकर लाइट ऑन की और बच्ची को एक चारपाई पर बिठा दिया।
“कहो क्या चाहते हो मुझसे?”
“सबा! मुझे माफ…!”
“मैंने माफ़ किया, और?” सबा ने उसकी बात काट दी।
“क्या तुम एक बार मेरी माँ से मिल सकती हो? वह बहुत बीमार है। तुमसे माफ़ी मांगना चाहती हैं। डॉक्टर कहते हैं कि वह अब ज्यादा दिन ज़िन्दा नहीं रहेंगी।
आफ़रीन को बात करते-करते एहसास हुआ कि वह नज़रें जमाए खड़ी थी, उसका चेहरा एक्सप्रेशनलेस था। वह बात करते-करते चुप हो गया। उसे याद आ गया, तलाक देते वक्त सबा उसे उसी तरह देख रही थी।
“सबा! जो मैंने तुम्हारे साथ किया, वह तुम मेरे साथ मत करना।” वह आहिस्ता से गिड़गिड़ाया।
“मैं आ जाऊंगी। अब तुम जाओ।” वो अपनी बच्ची के पास चारपाई पर बैठ गई।
आफ़रीन को यूं लगा जैसे किसी ने उसके हलक पर पांव रखकर जोर-जोर से पैर दबाना शुरू कर दिया। ‘सबा! तुम चीखो चिल्लाओ; मुझे गालियाँ दो; कहो मैं नहीं आऊंगी; तुम्हारी माँ मरती है, तो मर जाये, मेरी तरफ से तुम जहन्नुम में जाओ। मुझे कुछ कहो, मगर यूं मेरी बात ना मानो।’
आफ़रीन को नहीं मालूम, उसे क्या हो गया। बस वह बिलख-बिलख कर रोने लगा। सबा खामोश रहे। उसने अपनी बेटी को गोद में बिठा लिया। आफ़रीन को याद आया कि सबा छोटी-छोटी बात पर रो पड़ती थी। ज़रा सी बात पर उसकी आँखों में आँसू आ जाते थे। आज उसे कुछ नहीं हो रहा था। उसी तरह उसे देख रही थी, जैसे उसे पहली बार देख रही हो। वह कितने ही देर होता रहा, फिर आस्तीन से आँखें रगड़ते हुए वहाँ से आ गया।
दूसरे दिन सुबह सबा आई। आफ़रीन माँ के पास बैठा हुआ था। तायी अम्मी कराह रही थी। आफ़रीन ने उसे दरवाजे पर खड़े देख लिया था। वह कल की तरह आज भी अपनी बेटी को उठाए हुए थी।
ताया अब्बा ने उसे देखा, तो बे-इख्तियार उठकर खड़े हो गए, “सबा आओ अंदर आओ।”
वह अंदर आ गई। ताया ने उसे गले लगाना चाहा, उसने बड़े सुकून से उन्हें हाथ से रोक दिया।
“इसकी ज़रूरत नहीं है।” आफ़रीन ने सबा को कहते सुना।
पता नहीं किस तरह से सबा के आने की खबर सारे घरों में हो गई। आहिस्ता-आहिस्ता उनके पीछे लोग आने लगे। कमरा लोगों से भरने लगा।
“अम्मी सबा आ गई है।” आफ़रीन ने माँ को इतला दी। वह माँ के पास से उठ गया।
“कहाँ है? सबा कहाँ है? उसे मेरे सामने लाओ। मैं देखना चाहती हूँ उसे।” तायी ने उठने की ज़द्दोजहद शुरू कर दी, लेकिन उसने उठा नहीं गया।
सबा आहिस्ता-आहिस्ता चलती हुई उनके पास रखी हुई कुर्सी पर बैठ गई। तायी ने उसे देख लिया। एकदम वह ख़ामोश हो गई, लेकिन उनका जिस्म लरज़ रहा था। उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे। फिर सबने देखा, उन्होंने आहिस्ता-आहिस्ता अपने कांपते हुए हाथ उसके आगे जोड़ दिये। सबा ने बड़े सुकून से उनके जुड़े हुए हाथों को खोल दिये।
“मैंने आपको माफ़ किया। मेरे दिल में आपके खिलाफ़ कुछ नहीं है।” वो उठ खड़ी हुई। तायी अम्मी ने एकदम बच्चों की तरह बिलख-बिलख कर रोना शुरू कर दिया।
“मैंने तुम पर बहुत जुल्म…” ताई आगे आ गई थी, सबा ने उनकी बात काट दी।
“मैंने आपको भी माफ़ किया। मैंने सबको माफ़ किया।” उसने कहा और फिर वह अपनी बच्ची को उठाये दरवाजे की तरफ बढ़ गई।
“सबा! तुम कहीं मत जाओ। तुम हमारे पास रहो। अपने घर आ जाओ।” छोटे ताया ने उसे रोकना चाहा।
“ताया! मुझे रहने के लिए घर नहीं, जगह चाहिए, वह मेरे पास है।” वह रुकी नहीं, फिर हर एक ने उसे रोकना चाहा। ताया रोते हुए उसके पीछे दरवाजे तक गये, मगर वह नहीं ठहरी। जिस ख़ामोशी और सुकून के साथ आई थी, उसी ख़ामोशी और सुकून के साथ चली गई।
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