चैप्टर 13 : प्रतिज्ञा ~ मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 13 Pratigya Novel By Munshi Premchand In Hindi Read Online

Chapter13 Pratigya Novel By Munshi Premchand

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इस वक्त पूर्णा को अपनी उद्दंडता पर पश्चाताप हुआ। उसने अगर ज़रा धैर्य से काम लिया होता, तो कमलाप्रसाद कभी ऐसी शरारत न करता। कौशल से काम निकल सकता था, लेकिन होनी को कौन टाल सकता है? मगर अच्छा ही हुआ। बच्चा की आदत छूट जाएगी। भूल कर भी ऐसी नटखटी न करेंगे। लाला ने समझा होगा, औरत जात कर ही क्या सकती है, धमकी में आ जाएगी। यह नहीं जानते थे कि सभी औरतें एक-सी नहीं होतीं।

पुलिया के नीचे जानवरों की हडिड्याँ पड़ी हुई थीं। पड़ोस के कुत्ते प्रतिद्वंद्वियों की छेड़-छाड़ से बचने के लिए इधर-उधर से हडिड्यों को ला-ला कर एकांत में रसास्वादन करते। उनसे दुर्गंध आ रही थी। इधर-उधर फटे-पुराने चिथड़े, आम की गुठलियाँ, कागज के रद्दी टुकड़े पड़े हुए थे। अब तक पूर्णा ने इस जघन्य दृश्य की ओर ध्यान न दिया था। अब उन्हें देख कर उसे घृणा होने लगी। वहाँ एक क्षण रहना भी असह्य जान पड़ने लगा। पर जाये कहाँ? नाक दबाये, बैठी आने-जानेवालों की गति-प्रगति पर कान लगाए हुए थी।

अब उसके लिए कहाँ आश्रय था? एक ओर जेल की दुस्सह यंत्रणायें थीं, दूसरी ओर रोटियों के लाले, आँसुओं की धार और घोर प्राण-पीड़ा!

ऐसे प्राणी के लिए मृत्यु के सिवा और कहाँ ठिकाना है?

एक बूढ़े आदमी को देख कर वह एक वृक्ष की आड़ में खड़ी हो गई। जब बूढ़ा निकट आ गया और पूर्णा को विश्वास हो गया कि इसके सामने निकलने में कोई भय नहीं है, तो उसने धीरे से पूछा – ‘बाबा, गंगा जी का रास्ता किधर है?’

पूर्णा – ‘गंगा जी यहाँ से कितनी दूर हैं?’

इस दशा में दो कोस जाना पूर्णा को असह्य-सा जान पड़ा। उसने सोचा, क्या डूबने के लिए गंगा ही है। यहाँ कोई तालाब या नदी न होगी? वह वहीं खड़ी रही। कुछ निश्चय न कर सकी।

पूर्णा सहम उठी। अब तक उसने कोई कथा न गढ़ी थी, क्या बतलाती?

पूर्णा ने डरते-डरते कहा- ‘वहीं एक मुहल्ले में जाऊंगी?’

पूर्णा ने कोई जवाब न दिया। उसके पास जवाब ही क्या था?

पूर्णा कोई जवाब न दे सकी। वह पछता रही थी कि नाहक इस बूढ़े को मैंने छेड़ा।

पूर्णा थर-थर कांप रही थी। एक शब्द भी मुँह से न निकाल सकी।

पूर्णा के लिए अब जवाब देना लाजिम हो गया। बोली – ‘बाबा, मुझे घरवालों ने निकाल दिया है।’

‘नहीं बाबा, मैं विधवा हूँ। घरवाले मुझे रखना नहीं चाहते।’

‘नहीं बाबा, कोई नहीं है। एक नातेदार के यहाँ पड़ी थी, आज उसने भी निकाल दिया।’

‘नहीं महाराज! सोचती थी, रात-भर वहीं घाट पर पड़ी रहूंगी। सवेरे किसी जगह खाना पकाने की नौकरी कर लूंगी।’

बोला – ‘वनिता भवन में क्यों नहीं चली जाती?’

‘वहाँ अनाथ स्त्रियों का पालन किया जाता है। कैसी ही स्त्री हो, वह लोग बड़े हर्ष से उसे अपने यहाँ रख लेते हैं। अमृतराय बाबू को दुनिया चाहे कितना ही बदनाम करे, पर काम उन्होंने बड़े धर्म का किया है। इस समय पचास स्त्रियों से कम न होंगी। सब हँसी-खुशी रहती हैं। कोई मर्द अंदर नहीं जाने पाता। अमृत बाबू आप भी अंदर नहीं जाते। हिम्मत का धनी जवान है, सच्चा त्यागी इसी को देखा।’

बूढ़े ने पूछा – ‘देर क्यों करती हो बेटी, चलो, मैं तुम्हें वहाँ पहुँचा दूं। विश्वास मानो, वहाँ तुम बड़े आराम से रहोगी।’

‘वहाँ जाने में क्या बुराई है?’

बूढ़े ने झुंझला कर कहा – ‘तो यह क्यों नहीं कहती कि तुम्हारे सिर पर दूसरी ही धुन सवार है।’

पूर्णा बूढ़े को जाते देख कर उसके मन का भाव समझ गई। क्या अब भी वह वनिता-भवन में जाने से इंकार कर सकती थी? बोली – ‘बाबा, तुम भी मुझे छोड़ कर चले जाओगे?’

‘वहाँ मुझे बाबू अमृतराय के सामने तो न जाना पड़ेगा?’

‘अच्छे-बुरे की बात नहीं है बाबा। मुझे उनके सामने जाते लज्जा आती है।’

‘नहीं बाबा, मैं नाम और पता भी न लिखाऊंगी। इसीलिए तो कहती थी कि मैं वनिता-भवन में न जाऊंगी।’

ज़रा दूर पर एक इक्का मिल गया। बूढ़े ने उसे ठीक कर लिया। दोनों उस पर बैठ कर चले।

पूर्णा इस समय अपने को गंगा की लहरों में विसर्जित करने जाती, तो कदाचित इतनी दुःखी और सशंक न होती।

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