Chapter 12 Meri Zaat Zarra-e-Benishan Novel
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सरमद की शादी का हंगामा शुरू हो गया था। तकरीबन एक माह पहले से ढोलक रख दी गई थी, रात तक एक तूफान बदतमीजी बरपा रहता। सबा को ऐसी महफिलों से शुरू से ही कोई दिलचस्पी नहीं थी और अगर वह उनके पास जाकर बैठती भी तो बहुत मुख़्तसर (थोड़े) वक़्त के लिए। उस रात भी ऐसा ही हुआ था। रात के वक्त जब ढोलक बजना शुरू होती, तो उनके घर तक आवाज आती। वह पढ़ते-पढ़ते बाज़ दफ़ा झुंझला जाती, लेकिन वह किसी को रोक नहीं सकती थी, ना ही उसका ऐसा कोई इरादा था।
शादी से तीन-चार दिन पहले उसके छोटे ताया की बेटियाँ जबरदस्ती अपने हिस्से में ले आई थी। वह उनके इसरार की वजह से इंकार नहीं कर सकी। फिर अब शादी में चंद दिन रह गए थे और यह सारा हंगामा खत्म हो ही जाना था। बाकी कजिन्स के साथ वह बैठी तालियाँ बजाती और घंटा डेढ़ घंटा बाद वापस आ जाती।
उस रात भी वह अभी अपने कमरे में आकर बैठी ही थी कि आफ़रीन की अम्मी आ गई।
“सबा तुम ज़रा मेरे साथ आओ। असल में तुम्हारी ताया अब्बू ने कहा है कि ऊपर आफ़रीन के कमरे में कुछ बिस्तर लगवा दो क्योंकि कुछ देर में कुछ और लोग आने वाले हैं। औरतों के रहने का इंतज़ाम तो खालिद ने अपने यहाँ कर लिया है, मगर मर्दों के लिए उनके यहाँ जगह नहीं रही। इसलिए तुम्हारे ताया ने उन्हें अपने यहाँ ठहरने को कह दिया है। नीचे तो तुम्हें पता ही है, पहले ही जगह नहीं है। वैसे भी कल नज़मा और सलमा भी सरमद की शादी में शिरकत के लिए अपने बच्चों के साथ आ जायेंगे। इसलिए मैंने सोचा आफ़रीन के कमरे में बिस्तर लगा दूं। वह तो अभी इस्लामाबाद से आया नहीं है।”
“ठीक है ताई अम्मी। मैं आपके साथ चलती हूँ।”
उसने कुछ खुशगवार हैरत से उठते हुए कहा। पहली बार ऐसा हुआ था कि ताई ने इतनी अपनियत से उससे बात की थी। ताई उसे अपने हिस्से में ले आई। स्टोर में जाकर जब ताई बिस्तर निकालने लगी, तो उन्हें अचानक कोई ख़याल आ गया।
“सबा मुझे तो याद ही नहीं रहा। मैंने आशिया से कहा था कि आफ़रीन के कमरे में बिस्तर लगा दो। मुझे लगता है, शायद उसने बिस्तर लगा दिया है क्योंकि यहाँ बिस्तर कम है। तुम ऐसा करो, ज़रा आफ़रीन के कमरे में जाकर देख कर आओ कि वहाँ बिस्तर लगे हैं या नहीं। वरना ख्वाह-म-ख्वाह बिस्तर उठा कर ऊपर जाती आती रहोगी।”
“ठीक है ताई अम्मी मैं देख आती हूँ।” उसने तबदारी से कहा था और ऊपर चली आई। आफ़रीन के कमरे का दरवाजा खुला था और अंदर लाइट बंद थी, लेकिन हल्की-हल्की रोशनी बाहर आ रही थी। वह कुछ ठिठककर रुक गई।
“अंदर कौन है?” उसने वहीं से आवाज लगाई।
“सबा मैं हूँ अंदर। आफ़रीन के कमरे के बल्ब होल्डर में कुछ खराबी हो गई थी। मैं वह ठीक कर रहा हूँ। ताई अम्मी ने कहा था मुझसे।” उसने अपने तायाज़ाद आदिल की आवाज पहचान ली। एक इत्मीनान भरी साँस लेकर वह कमरे के अंदर चली गई। वह एक हाथ में लालटेन पकड़े दूसरे हाथ से बल्ब लगाने की कोशिश कर रहा था।
“मैं देखने आई थी कि यहाँ कोई बिस्तर तो नहीं लगा, मगर यहाँ पर तो कोई बिस्तर नहीं है।” उसने नीम (हल्की) रोशनी में कमरे का जायज़ा लिया।
“अच्छा अब अगर आ ही गई हो, तो यह ज़रा लालटेन….” आदिल के अल्फाज़ मुँह में रह गये क्योंकि किसी ने बाहर से दरवाजा खींचकर के बंद कर दिया था। आदिल एकदम कूदकर स्टूल से नीचे उतरा।
“यह क्या हो रहा है?” वह हवास-बाख्ता (बेसुध) सा दरवाजे की तरफ गया। दरवाजा पकड़कर खींचा, मगर दरवाजा हिला तक नहीं।
“सबा आदिल के बर-‘अक्स (विपरीत) बिल्कुल नहीं घबराई। उसने दरवाजे को ज़ोर-ज़ोर से बजाना शुरू कर दिया, मगर एक-दो मिनट गुज़रने के बाद भी किसी ने दरवाजा नहीं खोला। आदिल की घबराहट बढ़ती जा रही थी। वह होल्डर में बल्ब लगाना भूल चुका था।
चंद मिनट मजीद दरवाजा बजाने के बावजूद जब कोई ऊपर नहीं आया, तो एकदम वह भी हवास-बाख्ता (बेसुध) हो गई। दोनों को उस नाजुक सूरत-ए-हाल का एहसास था, जिसका वह सामना कर रहे थे। फिर एकदम ही नीचे से शोर की आवाज आने लगी। सबा दरवाजा बजाते-बजाते रुक गई।
शोर कुछ अजीब सा था, जैसे कोई बीन कर रहा था। सबा ने कुछ खौफ़ज़दा होकर आदिल को देखा। लालटेन की हल्की रोशनी भी उसके चेहरे की ज़र्दी को नुमाया होने से नहीं बचा सकी। आवाज अब ऊपर की तरफ आ रही थी। सबा ने ताई अम्मी की आवाज पहचान ली। वो ऊँची आवाज में रो रही थी और साथ कुछ कहती जा रही थी। फिर कुछ लोग तेज कदमों से सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। वह दोनों दम साधे ज़र्द रंगत के साथ दरवाजा बजाने के बजाय एक-दूसरे के चेहरे देखते रहे। ताई अम्मी जो कह रही थी, वह दोनों ने सुन लिया था। वह जानते थे, अब अगर वह दरवाजा ना भी बजाये, तो भी दरवाजा खुल जायेगा।
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