Chapter 10 Jungle Mein Lash Ibne Safi Novel
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खानदानी पागल
फ़रीदी हवालात में सरोज से मिला। वह उसे देख कर रोने लगी। उसकी रिहाई का इंतज़ाम उसने पहले ही कर लिया था। वह उसे दिलासा देता हुआ जलालपुर ले आया। ठाकुर दिलबीर से सरोज के आने की खबर सुनकर आपे से बाहर हो गया। उसकी आँखों में खून उतर आया। भवें तन गई और वह चीख कर बोला, “अब यहाँ क्या करने आई हो? खानदान की इज्ज़त मिला दी ख़ाक में।”
“भैया जी, आखिर इसमें मेरी क्या गलती?” सरोज होती हुई बोली।
“क्यों बुलाया था तुमने विमला को। ख़ुद जान से गई और हमारी गर्दन नाली में रगड़ गई।” अंधे दिलबीर सिंह ने चीखकर कहा, “अब यहाँ तुम्हारा कोई काम नहीं है। ठाकुर अमर सिंह के खानदान की बहू और जेल में जाये। तू भी प्रकाश ही के साथ क्यों न मर गई।”
“ठाकुर साहब, भला इसमें इनकी क्या गलती है?” फ़रीदी ने नरम लहज़े में कहा।
“आप चुप रहिये जनाब। यह मेरे घरेलू मामले हैं।” दिलबीर सिंह चीख कर बोला।
“ठाकुर साहब, मुझे शर्मिंदगी है कि आप लोगों को तकलीफ़ उठानी पड़ी। अगर मैं यहाँ होता, तो इसकी नौबत ना आने पाती।” फ़रीदी फिर उसी अंदाज़ में बोला।
“तकलीफ़ न उठानी पड़ती।” दिलबीर सिंह झल्लाकर बोला, “आप क्या जाने की खानदान की इज्ज़त क्या चीज होती है?”
“मैं जानता हूँ, लेकिन अब जो हुआ, सो हुआ। इन्हें माफ़ कर दीजिए।” फ़रीदी ने कहा।
“अच्छा, तो आप सिफ़ारिश करने के लिए आये हैं। क्यों सरोज, इतनी जल्दी इतनी जानिसार पैदा कर लिए।” उसने तीखे शब्दों में कहा।
सरोज रोने लगी।
“ठाकुर साहब, ऐसे बुजुर्ग पर ऐसी बातें अच्छी नहीं लगती।” फ़रीदी ने नाख़ुशगवार लहज़े में कहा।
“आप यहाँ से तशरीफ़ ले जाइए, और सरोज, तुम भी… तुम्हारे इस घर में अब कोई काम नहीं है।”
सरोज ने दिलबीर के पांव पकड़ लिए, लेकिन उसने उसे बेदर्दी से हटा दिया।
“अब इस घर से मेरी लाश निकलेगी भैया जी।” सरोज रोती हुई बोली।
“तुम यहाँ से चली जाओ, वरना सच में तुम्हारी लाश ही निकलेगी।” दिलबीर सिंह चीख कर बोला।
“ठाकुर साहब, आप सरोज को धमकी दे रहे हैं। इसलिए अब पुलिस को उन्हें अपनी हिफ़ाज़त में लेना पड़ेगा।”
“पुलिस!” दिलबर सिंह ने जहरीली हँसी के साथ काह, “पुलिस की हिफ़ाज़त में तो यह दो रातें रही है । क्या अभी तुम लोगों का जी इससे नहीं भरा!”
“क्या बक रहे हो ठाकुर, होश में आओ। तुम फ़रीदी से बात कर रहे हो।” फ़रीदी ने तेजी से कहा।
“ठाकुर, मैं तुम्हारा मुँह नोच लूंगी।” सरोज अचानक बिफ़र कर बोली, “मैं राजपूतनी हूँ।”
“अच्छा, राजपूतनी की बच्ची! तुम जल्दी से यहाँ से अपना मुँह काला करो। खबरदार, कभी इस घर की तरफ आँख उठाकर भी ना देखना।” दिलबीर सिंह गुस्से में काटते हुए बोला।
फ़रीदी सरोज को लेकर मकान से बाहर चला आया। अब वह फिर शहर की तरफ़ जा रहा था।
“मुझे बहुत शर्मिंदगी है, सरोज बहन।”
“लेकिन आपने क्या किया है?” सरोज रोआंसी आवाज में बोली।
“मैंने तुम्हें पहले ही क्यों ना अच्छी तरह महफूज़ कर दिया।”
“किस्मत का लिखा पूरा होकर रहता है।” सरोज सिसकियाँ लेती हुई बोली, “अब मैं कहाँ जाऊं? पिताजी से जाकर कहूंगी क्या… शायद वे लोग भी मुझे घर में जगह देने से इंकार कर दें।”
“तुम इतनी फ़िक्र ना करो। जब तक मैं ज़िन्दा हूँ, तुम्हें किसी तरह परेशान होने की ज़रूरत नहीं है।” फ़रीदी ने कहा।
“मैं किसी के लिए भार बनना नहीं चाहती। मैं मेहनत मजदूरी करके पेट पाल लूंगी।”
“क्या तुम भाई की गुज़ारिश ठुकरा दोगी। इंसान होने के नाते मैं तुमसे गुज़ारिश करूंगा कि जब तक तुम्हारा कुछ ठीक-ठाक इंतज़ाम ना हो जाये, तब तक तुम मेरे घर पर रहोगी। मैं एक भाई की तरह तुम्हारी हिफाज़त करूंगा।“
सरोज खामोश हो गई। उसकी पलकें ज्यादा रोने की वजह से सूज गई थी। उसने कार की खिड़की पर सिर रखकर अपना मुँह छुपा लिया।
“यह डॉक्टर सतीश के कत्ल की क्या कहानी है?” थोड़ी देर बाद सरोज ने पर भर्राई हुई आवाज में कहा।
फ़रीदी ने उसे पूरी कहानी बता दी। वह बड़े गौर से सुनती रही।
“मेरी समझ में नहीं आता कि आखिर यह सब क्या हो रहा है।” सरोज कार की सीट पर टेक लगाती हुई बोली।
“तो क्या तुम डॉक्टर सतीश को अच्छी तरह जानती थी?”
“जी हाँ! वह तकरीबन हर हफ्ते हमारेयहाँ मेहमान रहते थे।”
“क्या दिलबीर से उसकी दोस्ती थी?”
“नहीं, वह दरअसल मेरे शौहर के दोस्त थे।उनकी मौत के बाद बड़े ठाकुर से उनकी गहरी छनने लगी।”
“विमला से वे बे- तकल्लुफ़ थे या नहीं?”
“कतई नहीं!”
“कभी विमला उनके साथ बाहर भी जाती थी या नहीं?”
“कभी नहीं!”
“क्या तुम यह बता सकती हो कि दिलबीर से उनकी दोस्ती क्यों थी?”
“यह बात मेरी समझ में नहीं आई।”
“अच्छा, तुम्हारे शौहर प्रकाश बाबू से उनकी दोस्ती क्यों थी?”
“मेरे पति एक मशहूर वैज्ञानिक थे। आये दिन नये प्रयोग किया करते थे। डॉक्टर सतीश को भी इससे दिलचस्पी थी। मेरा ख़याल है कि दोनों की दोस्ती का कारण यही था।”
“तुम्हारे शौहर किस किस्म के प्रयोग किया करते थे। उनका कोई ना कोई टॉपिक ज़रूर होगा।”
“उन्हें गैसों के प्रयोग का ज्यादा शौक था। इस सिलसिले में भी कई बार बहुत बीमार भी पड़े थे।”
“बीमार कैसे पड़े थे?” फ़रीदी ने दिलचस्पी ज़ाहिर करते हुए कहा।
“एक बार तो बहुत ही अजीबोगरीब बात हो गई थी। प्रकाश बाबू अपनी लैबोरेटरी में किसी गैस का प्रयोग कर रहे थे कि अचानक उन पर हँसी का दौरा पड़ा। मैं उनकी हँसी सुनकर जब उधर जा पहुँची, तो पहले तो मैं समझी कि किसी बात पर हँस रहे होंगे। इसलिए उन्हें हँसते देखकर मैं भी यूं ही हँसने लगी और मैंने उनसे हँसी का सबब पूछा, लेकिन जवाब नदारत। वे बराबर हँसते ही जा रहे थे। थोड़ी देर के बाद उनकी आँखें लाल होने लगी और मुँह से झाग निकलने लगा। दो-तीन मिनट तक ऐसा ही रहा, फिर अचानक से बेहोश होकर गिर गये।”
“अच्छा फिर होश में आने के बाद तुमने इसका सबब उनसे पूछा था?”
“मैंने कई बार मालूम करने की कोशिश की, लेकिन में टालते रहे।”
“उस किस्से को तुम्हारे अलावा कोई और भी जानता था।”
“जी हाँ, भाई ठाकुर भी वहाँ आ गए थे।उस वक्त उनकी आँखें ठीक थी और डॉक्टर सतीश को भी मालूम था। जहाँ तक मेरा अंदाजा है कि इन दोनों और घर के नौकरों के अलावा और किसी को भी इस किसी की खबर नहीं हुई थी।”
“तुम ये दावे के साथ कैसे कह सकती?”
“दावे के साथ तो नहीं कह सकती। अलबत्ता यह मेरा अंदाजा है, क्योंकि प्रकाश बाबू ने इन सब को मना कर दिया था कि वह इसके बारे में किसी से कुछ न कहे।”
“हूं!” फ़रीदी कुछ सोचते हुए, “अच्छा यह बताओ कि तुम्हारे ख़याल में चिड़िया के पंजे वाले उन जूतों को कोई और इस्तेमाल कर सकता है?”
“नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि उस कमरे में, जहाँ वह अजायबघर है, हमेशा ताला लगा रहता है और उस की कुंजियां तो मेरे पास रहती है या ठाकुर साहब के पास।”
“खैर!” फ़रीदी ने खांसते हुए कहा, “मगर भई, तुम्हारे यह ठाकुर साहब बड़े ज़ालिम आदमी मालूम होते हैं।”
“नहीं, ऐसी बात नहीं। मैंने पहली बार उन्हें इस कदर गुस्से में देखा। इन नेकदिली सारे इलाके में मशहूर है। वे भंगियों तक को बेटा कह कर पुकारते हैं। मेरी याददाश्त में उन्होंने कभी किसी से बदतमीजी नहीं की । आज उनकी जुबान से ऐसे अल्फाज़ निकले हैं कि मुझे अपने कानों पर यकीन नहीं आता।”
फ़रीदी कुछ सोच रहा था। उसकी आँखें अपने अंदाज़ में घूम रही थी। अचानक उस में अजीब सी वहशियाना चमक पैदा हो गई।
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