चैप्टर 4 जंगल में लाश : इब्ने सफ़ी का उपन्यास हिंदी में | Chapter 4 Jungle Mein Lash Ibne Safi Novel In Hindi

Chapter 4 Jungle Mein Lash Ibne Safi Novel

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शराबी गीदड़

लाश बरामद होने के बाद से ही धर्मपुर के जंगल में असलहे से लैस पुलिस के एक दस्ते ने अपना पड़ाव डाल दिया था। जिस वक्त इंस्पेक्टर फ़रीदी और सार्जेंट हमीद वहाँ पहुँचे, उन्होंने उन्हें जंगल में गश्त हुए पाया। एक ने उन्हें टोका भी, लेकिन दूसरा शायद उन दोनों को पहचानता था, उसने उन्हें सलाम किया।

“क्यों भाई, कोई ख़ास बात….!” फ़रीदी ने पूछा।

“नहीं हुजूर, अभी तक कोई ऐसी बात नहीं हुई।” कांस्टेबल ने जवाब दिया।

“उस गड्ढे की तरफ कोई दिखाई तो नहीं दिया था?”

“गड्ढा तो कोई मिला ही नहीं।” कांस्टेबल ने घबराकर कहा।

“क्या मतलब…?” फ़रीदी ने उसे कड़ी नजरों से घूरते हुए कहा, “तुम्हें क्या आर्डर दिये गये थे?”

“हुजूर! हमसे एक गड्ढे के बारे में कहा ज़रूर गया था, लेकिन यहाँ पहुँचने पर हमें कोई लाश नहीं दिखाई दी।”

फ़रीदी और हमीद तेजी से झाड़ियों की तरफ बढ़े। वाकई वहाँ गड्ढे का नामोनिशान तक न था। किसी ने गड्ढे को पाट कर जमीन बराबर कर दी थी।

“लीजिए… यह दूसरी रही।” फ़रीदी हाथ मलते हुए गुस्से में बोला। फिर वह दोनों कांस्टेबलों की तरफ मुड़ कर बोला, “ज़रा अपने इंचार्ज को तो बुलाओ।”

दोनों चले गये।

“मुज़रिम गलती पर गलती करते चले जा रहे हैं।” हमीद ने कहा, “भला इसकी क्या ज़रूरत थी?”

‘जी नहीं… वह हमारी गलतियों से फायदा उठा रहे हैं। कल रात हममें से किसी एक को उस वक्त यहाँ मौजूद रहना चाहिए था, जब तक कि पुलिस यहाँ ना पहुँच जाती।” फ़रीदी ने कहा, “जानते हो कि जमीन पाट देने का क्या मतलब है?”

हमीद ने “ना’ में सिर हिलाया।

“मुज़रिम किसी ऐसे निशान को मिटा गये, जिससे सुराग लग जाने का खतरा था।”

“तब तो बहुत बुरा हुआ।” हमीद ने कहा।

थोड़ी देर के बाद पुलिस का इंचार्ज आ गया।

“क्यों साहब! आपको क्या आर्डर दिए गये थे?” फ़रीदी ने उसे घूरते हुए पूछा।

“सर! हम रात से उस गड्ढे को तलाश रहे हैं।”

“चीज ही ऐसी है कि कोई भी धोखा खा जाये।” फ़रीद ने हमीद की तरफ़ मुड़ते हुए कहा, “सरसरी तौर पर देखने से यहाँ मालूम होता है कि इससे पहले यहाँ कोई गड्ढा था ही नहीं। यहाँ पर सूखी घास इस तरह से बिछाई गई है कि अच्छे-अच्छे धोखा खा जायें।”

“इस घास को फैलाते वक्त वे भूल गए थे कि इस तरह तो उनकी उंगलियों के निशान हमें मिल जायेंगे।” हमीद ने कहा।

“हमीद साहब, इतनी जल्दी कुछ ना कहो।” फ़रीदी ने मुस्कुरा कर कहा, “इस बार बहुत ही चालाक आदमी से पाला पड़ा है। अरे मियां, ऐसे मौके पर सड़ा से सड़ा मुज़रिम भी दस्ताने इस्तेमाल करता है।”

“बहरहाल, मुज़रिम की यह दूसरी बेवकूफी उसके सुराग के लिए काफी होगी। वह अगर काफ़ी न भी हो, तो भी कोई ना कोई बात जरूर मालूम हो जायेगी।” सभी तो चुप कर देखते हुए कहा।

“सबसे पहले यह सोचना चाहिए कि लाश का पता लग जाने के बाद गड्ढे को पाटने की क्या ज़रूरत हो सकती है।” फ़रीदी ने सिगार का धुआं छल्लो की शक्ल में निकालते हुए कहा, “हो सकता है कि गड्ढे में कोई चीज रह गई हो, जिससे मुज़रिम का सुराग मिल सके।”

“लेकिन ऐसी सूरत में भी गड्ढे को पाटने की खास वजह समझ में नहीं आती। यह काम पुलिस के पहुँच जाने के बाद नामुमकिन हो जायेगा। मेरे ख़याल से हम लोगों के चले जाने के बाद ही हरकत की गई है। अगर ऐसा है तो इसका मतलब है कि वे हमारी निगरानी कर रहे हैं।”

 “जी हाँ! हम लोगों के आने से पहले ही यह सब कुछ किया गया। वरना हम लोग तो…!”

“जी हाँ… वरना आप लोग तो काफी मुस्तैद रहे।” फ़रीदी ने इंचार्ज की बात काटते हुए तंजिया लहजे में कहा, “अच्छा अब उसे दोबारा खोदने का इंतज़ाम करना चाहिए।”

इंचार्ज ने तीन-चार कांस्टेबलों को बुलाकर गड्ढा खोदने के लिए कहा, लेकिन इन लोगों के पास कोई ऐसी चीज न थी, जिससे जमीन खोदी जा सकती। आखिरकार, यह तय हुआ कि लक्ष्मणपुर से कुछ मजदूर बुला लिया जाये।

“क्या उसे खोदने के लिए आप लोगों की संगीने काफ़ी नहीं?” हमीद ने कहा।

“कभी-कभी मामूली बातें भी देर से सूझती है।” इंचार्ज ने खिसियानी हँसी हँसते हुए कहा।

कांस्टेबलों ने अपनी संगीनों से जमीन खोदनी शुरू कर दी। थोड़ी देर बाद एक कांस्टेबल की संगीन किसी चीज़ से टकराई।

“ठहरो….. ठहरो….!” फ़रीदी झुकते हुए चीखा।

उसे दोनों हाथों से जल्दी-जल्दी मिट्टी हटानी शुरू कर दी।

“यह लीजिए… कोई और नई मुसीबत…!” फ़रीदी ने गड्ढे में से एक भारी थैला बाहर खींचते हुए कहा

“अरे यह क्या…!” सबने एक साथ कहा।

फ़रीदी ने रस्सी से बने थैले का मुँह खोलकर उसे जमीन पर उलट दिया।

थैले में एक गीदड़ की लाश थी, जिसके मुंह में तंबाकू पीने का पाइप दबा हुआ था। उसके साथ शराब की दो खाली बोलते भी बरामद हुई जिनमें से एक संगीन लगने से टूट गई थी। गीदड़ के सीने से एक कागज बंधा हुआ था, जिस पर गालिब का एक शेर लिखा था :

काबे किस मुँह से जाओगे ग़ालिब

सब तुमको मगर नहीं आती।

फ़रीदी पर हँसी का दौरा पड़ गया। बाकी लोग हैरत से कभी उसे देखते और कभी गीदड़ की लाश को। फ़रीदी बराबर हँसे जा रहा था। धीरे-धीरे उसकी हँसी इतनी भयानक मालूम होने लगी कि कई कमजोर दिल वाले कांस्टेबल वहाँ से चुपके से खिसक गये। फ़रीदी हँसे ही चला जा रहा था। इतना हँसा, इतना हँसा कि आखिरकार चकरा कर गिर पड़ा।

हमीद और इंचार्ज दौड़ कर उसके करीब पहुँचे। वह बेहोश हो चुका था।

“अरे, यह क्या मामला है?” इंचार्ज ने घबराहट में कहा।

“न जाने क्या बात है। मैं कुछ चक्कर में हूँ।” हमीद ने फ़रीदी को झंझोड़ते हुए कहा। लेकिन फ़रीदी के चेहरे पर होश के कोई आसार पैदा ना हुये।

“अब क्या किया जाये।” हमीद ने इंचार्ज की तरफ देख कर कहा।

“हमीद साहब! अब तो मेरा भी यही ख़याल है, यह ज़रूर कोई शैतानी कारखाना है।” इंचार्ज ने कांपते हुए कहा, “गीदड़ की लाश का क्या मतलब और फिर उसके साथ शराब की बोतलें और मुँह में दबा हुआ पाइप और वह शेर… ऐसी अजीब बातें आज तक देखने में नहीं आई।”

“बहुत अच्छे” फ़रीदी उसकी तरफ़ तारीफ़ी की नजरों से देखते बोला, “मगर हैरत है कि मुज़रिम इतना होशियार होने के बावजूद यहाँ कैसे चूक गया। ज़रा जल्दी से वह कागज खोलो।”

गीदड़ की लाश से वह कागज खोलकर हमीद पलटा, तो उसका मुँह बुरी तरह लटका हुआ था।

“इस पर तो मैंने ध्यान ही नहीं दिया।” उसने कहा।

“क्या….”

“यह शेर  किसी किताब से काटकर कागज पर चिपका दिया गया है।”

“यही तो मैंने कहा कि इतने चालाक आदमी ने भला ऐसी बेवकूफी कैसे की?” फ़रीदी ने कहा, “हमीद साहब इस बार एक अच्छा के साथ आया है।“

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