Chapter 24 Nirmala Munshi Premchand Novel
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Chapter 1 | 2| 3| 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25
दिन गुजरने लगे. एक महीना पूरा निकल गया, लेकिन मुंशीजी न लौटे. कोई खत भी न भेजा. निर्मला को अब नित्य यही चिंता बनी रहती कि वह लौटकर न आये तो क्या होगा? उसे इसकी चिंता न होती थी कि उन पर क्या बीत रही होगी, वह कहाँ मारे-मारे फिरते होंगे, स्वास्थ्य कैसा होगा? उसे केवल अपनी और उससे भी बढ़कर बच्ची की चिंता थी. गृहस्थी का निर्वाह कैसे होगा? ईश्वर कैसे बेड़ा पार लगायेंगे? बच्ची का क्या हाल होगा? उसने कतर-व्योंत करके जो रुपये जमा कर रखे थे, उसमें कुछ-न-कुछ रोज ही कमी होती जाती थी. निर्मला को उसमें से एक-एक पैसा निकालते इतनी अखर होती थी, मानो कोई उसकी देह से रक्त निकाल रहा हो. झुंझलाकर मुंशीजी को कोसती. लड़की किसी चीज के लिए रोती, तो उसे अभागिन, कलमुंही कहकर झल्लाती. यही नहीं, रुक्मणी का घर में रहना उसे ऐसा जान पड़ता था, मानो वह गर्दन पर सवार है. जब हृदय जलता है, तो वाणी भी अग्निमय हो जाती है. निर्मला बड़ी मधुर-भाषिणी स्त्री थी, पर अब उसकी गणना कर्कशाओ में की जा सकती थी. दिन भर उसके मुख से जली-कटी बातें निकला करती थीं. उसके शब्दों की कोमलता न जाने क्या हो गई! भावों में माधुर्य का कहीं नाम नहीं. भूंगी बहुत दिनों से इस घर मे नौकर थी. स्वभाव की सहनशील थी, पर यह आठों पहर की बकबक उससे भी न सकी गई. एक दिन उसने भी घर की राह ली. यहाँ तक कि जिस बच्ची को प्राणों से भी अधिक प्यार करती थी, उसकी सूरत से भी घृणा हो गई. बात-बात पर घुड़क पड़ती, कभी-कभी मार बैठती. रुक्मणी रोई हुई बालिका को गोद में बैठा लेती और चुमकार-दुलार कर चुप करातीं. उस अनाथ के लिए अब यही एक आश्रय रह गया था.
निर्मला को अब अगर कुछ अच्छा लगता था, तो वह सुधा से बात करना था. वह वहाँ जाने का अवसर खोजती रहती थी. बच्ची को अब वह अपने साथ न ले जाना चाहती थी. पहले जब बच्ची को अपने घर सभी चीजें खाने को मिलती थीं, तो वह वहाँ जाकर हँसती-खेलती थी. अब वहीं जाकर उसे भूख लगती थी. निर्मला उसे घूर-घूरकर देखती, मुटिठयाँ-बांधकर धमकाती, पर लड़की भूख की रट लगाना न छोड़ती थी. इसलिए निर्मला उसे साथ न ले जाती थी. सुधा के पास बैठकर उसे मालूम होता था कि मैं आदमी हूँ. उतनी देर के लिए वह चिंताओं से मुक्त हो जाती थी. जैसे शराबी शराब के नशे में सारी चिंताएं भूल जाता है, उसी तरह निर्मला सुधा के घर जाकर सारी बातें भूल जाती थी. जिसने उसे उसके घर पर देखा हो, वह उसे यहाँ देखकर चकित रह जाता. वहीं कर्कशा, कटु-भाषिणी स्त्री यहाँ आकर हास्यविनोद और माधुर्य की पुतली बन जाती थी. यौवन-काल की स्वाभाविक वृत्तियाँ अपने घर पर रास्ता बंद पाकर यहाँ किलोलें करने लगती थीं. यहाँ आते वक्त वह मांग-चोटी, कपड़े-लत्ते से लैस होकर आती और यथासाध्य अपनी विपत्ति कथा को मन ही में रखती थी. वह यहाँ रोने के लिए नहीं, हँसने के लिए आती थी.
पर कदाचित् उसके भाग्य में यह सुख भी नहीं बदा था. निर्मला मामली तौर से दोपहर को या तीसरे पहर से सुधा के घर जाया करती थी. एक दिन उसका जी इतना ऊबा कि सबेरे ही जा पहुँची. सुधा नदी स्नान करने गई थी, डॉक्टर साहब अस्पताल जाने के लिए कपड़े पहन रहे थे. महरी अपने काम-धंधे में लगी हुई थी. निर्मला अपनी सहेली के कमरे में जाकर निश्चिंत बैठ गई. उसने समझा-सुधा कोई काम कर रही होगी, अभी आती होगी. जब बैठे दो-तीन मिनट गुजर गये, तो उसने अलमारी से तस्वीरों की एक किताब उतार ली और केश खोल पलंग पर लेटकर चित्र देखने लगी. इसी बीच में डॉक्टर साहब को किसी ज़रूरत से निर्मला के कमरे में आना पड़ा. अपनी ऐनक ढूंढते फिरते थे. बेधड़क अंदर चले आये. निर्मला द्वार की ओर केश खोले लेटी हुई थी. डॉक्टर साहब को देखते ही चौंककार उठ बैठी और सिर ढांकती हुई चारपाई से उतकर खड़ी हो गई. डॉक्टर साहब ने लौटते हुए चिक के पास खड़े होकर कहा – “क्षमा करना निर्मला, मुझे मालूम न था कि यहाँ हो! मेरी ऐनक मेरे कमरे में नहीं मिल रही है, न जाने कहाँ उतार कर रख दी थी. मैंने समझा शायद यहाँ हो.”
निर्मला सने चारपाई के सिरहाने आले पर निगाह डाली, तो ऐनक की डिबिया दिखाई दी. उसने आगे बढ़कर डिबिया उतार ली, और सिर झुकाये, देह समेटे, संकोच से डॉक्टर साहब की ओर हाथ बढ़ाया. डॉक्टर साबह ने निर्मला को दो-एक बार पहले भी देखा था, पर इस समय के-से भाव कभी उसके मन में न आये थे. जिस ज्वाला को वह बरसों से हृदय में दवाये हुए थे, वह आज पवन का झोंका पाकर दहक उठी. उन्होंने ऐनक लेने के लिए हाथ बढ़ाया, तो हाथ कांप रहा था. ऐनक लेकर भी वह बाहर न गये, वहीं खोए हुए से खड़े रहे. निर्मला ने इस एकांत से भयभीत होकर पूछा – “सुधा कहीं गई है क्या?”
डॉक्टर साहब ने सिर झुकाये हुए जवाब दिया – “हाँ, ज़रा स्नान करने चली गई हैं.फिर भी डॉक्टर साहब बाहर न गये. वहीं खड़े रहे. निर्मला ने फ़िक्र पूछा – “कब तक आयेंगी?”
डॉक्टर साहब ने सिर झुकाये हुए कहा – “आती होंगीं.”
फिर भी वह बाहर नहीं आये. उनके मन में घोर द्वन्द्व मचा हुआ था. औचित्य का बंधन नहीं, भीरुता का कच्चा तागा उनकी ज़बान को रोके हुए था. निर्मला ने फिर कहा – “कहीं घूमने-घामने लगी होंगी. मैं भी इस वक्त जाती हूँ.”
भीरुता का कच्चा तागा भी टूट गया. नदी के कगार पर पहुँचकर भागती हुई सेना में अद्भुत शक्ति आ जाती है. डॉक्टर साहब ने सिर उठाकर निर्मला को देखा और अनुराग में डूबे हुए स्वर में बोले – “नहीं, निर्मला, अब आती ही होंगी. अभी न जाओ. रोज सुधा की खातिर से बैठती हो, आज मेरी खातिर से बैठो. बताओ, कब तक इस आग में जला करूं? सत्य कहता हूँ निर्मला…”
निर्मला ने कुछ और नहीं सुना. उसे ऐसा जान पड़ा मानो सारी पृथ्वी चक्कर खा रही है. मानो उसके प्राणों पर सहस्रों वज्रों का आघात हो रहा है. उसने जल्दी से अलगनी पर लटकी हुई चादर उतार ली और बिना मुँह से एक शब्द निकाले कमरे से निकल गई. डॉक्टर साहब खिसियाये हुए-से रोना मुँह बनाये खड़े रहे! उसको रोकने की या कुछ कहने की हिम्मत न पड़ी.
निर्मला ज्योंही द्वार पर पहुँची, उसने सुधा को तांगे से उतरते देखा. सुधा को निर्मला ने उसे अवसर न दिया, तीर की तरह झपटकर चली. सुधा एक क्षण तक विस्मेय की दशा में खड़ी रहीं. बात क्या है, उसकी समझ में कुछ न आ सका. वह व्यग्र हो उठी. जल्दी से अंदर गई महरी से पूछने कि क्या बात हुई है. वह अपराधी का पता लगायेगी और अगर उसे मालूम हुआ कि महरी या और किसी नौकर से उसे कोई अपमान-सूचक बात कह दी है, तो वह खड़े-खड़े निकाल देगी. लपकी हुई वह अपने कमरे में गई. अंदर कदम रखते ही डॉक्टर को मुँह लटकाये चारपाई पर बैठे देख पूछा – “निर्मला यहाँ आई थी?”
डॉक्टर साहब ने सिर खुजलाते हुए कहा – “हाँ, आई तो थी.”
सुधा – “किसी महरी-अहरी ने उन्हें कुछ कहा तो नहीं? मुझसे बोली तक नहीं, झपटकर निकल गई.”
डॉक्टर साहब की मुख-कांति मलिन हो गई, कहा – “यहाँ तो उन्हें किसी ने भी कुछ नहीं कहा.”
सुधा – “किसी ने कुछ कहा है. देखो, मैं पूछती हूँ न, ईश्वर जानता है, पता पा जाऊंगी, तो खड़े-खड़े निकाल दूंगी.”
डॉक्टर साहब सिटपिटाते हुए बोले – “मैंने तो किसी को कुछ कहते नहीं सुना. तुम्हें उन्होंने देखा न होगा.”
सुधा – “वाह, देखा ही न होगा! उसके सामने तो मैं तांगे से उतरी हूँ. उन्होंने मेरी ओर ताका भी, पर बोलीं कुछ नहीं. इस कमरे में आई थी?”
डॉक्टर साहब के प्राण सूखे जा रहे थे. हिचकिचाते हुए बोले – “आई क्यों नहीं थी?”
सुधा – “तुम्हें यहाँ बैठे देखकर चली गई होंगी. बस, किसी महरी ने कुछ कह दिया होगा. नीच जात हैं न, किसी को बात करने की तमीज तो है नहीं. अरे, ओ सुंदरिया, ज़रा यहाँ तो आ!”
डॉक्टर – “उसे क्यों बुलाती हो, वह यहाँ से सीधे दरवाजे की तरफ गईं. महरियों से बात तक नहीं हुई.”
सुधा – “तो फिर तुम्हीं ने कुछ कह दिया होगा.”
डॉक्टर साहब का कलेजा धक्-धक् करने लगा. बोले – “मैं भला क्या कह देता क्या ऐसा गंवाह हूँ?’
सुधा – “तुमने उन्हें आते देखा, तब भी बैठे रह गये?”
डॉक्टर – “मैं यहाँ था ही नहीं. बाहर बैठक में अपनी ऐनक ढूंढ़ता रहा, जब वहाँ न मिली, तो मैंने सोचा, शायद अंदर हो. यहाँ आया, तो उन्हें बैठे देखा. मैं बाहर जाना चाहता था कि उन्होंने खुद पूछा – किसी चीज की ज़रूरत है? मैंने कहा – ज़रा देखना, यहाँ मेरी ऐनक तो नहीं है. ऐनक इसी सिरहाने वाले ताक पर थी. उन्होंने उठाकर दे दी. बस इतनी ही बात हुई.”
सुधा – “बस, तुम्हें ऐनक देते ही वह झल्लाई बाहर चली गई? क्यों?”
डॉक्टर – “झल्लाई हुई तो नहीं चली गई. जाने लगीं, तो मैंने कहा- बैठिए वह आती होंगी. न बैठीं, तो मैं क्या करता?”
सुधा ने कुछ सोचकर कहा – “बात कुछ समझ में नहीं आती, मैं ज़रा उसके पास जाती हूँ. देखूं, क्या बात है?”
डॉक्टर – “तो चली जाना ऐसी जल्दी क्या है? सारा दिन तो पड़ा हुआ है.”
सुधा ने चादर ओढ़ते हुऐ कहा – “मेरे पेट में खलबली मची हुई है, कहते हो जल्दी है?”
सुधा तेजी से कदम बढ़ती हुई निर्मला के घर की ओर चली और पाँच मिनट में जा पहुँची? देखा तो निर्मला अपने कमरे में चारपाई पर पड़ी रो रही थी और बच्ची उसके पास खड़ी रही थी – “अम्मा, क्यों लोती हो?”
सुधा ने लड़की को गोद मे उठा लिया और निर्मला से बोली – “बहिन, सच बताओ, क्या बात है? मेरे यहाँ किसी ने तुम्हें कुछ कहा है? मैं सबसे पूछ चुकी, कोई नहीं बतलाता.”
निर्मला आँसू पोंछती हुई बोली – “किसी ने कुछ कहा नहीं बहिन, भला वहाँ मुझे कौन कुछ कहता?”
सुधा – “तो फिर मुझसे बोली क्यों नहीं ओर आते-ही-आते रोने लगीं?”
निर्मला – “अपने नसीबों को रो रही हूँ, और क्या?”
सुधा – “तुम यों न बतलाओगी, तो मैं कसम दूंगी.”
निर्मला – “कसम-कसम न रखाना भाई, मुझे किसी ने कुछ नहीं कहा, झूठ किसे लगा दूं?”
सुधा – “खाओ मेरी कसम.”
निर्मला – “तुम तो नाहक ही जिद करती हो.”
सुधा – “अगर तुमने न बताया निर्मला, तो मैं समझूंगी, तुम्हें ज़रा भी प्रेम नहीं है. बस, सब ज़बानी जमा-खर्च है. मैं तुमसे किसी बात का पर्दा नहीं रखती और तुम मुझे गैर समझती हो. तुम्हारे ऊपर मुझे बड़ा भरोसा था, अब जान गई कि कोई किसी का नहीं होता.”
सुधा कीं आँखें सजल हो गई. उसने बच्ची को गोद से उतार लिया और द्वार की ओर चली. निर्मला ने उठाकर उसका हाथ पकड़ लिया और रोती हुई बोली – “सुधा, मैं तुम्हारे पैर पड़ती हूँ, मत पूछो. सुनकर दु:ख होगा और शायद मैं फिर तुम्हें अपना मुँह न दिखा सकूं. मैं अभगिनी न होती, तो यह दिन ही क्यों देखती? अब तो ईश्वर से यही प्रार्थना है कि संसार से मुझे उठा ले. अभी यह दुर्गति हो रही है, तो आगे न जाने क्या होगा?”
इन शब्दों में जो संकेत था, वह बुद्धिमती सुधा से छिपा न रह सका. वह समझ गई कि डॉक्टर साहब ने कुछ छेड़-छाड़ की है. उनका हिचक-हिचककर बातें करना और उसके प्रश्नों को टालना, उनकी वह ग्लानिमय, कांतिहीन मुद्रा उसे याद आ गई. वह सिर से पांव तक कांप उठी और बिना कुछ कहे-सुने सिंहनी की भांति क्रोध से भरी हुई द्वार की ओर चली. निर्मला ने उसे रोकना चाहा, पर न पा सकी. देखते-देखते वह सड़क पर आ गई और घर की ओर चली. तब निर्मला वहीं भूमि पर बैठ गई और फूट-फूटकर रोने लगी.
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