चैप्टर 11 – निर्मला : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 11 Nirmala Novel By Munshi Premchand In Hindi Read Online

Chapter 11 Nirmala Munshi Premchand Novel

Chapter 11 Nirmala Novel By Munshi Premchand In Hindi Read Online

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मुंशी तोताराम संध्या समय कचहरी से घर पहुँचे, तो निर्मला ने पूछा – “उन्हें देखा, क्या हाल है?”

मुंशीजी ने देखा कि निर्मला के मुख पर नाममात्र को भी शोक याचिनता का चिन्ह नहीं है. उसका बनाव-सिंगार और दिनों से भी कुछ गाढ़ा हुआ है. मसलन वह गले का हार न पहनती थी, पर आजा वह भी गले मे शोभ दे रहा था. झूमर से भी उसे बहुत प्रेम था, वह आज वह भी महीन रेशमी साड़ी के नीचे, काले-काले केशों के ऊपर, फानुस के दीपक की भांति चमक रहा था.

मुंशीजी ने मुँह फेरकर कहा – “बीमार है और क्या हाल बताऊं?”

निर्मला – “तुम तो उन्हें यहाँ लाने गये थे?”

मुंशीजी ने झुंझलाकर कहा – “वह नहीं आता, तो क्या मैं ज़बरदस्ती उठा लाता? कितना समझाया कि बेटा घर चलो, वहाँ तुम्हें कोई तकलीफ़ न होने पावेगी, लेकिन घर का नाम सुनकर उसे जैसे दूना ज्वर हो जाता था. कहने लगा – “मैं यहाँ मर जाऊंगा, लेकिन घर न जाऊंगा. आखिर मजबूर होकर अस्पताल पहुँचा आया और क्या करता?”

रुक्मणी भी आकर बरामदे में खड़ी हो गई थी. बोलीं – “वह जन्म का हठी है, यहाँ किसी तरह न आयेगा और यह भी देख लेना, वहाँ अच्छा भी न होगा?”

मुंशीजी ने कातर स्वर में कहा – “तुम दो-चार दिन के लिए वहाँ चली जाओ, तो बड़ा अच्छा हो बहन, तुम्हारे रहने से उसे तस्कीन होती रहेगी. मेरी बहन, मेरी यह विनय मान लो. अकेले वह रो-रोकर प्राण दे देगा. बस हाय अम्मा! हाय अम्मा! की रट लगाकर रोया करता है. मैं वहीं जा रहा हूँ, मेरे साथ ही चलो. उसकी दशा अच्छी नहीं. बहन, वह सूरत ही नहीं रही. देखें ईश्वर क्या करते हैं?”

यह कहते-कहते मुंशीजी की आँखों से आँसू बहने लगे, लेकिन रुक्मणी अविचलित भाव से बोली – “मैं जाने को तैयार हूँ. मेरे वहाँ रहने से अगर मेरे लाल के प्राण बच जायें, तो मैं सिर के बल दौड़ी जाऊं, लेकिन मेरा कहना गिरह में बांध लो भैया, वहाँ वह अच्छा न होगा. मैं उसे खूब पहचानती हूँ. उसे कोई बीमारी नहीं है, केवल घर से निकाले जाने का शोक है. यही दु:ख ज्वर के रुप में प्रकट हुआ है. तुम एक नहीं, लाख दवा करो, सिविल सर्जन को ही क्यों न दिखाओ, उसे कोई दवा असर न करेगी.”

मुंशीजी – “बहन, उसे घर से निकाला किसने है? मैंने तो केवल उसकी पढ़ाई के ख़याल से उसे वहाँ भेजा था.”

रुक्मणी – “तुमने चाहे जिस ख़याल से भेजा हो, लेकिन यह बात उसे लग गयी. मैं तो अब किसी गिनती में नहीं हूँ, मुझे किसी बात में बोलने का कोई अधिकार नहीं. मालिक तुम, मालकिन तुम्हारी स्त्री. मैं तो केवल तुम्हारी रोटियों पर पड़ी हुई अभगिनी विधवा हूँ. मेरी कौन सुनेगा और कौन परवाह करेगा? लेकिन बिना बोले रही नहीं जाता. मंसा तभी अच्छा होगा, जब घर आयेगा, जब तुम्हारा हृदय वही हो जायेगा, जो पहले था.”

यह कहकर रुक्मणी वहाँ से चली गयीं, उनकी ज्योतिहीन, पर अनुभवपूर्ण आँखों के सामने जो चरित्र हो रहे थे, उनका रहस्य वह खूब समझती थीं और उनका सारा क्रोध निरपराधिनी निर्मला ही पर उतरता था. इस समय भी वह कहते-कहते रुग गयीं, कि जब तक यह लक्ष्मी इस घर में रहेंगी, इस घर की दशा बिगड़ती हो जायेगी. उसको प्रगट रुप से न कहने पर भी उसका आशय मुंशीजी से छिपा नहीं रहा. उनके चले जाने पर मुंशीजी ने सिर झुका लिया और सोचने लगे. उन्हें अपने ऊपर इस समय इतना क्रोध आ रहा था कि दीवार से सिर पटककर प्राणों का अंत कर दें. उन्होंने क्यों विवाह किया था? विवाह करने की क्या ज़रुरत थी? ईश्वर ने उन्हें एक नहीं, तीन-तीन पुत्र दिये थे? उनकी अवस्था भी पचास के लगभग पहुँच गयी थी फिर उन्होंने क्यों विवाह किया? क्या इसी बहाने ईश्वर को उनका सर्वनाश करना मंज़ूर था? उन्होंने सिर उठाकर एक बार निर्मला को सहास, पर निश्चल मूर्ति देखी और अस्पताल चले गये. निर्मला की सहास, छवि ने उनका चित्त शांत कर दिया था. आज कई दिनों के बाद उन्हें शांति मयसर हुई थी. प्रेम-पीड़ित हृदय इस दशा में क्या इतना शांत और अविचलित रह सकता है? नहीं, कभी नहीं. हृदय की चोट भाव-कौशल से नहीं छिपाई जा सकती. अपने चित्त की दुर्बलता पर इस समय उन्हें अत्यंत क्षोभ हुआ. उन्होंने अकारण ही संदेह को हृदय में स्थान देकर इतना अनर्थ किया. मंसाराम की ओर से भी उनका मन नि:शंक हो गया. हाँ उसकी जगह अब एक नई शंका उत्पन्न हो गयी. क्या मंसाराम भांप तो नहीं गया? क्या भांपकर ही तो घर आने से इंकार नहीं कर रहा है? अगर वह भांप गया है, तो महान् अनर्थ हो जायेगा. उसकी कल्पना ही से उनका मन दहल उठा. उनकी देह की सारी हड्डियाँ मानो इस हाहाकार पर पानी डालने के लिए व्याकुल हो उठीं. उन्होंने कोचवान से घोड़े को तेज चलाने को कहा. आज कई दिनों के बाद उनके हृदय मंडल पर छाया हुआ सघन फट गया था और प्रकाश की लहरें अंदर से निकलने के लिए व्यग्र हो रही थीं. उन्होंने बाहर सिर निकाल कर देखा, कोचवान सो तो नहीं रहा हैं. घोड़े की चाल उन्हें इतनी मंद  कभी न मालूम हुई थी.

अस्पताल पहुँचकर वह लपके हुए मंसाराम के पास गये. देखा तो डॉक्टर साहब उसके सामने चिंता में मग्न खड़े थे. मुंशीजी के हाथ-पांव फूल गये. मुँह से शब्द न निकल सका. भरभराई हुई आवाज में बड़ी मुश्किल से बोले – “क्या हाल है, डॉक्टर साहब? यह कहते-कहते वह रो पड़े और जब डॉक्टर साहब को उनके प्रश्न का उत्तर देने में एक क्षण का विलंब हुआ, तब तो उनके प्राण नहों में समा गये. उन्होंने पलंग पर बैठकर अचेत बालक को गोद में उठा लिया और बालक की भांति सिसक-सिसककर रोने लगे. मंसाराम की देह तवे की तरह जल रही थी. मंसाराम ने एक बार आँखें खोलीं. आह, कितनी भयंकर और उसके साथ ही कितनी दी दृष्टि थी. मुंशीजी ने बालक को कण्ठ से लगाकर

डॉक्टर से पूछा – “क्या हाल है, साहब! आप चुप क्यों हैं?”

डॉक्टर ने संदिग्ध स्वर से कहा – “हाल जो कुछ है, वह आपे देख ही रहे हैं. 106 डिग्री का ज्वर है और मैं क्या बताऊं? अभी ज्वर का प्रकोप बढ़ता ही जाता है. मेरे किये जो कुछ हो सकता है, कर रहा हूँ. ईश्वर मालिक है. जबसे आप गये हैं, मैं एक मिनट के लिए भी यहाँ से नहीं हिला. भोजन तक नहीं कर सका. हालत इतनी नाज़ुक है कि एक मिनट में क्या हो जायेगा, नहीं कहा जा सकता? यह महाज्वर है, बिलकुल होश नहीं है. रह-रहकर ‘डिलीरियम’ का दौरा-सा हो जाता है. क्या घर में इन्हें किसी ने कुछ कहा है! बार-बार, अम्माजी, तुम कहाँ हो! यही आवाज मुँह से निकली है.

डॉक्टर साहब यह कह ही रहे थे कि सहसा मंसाराम उठकर बैठ गया और धक्के से मुंशीज को चारपाई के नीचे ढकेलकर उन्मत्त स्वर से बोला – “क्यों धमकाते हैं, आप! मार डालिए, मार डालिए, अभी मार डालिए. तलवार नहीं मिलती! रस्सी का फंदा है या वह भी नहीं. मैं अपने गले में लगा लूंगा. हाय अम्मजी, तुम कहाँ हो?” यह कहते-कहते वह फिर अचेते होकर गिर पड़ा.

मुंशीजी एक क्षण तक मंसाराम की शिथिल मुद्रा की ओर व्यथित नेत्रों से ताकते रहे, फिर सहसा उन्होंने डॉक्टर साहब का हाथ पकड़ लिया और अत्यंत दीनतापूर्ण आग्रह से बोले – “डॉक्टर साहब, इस लड़के को बचा लीजिए, ईश्वर के लिए बचा लीजिए, नहीं मेरा सर्वनाश हो जायेगा. मैं अमीर नहीं हूँ, लेकिन आप जो कुछ कहेंगे, वह हाज़िर करुंगा, इसे बचा लीजिए. आप बड़े-से-बड़े डॉक्टर को बुलाइए और उनकी राय लीजिए, मैं सब खर्च दूंगा. इसकी स्थिति अब नहीं देखी जाती. हाय, मेरा होनहार बेटा!”

डॉक्टर साहब ने करुण स्वर में कहा – “बाबू साहब, मैं आपसे सत्य कह रहा हूँ कि मैं इनके लिए अपनी तरफ से कोई बात उठा नहीं रख रहा हूँ. अब आप दूसरे डॉक्टरों से सलाह लेने को कहते हैं. अभी डॉक्टर लाहिरी, डॉक्टर भाटिया और डॉक्टर माथुर को बुलाता हूँ. विनायक शास्त्री को भी बुलाये लेता हूँ, लेकिन मैं आपको व्यर्थ का आश्वासन नहीं देना चाहता, हालत नाज़ुक है.”

मुंशीजी ने रोते हुए कहा – “नहीं, डॉक्टर साहब, यह शब्द मुँह से न निकालिए. हाल इसके दुश्मनों की नाज़ुक हो. ईश्वर मुझ पर इतना कोप न करेंगे. आप कलकत्ता और बंबई के डॉक्टरों को तार दीजिए, मैं ज़िन्दगी भर आपकी गुलामी करुंगा. यही मेरे कुल का दीपक है. यही मेरे जीवन का आधार है. मेरा हृदय फटा जा रहा है. कोई ऐसी दवा दीजिए, जिससे इसे होश आ जाये. मैं जरा अपने कानों से उसकी बाते सुनूं जानूं कि उसे क्या कष्ट हो रहा है? हाय, मेरा बच्चा!”

डॉक्टर – “आप जरा दिल को तस्कीन दीजिए. आप बुजुर्ग आदमी हैं, यों हाय-हाय करने और डॉक्टरों की फौज जमा करने से कोई नतीजा न निकलेगा. शांत होकर बैठिए, मैं शहर के लोगों को बुला रहा हूँ, देखिए क्या कहते हैं? आप तो खुद ही बदहवास हुए जाते हैं.”

मुंशीजी – “अच्छा, डॉक्टर साहब! मैं अब न बोलूंग, जबान तब तक न खोलूंगा, आप जो चाहे करें, बच्चा अब हाथ में है. आप ही उसकी रक्षा कर सकते हैं. मैं इतना ही चाहता हूँ कि ज़रा इसे होश आ जाये, मुझे पहचान ले, मेरी बातें समझने लगे. क्या कोई ऐसी संजीवनी बूटी नहीं? मैं इससे दो-चार बातें कर लेता.” यह कहते-कहते मुंशीजी आवेश में आकर मंसाराम से बोले – “बेटा, ज़रा आँखें खोलो, कैसा जी है? मैं तुम्हारे पास बैठा रो रहा हूँ, मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है, मेरा दिल तुम्हारी ओर से साफ है.”

डॉक्टर – “फिर आपने अनर्गल बातें करनी शुरु कीं. अरे साहब, आप बच्चे नहीं हैं, बुजुर्ग है, ज़रा धैर्य से काम लीजिए.”

मुंशीजी – “अच्छा, डॉक्टर साहब, अब न बोलूंगा, ख़ता हुई. आप जो चाहें कीजिए. मैंने सब कुछ आप पर छोड़ दिया. कोई ऐसा उपाय नहीं, जिससे मैं इसे इतना समझा सकूं कि मेरा दिल साफ है? आप ही कह दीजिए डॉक्टर साहब, कह दीजिए, तुम्हारा अभागा पिता बैठा रो रहा है. उसका दिल तुम्हारी तरफ से बिलकुल साफ है. उसे कुछ भ्रम हुआ था. वब अब दूर हो गया. बस, इतना ही कर दीजिए. मैं और कुछ नहीं चाहता. मैं चुपचाप बैठा हूँ. ज़बान को नहीं खोलता, लेकिन आप इतना ज़रुर कह दीजिए.”

डॉक्टर – “ईश्वर के लिए बाबू साहब, ज़रा सब्र कीजिए, वरना मुझे मजबूर होकर आपसे कहना पड़ेगा कि घर जाइए. मैं ज़रा दफ्तर में जाकर डॉक्टरों को खत लिख रहा हूँ. आप चुपचाप बैठे रहिएगा.”

निर्दयी डॉक्टर! जवान बेटे की यहा दशा देखकर कौन पिता है, जो धैर्य से काम लेगा? मुंशीजी बहुत गंभीर स्वभाव के मनुष्य थे. यह भी जानते थे कि इस वक्त हाय-हाय मचाने से कोई नतीजा नहीं, लेकिन फिरी भी इस समय शांत बैठना उनके लिए असंभव था. अगर दैव-गति से यह बीमारी होती, तो वह शांत हो सकते थे, दूसरों को समझा सकते थे, खुद डॉक्टरों का बुला सकते थे, लेकिन क्या यह जानकर भी धैर्य रख सकते थे कि यह सब आग मेरी ही लगाई हुई है? कोई पिता इतना वज्र-हृदय हो सकता है? उनका रोम-रोम इस समय उन्हें धिक्कार रहा था. उन्होंने सोचा, मुझे यह दुर्भावना उत्पन्न ही क्यों हुई? मैंने क्यों बिना किसी प्रत्यक्ष प्रमाण के ऐसी भीषण कल्पना कर डाली? अच्छा मुझे उसकी दशा में क्या करना चाहिए था. जो कुछ उन्होंने किया उसके सिवा वह और क्या करते, इसका वह निश्चय न कर सके. वास्तव में विवाह के बंधन में पड़ना ही अपने पैरों में कुल्हाड़ी माराना था. हाँ, यही सारे उपद्रव की जड़ है.

मगर मैंने यह कोई अनोखी बात नहीं की. सभी स्त्री-पुरुष का विवाह करते हैं. उनका जीवन आनंद से कटता है. आनंद की इच्छा से ही तो हम विवाह करते हैं. मुहल्ले में सैकड़ों आदमियों ने दूसरी, तीसरी, चौथी यहाँ तक कि सातवीं शदियां की हैं और मुझसे भी कहीं अधिक अवस्था में. वह जब तक जिये आराम ही से जिये. यह भी नहीं हआ कि सभी स्त्री से पहले मर गये हों. दुहाज-तिहाज होने पर भी कितने ही फिर रंडुए हो गये. अगर मेरी-जैसी दशा सबकी होती, तो विवाह का नाम ही कौन लेता? मेरे पिताजी ने पचपनवें वर्ष में विवाह किया था और मेरे जन्म के समय उनकी अवस्था साठ से कम न थी हाँ, इतनी बात ज़रुर है कि तब और अब में कुछ अंतर हो गया है. पहले स्त्रियाँ पढ़ी-लिखी न होती थीं. पति चाहे कैसा ही हो, उसे पूज्य समझती थी, यह बात हो कि पुरुष सब कुछ देखकर भी बेहयाई से काम लेता हो, अवश्य यही बात है. जब युवक वृद्धा के साथ प्रसन्न नहीं रह सकता, तो युवती क्यों किसी वृद्ध के साथ प्रसन्न रहने लगी? लेकिन मैं तो कुछ ऐसा बुड्ढ़ा न था. मुझे देखकर कोई चालीस से अधिक नहीं बता सकता. कुछ भी हो, जवानी ढल जाने पर जवान औरत से विवाह करके कुछ-न-कुछ बेहयाई ज़रुर करनी पड़ती है, इसमें संदेह नहीं. स्त्री स्वभाव से लज्जाशील होती है. कुलटाओं की बात तो दूसरी है, पर साधारणत: स्त्री पुरुष से कहीं ज्यादा संयमशील होती है. जोड़ का पति पाकर वह चाहे पर-पुरुष से हँसी-दिल्लगी कर ले, पर उसका मन शुद्ध रहता है. बेजोड़े विवाह हो जाने से वह चाहे किसी की ओर आँखें उठाकर न देखे, पर उसका चित्त दु:खी रहता है. वह पक्की दीवार है, उसमें सबरी का असर नहीं होता, यह कच्ची दीवार है और उसी वक्त तक खड़ी रहती है, जब तक इस पर सबरी न चलाई जाये.

इन्हीं विचारां में पड़े-पड़े मुंशीजी का एक झपकी आ गयी. मन के भावों ने तत्काल स्वप्न का रुप धारण कर लिया. क्या देखते हैं कि उनकी पहली स्त्री मंसाराम के सामने खड़ी कह रही है – ‘स्वामी, यह तुमने क्या किया? जिस बालक को मैंने अपना रक्त पिला-पिलाकर पाला, उसको तुमने इतनी निर्दयता से मार डाला. ऐसे आदर्श चरित्र बालक पर तुमने इतना घोर कलंक लगा दिया? अब बैठे क्या बिसूरते हो। तुमने उससे हाथ धो लिया. मैं तुम्हारे निर्दया हाथों से छीनकर उसे अपने साथ लिए जाती हूँ. तुम तो इतनो शक्की कभी न थे. क्या विवाह करते ही शक को भी गले बांध लाये? इस कोमल हृदय पर इतना कठारे आघात! इतना भीषण कलंक! इतना बड़ा अपमान सहकर जीनेवाले कोई बेहया होंगे. मेरा बेटा नहीं सह सकता!’ यह कहते-कहते उसने बालक को गोद में उठा लिया और चली. मुंशीजी ने रोते हुए उसकी गोद से मंसाराम को छीनने के लिए हाथ बढ़ाया, तो आँखेंआंखे खुल गयीं और डॉक्टर लाहिरी, डॉक्टर लाहिरी, डॉक्टर भाटिया आदि आधे दर्जन डॉक्टर उनको सामने खड़े दिखायी दिये.

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