चैप्टर 25 – निर्मला : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 25 Nirmala Novel By Munshi Premchand In Hindi Read Online

Chapter 25 Nirmala Munshi Premchand Novel

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Chapter 25 Nirmala Munshi Premchand Novel

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निर्मला दिन भर चारपाई पर पड़ी रही. मालूम होता है, उसकी देह में प्राण नहीं है. न स्नान किया, न भोजन करने उठी. संध्या समय उसे ज्वर हो आया. रात भर देह तवे की भांति तपती रही. दूसरे दिन ज्वर न उतरा. हाँ,  कुछ-कुछ कम हो गया था. वह चारपाई पर लेटी हुई निश्चल नेत्रों से द्वार की ओर ताक रही थी. चारों ओर शून्य था, अंदर भी शून्य बाहर भी शून्य कोई चिंता न थी, न कोई स्मृति, न कोई दु:ख, मस्तिष्क में स्पन्दन की शक्ति ही न रही थी.

सहसा रुक्मणी बच्ची को गोद में लिये हुए आकर खड़ी हो गई. निर्मला ने पूछा – “क्या यह बहुत रोती थी?”

रुक्मणी – “नहीं, यह तो सिसकी तक नहीं. रात भर चुपचाप पड़ी रही, सुधा ने थोड़ा-सा दूध भेज दिया था.”

निर्मला – “अहीरिन दूध न दे गई थी?’

रुक्मणी – “कहती थी, पिछले पैसे दे दो, तो दूं. तुम्हारा जी अब कैसा है?”

निर्मला – “मुझे कुछ नहीं हुआ है? कल देह गरम हो गई थीं.”

रुक्मणी – “डॉक्टर साहब का बुरा हाल है?”

निर्मला ने घबराकर पूछा – “क्या हुआ, क्या? कुशल से है न?’

रुक्मणी – “कुशल से हैं कि लाश उठाने की तैयारी हो रही है! कोई कहता है, जहर खा लिया था, कोई कहता है, दिल का चलना बंद हो गया था. भगवान् जाने क्या हुआ था.”

निर्मला ने एक ठण्डी सांस ली और रुंधे हुए कंठ से बोली – “हाय भगवान! सुधा की क्या गति होगी! कैसे जियेगी?”

यह कहते-कहते वह रो पड़ी और बड़ी देर तक सिसकती रही. तब बड़ी मुश्किल से उठकर सुधा के पास जाने को तैयार हुई, पांव थर-थर कांप रहे थे, दीवार थामे खड़ी थी, पर जी न मानता था. न जाने सुधा ने यहाँ से जाकर पति से क्या कहा? मैंने तो उससे कुछ कहा भी नहीं, न जाने मेरी बातों का वह क्या मतलब समझी? हाय! ऐसे रुपवान दयालु, ऐसे सुशील प्राणी का यह अंत! अगर निर्मला को मालूम होता कि उसके क्रोध का यह भीषण परिणाम होगा, तो वह जहर का घूंट पीकर भी उस बात को हँसी में उड़ा देती.

यह सोचकर कि मेरी ही निष्ठुरता के कारण डॉक्टर साहब का यह हाल हुआ, निर्मला के हृदय के टुकड़े होने लगे. ऐसी वेदना होने लगी, मानो, हृदय में शूल उठ रहा हो. वह डॉक्टर साहब के घर चली.

लाश उठ चुकी थी. बाहर सन्नाटा छाया हुआ था. घर में स्त्रियाँ जमा थीं. सुधा जमीन पर बैठी रो रही थी. निर्मला को देखते ही वह जोर से चिल्लाकर रो पड़ी और आकर उसकी छाती से लिपट गई. दोनों देर त रोती रही.

जब औरतों की भीड़ कम हुई और एकांत हो गया, निर्मला ने पूछा – “यह क्या हो गया बहिन, तुमने क्या कह दिया?’

सुधा अपने मन को इसी प्रश्न का उत्तर कितनी ही बार दे चुकी थी. उसकी मन जिस उत्तर से शांत हो गया था, वही उत्तर उसने निर्मला को दिया. बोली – “चुप भी तो न रह सकती थी बहिन, क्रोध की बात पर क्रोध आती ही है.”

निर्मला – “मैंने तो तुमसे कोई ऐसी बात भी न कही थी.”

सुधा – “तुम कैसे कहती, कह ही नहीं सकती थीं, लेकिन उन्होंने जो बात हुई थी, वह कह दी थी. उस पर मैंने जो कुछ मुँह में आया, कहा. जब एक बात दिल में आ गई,तो उसे हुआ ही समझना चाहिये. अवसर और घात मिले, तो वह अवश्य ही पूरी हो. यह कहकर कोई नहीं निकल सकता कि मैंने तो हँसी की थी. एकांत ऐसा शब्द ज़बान पर लाना ही कह देता है कि नीयत बुरी थी. मैंने तुमसे कभी कहा नहीं बहिन, लेकिन मैंने उन्हें कई बात तुम्हारी ओर झांकते देखा. उस वक्त मैंने भी यही समझा कि शायद मुझे धोखा हो रहा हो. अब मालूम हुआ कि उसकी ताक-झांक का क्या मतलब था! अगर मैंने दुनिया ज्यादा देखी होती, तो तुम्हें अपने घर न आने देती। कम-से-कम तुम पर उनकी निगाह कभी न पड़ने देती, लेकिन यह क्या जानती थी कि पुरुषों के मुँह में कुछ और मन में कुछ और होता है. ईश्वर को जो मंज़ूर था, वह हुआ. ऐसे सौभाग्य से मैं वैधव्य को बुरा नहीं समझती. दरिद्र प्राणी उस धनी से कहीं सुखी है, जिसे उसका धन सांप बनकर काटने दौड़े. उपवास कर लेना आसान है, विषैला भोजन करना उससे कहीं मुश्किल.”

इसी वक्त डॉक्टर सिन्हा के छोटे भाई और कृष्णा ने घर में प्रवेश किया. घर में कोहराम मच गया.

एक महीना और गुजर गया. सुधा अपने देवर के साथ तीसरे ही दिन चली गई. अब निर्मला अकेली थी. पहले हँस-बोलकर जी बहला लिया करती थी. अब रोना ही एक काम रह गया. उसका स्वास्थय दिन-दिन बिगड़ता गया. पुराने मकान का किराया अधिक था. दूसरा मकान थोड़े किराये का लिया, यह तंग गली में था. अंदर एक कमरा था और छोटा-सा आंगन. न प्रकाश जाता, न वायु. दुर्गन्ध उड़ा करती थी. भोजन का यह हाल कि पैसे रहते हुये भी कभी-कभी उपवास करना पड़ता था. बाजार से जाये कौन? फिर अपना कोई मर्द नहीं, कोई लड़का नहीं, तो रोज भोजन बनाने का कष्ट कौन उठाये? औरतों के लिये रोज भोजन करने की आवश्यकता ही क्या? अगर एक वक्त खा लिया, तो दो दिन के लिये छुट्टी हो गई. बच्ची के लिए ताज़ा हलुआ या रोटियाँ बन जाती थी! ऐसी दशा में स्वास्थ्य क्यों न बिगड़ता? चिंता, शोक, दुरवस्था, एक हो तो कोई कहे. यहाँ तो त्रयताप का धावा था. उस पर निर्मला ने दवा न खाने की कसम खा ली थी. करती ही क्या? उन थोड़े-से रुपयों में दवा की गुंजाइश कहाँ थी? जहाँ भोजन का ठिकाना न था, वहाँ दवा का ज़िक्र ही क्या? दिन-दिन सूखती चली जाती थी.”

एक दिन रुक्मणी ने कहा – “बहू, इस तरह कब तक घुला करोगी, जी ही से तो जहान है. चलो, किसी वैद्य को दिखा लाऊं.”

निर्मला ने विरक्त भाव से कहा – “जिसे रोने के लिए जीना हो, उसका मर जाना ही अच्छा.”

रुक्मणी – “बुलाने से तो मौत नहीं आती?”

निर्मला – “मौत तो बिन बुलाए आती है, बुलाने में क्यों न आयेगी? उसके आने में बहुत दिन लगेंगे बहिन, जै दिन चलती हूँ, उतने साल समझ लीजिए.”

रुक्मणी – “दिल ऐसा छोटा मत करो बहू, अभी संसार का सुख ही क्या देखा है?”

निर्मला – “अगर संसार की यही सुख है, जो इतने दिनों से देख रही हूँ, तो उससे जी भर गया. सच कहती हूँ बहिन, इस बच्ची का मोह मुझे बांधे हुए है, नहीं तो अब तक कभी की चली गई होती. न जाने इस बेचारी के भाग्य में क्या लिखा है?”

दोनों महिलाएं रोने लगीं. इधर जब से निर्मला ने चारपाई पकड़ ली है,  रुक्मणी के हृदय में दया का सोता-सा खुल गया है. द्वेष का लेश भी नहीं रहा. कोई काम करती हों, निर्मला की आवाज सुनते ही दौड़ती हैं. घण्टों उसके पास कथा-पुराण सुनाया करती है. कोई ऐसी चीज पकाना चाहती हैं, जिसे निर्मला रुचि से खाये. निर्मला को कभी हँसते देख लेती हैं, तो निहाल हो जाती है और बच्ची को तो अपने गले का हार बनाये रहती हैं. उसी की नींद सोती हैं, उसी की नींद जागती हैं. वही बालिका अब उसके जीवन का आधार है.

रुक्मणी ने ज़रा देर बाद कहा – “बहू, तुम इतनी निराश क्यों होती हो? भगवान चाहेंगे, तो तुम दो-चार दिन में अच्छी हो जाओगी. मेरे साथ आज वैद्यजी के पास चला. बड़े सज्जन हैं.”

निर्मला – “दीदीजी, अब मुझे किसी वैद्य, हकीम की दवा फायदा न करेगी. आप मेरी चिंता न करें. बच्ची को आपकी गोद में छोड़े जाती हूँ. अगर जीती-जागती रहे, तो किसी अच्छे कुल में विवाह कर दीजियेगा. मैं तो इसके लिये अपने जीवन में कुछ न कर सकी, केवल जन्म देने भर की अपराधिनी हूँ. चाहे कुंवारी रखियेगा, चाहे विष देकर मार डालिएगा, पर कुपात्र के गले न मढ़िएगा, इतनी ही आपसे मेरी विनय है.

मैंनें आपकी कुछ सेवा न की, इसका बड़ा दु:ख हो रहा है. मुझ अभागिनी से किसी को सुख नहीं मिला. जिस पर मेरी छाया भी पड़ गई, उसका सर्वनाश हो गया. अगर स्वामीजी कभी घर आवें, तो उनसे कहिएगा कि इस करम-जली के अपराध क्षमा कर दें.

रुक्मणी रोती हुई बोली – “बहू, तुम्हारा कोई अपराध नहीं ईश्वर से कहती हूँ, तुम्हारी ओर से मेरे मन में ज़रा भी मैल नहीं है. हाँ,  मैंने सदैव तुम्हारे साथ कपट किया, इसका मुझे मरते दम तक दु:ख रहेगा.”

निर्मला ने कातर नेत्रों से देखते हुये कहा – “दीदीजी, कहने की बात नहीं, पर बिना कहे रहा नहीं जाता. स्वामीजी ने हमेशा मुझे अविश्वास की दृष्टि से देखा, लेकिन मैंने कभी मन मे भी उनकी उपेक्षा नहीं की. जो होना था, वह तो हो ही चुका था. अधर्म करके अपना परलोक क्यों बिगाड़ती? पूर्वजन्म में न जाने कौन-सा पाप किया था, जिसका वह प्रायश्चित करना पड़ा. इस जन्म में कांटे बोती, तो कौन गति होती?”

निर्मला की सांस बड़े वेग से चलने लगी, फिर खाट पर लेट गई और बच्ची की ओर एक ऐसी दृष्टि से देखा, जो उसके चरित्र जीवन की संपूर्ण विमत्कथा की वृहद् आलोचना थी, वाणी में इतनी सामर्थ्य कहा?

तीन दिनों तक निर्मला की आँखों से आँसुओं की धारा बहती रही. वह न किसी से बोलती थी, न किसी की ओर देखती थी और न किसी का कुछ सुनती थी. बस, रोये चली जाती थी. उस वेदना का कौन अनुमान कर सकता है?

चौथे दिन संध्या समय वह विपत्ति कथा समाप्त हो गई. उसी समय जब पशु-पक्षी अपने-अपने बसेरे को लौट रहे थे, निर्मला का प्राण-पक्षी भी दिन भर शिकारियों के निशानों, शिकारी चिड़ियों के पंजों और वायु के प्रचंड झोंकों से आहत और व्यथित अपने बसेरे की ओर उड़ गया.
मुहल्ले के लोग जमा हो गये. लाश बाहर निकाली गई. कौन दाह करेगा, यह प्रश्न उठा. लोग इसी चिंता में थे कि सहसा एक बूढ़ा पथिक एक बकुचा लटकाये आकर खड़ा हो गया. यह मुंशी तोताराम थे.

***समाप्त*** 

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