Chapter 20 Nirmala Munshi Premchand Novel
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चिंता में नींद कब आती है? निर्मला चारपाई पर करवटें बदल रही थी. कितना चाहती थी कि नींद आ जाये, पर नींद ने न आने की कसम सी खा ली थी. चिराग बुझा दिया था, खिड़की के दरवाजे खोल दिये थे, टिक-टिक करने वाली घड़ी भी दूसरे कमरे में रख आयी थी, पर नींद का नाम न था. जितनी बातें सोचनी थीं, सब सोच चुकी, चिंताओं का भी अंत हो गया, पर पलकें न झपकीं. तब उसने फिर लैम्प जलाया और एक पुस्तक पढ़ने लगी. दो-चार ही पृष्ठ पढ़े होंगे कि झपकी आ गयी. किताब खुली रह गयी.
सहसा जियाराम ने कमरे में कदम रखा. उसके पांव थर-थर कांप रहे थे. उसने कमरे मे ऊपर-नीचे देखा. निर्मला सोई हुई थी, उसके सिरहाने ताक पर, एक छोटा-सा पीतल का संदूकचा रखा हुआ था. जियाराम दबे पांव गया, धीरे से संदूकचा उतारा और बड़ी तेजी से कमरे के बाहर निकला. उसी वक्त निर्मला की आँखें खुल गयीं. चौंककर उठ खड़ी हुई. द्वार पर आकर देखा. कलेजा धक् से हो गया. क्या यह जियाराम है? मेरे कमरे मे क्या करने आया था. कहीं मुझे धोखा तो नहीं हुआ? शायद दीदीजी के कमरे से आया हो. यहाँ उसका काम ही क्या था? शायद मुझसे कुछ कहने आया हो, लेकिन इस वक्त क्या कहने आया होगा? इसकी नीयत क्या है? उसका दिल कांप उठा.
मुंशीजी ऊपर छत पर सो रहे थे. मुंडेर न होने के कारण निर्मला ऊपर न सो सकती थी. उसने सोचा चलकर उन्हें जगाऊं, पर जाने की हिम्मत न पड़ी. शक्की आदमी है, न जाने क्या समझ बैठें और क्या करने पर तैयार हो जायें? आकर फिर पुस्तक पढ़ने लगी. सबेरे पूछने पर आप ही मालूम हो जायेगा. कौन जाने मुझे धोखा ही हुआ हो. नींद में कभी-कभी धोखा हो जाता है, लेकिन सबेरे पूछने का निश्चय कर भी उसे फिर नींद नहीं आयी.
सबेरे वह जलपान लेकर स्वयं जियाराम के पास गयी, तो वह उसे देखकर चौंक पड़ा. रोज तो भूंगी आती थी, आज यह क्यों आ रही है? निर्मला की ओर ताकने की उसकी हिम्मत न पड़ी.
निर्मला ने उसकी ओर विश्वासपूर्ण नेत्रों से देखकर पूछा – “रात को तुम मेरे कमरे मे गये थे?”
जियाराम ने विस्मय दिखाकर कहा – “मैं? भला मैं रात को क्या करने जाता? क्या कोई गया था?”
निर्मला ने इस भाव से कहा, मानो उसे उसकी बात का पूरी विश्वास हो गया – ‘हाँ, मुझे ऐसा मालूम हुआ कि कोई मेरे कमरे से निकला. मैंने उसका मुँह तो न देखा, पर उसकी पीठ देखकर अनुमान किया कि शायद तुम किसी काम से आये हो. इसका पता कैसे चले, कौन था? कोई था ज़रूर इसमें कोई संदेह नहीं.”
जियाराम अपने को निरपराध सिद्ध करने की चेष्टा कर कहने लगा – “मैं तो रात को थियेटर देखने चला गया था. वहाँ से लौटा, तो एक मित्र के घर लेट रहा. थोड़ी देर हुई लौटा हूँ. मेरे साथ और भी कई मित्र थे. जिससे जी चाहे, पूछ लें. हाँ, भाई मैं बहुत डरता हूँ. ऐसा न हो, कोई चीज गायब हो गयी, तो मेरा नामे लगे. चोर को तो कोई पकड़ नहीं सकता, मेरे मत्थे जायेगी. बाबूजी को आप जानती हैं. मुझे मारने दौड़ेंगे.”
निर्मला – “तुम्हारा नाम क्यों लगेगा? अगर तुम्हीं होते, तो भी तुम्हें कोई चोरी क आरोप नहीं लगा सकता. चोरी दूसरे की चीज की जाती है, अपनी चीज की चोरी कोई नहीं करता.”
अभी तक निर्मला की निगाह अपने संदूकचे पर न पड़ी थी. भोजन बनाने लगी. जब वकील साहब कचहरी चले गये, तो वह सुधा से मिलने चली. इधर कई दिनों से मुलाकात न हुई थी, फिर रातवाली घटना पर विचार परिवर्तन भी करना था. भूंगी से कहा – “कमरे में से गहनों का बक्स उठा ला.”
भूंगी ने लौटकर कहा – “वहाँ तो कहीं संदूक नहीं हैं. कहाँ रखा था?” निर्मला ने चिढ़कर कहा – “एक बार में तो तेरा काम ही कभी नहीं होता. वहाँ छोड़कर और जायेगा कहाँ. आलमारी में देखा था?”
भूंगी – “नहीं बहूजी, आलमारी में तो नहीं देखा, झूठ क्यों बोलूं?”
निर्मला मुस्करा पड़ी. बोली – “जा देख, जल्दी आ.” एक क्षण में भूंगी फिर खाली हाथ लौट आयी – “आलमारी में भी तो नहीं है. अब जहाँ बताओ वहाँ देखूं.”
निर्मला झुंझलाकर यह कहती हुई उठ खड़ी हुई – “तुझे ईश्वर ने ऑंखें ही न जाने किसलिए दी! देख, उसी कमरे में से लाती हूँ कि नहीं.”
भूंगी भी पीछे-पीछे कमरे में गयी. निर्मला ने ताक पर निगाह डाली, अलमारी खोलकर देखी. चारपाई के नीचे झांककर देखा, फिर कपड़ों का बड़ा संदूक खोलकर देखा. बक्स का कहीं पता नहीं. आश्चर्य हुआ, आखिर बक्सा गया कहाँ?
सहसा रातवाली घटना बिजली की भांति उसकी आँखों के सामने चमक गयी. कलेजा उछल पड़ा. अब तक निश्चिंत होकर खोज रही थी. अब ताप-सा चढ़ आया. बड़ी उतावली सी चारों ओर खोजने लगी. कहीं पता नहीं. जहाँ खोजना चाहिए था, वहाँ भी खोजा और जहाँ नहीं खोजना चाहिए था, वहाँ भी खोजा. इतना बड़ा संदूकचा बिछावन के नीचे कैसे छिप जाता? पर बिछावन भी झाड़कर देखा. क्षण-क्षण मुख की कांति मलिन होती जाती थी. प्राण नहीं में समाते जाते थे. अंत में निराश होकर उसने छाती पर एक घूंसा मारा और रोने लगी.
गहने ही स्त्री की संपत्ति होते हैं. पति की और किसी संपत्ति पर उसका अधिकार नहीं होता. इन्हीं का उसे बल और गौरव होता है. निर्मला के पास पाँच-छ: हजार के गहने थे. जब उन्हें पहनकर वह निकलती थी, तो उतनी देर के लिए उल्लास से उसका हृदय खिला रहता था. एक-एक गहना मानो विपत्ति और बाधा से बचाने के लिए एक-एक रक्षास्त्र था. अभी रात ही उसने सोचा था, जियाराम की लौंडी बनकर वह न रहेगी. ईश्वर न करे कि वह किसी के सामने हाथ फैलाये. इसी खेवे से वह अपनी नाव को भी पार लगा देगी और अपनी बच्ची को भी किसी-न-किसी घाट पहुँचा देगी. उसे किस बात की चिंता है! उन्हें तो कोई उससे न छीन लेगा. आज ये मेरे सिंगार हैं, कल को मेरे आधार हो जायेंगे. इस विचार से उसके हृदय को कितनी सांत्वना मिली थी! वह संपत्ति आज उसके हाथ से निकल गयी. अब वह निराधार थी. संसार उसे कोई अवलम्ब कोई सहारा न था. उसकी आशाओं का आधार जड़ से कट गया, वह फूट-फूटकर रोने लगी. ईश्चर! तुमसे इतना भी न देखा गया? मुझ दुखिया को तुमने यों ही अपंग बना दिया थ, अब आँखें भी फोड़ दीं. अब वह किसके सामने हाथ फैलायेगी, किसके द्वार पर भीख मांगेगी. पसीने से उसकी देह भीग गयी, रोते-रोते आँखें सूज गयीं. निर्मला सिर नीचा किये रो रही थी. रुक्मणी उसे धीरज दिला रही थीं, लेकिन उसके आँस न रुकते थे, शोक की ज्वाला कम न होती थी.
तीन बजे जियाराम स्कूल से लौटा. निर्मला उसने आने की खबर पाकर विक्षिप्त की भांति उठी और उसके कमरे के द्वार पर आकर बोली – “भैया, दिल्लगी की हो तो दे दो. दुखिया को सताकर क्या पाओगे?”
जियाराम एक क्षण के लिए कातर हो उठा. चोर-कला में उसका यह पहला ही प्रयास था. यह कठारेता, जिससे हिंसा में मनोरंजन होता है, अभी तक उसे प्राप्त न हुई थी. यदि उसके पास संदूकचा होता और फिर इतना मौका मिलता कि उसे ताक पर रख आवे, तो कदाचित् वह उसे मौके को न छोड़ता, लेकिन संदूक उसके हाथ से निकल चुका था. यारों ने उसे सराफें में पहुँचा दिया था और औने-पौने बेच भी डाला था. चोरों की झूठ के सिवा और कौन रक्षा कर सकता है. बोला – “भला अम्माजी, मैं आपसे ऐसी दिल्लगी करुंगा? आप अभी तक मुझ पर शक करती जा रही हैं. मैं कह चुका कि मैं रात को घर पर न था, लेकिन आपको यकीन ही नहीं आता. बड़े दु:ख की बात है कि मुझे आप इतना नीच समझती हैं.”
निर्मला ने आँसू पोंछते हुए कहा – “मैं तुम्हारे पर शक नहीं करती. भैया, तुम्हें चोरी नहीं लगाती. मैंने समझा, शायद दिल्लगी की हो.”
जियाराम पर वह चोरी का संदेह कैसे कर सकती थी? दुनिया यही तो कहेगी कि लड़के की माँ मर गई है, तो उस पर चोरी का इलज़ाम लगाया जा रहा है. मेरे मुँह में ही तो कालिख लगेगी!
जियाराम ने आश्वासन देते हुए कहा – “चलिए, मैं देखूं, आखिर ले कौन गया? चोर आया किस रास्ते से?”
भूंगी – “भैया, तुम चोरों के आने को कहते हो. चूहे के बिल से तो निकल ही आते हैं, यहाँ तो चारो ओर ही खिड़कियाँ हैं.”
जियाराम – “खूब अच्छी तरह तलाश कर लिया है?”
निर्मला – “सारा घर तो छान मारा, अब कहाँ खोजने को कहते हो?”
जियाराम – “आप लोग सो भी तो जाती हैं, मुर्दों से बाजी लगाकर.”
चार बजे मुंशीजी घर आये, तो निर्मला की दशा देखकर पूछा – “कैसी तबीयत है? कहीं दर्द तो नहीं है? कह कहकर उन्होंने आशा को गोद में उठा लिया.”
निर्मला कोई जवाब न दे सकी, फिर रोने लगी.
भूंगी ने कहा – “ऐसा कभी नहीं हुआ था. मेरी सारी उम्र इसी घर में कट गयी. आज तक एक पैसे की चोरी नहीं हुई. दुनिया यही कहेगी कि भूंगी का काम है, अब तो भगवान ही पत-पानी रखें.”
मुंशीजी अचकन के बटन खोल रहे थे, फिर बटन बंद करते हुए बोले – “क्या हुआ? कोई चीज चोरी हो गयी?”
भूंगी – “बहूजी के सारे गहने उठ गये.”
मुंशीजी – “रखे कहाँ थे?”
निर्मला ने सिसकियाँ लेते हुए रात की सारी घटना बयान कर दी, पर जियाराम की सूरत के आदमी के अपने कमरे से निकलने की बात न कही. मुंशीजी ने ठंडी सांस भरकर कहा – “ईश्वर भी बड़ा अन्यायी है. जो मरे उन्हीं को मारता है. मालूम होता है, दुर्दिन आ गये हैं. मगर चोर आया, तो किधर से? कहीं सेंध नहीं पड़ी और किसी तरफ से आने का रास्ता नहीं. मैंने तो कोई ऐसा पाप नहीं किया, जिसकी मुझे यह सजा मिल रही है. बार-बार कहता रहा, गहने का संदूकचा ताक पर मत रखो, मगेर कौन सुनता है.”
निर्मला – “मैं क्या जानती थी कि यह गजब टूट पड़ेगा!”
मुंशीजी – “इतना तो जानती थी कि सब दिन बराबर नहीं जाते.”
आज बनवाने जाऊं, तो इस हजार से कम न लगेंगे. आजकल अपनी जो दशा है, वह तुमसे छिपी नहीं, खर्च भर का मुश्किल से मिलता है, गहने कहाँ से बनेंगे. जाता हूँ, पुलिस में इत्तिला कर आता हूँ, पर मिलने की उम्मीद न समझो.”
निर्मला ने आपत्ति के भाव से कहा – “जब जानते हैं कि पुलिस में इत्तिला करने से कुछ न होगा, तो क्यों जा रहे हैं?”
मुंशीजी – “दिल नहीं मानता और क्या? इतना बड़ा नुकसान उठाकर चुपचाप तो नहीं बैठ जाता.”
निर्मला – “मिलने वाले होते, तो जाते ही क्यों? तकदीर में न थे, तो कैसे रहते?”
मुंशीजी – “तकदीर मे होंगे, तो मिल जायेंगे, नहीं तो, गये तो हैं ही.”
मुंशीजी कमरे से निकले. निर्मला ने उनका हाथ पकड़कर कहा – “मैं कहती हूँ, मत जाओ, कहीं ऐसा न हो, लेने के देने पड़ जायें.”
मुंशीजी ने हाथ छुड़ाकर कहा – “तुम भी बच्चों की-सी जिद्द कर रही हो. दस हजार का नुकसान ऐसा नहीं है, जिसे मैं यों ही उठा लूं. मैं रो नहीं रहा हूँ, पर मेरे हृदय पर जो बीत रही है, वह मैं ही जानता हूँ. यह चोट मेरे कलेजे पर लगी है. मुंशीजी और कुछ न कह सके. गला फंस गया. वह तेजी से कमरे से निकल आये और थाने पर जा पहुँचे. थानेदार उनका बहुत लिहाज करता था. उसे एक बार रिश्वत के मुकदमे से बरी करा चुके थे. उनके साथ ही तफ्तीश करने आ पहुँचा. नाम था अलायार खां.
शाम हो गयी थी. थानेदार ने मकान के अगवाड़े-पिछवाड़े घूम-घूमकर देखा, अंदर जाकर निर्मला के कमरे को गौर से देखा. ऊपर की मुंडेर की जांच की. मुहल्ले के दो-चार आदमियों से चुपके-चुपके कुछ बातें की और तब मुंशीजी से बोले – “जनाब, खुदा की कसम, यह किसी बाहर के आदमी का काम नहीं. खुदा की कसम, अगर कोई बाहर की आमदी निकले, तो आज से थानेदारी करना छोड़ दूं. आपके घर में कोई मुलाजिम ऐसा तो नहीं है, जिस पर आपको शुबहा हो.”
मुंशीजी – ‘घर मे तो आजकल सिर्फ एक महरी है.”
थानेदार – “अजी, वह पगली है. यह किसी बड़े शातिर का काम है, खुदा की कसम.”
मुंशीजी – “तो घर में और कौन है? मेरे दोने लड़के हैं, स्त्री है और बहन है. इनमें से किस पर शक करुं?”
थानेदार – “खुदा की कसम, घर ही के किसी आदमी का काम है, चाहे, वह कोई हो, इंशा अल्लाह, दो-चार दिन में मैं आपको इसकी खबर दूंगा. यह तो नहीं कह सकता कि माल भी सब मिल जायेगा, पर खुदा की कसम, चोर ज़रूर पकड़ दिखाऊंगा.”
थानेदार चला गया, तो मुंशीजी ने आकर निर्मला से उसकी बातें कहीं. निर्मला सहम उठी – “आप थानेदार से कह दीजिए, तफ़तीश न करें, आपके पैरों पड़ती हूँ.”
मुंशीजी – “आखिर क्यों?”
निर्मला – “अब क्या बताऊं? वह कह रहा है कि घर ही के किसी का काम है.”
मुंशीजी – “उसे बकने दो.”
जियाराम अपने कमरे में बैठा हुआ भगवान को याद कर रहा था. उसके मुँह पर हवाइयाँ उड़ रही थीं. सुन चुका था कि पुलिस वाले चेहरे से भांप जाते हैं. बाहर निकलने की हिम्मत न पड़ती थी. दोनों आदमियों में क्या बातें हो रही हैं, यह जानने के लिए छटपटा रहा था. ज्योंही थानेदार चला गया और भूंगी किसी काम से बाहर निकली, जियाराम ने पूछा – “थानेदार क्या कर रहा था भूंगी?”
भूंगी ने पास आकर कहा – “दाढ़ीजार कहता था, घर ही से किसी आदमी का काम है, बाहर का कोई नहीं है.”
जियाराम – “बाबूजी ने कुछ नहीं कहा?”
भूंगी – “कुछ तो नहीं कहा, खड़े ‘हूं-हूं’ करते रहे. घर मे एक भूंगी ही गैर है न! और तो सब अपने ही हैं.”
जियाराम – “मैं भी तो गैर हूँ, तू ही क्यों?’
भूंगी – “तुम गैर काहे हो भैया?”
जियाराम – “बाबूजी ने थानेदार से कहा नहीं, घर में किसी पर उनका शुबहा नहीं है.”
भूंगी – “कुछ तो कहते नहीं सुना. बेचारे थानेदार ने भले ही कहा- भूंगी तो पगली है, वह क्या चोरी करेगी. बाबूजी तो मुझे फंसाये ही देते थे.”
जियाराम – “तब तो तू भी निकल गयी. अकेला मैं ही रह गया. तू ही बता, तूने मुझे उस दिन घर में देखा था?”
भूंगी – “नहीं भैया, तुम तो ठेठर देखने गये थे.”
जियाराम – “गवाही देगी न?’
भूंगी – “यह क्या कहते हो भैया? बहूजी तफ्तीश बंद कर देंगी.”
जियाराम – “सच?”
भूंगी – “हाँ भैया, बार-बार कहती है कि तफ्तीश न कराओ. गहने गये, जाने दो, पर बाबूजी मानते ही नहीं.”
पाँच-छ: दिन तक जियाराम ने पेट भर भोजन नहीं किया. कभी दो-चार कौर खा लेता, कभी कह देता, भूख नहीं है. उसके चेहरे का रंग उड़ा रहता था. रातें जागतें कटतीं, प्रतिक्षण थानेदार की शंका बनी रहती थी. यदि वह जानता कि मामला इतना तूल खींचेंगा, तो कभी ऐसा काम न करता. उसने तो समझा था – किसी चोर पर शुबहा होगा. मेरी तरफ किसी का ध्यान भी न जायेगा, पर अब भंडा फूटता हुआ मालूम होता था. अभागा थानेदार जिस ढंगे से छान-बीन कर रहा था, उससे जियाराम को बड़ी शंका हो रही थी.
सातवें दिन संध्या समय घर लौटा, तो बहुत चिंतित था. आज तक उसे बचने की कुछ-न-कुछ आशा थी. माल अभी तक कहीं बरामद न हुआ था, पर आज उसे माल के बरामद होने की खबर मिल गयी थी. इसी दम थानेदार कांस्टेबिल के लिए आता होगा. बचने को कोई उपाय नहीं. थानेदार को रिश्वत देने से संभव है, मुकदमे को दबा दे, रुपये हाथ में थे, पर क्या बात छिपी रहेगी? अभी माल बरामद नही हुआ, फिर भी सारे शहर में अफ़वाह थी कि बेटे ने ही माल उड़ाया है. माल मिल जाने पर तो गली-गली बात फैल जायेगी. फिर वह किसी को मुँह न दिखा सकेगा.
मुंशीजी कचहरी से लौटे तो बहुत घबराये हुए थे. सिर थामकर चारपाई पर बैठ गये.
निर्मला ने कहा – “कपड़े क्यों नहीं उतारते? आज तो और दिनों से देर हो गयी है.”
मुंशीजी – “क्या कपडे ऊतारुं? तुमने कुछ सुना?”
निर्मला – “क्या बात है? मैंने तो कुछ नहीं सुना?’
मुंशीजी – “माल बरामद हो गया. अब जिया का बचना मुश्किल है.”
निर्मला को आश्चर्य नहीं हुआ. उसके चेहरे से ऐसा जान पड़ा, मानो उसे यह बात मालूम थी. बोली – “मैं तो पहले ही कर रही थी कि थाने में इत्तला मत कीजिए.”
मुंशीजी – “तुम्हें जिया पर शक था?”
निर्मला – “शक क्यों नहीं था, मैंने उन्हें अपने कमरे से निकलते देखा था.”
मुंशीजी – “फिर तुमने मुझसे क्यों न कह दिया?”
निर्मला – “यह बात मेरे कहने की न थी. आपके दिल में ज़रूर खयाल आता कि यह ईर्ष्यावश आक्षेप लगा रही है. कहिए, यह खयाल होता या नहीं? झूठ न बोलिएगा.”
मुंशीजी – “संभव है, मैं इंकार नहीं कर सकता. फिर भी उसकी दशा में तुम्हें मुझसे कह देना चाहिए था. रिपोर्ट की नौबत न आती. तुमने अपनी नेकनामी की तो, फ़िक्र की, पर यह न सोचा कि परिणाम क्या होगा? मैं अभी थाने में चला जाता हूँ. अलायार खां आता ही होगा!”
निर्मला ने हताश होकर पूछा – “फिर अब?”
मुंशीजी ने आकाश की ओर ताकते हुए कहा – “फिर जैसी भगवान की इच्छा. हजार-दो हजार रुपये रिश्वत देने के लिए होते, तो शायद मामला दब जाता, पर मेरी हालत तो तुम जानती हो. तकदीर खोटी है और कुछ नही. पाप तो मैंने किया है, दण्ड कौन भोगेगा? एक लड़का था, उसकी वह दशा हुई, दूसरे की यह दशा हो रही है.”
नालायक था, गुस्ताख था, गुस्ताख था, कामचोर था, पर था ता अपना ही लड़का, कभी-न-कभी चेत ही जाता. यह चोट अब न सही जायेगी.
निर्मला – “अगर कुछ दे-दिलाकर जान बच सके, तो मैं रुपये का प्रबंध कर दूं.”
मुंशीजी – “कर सकती हो? कितने रुपये दे सकती हो?’
निर्मला – “कितना दरकार होगा?”
मुंशीजी – “एक हजार से कम तो शायद बातचीत न हो सक. मैंने एक मुकदमे में उससे एक हजार लिए थे. वह कसर आज निकालेगा.”
निर्मला – “हो जायेगा. अभी थाने जाइए.”
मुंशीजी को थाने में बड़ी देर लगी. एकांत में बातचीत करने का बहुत देर मे मौका मिला. अलायार खां पुराना घाघ था. बड़ी मुश्किल से अण्टी पर चढ़ा पाँच सौ रुवये लेकर भी अहसान का बोझा सिर पर लाद ही दिया. काम हो गया. लौटकर निर्मला से बोला – “लो भाई, बाजी मार ली, रुपये तुमने दिये, पर काम मेरी ज़बान ही ने किया. बड़ी-बड़ी मुश्किलों से राज़ी हो गया. यह भी याद रहेगी. जियाराम भोजन कर चुका है?”
निर्मला – “कहाँ, वह तो अभी घूमकर लौटे ही नहीं.”
मुंशीजी – “बारह तो बज रहे होंगें.”
निर्मला – “कई दफ़े जा-जाकर देख आयी. कमरे में अंधेरा पड़ा हुआ है.”
मुंशीजी – “और सियाराम?”
निर्मला – “वह तो खा-पीकर सोये हैं.”
मुंशीजी – “उससे पूछा नहीं, जिया कहाँ गया?”
निर्मला – “वह तो कहते हैं, मुझसे कुछ कहकर नहीं गये.”
मुंशीजी को कुछ शंका हुई. सियाराम को जगाकर पूछा – “तुमसे जियाराम ने कुछ कहा नहीं, कब तक लौटेगा? गया कहाँ है?”
सियाराम ने सिर खुजलाते और आँखें मलते हुए कहा – “मुझसे कुछ नहीं कहा.”
मुंशीजी – “कपड़े सब पहनकर गया है?”
सियाराम – “जी नहीं, कुर्ता और धोती.”
मुंशीजी – “जाते वक्त खुश था?’
सियाराम – “खुश तो नहीं मालूम होते थे. कई बार अंदर आने का इरादा किया, पर देहरी से ही लौट गये. कई मिनट तक सायबान में खड़े रहे. चलने लगे, तो आँखें पोंछ रहे थे. इधर कई दिन से अक्सर रोया करते थे.”
मुंशीजी ने ऐसी ठंडी सांस ली, मानो जीवन में अब कुछ नहीं रहा और निर्मला से बोले – “तुमने किया तो अपनी समझ में भले ही के लिए, पर कोई शत्रु भी मुझ पर इससे कठोर आघात न कर सकता था. जियाराम की माता होती, तो क्या वह यह संकोच करती? कदापि नहीं.”
निर्मला बोली – “ज़रा डॉक्टर साहब के यहाँ क्यों नहीं चले जाते? शायद वहाँ बैठे हों. कई लड़के रोज आते है, उनसे पूछिए, शायद कुछ पता लग जाये. फूंक-फूंककर चलने पर भी अपयश लग ही गया.”
मुंशीजी ने मानो खुली हुई खिड़की से कहा – “हाँ, जाता हूँ और क्या करुंगा.”
मुंशीजी बाहर आये तो देखा, डॉक्टर सिन्हा खड़े हैं. चौंककर पूछा – “क्या आप देर से खड़े हैं?’
डॉक्टर – “जी नहीं, अभी आया हूँ. आप इस वक्त कहाँ जा रहे हैं? साढ़े बारह हो गये हैं.”
मुंशीजी – “आप ही की तरफ आ रहा था. जियाराम अभी तक घूमकर नहीं आया. आपकी तरफ तो नहीं गया था?”
डॉक्टर सिन्हा ने मुंशीजी के दोनों हाथ पकड़ लिए और इतना कह पाये थे, “भाई साहब, अब धैर्य से काम..” कि मुंशीजी गोली खाये हुए मनुष्य की भांति जमीन पर गिर पड़े.
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