चैप्टर 18 – निर्मला : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 18 Nirmala Novel By Munshi Premchand In Hindi Read Online

Chapter 18 Nirmala Munshi Premchand Novel

Chapter 18 Nirmala Munshi Premchand Novel

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जब हमारे ऊपर कोई बड़ी विपत्ति आ पड़ती है, तो उससे हमें केवल दु:ख ही नहीं होता, हमें दूसरों के ताने भी सहने पड़ते हैं. जनता को हमारे ऊपर टिप्पणियों करने का वह सुअवसर मिल जाता है, जिसके लिए वह हमेशा बेचैन रहती है. मंसाराम क्या मरा, मानों समाज को उन पर आवाजें कसने का बहना मिल गया. भीतर की बातें कौन जाने, प्रत्यक्ष बात यह थी कि यह सब सौतेली माँ की करतूत है. चारों तरफ यही चर्चा थी, ईश्वर न करे लड़कों को सौतेली माँ से पाला पड़े. जिसे अपना बना-बनाया घर उजाड़ना हो, अपने प्यारे बच्चों की गर्दन पर छुरी फेरनी हो, वह बच्चों के रहते हुए अपना दूसरा ब्याह करे. ऐसा कभी नहीं देखा कि सौत के आने पर घर तबाह न हो गया हो, वही बाप जो बच्चों पर जान देता था, सौत के आते ही उन्हीं बच्चों का दुश्मन हो जाता है, उसकी मति ही बदल जाती है. ऐसी देवी ने जन्म ही नहीं लिया, जिसने सौत के बच्चों का अपना समझा हो. मुश्किल यह थी कि लोग टिप्पणियों पर संतुष्ट होते थे. कुछ ऐसे सज्जन भी थे, जिन्हें अब जियाराम और सियाराम से विशेष स्नेह हो गया था. वे दानों बालकों से बड़ी सहानुभूति प्रकट करते, यहाँ तक कि दो-एक महिलाएं तो उसकी माता के शील और स्वभाव को याद करे आँसू बहाने लगती थीं. हाय-हाय! बेचारी क्या जानती थी कि उसके मरते ही लाड़लों की यह दुर्दशा होगी! अब दूध-मक्खन काहे को मिलता होगा!

जियाराम कहता – “मिलता क्यों नहीं?”

महिला कहती – “मिलता है! अरे बेटा, मिलना भी कई तरह का होता है. पानीवाल दूध टके सेर का मंगाकर रख दिया, पियों चाहे न पियो, कौन पूछता है? नहीं तो बेचारी नौकर से दूध दुहवा कर मंगवाती थी. वह तो चेहरा ही कहे देता है. दूध की सूरत छिपी नहीं रहती, वह सूरत ही नहीं रहीं.’

जिया को अपनी माँ के समय के दूध का स्वाद तो याद था नहीं, जो इस आक्षेप का उत्तर देता और न उस समय की अपनी सूरत ही याद थी, चुप रह जाता. इन शुभाकांक्षाओं का असर भी पड़ना स्वाभाविक था. जियाराम को अपने घरवालों से चिढ़ होती जाती थी. मुंशीजी मकान नीलामी हो जोने के बाद दूसरे घर में उठ आये, तो किराये की फ़िक्र हुई. निर्मला ने मक्खन बंद कर दिया. वह आमदनी हो नहीं रही, तो खर्च कैसे रहता? दोनों कहार अलग कर दिये गये. जियाराम को यह कतर-ब्योंत बुरी लगती थी. जब निर्मला मैके चली गयी, तो मुंशीजी ने दूध भी बंद कर दिया. नवजात कन्या की चिंता अभी से उनके सिर पर सवार हो गयी थी.

सियाराम ने बिगड़कर कहा – “दूध बंद रहने से तो आपका महल बन रहा होगा, भोजन भी बंद कर दीजिए!”

मुंशीजी –  “दूध पीने का शौक है, तो जाकर दुहा क्यों नही लाते? पानी के पैसे तो मुझसे न दिये जायेंगे.”

जियाराम – “मैं दूध दुहाने जाऊं, कोई स्कूल का लड़का देख ले तब?”

मुंशीजी – “तब कुछ नहीं. कह देना अपने लिए दूध लिए जाता हूँ. दूध लाना कोई चोरी नहीं है.”

जियाराम – “चोरी नहीं है! आप ही को कोई दूध लाते देख ले, तो आपको शर्म न आयेगी.”

मुंशीजी – “बिल्कुल नहीं. मैंने तो इन्हीं हाथों से पानी खींचा है, अनाज की गठरियाँ लाया हूँ. मेरे बाप लखपति नहीं थे.”

जियाराम – “मेरे बाप तो गरीब नहीं, मैं क्यों दूध दुहाने जाऊं? आखिर आपने कहारों को क्यों जवाब दे दिया?”

मुंशीजी – “क्या तुम्हें इतना भी नहीं सूझता कि मेरी आमदनी अब पहली सी नहीं रही इतने नादान तो नहीं हो?”

जियाराम – “आखिर आपकी आमदनी क्यों कम हो गयी?”

मुंशीजी – “जब तुम्हें अकल ही नहीं है, तो क्या समझाऊं. यहाँ ज़िन्दगी से तंग आ गया हूँ, मुकदमें कौन ले और ले भी तो तैयार कौन करे? वह दिल ही नहीं रहा. अब तो ज़िन्दगी के दिन पूरे कर रहा हूँ. सारे अरमान लल्लू के साथ चले गये.”
जियाराम – “अपने ही हाथों न.”

मुंशीजी ने चीखकर कहा – “अरे अहमक! यह ईश्वर की मर्ज़ी थी. अपने हाथों कोई अपना गला काटता है.”

जियाराम – “ईश्वर तो आपका विवाह करने न आया था.”

मुंशीजी अब जब्त न कर सके, लाल-लाल ऑंखें निकालकर बोले –“क्या तुम आज लड़ने के लिए कमर बांधकर आये हो? आखिर किस बिरते पर? मेरी रोटियाँ तो नहीं चलाते? जब इस काबिल हो जाना, मुझे उपदेश देना. तब मैं सुन लूंगा. अभी तुमको मुझे उपदेश देने का अधिकार नहीं है. कुछ दिनों अदब और तमीज़ सीखो. तुम मेरे सलाहकार नहीं हो कि मैं जो काम करुं, उसमें तुमसे सलाह लूं. मेरी पैदा की हुई दौलत है, उसे जैसे चाहूं खर्च कर सकता हूँ. तुमको जबान खोलने का भी हक नहीं है. अगर फिर तुमने मुझसे बेअदबी की, तो नतीजा बुरा होगा. जब मंसाराम ऐसा रत्न खोकर मेरे प्राण न निकले, तो तुम्हारे बगैर मैं मर न जाऊंगा, समझ गये?”

यह कड़ी फटकार पाकर भी जियाराम वहाँ से न टला. नि:शंक भाव से बोला – “तो आप क्या चाहते हैं कि हमें चाहे कितनी ही तकलीफ हो मुँह न खोले? मुझसे तो यह न होगा. भाई साहब को अदब और तमीज़ का जो इनाम मिला, उसकी मुझे भूख नहीं. मुझमें जहर खाकर प्राण देने की हिम्मत नहीं. ऐसे अदब को दूर से दंडवत करता हूँ.”

मुंशीजी – “तुम्हें ऐसी बातें करते हुए शर्म नहीं आती?”

जियाराम – “लड़के अपने बुजुर्गों ही की नकल करते हैं.”

मुंशीजी का क्रोध शांत हो गया. जियाराम पर उसका कुछ भी असर न होगा, इसका उन्हें यकीन हो गया. उठकर टहलने चले गये. आज उन्हें सूचना मिल गयी कि इस घर का शीघ्र ही सर्वनाश होने वाला हैं.”

उस दिन से पिता और पुत्र मे किसी न किसी बात पर रोज ही एक झपट हो जाती है. मुंशीजी ज्यों-त्यों तरह देते थे, जियाराम और भी शेर होता जाता था. एक दिन जियाराम ने रुक्मणी से यहाँ तक कह डाला – “बाप हैं, यह समझकर छोड़ देता हूँ, नहीं तो मेरे ऐसे-ऐसे साथी हैं कि चाहूं तो भरे बाजार मे पिटवा दूं.”

रुक्मणी ने मुंशीजी से कह दिया. मुंशीजी ने प्रकट रुप से तो बेपरवाही ही दिखायी, पर उनके मन में शंका समा गयी. शाम को सैर करना छोड़ दिया. यह नयी चिंता सवार हो गयी. इसी भय से निर्मला को भी न लाते थे कि शैतान उसके साथ भी यही बर्ताव करेगा. जियाराम एक बार दबी ज़बान में कह भी चुका था – “देखूं, अबकी कैसे इस घर में आती है? मुंशीजी भी खूब समझ गये थे कि मैं इसका कुछ भी नहीं कर सकता. कोई बाहर का आदमी होता, तो उसे पुलिस और कानून के शिकंजे में कसते. अपने लड़के को क्या करें? सच कहा है- आदमी हारता है, तो अपने लड़कों ही से.”

एक दिन डॉक्टर सिन्हा ने जियाराम को बुलाकर समझाना शुरु किया. जियाराम उनका अदब करता था. चुपचाप बैठा सुनता रहा. जब डॉक्टर साहब ने अंत में पूछा, “आखिर तुम चाहते क्या हो?”

तो वह बोला – “साफ-साफ कह दूं? बूरा तो न मानिएगा?”

सिन्हा – “नहीं, जो कुछ तुम्हारे दिल में हो साफ-साफ कह दो.”

जियाराम – “तो सुनिए, जब से भैया मरे हैं, मुझे पिताजी की सूरत देखकर क्रोध आता है. मुझे ऐसा मालूम होता है कि इन्हीं ने भैया की हत्या की है और एक दिन मौका पाकर हम दोनों भाइयों को भी हत्या करेंगे. अगर उनकी यह इच्छा न होती, तो ब्याह ही क्यों करते?”

डॉक्टर साहब ने बड़ी मुश्किल से हँसी रोककर कहा – “तुम्हारी हत्या करने के लिए उन्हें ब्याह करने की क्या ज़ररूरत थी, यह बात मेरी समझ में नहीं आयी. बिना विवाह किये भी तो वह हत्या कर सकते थे.”

जियाराम – “कभी नहीं, उस वक्त तो उनका दिल ही कुछ और था, हम लोगों पर जान देते थे अब मुँह तक नहीं देखना चाहते. उनकी यही इच्छा है कि उन दोनों प्राणियों के सिवा घर में और कोई न रहे. अब जैसे लड़के होंगे, उनके रास्ते से हम लोगों का हटा देना चाहते है. यही उन दोनों आदमियों की दिली मंशा है. हमें तरह-तरह की तकलीफें देकर भगा देना चाहते हैं. इसीलिए आजकल मुकदमे नहीं लेते. हम दोनों भाई आज मर जायें, तो फिर देखिए कैसी बहार होती है.”

डॉक्टर – “अगर तुम्हें भागना ही होता, तो कोई इल्ज़ाम लगाकर घर से निकाल न देते?”

जियाराम – “इसके लिए पहले ही से तैयार बैठा हूँ.”

डॉक्टर – “सुनूं, क्या तैयारी कही है?”

जियाराम – “जब मौका आयेगा, देख लीजिएगा.”

यह कहकर जियराम चलता हुआ. डॉक्टर सिन्हा ने बहुत पुकारा, पर उसने फिर कर देखा भी नहीं.

कई दिन के बाद डॉक्टर साहब की जियाराम से फिर मुलाकात हो गयी. डॉक्टर साहब सिनेमा के प्रेमी थे और जियाराम की तो जान ही सिनेमा में बसती थी. डॉक्टर साहब ने सिनेमा पर आलोचना करके जियाराम को बातों में लगा लिया और अपने घर लाये. भोजन का समय आ गया था, दोनों आदमी साथ ही भोजन करने बैठे. जियाराम को वहाँ भोजन बहुत स्वादिष्ट लगा,  बोला – “मेरे यहाँ तो जब से महाराज अलग हुआ खाने का मज़ा ही जाता रहा. बुआजी पक्का वैष्णवी भोजन बनाती हैं. जबरदस्ती खा लेता हूँ, पर खाने की तरफ ताकने को जी नहीं चाहता.”

डॉक्टर – “मेरे यहाँ तो जब घर में खाना पकता है, तो इसे कहीं स्वादिष्ट होता है. तुम्हारी बुआजी प्याज-लहसुन न छूती होंगी?”

जियाराम – “हाँ साहब, उबालकर रख देती हैं. लालाजी को इसकी परवाह ही नहीं कि कोई खाता है या नहीं. इसीलिए तो महाराज को अलग किया है. अगर रुपये नहीं है, तो गहने कहाँ से बनते हैं?”

डॉक्टर – “यह बात नहीं है जियाराम, उनकी आमदनी सचमुच बहुत कम हो गयी है. तुम उन्हें बहुत दिक करते हो.”

जियाराम (हंसकर) – मैं उन्हें दिक करता हूँ? मुझसे कसम ले लीजिए, जो कभी उनसे बोलता भी हूँ. मुझे बदनाम करने का उन्होंने बीड़ा उठा लिया है. बेसबब, बेवजह पीछे पड़े रहते हैं. यहाँ तक कि मेरे दोस्तों से भी उन्हें चिढ़ है. आप ही सोचिए, दोस्तों के बगैर कोई ज़िन्दा रह सकता है? मैं कोई लुच्चा नहीं हूँ कि लुच्चों की सोहबत रखूं, मगर आप दोस्तों ही के पीछे मुझे रोज सताया करते हैं. कल तो मैंने साफ कह दिया – मेरे दोस्त घर आयेंगे, किसी को अच्छा लगे या बुरा. जनाब, कोई हो, हर वक्त की धौंस ही सह सकता.”

डॉक्टर – “मुझे तो भाई, उन पर बड़ी दया आती है. यह जमाना उनके आराम करने का था. एक तो बुढ़ापा, उस पर जवान बेटे का शोक, स्वास्थ्य भी अच्छा नहीं. ऐसा आदमी क्या कर सकता है? वह जो कुछ थोड़ा-बहुत करते हैं, वही बहुत है. तुम अभी और कुछ नहीं कर सकते, तो कम-से-कम अपने आचरण से तो उन्हें प्रसन्न रख सकते हो. बुड्ढ़ों को प्रसन्न करना बहुत कठिन काम नहीं. यकीन मानो, तुम्हारा हँसकर बोलना ही उन्हें खुश करने को काफ़ी है. इतना पूछने में तुम्हारा क्या खर्च होता है. बाबूजी, आपकी तबीयत कैसी है? वह तुम्हारी यह उद्दण्डता देखकर मन-ही-मन कुढ़ते रहते हैं. मैं तुमसे सच कहता हूँ, कई बार रो चुके हैं. उन्होनें मान लो शादी करने में गलती की. इसे वह भी स्वीकार करते हैं, लेकिन तुम अपने कर्त्तव्य से क्यों मुँह मोड़ते हो? वह तुम्हारे पिता है, तुम्हें उनकी सेवा करनी चाहिए. एक बात भी ऐसी मुँह से न निकालनी चाहिए, जिससे उनका दिल दुखे. उन्हें यह ख़याल करने का मौका ही क्यों दे कि सब मेरी कमाई खाने वाले हैं, बात पूछने वाला कोई नहीं. मेरी उम्र तुमसे कहीं ज्यादा है, जियाराम, पर आज तक मैंने अपने पिताजी की किसी बात का जवाब नहीं दिया. वह आज भी मुझे डांटते है, सिर झुकाकर सुन लेता हूँ. जानता हूँ, वह जो कुछ कहते हैं, मेरे भले ही को कहते हैं.”

माता-पिता से बढ़कर हमारा हितैषी और कौन हो सकता है? उसके ऋण से कौन मुक्त हो सकता है?

जियाराम बैठा रोता रहा. अभी उसके सद्भावों का सम्पूर्णत: लोप न हुआ था, अपनी दुर्जनता उसे साफ नजर आ रही थी. इतनी ग्लानि उसे बहुत दिनों से न आयी थी. रोकर डॉक्टर साहब से कहा – “मैं बहुत लज्जित हूँ. दूसरों के बहकाने में आ गया. अब आप मेरी ज़रा भी शिकयत न सुनेंगे. आप पिताजी से मेरे अपराध क्षमा करवा दीजिए. मैं सचमुच बड़ा अभागा हूँ. उन्हें मैंने बहुत सताया. उनसे कहिए- मेरे अपराध क्षमा कर दें, नहीं मैं मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाऊंगा, डूब मरुंगा.”

डॉक्टर साहब अपनी उपदेश-कुशलता पर फूले न समाये. जियाराम को गले लगाकर विदा किया.

जियाराम घर पहुँचा, तो ग्यारह बज गये थे. मुंशीजी भोजन करे अभी बाहर आये थे. उसे देखते ही बोले – “जानते हो कै बजे है? बारह का वक्त है.”

जियाराम ने बड़ी नम्रता से कहा – “डॉक्टर सिन्हा मिल गये. उनके साथ उनके घर तक चला गया. उन्होंने खाने के लिए ज़िद कि, मजबूरन खाना पड़ा. इसी से देर हो गयी.”

मुंशीजी – “डॉक्टर सिन्हा से दुखड़े रोने गये होंगे या और कोई काम था.”

जियाराम की नम्रता का चौथा भाग उड़ गया, बोला – “दुखड़े रोने की मेरी आदत नहीं है.”

मुंशीजी – “ज़रा भी नहीं, तुम्हारे मुँह मे तो ज़बान ही नहीं. मुझसे जो लोग तुम्हारी बातें करते हैं, वह गढ़ा करते होंगे?”

जियाराम – “और दिनों की मैं नहीं कहता, लेकिन आज डॉक्टर सिन्हा के यहाँ मैंने कोई बात ऐसी नहीं की, जो इस वक्त आपके सामने न कर सकूं.”

मुंशीजी – “बड़ी खुशी की बात है. बेहद खुशी हुई। आज से गुरुदीक्षा ले ली है क्या?”

जियाराम की नम्रता का एक चतुर्थांश और गायब हो गया. सिर उठाकर बोला – “आदमी बिना गुरुदीक्षा लिए हुए भी अपनी बुराइयों पर लज्जित हो सकता है. अपना सुधार करने के लिए गुरुमंत्र कोई ज़रूरी चीज नहीं.”

मुंशीजी – “अब तो लुच्चे न जमा होंगे?”

जियाराम – “आप किसी को लुच्चा क्यों कहते हैं, जब तक ऐसा कहने के लिए आपके पास कोई प्रमाण नहीं?”

मुंशीजी – “तुम्हारे दोस्त सब लुच्चे-लफंगे हैं. एक भी भला आदमी नही. मैं तुमसे कई बार कह चुका कि उन्हें यहाँ मत जमा किया करो, पर तुमने सुना नहीं. आज में आखिर बार कहे देता हूँ कि अगर तुमने उन शोहदों को जमा किया, तो मुझे पुलिस की सहायता लेनी पड़ेगी.”

जियाराम की नम्रता का एक चतुर्थांश और गायब हो गया. फड़ककर बोला – “अच्छी बात है, पुलिस की सहायता लीजिए. देखें क्या करती है? मेरे दोस्तों में आधे से ज्यादा पुलिस के अफसरों ही के बेटे हैं. जब आप ही मेरा सुधार करने पर तुले हुए है, तो मैं व्यर्थ क्यों कष्ट उठाऊं?”

यह कहता हुआ जियाराम अपने कमरे मे चला गया और एक क्षण के बाद हारमोनिया के मीठे स्वरों की आवाज बाहर आने लगी.
सहृदयता का जलता हुआ दीपक निर्दय व्यंग्य के एक झोंके से बुझ गया. अड़ा हुआ घोड़ा चुमकाराने से जोर मारने लगा था, पर हण्टर पड़ते ही फिर अड़ गया और गाड़ी की पीछे ढकेलने लगा.

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