चैप्टर 1 – निर्मला : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 1 Nirmala Novel By Munshi Premchand In Hindi Read Online

Chapter 1 Nirmala Munshi Premchand Novel 

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Chapter 1 Nirmala Novel By Munshi Premchand In Hindi Read Online

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यों तो बाबू उदयभानुलाल के परिवार में बीसों ही प्राणी थे, कोई ममेरा भाई था, कोई फुफेरा, कोई भांजा था, कोई भतीजा, लेकिन यहाँ हमें उनसे कोई प्रयोजन नहीं. वह अच्छे वकील थे, लक्ष्मी प्रसन्न थीं और कुटुम्ब के दरिद्र प्राणियों को आश्रय देना उनका कर्त्तव्य ही था. हमारा संबंध तो केवल उनकी दोनों कन्याओं से है, जिनमें बड़ी का नाम निर्मला और छोटी का कृष्णा था.

अभी कल दोनों साथ-साथ गुड़िया खेलती थीं. निर्मला का पंद्रहवां साल था, कृष्णा का दसवां, फिर भी उनके स्वभाव में कोई विशेष अंतर न था. दोनों चंचल, खिलाड़िन और सैर-तमाशे पर जान देती थीं. दोनों गुड़िया का धूमधाम से ब्याह करती थीं, सदा काम से जी चुराती थीं।. माँ पुकारती रहती थी, पर दोनों कोठे पर छिपी बैठी रहती थीं कि न जाने किस काम के लिए बुलाती हैं. दोनों अपने भाइयों से लड़ती थीं, नौकरों को डांटती थीं और बाजे की आवाज सुनते ही द्वार पर आकर खड़ी हो जाती थीं.

परन्तु आज एकाएक एक ऐसी बात हो गई है, जिसने बड़ी को बड़ी और छोटी को छोटी बना दिया है. कृष्णा वही है, पर निर्मला बड़ी गंभीर, एकांत-प्रिय और लज्जाशील हो गई है. इधर महीनों से बाबू उदयभानुलाल निर्मला के विवाह की बातचीत कर रहे थे. आज उनकी मेहनत ठिकाने लगी है. बाबू भालचन्द्र सिन्हा के ज्येष्ठ पुत्र भुवनमोहन सिन्हा से बात पक्की हो गई है. वर के पिता ने कह दिया है कि आप अपनी ख़ुशी से ही दहेज दें, या न दें, मुझे इसकी परवाह नहीं; हाँ, बारात में जो लोग जायें, उनका आदर-सत्कार अच्छी तरह होना चहिए, जिससे मेरी और आपकी जग-हँसाई न हो.

बाबू उदयभानुलाल थे तो वकील, पर संचय करना न जानते थे. दहेज उनके सामने कठिन समस्या थी. इसलिए जब वर के पिता ने स्वयं कह दिया कि मुझे दहेज की परवाह नहीं, तो मानों उन्हें आँखें मिल गई. डरते थे, न जाने किस-किस के सामने हाथ फैलाना पड़े, दो-तीन महाजनों को ठीक कर रखा था. उनका अनुमान था कि हाथ रोकने पर भी बीस हजार से कम खर्च न होंगे. यह आश्वासन पाकर वे ख़ुशी के मारे फूले न समाये.

इसकी सूचना ने अज्ञान बलिका को मुँह ढांप कर एक कोने में बिठा रखा है. उसके हृदय में एक विचित्र शंका समा गई है, रोम-रोम में एक अज्ञात भय का संचार हो गया है, न जाने क्या होगा. उसके मन में वे उमंगें नहीं हैं, जो युवतियों की आँखों में तिरछी चितवन बनकर, ओंठों पर मधुर हास्य बनकर और अंगों में आलस्य बनकर प्रकट होती हैं. नहीं वहाँ अभिलाषाएं नहीं हैं, वहाँ केवल शकाएं, चिंताएं और भीरू कल्पनाएं हैं. यौवन का अभी तक पूर्ण प्रकाश नहीं हुआ है.

कॄष्णा कुछ-कुछ जानती है, कुछ-कुछ नहीं जानती. जानती है, बहन को अच्छे-अच्छे गहने मिलेंगे, द्वार पर बाजे बजेंगे, मेहमान आएंगे, नाच होगा – यह जानकर प्रसन्न है और यह भी जानती है कि बहन सबके गले मिलकर रोएगी, यहाँ से रो-धोकर विदा हो जाएगी, मैं अकेली रह जाऊंगी – यह जानकर दु:खी है, पर यह नहीं जानती कि यह किसलिए हो रहा है, माताजी और पिताजी क्यों बहन को इस घर से निकालने को इतने उत्सुक हो रहे हैं. बहन ने तो किसी को कुछ नहीं कहा, किसी से लड़ाई नहीं की, क्या इसी तरह एक दिन मुझे भी ये लोग निकाल देंगे? मैं भी इसी तरह कोने में बैठकर रोऊंगी और किसी को मुझ पर दया न आएगी? इसलिए वह भयभीत भी है.

संध्या का समय था, निर्मला छत पर जानकर अकेली बैठी आकाश की और तृषित नेत्रों से ताक रही थ. ऐसा मन होता था – पंख होते तो वह उड़ जाती और इन सारे झंझटों से छूट जाती. इस समय बहुधा दोनों बहनें कहीं सैर करने जाया करती थी. बग्घी खाली न होती, तो बगीचे में ही टहला करतीं, इसलिए कृष्णा उसे खोजती फिरती थी. जब कहीं न पाया, तो छत पर आई और उसे देखते ही हँसकर बोली, “तुम यहाँ आकर छिपी बैठी हो और मैं तुम्हें ढूंढती फिरती हूँ. चलो, बग्घी तैयार करा आयी हूँ.”

निर्मला ने उदासीन भाव से कहा, “तू जा, मैं न जाऊंगी.”

कृष्णा – “नहीं, मेरी अच्छी दीदी, आज ज़रूर चलो. देखो, कैसी ठंडी-ठंडी हवा चल रही है.”

निर्मला – “मेरा मन नहीं चाहता, तू चली जा.”

कृष्णा की आँखें डबडबा आईं. कांपती हुई आवाज़ से बोली, “आज तुम क्यों नहीं चलतीं. मुझ से क्यों नहीं बोलतीं, क्यों नहीं? इधर-उधर छिपी-छिपी फिरती हो? मेरा जी अकेले बैठे-बैठे घबड़ाता है. तुम न चलोगी, तो मैं भी न जाऊंगी. यहीं तुम्हारे साथ बैठी रहूंगी.”

निर्मला – “और जब मैं चली जाऊंगी तब क्या करेगी? तब किसके साथ खेलेगी और किसके साथ घूमने जायेगी, बता?”

कृष्णा – “मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी. अकेले मुझ से यहाँ न रहा जायेगा.

निर्मला (मुस्कराकर) – “तुझे अम्मा न जाने देंगी.”

कृष्णा – “तो मैं भी तुम्हें न जाने दूंगी. तुम अम्मा से कह क्यों नहीं देती कि मैं न जाऊंगी.”

निर्मला – “कह तो रही हूँ, कोई सुनता है!”

कृष्णा – “तो क्या यह तुम्हारा घर नहीं है?”

निर्मला – “नहीं, मेरा घर होता, तो कोई क्यों ज़बर्दस्ती निकाल देता?”

कृष्णा – “इसी तरह किसी दिन मैं भी निकाल दी जाऊंगी?”

निर्मला – “और नहीं क्या तू बैठी रहेगी! हम लड़कियाँ हैं, हमारा घर कहीं नहीं होता.”

कृष्णा – “चंदर भी निकाल दिया जायेगा?”

निर्मला – “चंदर तो लड़का है, उसे कौन निकालेगा?”

कृष्णा – “तो लड़कियाँ बहुत ख़राब होती होंगी?”

निर्मला – “ख़राब न होतीं, तो घर से भगाई क्यों जाती?”

कृष्णा – “चंदर इतना बदमाश है, उसे कोई नहीं भगाता. हम-तुम तो कोई बदमाशी भी नहीं करतीं.”

एकाएक चंदर धम-धम करता हुआ छत पर आ पहुँचा और निर्मला को देखकर बोला, “अच्छा आप यहाँ बैठी हैं. ओहो! अब तो बाजे बजेंगे, दीदी दुल्हन बनेंगी, पालकी पर चढ़ेंगी, ओहो! ओहो!”

चंदर का पूरा नाम चंद्रभानु सिन्हा था. निर्मला से तीन साल छोटा और कृष्णा से दो साल बड़ा.

निर्मला – “चंदर, मुझे चिढ़ाओगे तो अभी जाकर अम्मा से कह दूंगी.”

चंदर – “तो चिढ़ती क्यों हो? तुम भी बाजे सुनना. ओ हो-हो! अब आप दुल्हन बनेंगी. क्यों किशनी, तू बाजे सुनेगी न! वैसे बाजे तूने कभी न सुने होंगे.”

कृष्णा – “क्या बैण्ड से भी अच्छे होंगे?”

चंदर – “हाँ-हाँ, बैण्ड से भी अच्छे, हज़ार गुने अच्छे, लाख गुने अच्छे. तुमने जाने क्या एक बैण्ड सुन लिया, तो समझने लगीं कि उससे अच्छे बाजे नहीं होते. बाजे बजानेवाले लाल-लाल वर्दियाँ और काली-काली टोपियाँ पहने होंगे. ऐसे ख़ूबूसूरत मालूम होंगे कि तुमसे क्या कहूं? आतिशबाजियाँ भी होंगी, हवाइयाँ आसमान में उड़ जायेंगी और वहाँ तारों में लगेंगी तो लाल, पीले, हरे, नीले तारे टूट-टूटकर गिरेंगे. बड़ा मजा आएगा.”

कृष्णा – “और क्या-क्या होगा चंदर, बता दे मेरे भैया?”

चंदर – “मेरे साथ घूमने चल, तो रास्ते में सारी बातें बता दूं. ऐसे-ऐसे तमाशे होंगे कि देखकर तेरी आँखें खुल जाएंगी. हवा में उड़ती हुई परियाँ होंगी, सचमुच की परियाँ.”

कृष्णा – “अच्छा चलो, लेकिन न बताओगे, तो मारूंगी.”

चंद्रभानु और कृष्णा चले गए, पर निर्मला अकेली बैठी रह गई. कृष्णा के चले जाने से इस समय उसे बड़ा क्षोभ हुआ. कृष्णा, जिसे वह प्राणों से भी अधिक प्यार करती थी, आज इतनी निष्ठुर हो गई. अकेली छोड़कर चली गई. बात कोई न थी, लेकिन दु:खी हृदय दुखती हुई आँख है, जिसमें हवा से भी पीड़ा होती है. निर्मला बड़ी देर तक बैठी रोती रही. भाई-बहन, माता-पिता, सभी इसी भांति मुझे भूल जाएंगे, सबकी आँखें फिर जाएंगी, फिर शायद इन्हें देखने को भी तरस जाऊं.

बाग में फूल खिले हुए थे. मीठी-मीठी सुगंध आ रही थी. चैत की शीतल मंद समीर चल रही थी. आकाश में तारे छिटके हुए थे. निर्मला इन्हीं शोकमय विचारों में पड़ी-पड़ी सो गई और आँख लगते ही उसका मन स्वप्न-देश में विचरने लगा. क्या देखती है कि सामने एक नदी लहरें मार रही है और वह नदी के किनारे नाव की बाट देख रही है. संध्या का समय है. अंधेरा किसी भयंकर जंतु की भांति बढ़ता चला आता है. वह घोर चिंता में पड़ी हुई है कि कैसे यह नदी पार होगी, कैसे पहुँचूंगी! रो रही है कि कहीं रात न हो जाए, नहीं तो मैं अकेली यहाँ कैसे रहूंगी. एकाएक उसे एक सुंदर नौका घाट की ओर आती दिखाई देती है.

वह ख़ुशी से उछल पड़ती है और ज्यों ही नाव घाट पर आती है, वह उस पर चढ़ने के लिए बढ़ती है, लेकिन ज्यों ही नाव के पटरे पर पैर रखना चाहती है, उसका मल्लाह बोल उठता है, “तेरे लिए यहाँ जगह नहीं है!”

वह मल्लाह की खुशामद करती है, उसके पैरों पड़ती है, रोती है, लेकिन वह यह कहे जाता है, तेरे लिए यहाँ जगह नहीं है. एक क्षण में नाव खुल जाती है. वह चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगती है. नदी के निर्जन तट पर रात भर कैसे रहेगी? यह सोच वह नदी में कूद कर उस नाव को पकड़ना चाहती है कि इतने में कहीं से आवाज़ आती है, “ठहरो, ठहरो, नदी गहरी है, डूब जाओग. वह नाव तुम्हारे लिए नहीं है, मैं आता हूँ, मेरी नाव में बैठ जाओ. मैं उस पार पहुँचा दूंगा.”

वह भयभीत होकर इधर-उधर देखती है कि यह आवाज़ कहाँ से आई? थोड़ी देर के बाद एक छोटी-सी डोंगी आती दिखाई देती है. उसमें न पाल है, न पतवार और न मस्तूल. पेंदा फटा हुआ है, तख्ते टूटे हुए, नाव में पानी भरा हुआ है और एक आदमी उसमें से पानी उलीच रहा है.

वह उससे कहती है, “यह तो टूटी हुई है, यह कैसे पार लगेगी? “

मल्लाह कहता है, “तुम्हारे लिए यही भेजी गई है, आकर बैठ जाओ!”

वह एक क्षण सोचती है – ‘इसमें बैठूं या न बैठूं?’

अंत में वह निश्चय करती है – ‘बैठ जाऊं. यहाँ अकेली पड़ी रहने से नाव में बैठ जाना फिर भी अच्छा है. किसी भयंकर जंतु के पेट में जाने से तो यही अच्छा है कि नदी में डूब जाऊं. कौन जाने, नाव पार पहुँच ही जाये.’ यह सोचकर वह प्राणों को मुट्ठी में लिए हुए नाव पर बैठ जाती है.

कुछ देर तक नाव डगमगाती हुई चलती है, लेकिन प्रति-क्षण उसमें पानी भरता जाता है. वह भी मल्लाह के साथ दोनों हाथों से पानी उलीचने लगती है. यहाँ तक कि उनके हाथ थक जाते हैं, पर पानी बढ़ता ही चला जाता है, आखिर नाव चक्कर खाने लगती है, मालूम होता है- अब डूबी, अब डूबी. तब वह किसी अदृश्य सहारे के लिए दोनों हाथ फैलाती है, नाव नीचे जाती है और उसके पैर उखड़ जाते हैं. वह जोर से चिल्लाई और चिल्लाते ही उसकी आँखें खुल गई. देखा, तो माता सामने खड़ी उसका कंधा पकड़कर हिला रही थी.

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