Chapter 23 Nirmala Munshi Premchand Novel
Table of Contents
Chapter 1 | 2| 3| 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25
मुंशीजी पाँच बजे कचहरी से लौटे और अंदर आकर चारपाई पर गिर पड़े. बुढ़ापे की देह, उस पर आज सारे दिन भोजन न मिला. मुँह सूख गया. निर्मला समझ गयी, आज दिन खाली गया.
निर्मला ने पूछा – “आज कुछ न मिला.”
मुंशीजी – “सारा दिन दौड़ते गुजरा, पर हाथ कुछ न लगा.”
निर्मला – “फौजदारी वाले मामले में क्या हुआ?”
मुंशीजी – “मेरे मुवक्किल को सजा हो गयी.”
निर्मला – “पंडित वाले मुकदमे में?’
मुंशीजी – “पंडित पर डिक्री डिग्री हो गयी.”
निर्मला – “आप तो कहते थे, दावा खारिज़ हो जायेगा.”
मुंशीजी – “कहता तो था, और जब भी कहता हूँ कि दावा खारिज़ हो जाना चाहिए था, मगर उतना सिर मगजन कौन करे?’
निर्मला – “और सीरवाले दावे में?’
मुंशीजी – ‘उसमें भी हार हो गयी.”
निर्मला – ‘तो आज आप किसी अभागे का मुँह देखकर उठे थे.”
मुंशीजी से अब काम बिल्कुल न हो सकता था. एक तो उसके पास मुकदमे आते ही न थे और जो आते भी थे, वह बिगड़ जाते थे. मगर अपनी असफलताओं को वह निर्मला से छिपाते रहते थे. जिस दिन कुछ हाथ न लगता, उस दिन किसी से दो-चार रुपये उधार लाकर निर्मला को देते, प्राय: सभी मित्रों से कुछ-न-कुछ ले चुके थे. आज वह डौल भी न लगा.
निर्मला ने चिंतापूर्ण स्वर में कहा – “आमदनी का यह हाल है, तो ईश्वर ही मालिक है, उस पर बेटे का यह हाल है कि बाजार जाना मुश्किल है. भूंगी ही से सब काम कराने को जी चाहता है. घी लेकर ग्यारह बजे लौटा. कितना कहकर हार गयी कि लकड़ी लेते आओ, पर सुना ही नहीं.”
मुंशीजी – “तो खाना नहीं पकाया?”
निर्मला – “ऐसी ही बातों से तो आप मुकदमे हारते हैं. ईंधन के बिना किसी ने खाना बनाया है कि मैं ही बना लेती?”
मुंशीजी – “तो बिना कुछ खाये ही चला गया.”
निर्मला – “घर में और क्या रखा था, जो खिला देती?”
मुंशीजी ने डरते-डरते कह – “कुछ पैसे-वैसे न दे दिये?”
निर्मला ने भौंहे सिकोड़कर कहा – “घर में पैसे फलते हैं न?”
मुंशीजी ने कुछ जवाब न दिया. ज़रा देर तक तो प्रतीक्षा करते रहे कि शायद जलपान के लिए कुछ मिलेगा, लेकिन जब निर्मला ने पानी तक न मंगवाया, तो बेचारे निराश होकर चले गये. सियाराम के कष्ट का अनुमान करके उनका चित्त चचंल हो उठा. एक बार भूंगी ही से लकड़ी मंगा ली जाती, तो ऐसा क्या नुकसान हो जाता? ऐसी किफ़ायत भी किस काम की कि घर के आदमी भूखे रह जायें. अपना संदूकचा खोलकर टटोलने लगे कि शायद दो-चार आने पैसे मिल जाये. उसके अंदर के सारे कागज निकाल डाले, एक-एक, खाना देखा, नीचे हाथ डालकर देखा पर कुछ न मिला. अगर निर्मला के संदूक में पैसे न फलते थे, तो इस संदूकचे में शायद इसके फूल भी न लगते हों, लेकिन संयोग ही कहिए कि कागजों को झाड़ते हुए एक चवन्नी गिर पड़ी. मारे हर्ष के मुंशीजी उछल पड़े. बड़ी-बड़ी रकमें इसके पहले कमा चुके थे, पर यह चवन्नी पाकर इस समय उन्हें जितना आह्लाद हुआ, उनका पहले कभी न हुआ था. चवन्नी हाथ में लिए हुए सियाराम के कमरे के सामने आकर पुकारा. कोई जवाब न मिला. तब कमरे में जाकर देखा. सियाराम का कहीं पता नहीं – क्या अभी स्कूल से नहीं लौटा? मन में यह प्रश्न उठते ही मुंशीजी ने अंदर जाकर भूंगी से पूछा. मालूम हुआ स्कूल से लौट आये.
मुंशीजी ने पूछा – “कुछ पानी पिया है?”
भूंगी ने कुछ जवाब न दिया. नाक सिकोड़कर मुँह फेरे हुए चली गयी.
मुंशीजी अहिस्ता-आहिस्ता आकर अपने कमरे में बैठ गये. आज पहली बार उन्हें निर्मेला पर क्रोध आया, लेकिन एक ही क्षण क्रोध का आघात अपने ऊपर होने लगा. उस अंधेरे कमेरे में फर्श पर लेटे हुए वह अपने पुत्र की ओर से इतना उदासीन हो जाने पर धिक्कारने लगे. दिन भर के थके थे. थोड़ी ही देर में उन्हें नींद आ गयी.
भूंगी ने आकर पुकारा – “बाबूजी, रसोई तैयार है.”
मुंशीजी चौंककर उठ बैठे. कमरे में लैम्प जल रहा था पूछा – “कै बज गये भूंगी? मुझे तो नींद आ गयी थी.”
भूंगी ने कहा – “कोतवाली के घण्टे में नौ बज गये हैं और हम नाहीं जानित.”
मुंशीजी – “सिया बाबू आये?”
भूंगी – ‘आये होंगे, तो घर ही में न होंगे.”
मुंशीजी ने झल्लाकर पूछा – ‘मैं पूछता हूँ, आये कि नहीं? और तू न जाने क्या-क्या जवाब देती है? आये कि नहीं?”
भूंगी – “मैंने तो नहीं देखा, झूठ कैसे कह दूं.”
मुंशीजी फिर लेट गये और बोले – “उनको आ जाने दे, तब चलता हूँ.”
आधा घंटे द्वार की ओर आँख लगाए मुंशीजी लेटे रहे, तब वह उठकर बाहर आये और दाहिने हाथ कोई दो फर्लांग तक चले. तब लौटकर द्वार पर आये और पूछा – “सिया बाबू आ गये?”
अंदर से आवाज आयी – ‘अभी नहीं.”
मुंशीजी फिर बायीं ओर चले और गली के नुक्कड़ तक गये. सियाराम कहीं दिखाई न दिया. वहाँ से फिर घर आये और द्वारा पर खड़े होकर पूछा – “सिया बाबू आ गये?”
अंदर से जवाब मिला – “नहीं.”
कोतवाली के घंटे में दस बजने लगे.
मुंशीजी बड़े वेग से ककंपनी बाग की तरफ चले. सोचने लगे, शायद वहाँ घूमने गया हो और घास पर लेटे-लेट नींद आ गयी हो. बाग में पहुँचकर उन्होंने हरेक बेंच को देखा, चारों तरफ घूमे, बहुत से आदमी घास पर पड़े हुए थे, पर सियाराम का निशान न था. उन्होंने सियाराम का नाम लेकर जोर से पुकारा, पर कहीं से आवाज न आयी.
ख़याल आया शायद स्कूल में तमाशा हो रहा हो. स्कूल एक मील से कुछ ज्यादा ही था. स्कूल की तरफ चले, पर आधे रास्ते से ही लौट पड़े. बाजार बंद हो गया था. स्कूल में इतनी रात तक तमाशा नहीं हो सकता. अब भी उन्हें आशा हो रही थी कि सियाराम लौट आया होगा. द्वार पर आकर उन्होंने पुकारा – “सिया बाबू आये? किवाड़ बंद थे. कोई आवाज न आयी. फिर जोर से पुकारा. भूंगी किवाड़ खोलकर बोली – “अभी तो नहीं आये.”
मुंशीजी ने धीरे से भूंगी को अपने पास बुलाया और करुण स्वर में बोले – “तू तो घर की सब बातें जानती है, बता आज क्या हुआ था?”
भूंगी – “बाबूजी, झूठ न बोलूंगी, मालकिन छुड़ा देगी और क्या? दूसरे का लड़का इस तरह नहीं रखा जाता. जहाँ कोई काम हुआ, बस बाजार भेज दिया. दिन भर बाजार दौड़ते बीतता था. आज लकड़ी लाने न गये, तो चूल्हा ही नहीं जला. कहो तो मुँह फुलावें. जब आप ही नहीं देखते, तो दूसरा कौन देखेगा? चलिए, भोजन कर लीजिए, बहूजी कब से बैठी है.”
मुंशीजी – “कह दे, इस वक्त नहीं खायेंगे.”
मुंशीजी फिर अपने कमरे में चले गये और एक लंबी सांस ली. वेदना से भरे हुए ये शब्द उनके मुँह से निकल पड़े – “ईश्वर, क्या अभी दण्ड पूरा नहीं हुआ? क्या इस अंधे की लकड़ी को हाथ से छीन लोगे?”
निर्मला ने आकर कहा – “आज सियाराम अभी तक नहीं आये. कहती रही कि खाना बनाये देती हूँ, खा लो मगर न जाने कब उठकर चल दिये! न जाने कहाँ घूम रहे हैं. बात तो सुनते ही नहीं. कब तक उनकी राह देखा करु! आप चलकर खा लीजिए, उनके लिए खाना उठाकर रख दूंगी.”
मुंशीजी ने निर्मला की ओर कठारे नेत्रों से देखकर कहा – “अभी कै बजे होंगे?”
निर्मला – “क्या जाने, दस बजे होंगे.”
मुंशीजी – “जी नहीं, बारह बजे हैं.”
निर्मला – “बारह बज गये? इतनी देर तो कभी न करते थे. तो कब तक उनकी राह देखोगे! दोपहर को भी कुछ नहीं खाया था. ऐसा सैलानी लड़का मैंने नहीं देखा.”
मुंशीजी – “जी तुम्हें दिक करता है, क्यों?”
निर्मला – “देखिये न, इतना रात गयी और घर की सुध ही नहीं.”
मुंशीजी – “शायद यह आखिरी शरारत हो.”
निर्मला – “कैसी बातें मुँह से निकालते हैं? जायेंगे कहाँ? किसी यार-दोस्त के यहाँ पड़ रहे होंगे.”
मुंशीजी – “शायद ऐसी ही हो. ईश्वर करे ऐसा ही हो.”
निर्मला – “सबेरे आवें, तो जरा तम्बीह कीजिएगा.”
मुंशीजी – “खूब अच्छी तरह करुंगा.”
निर्मला – “चलिए, खा लीजिए, देर बहुत हुई.”
मुंशीजी – “सबेरे उसकी तम्बीह करके खाऊंगा, कहीं न आया, तो तुम्हें ऐसा ईमानदान नौकर कहाँ मिलेगा?”
निर्मला ने ऐंठकर कहा – “तो क्या मैंने भगा दिया?”
मुंशीजी – “नहीं, यह कौन कहता है? तुम उसे क्यों भगाने लगीं? तुम्हारा तो काम करता था, शामत आ गयी होगी.”
निर्मला ने और कुछ नहीं कहा. बात बढ़ जाने का भय था. भीतर चली आयी. सोने को भी न कहा. ज़रा देर में भूंगी ने अंदर से किवाड़ भी बंद कर दिये.
क्या मुंशीजी को नींद आ सकती थी? तीन लड़कों में केवल एक बच रहा था. वह भी हाथ से निकल गया, तो फिर जीवन में अंधकार के सिवाय और है? कोई नाम लेनेवाल भी नहीं रहेगा. हा! कैसे-कैसे रत्न हाथ से निकल गये? मुंशीजी की आँखों से अश्रुधारा बह रही थी, तो कोई आश्चर्य है? उस व्यापक पश्चाताप, उस सघन ग्लानि-तिमिर में आशा की एक हल्की-सी रेखा उन्हें संभाले हुए थी. जिस क्षण वह रेखा लुप्त हो जायेगी, कौन कह सकता है, उन पर क्या बीतेगी? उनकी उस वेदना की कल्पना कौन कर सकता है?
कई बार मुंशीजी की आँखें झपकीं, लेकिन हर बार सियाराम की आहट के धोखे में चौंक पड़े.
सबेरा होते ही मुंशीजी फिर सियाराम को खोजने निकले. किसी से पूछते शर्म आती थी. किस मुँह से पूछें? उन्हें किसी से सहानुभूति की आशा न थी. प्रकट न कहकर मन में सब यही कहेंगे, जैसा किया, वैसा भोगो! सारे दिन वह स्कूल के मैदानों, बाजारों और बगीचों का चक्कर लगाते रहे, दो दिन निराहार रहने पर भी उन्हें इतनी शक्ति कैसे हुई, यह वही जानें.
रात के बारह बजे मुंशीजी घर लौटे, दरवाजे पर लालटेन जल रही थी, निर्मला द्वार पर खड़ी थी. देखते ही बोली – “कहा भी नहीं, न जाने कब चल दिये. कुछ पता चला?”
मुंशीजी ने आग्नेय नेत्रों से ताकते हुए कहा – “हट जाओ सामने से, नहीं तो बुरा होगा. मैं आपे में नहीं हूँ. यह तुम्हारी करनी है. तुम्हारे ही कारण आज मेरी यह दशा हो रही है. आज से छ: साल पहले क्या इस घर की यह दशा थी? तुमने मेरा बना-बनाया घर बिगाड़ दिया, तुमने मेरे लहलहाते बाग को उजाड़ डाला. केवल एक ठूंठ रह गया है. उसका निशान मिटाकर तभी तुम्हें संतोष होगा. मैं अपना सर्वनाश करने के लिए तुम्हें घर नहीं लाया था. सुखी जीवन को और भी सुखमय बनाना चाहता था. यह उसी का प्रायश्चित है. जो लड़के पान की तरह फेरे जाते थे, उन्हें मेरे जीते-जी तुमने चाकर समझ लिया और मैं आँखों से सब कुछ देखते हुए भी अंधा बना बैठा रहा. जाओ, मेरे लिए थोड़ा-सा संखिया भेज दो. बस, यही कसर रह गयी है, वह भी पूरी हो जाये.”
निर्मला ने रोते हुए कहा – ‘मैं तो अभागिन हूँ ही, आप कहेंगे तब जानूंगी? न जाने ईश्वर ने मुझे जन्म क्यों दिया था? मगर यह आपने कैसे समझ लिया कि सियाराम आवेंगे ही नहीं?”
मुंशीजी ने अपने कमरे की ओर जाते हुए कहा – “जलाओ मत जाकर खुशियाँ मनाओ. तुम्हारी मनोकामना पूरी हो गयी.”
निर्मला सारी रात रोती रही. इतना कलंक! उसने जियाराम को गहने ले जाते देखने पर भी मुँह खोलने का साहस नहीं किया. क्यों? इसीलिए तो कि लोग समझेंगे कि यह मिथ्या दोषारोपण करके लड़के से वैर साध रही हैं. आज उसके मौन रहने पर उसे अपराधिनी ठहराया जा रहा है. यदि वह जियाराम को उसी क्षण रोक देती और जियाराम लज्जावश कहीं भाग जाता, तो क्या उसके सिर अपराध न मढ़ा जाता?
सियाराम ही के साथ उसने कौन-सा दुर्व्यवहार किया था. वह कुछ बचत करने के लिए ही विचार से तो सियाराम से सौदा मंगवाया करती थी. क्या वह बचत करके अपने लिए गहने गढ़वाना चाहती थी? जब आमदनी की यह हाल हो रहा था, तो पैसे-पैसे पर निगाह रखने के सिवाय कुछ जमा करने का उसके पास और साधन ही क्या था? जवानों की ज़िन्दगी का तो कोई भरोसा हीं नहीं, बूढ़ों की ज़िन्दगी का क्या ठिकाना? बच्ची के विवाह के लिए वह किसके सामने हाथ फैलाती? बच्ची का भार खुद उसी पर तो नहीं था. वह केवल पति की सुविधा ही के लिए कुछ बटोरने का प्रयत्न कर रही थी. पति ही की क्यों? सियाराम ही तो पिता के बाद घर का स्वामी होता. बहिन के विवाह करने का भार क्या उसके सिर पर न पड़ता? निर्मला सारी कतरव्योंत पति और पुत्र का संकट-मोचन करने ही के लिए कर रही थी. बच्ची का विवाह इस परिस्थिति में सकंट के सिवा और क्या था? पर इसके लिए भी उसके भाग्य में अपयश ही बदा था.
दोपहर हो गयी, पर आज भी चूल्हा नहीं जला. खाना भी जीवन का काम है, इसकी किसी को सुध ही न थी. मुंशीजी बाहर बेजान-से पड़े थे और निर्मला भीतर थी. बच्ची कभी भीतर जाती, कभी बाहर. कोई उससे बोलने वाला न था. बार-बार सियाराम के कमरे के द्वार पर जाकर खड़ी होती और ‘बैया-बैया’ पुकारती, पर ‘बैया’ कोई जवाब न देता था.
संध्या समय मुंशीजी आकर निर्मला से बोले – “तुम्हारे पास कुछ रुपये हैं?”
निर्मला ने चौंककर पूछा – “क्या कीजिएगा.”
मुंशीजी – “मैं जो पूछता हूँ, उसका जवाब दो.”
निर्मला – “क्या आपको नहीं मालूम है? देनेवाले तो आप ही हैं.”
मुंशीजी – “तुम्हारे पास कुछ रुपये हैं या नहीं. अगर हों, तो मुझे दे दो, न हों तो साफ जवाब दो.”
निर्मला ने अब भी साफ जवाब न दिया. बोली – “होंगे तो घर ही में न होंगे. मैंने कहीं और नहीं भेज दिये.”
मुंशीजी बाहर चले गये. वह जानते थे कि निर्मला के पास रुपये हैं, वास्तव में थे भी. निर्मला ने यह भी नहीं कहा कि नही हैं या मैं न दूंगी, और उसकी बातों से प्रकट हो गया कि वह देना नहीं चाहती.
नौ बजे रात तो मुंशीजी ने आकर रुक्मणी से कहा – “बहन, मैं ज़रा बाहर जा रहा हूँ. मेरा बिस्तर भूंगी से बंधवा देना और ट्रंक में कुछ कपड़े रखवाकर बंद कर देना.”
रुक्मणी भोजन बना रही थीं. बोलीं – “बहू तो कमरे में है, कह क्यों नही देते? कहाँ जाने का इरादा है?’
मुंशीजी – “मैं तुमसे कहता हूँ, बहू से कहना होता, तो तुमसे क्यों कहता? आज तुम क्यों खाना पका रही हो?”
रुक्मणी – “कौन पकावे? बहू के सिर में दर्द हो रहा है. आखिर इस वक्त कहाँ जा रहे हो? सबेरे न चले जाना.”
मुंशीजी – “इसी तरह टालते-टालते तो आज तीन दिन हो गये. इधर-इधर घूम-घामकर देखूं, शायद कहीं सियाराम का पता मिल जाये. कुछ लोग कहते हैं कि एक साधु के साथ बातें कर रहा था. शायद वह कहीं बहका ले गया हो.”
रुक्मणी – “तो लौटोगे कब तक?”
शीजी – “कह नहीं सकता. हफ्ता भर लग जाये, महीना भर लग जाये. क्या ठिकाना है?”
रुक्मणी – “आज कौन दिन है? किसी पंडित से पूछ लिया है कि नहीं?”
मुंशीजी भोजन करने बैठे. निर्मला को इस वक्त उन पर बड़ी दया आयी. उसका सारा क्रोध शांत हो गया. खुद तो न बोली, बच्ची को जगाकर चुमकारती हुई बोली – “देख, तेरे बाबूजी कहाँ जा रहे हैं? पूछ तो?”
बच्ची ने द्वार से झांककर पूछा – “बाबू दी, तहां दाते हो?”
मुंशीजी – “बड़ी दूर जाता हूँ बेटी, तुम्हारे भैया को खोजने जाता हूँ.”
बच्ची ने वहीं से खड़े-खड़े कहा – “अम बी तलेंगे.”
मुंशीजी – “बड़ी दूर जाते हैं बच्ची, तुम्हारे वास्ते चीजें लायेंगे. यहाँ क्यों नहीं आती?”
बच्ची मुस्कराकर छिप गयी और एक क्षण में फिर किवाड़ से सिर निकालकर बोली – “अम बी तलेंगे.”
मुंशीजी ने उसी स्वर में कहा – “तुमको नई ले तलेंगे.”
बच्ची – “हमको क्यों नई ले तलोगे?”
मुंशीजी – “तुम तो हमारे पास आती नहीं हो.”
लड़की ठुमकती हुई आकर पिता की गोद में बैठ गयी. थोड़ी देर के लिए मुंशीजी उसकी बाल-क्रीड़ा में अपनी अंतर्वेदना भूल गये.
भोजन करके मुंशीजी बाहर चले गये. निर्मला खड़े ताकती रही. कहना चाहती थी – “व्यर्थ जा रहे हो, पर कह न सकती थी. कुछ रुपये निकाल कर देने का विचार करती थी, पर दे न सकती थी.
अंत को न रहा गया, रुक्मणी से बोली – “दीदीजी ज़रा समझा दीजिए, कहाँ जा रहे हैं! मेरी ज़बान पकड़ी जायेगी, पर बिना बोले रहा नहीं जाता. बिना ठिकाने कहाँ खोजेंगे? व्यर्थ की हैरानी होगी.”
रुक्मणी ने करुणा-सूचक नेत्रों से देखा और अपने कमरे में चली गई.
निर्मला बच्ची को गोद में लिए सोच रही थी कि शायद जाने के पहले बच्ची को देखने या मुझसे मिलने के लिए आवें, पर उसकी आशा विफल हो गई? मुंशीजी ने बिस्तर उठाया और तांगे पर जा बैठे.
उसी वक्त निर्मला का कलेजा मसोसने लगा. उसे ऐसा जान पड़ा कि इनसे भेंट न होगी. वह अधीर होकर द्वार पर आई कि मुंशीजी को रोक ले, पर तांगा चल चुका था.
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