Chapter 10 Nirmala Munshi Premchand Novel
Table of Contents
Chapter 1 | 2| 3| 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25
मंसाराम दो दिन तक गहरी चिंता में डूबा रहा. बार-बार अपनी माता की याद आती, न खाना अच्छा लगता, न पढ़ने ही में जी लगता. उसकी कायापलट-सी हो गई. दो दिन गुजर गये और छात्रालय में रहते हुए भी उसने वह काम न किया, जो स्कूल के मास्टरों ने घर से कर लाने को दिया था. परिणामस्वरुप उसे बेंच पर खड़ा रहना पड़ा. जो बात कभी न हुई थी, वह आज हो गई. यह असह्य अपमान भी उसे सहना पड़ा.
तीसरे दिन वह इन्हीं चिंताओं में मग्न हुआ अपने मन को समझा रहा था – ‘कहाँ संसार में अकेले मेरी ही माता मरी है? विमाताएं तो सभी इसी प्रकार की होती हैं. मेरे साथ कोई नई बात नहीं हो रही है. अब मुझे पुरुषों की भांति द्विगुण परिश्रम से अपना काम करना चाहिए, जैसे माता-पिता राज़ी रहें, वैसे उन्हें राज़ी रखना चाहिए. इस साल अगर छात्रवृति मिल गई, तो मुझे घर से कुछ लेने की ज़रूरत ही न रहेगी. कितने ही लड़के अपने ही बल पर बड़ी-बड़ी उपाधियाँ प्राप्त कर लेते हैं. भाग्य के नाम को रोने-कोसने से क्या होगा?’
इतने में जियाराम आकर खड़ा हो गया.
मंसाराम ने पूछा – “घर का क्या हाल है जिया? नई अम्माजी तो बहुत प्रसन्न होंगी?”
जियाराम – “उनके मन का हाल तो मैं नहीं जानता, लेकिन जब से तुम आये हो, उन्होंने एक जून भी खाना नहीं खाया. जब देखो, तब रोया करती हैं. जब बाबूजी आते हैं, तब अलबत्ता हँसने लगती हैं. तुम चले आये, तो मैंने भी शाम को अपनी किताबें संभाली. यहीं तुम्हारे साथ रहना चाहता था. भूंगी चुड़ैल ने जाकर अम्मजी से कह दिया. बाबूजी बैठे थे, उनके सामने ही अम्मजी ने आकर मेरी किताबें छीन लीं और रोकर बोलीं, तुम भी चले जाओगे, तो इस घर में कौन रहेगा? अगर मेरे कारण तुम लोग घर छोड़-छोड़कर भागे जा रहे, तो लो, मैं ही कहीं चली जाती हूँ. मैं तो झल्लाया हुआ था ही, वहाँ अब बाबूजी भी न थे, बिगड़कर बोला, आप क्यों कहीं चली जायेंगी? आपका तो घर है, आप आराम से रहिए. गैर तो हमीं लोग हैं, हम न रहेंगे, तब तो आपको आराम-आराम ही होगा.”
मंसाराम – “तुमने खूब कहा, बहुत ही अच्छा कहा. इस पर और भी झल्लाई होंगी और जाकर बाबूजी से शिकायत की होगी.”
जियाराम – “नहीं, यह कुछ नहीं हुआ. बेचारी जमीन पर बैठकर रोने लगीं. मुझे भी करुणा आ गयी. मैं भी रो पड़ा. उन्होंने आंचल से मेरे आँसू पोंछे और बोलीं, “जिया! मैं ईश्वर को साक्षी देकर कहती हूँ कि मैंने तुम्हारे भैया के विषय में तुम्हारे बाबूजी से एक शब्द भी नहीं कहा. मेरे भाग में कलंक लिखा हुआ है, वही भोग रही हूँ. फिर और न जाने क्या-क्या कहा, जो मेरी समझ में नहीं आया. कुछ बाबुजी की बात थी.
मंसाराम ने उद्विग्नता से पूछा – “बाबूजी के विषय में क्या कहा? कुछ याद है?”
जियाराम – “बातें तो भई, मुझे याद नहीं आती. मेरी ‘मेमोरी’ कौन बड़ी ते है, लेकिन उनकी बातों का मतलब कुछ ऐसा मालूम होता था कि उन्हें बाबूजी को प्रसन्न रखने के लिए यह स्वांग भरना पड़ रहा है. न जाने धर्म-अधर्म की कैसी बातें करती थीं, जो मैं बिल्कुल न समझ सका. मुझे तो अब इसका विश्वास आ गया है कि उनकी इच्छा तुम्हें यहाँ भेजने की न थी.”
मंसाराम – “तुम इन चालों का मतलब नहीं समझ सकते. ये बड़ी गहरी चालें हैं.”
जियाराम – “तुम्हारी समझ में होंगी, मेरी समझ में नहीं हैं.”
मंसाराम – “जब तुम ज्योमेट्री नहीं समझ सकते, तो इन बातों को क्या समझ सकोगे? उस रात को जब मुझे खाना खाने के लिए बुलाने आयी थीं और उनके आग्रह पर मैं जाने को तैयार भी हो गया था, उस वक्त बाबूजी को देखते ही उन्होने जो कैंडा बदला, वह क्या मैं कभी भी भूल सकता हूँ?”
जियाराम – “यही बात मेरी समझ में नहीं आती. अभी कल ही मैं यहाँ से गया, तो लगीं तुम्हारा हाल पूछने. मैंने कहा, वह तो कहते थे कि अब कभी इस घर में कदम न रखूंगा. मैंने कुछ झूठ तो कहा नहीं, तुमने मुझसे कहा ही था. इतना सुनना था कि फूट-फूटकर रोने लगीं, मैं दिल में बहुत पछताया कि कहाँ-से-कहाँ मैंने यह बात कह दी. बार-बार यही कहती थीं, क्या वह मेरे कारण घर छोड़ देंगे? मुझसे इतने नाराज़ है।? चले गये और मुझसे मिले तक नहीं. खाना तैयार था, खाने तक नहीं आये. हाय! मैं क्या बताऊं, किस विपत्ति में हूँ. इतने में बाबूजी आ गये. बस तुरंत आँखें पोंछकर मुस्कुराती हुई उनके पास चली गई. यह बात मेरी समझ में नहीं आती. आज मुझे बड़ी मिन्नत की कि उनको साथ लेते आना. आज मैं तुम्हें खींच ले चलूंगा. दो दिन में वह कितनी दुबली हो गयी हैं, तुम्हें यह देखकर उन पर दया आयी. तो चलोगे न?”
मंसाराम ने कुछ जवाब न दिया. उसके पैर कांप रहे थे. जियाराम तो हाज़िरी की घंटी सुनकर भागा, पर वह बेंच पर लेट गया और इतनी लंबी साँस ली, मानो बहुत देर से उसने साँस ही नहीं ली है. उसके मुख से दुस्सह वेदना में डूबे हुए शब्द निकले – “हाय ईश्वर! इस नाम के सिवा उसे अपना जीवन निराधार मालूम होता था. इस एक उच्छवास में कितना नैराश्य था, कितनी संवेदना, कितनी करुणा, कितनी दीन-प्रार्थना भरी हुई थी, इसका कौन अनुमान कर सकता है?” अब सारा रहस्य उसकी समझ में आ रहा था और बार-बार उसका पीड़ित हृदय अंतर्नाद कर रहा था – “हाय ईश्वर! इतना घोर कलंक.”
क्या जीवन में इससे बड़ी विपत्ति की कल्पना की जा सकती है? क्या संसार में इससे घोरतम नीचता की कल्पना हो सकती है? आज तक किसी पिता ने अपने पुत्र पर इतना निर्दय कलंक न लगाया होगा. जिसके चरित्र की सभी प्रशंसा करते थे, जो अन्य युवकों के लिए आदर्श समझा जाता था, जिसने कभी अपवित्र विचारों को अपने पास नहीं फटकने दिया, उसी पर यह घोरतम कलंक. मंसाराम को ऐसा मालूम हुआ, मानो उसका दिल फटा जाता है.
दूसरी घंटी भी बज गई. लड़के अपने-अपने कमरे में गए, पर मंसाराम हथेली पर गाल रखे अनिमेष नेत्रों से भूमि की ओर देख रहा था, मानो उसका सर्वस्व जलमग्न हो गया हो, मानो वह किसी को मुँह न दिखा सकता हो. स्कूल में गैरहाज़िरी हो जायेगी, जुर्माना हो जायेगा, इसकी उसे चिंता नहीं, जब उसका सर्वस्व लुट गया, तो अब इन छोटी-छोटी बातों का क्या भय? इतना बड़ा कलंक लगने पर भी अगर जीता रहूं, तो मेरे जीने को धिक्कार ह.
उसी शोकातिरेक दशा में वह चिल्ला पड़ा – “माताजी! तुम कहाँ हो? तुम्हारा बेटा, जिस पर तुम प्राण देती थीं, जिसे तुम अपने जीवन का आधार समझती थीं, आज घोर संकट में है. उसी का पिता उसकी गर्दन पर छुरी फेर रहा है. हाय, तुम कहाँ हो?”
मंसाराम फिर शांतचित्त से सोचने लगा – ‘मुझ पर यह संदेह क्यों हो रहा है? इसका क्या कारण है? मुझमें ऐसी कौन-सी बात उन्होंने देखी, जिससे उन्हें यह संदेह हुआ? वह हमारे पिता हैं, मेरे शत्रु नहीं है, जो अनायास ही मुझ पर यह अपराध लगाने बैठ जायें. ज़रूर उन्होनें कोई-कोई बात देखी या सुनी है. उनका मुझ पर कितना स्नेह था. मेरे बगैर भोजन न करते थे, वही मेरे शत्रु हो जायें, यह बात अकारण नहीं हो सकती.
अच्छा, इस संदेह का बीजारोपण किस दिन हुआ? मुझे बोर्डिंग हाउस में ठहराने की बात तो पीछे की है. उस दिन रात को वह मेरे कमरे में आकर मेरी परीक्षा लेने लगे थे, उसी दिन उनकी त्योरियाँ बदली हुईं थीं. उस दिन ऐसी कौन-सी बात हुई, जो अप्रिय लगी हो. मैं नई अम्मा से कुछ खाने को मांगने गया था. बाबूजी उस समय वहाँ बैठे थे. हाँ, अब याद आती है, उसी वक्त उनका चेहरा तमतमा गया था. उसी दिन से नई अम्मा ने मुझसे पढ़ना छोड़ दिया. अगर मैं जानता कि मेरा घर में आना-जाना, अम्माजी से कुछ कहना-सुनना और उन्हें पढ़ाना-लिखाना पिताजी को बुरा लगता है, तो आज क्यों यह नौबत आती? और नई अम्मा, उन पर क्या बीत रही होगी?
मंसाराम ने अब तक निर्मला की ओर ध्यान नहीं दिया था. निर्मला का ध्यान आते ही उसके रोंये खड़े हो गये. हाय उनका सरल स्नेहशील हृदय यह आघात कैसे सह सकेगा? आह! मैं कितने भ्रम में था. मैं उनके स्नेह को कौशल समझता था. मुझे क्या मालूम था कि उन्हें पिताजी का भ्रम शांत करने के लिए मेरे प्रति इतना कटु व्यवहार करना पड़ता है. आह! मैंने उन पर कितना अन्याय किया है. उनकी दशा तो मुझसे भी खराब हो रही होगी. मैं तो यहाँ चला आय, मगर वह कहाँ जायेंगी? जिया कहता था, उन्होंने दो दिन से भोजन नहीं किया. हरदम रोया करती हैं. कैसे जाकर समझाऊं? वह इस अभागे के पीछे क्यों अपने सिर यह विपत्ति ले रही हैं? वह बार-बार मेरा हाल पूछती हैं? क्यों बार-बार मुझे बुलाती हैं? कैसे कह दूं कि माता मुझे तुमसे ज़रा भी शिकायत नहीं, मेरा दिल तुम्हारी तरफ़ से साफ है.
वह अब भी बैठी रो रही होंगी. कितना बड़ा अनर्थ है. बाबूजी को यह क्या हो रहा है? क्या इसीलिए विवाह किया था? एक बालिका की हत्या करने के लिए ही उसे लाये थे? इस कोमल पुष्प को मसल डालने के लिए ही तोड़ा था.
उनका उद्धार कैसे होगा? उस निरपराधिनी का मुख कैसे उज्जवल होगा? उन्हें केवल मेरे साथ स्नेह का व्यवहार करने के लिए यह दंड दिया जा रहा है. उनकी सज्जनता का उन्हें यह उपहार मिल रहा है. मैं उन्हें इस प्रकार निर्दय आघात सहते देखकर बैठा रहूंगा? अपनी मान-रक्षा के लिए न सही, उनकी आत्म-रक्षा के लिए इन प्राणों का बलिदान करना पड़ेगा. इसके सिवाय उद्धार का कोई उपाय नहीं. आह! दिल में कैसे-कैसे अरमान थे? वे सब खाक में मिला देने होंगे. एक सती पर संदेह किया जा रहा है और मेरे कारण. मुझे अपनी प्राणों से उनकी रक्षा करनी होगी, यही मेरा कर्त्तव्य है. इसी में सच्ची वीरता है. माता, मैं अपने रक्त से इस कालिमा को धो दूंगा. इसी में मेरा और तुम्हारा दोनों का कल्याण है.
वह दिन भर इन्हीं विचारों मे डूबा रहा. शाम को उसके दोनों भाई आकर घर चलने के लिए आग्रह करने लगे.
सियाराम – “चलते क्यों नहीं? मेरे भैयाजी, चले चलो न.
मंसाराम – “मुझे फ़ुर्सत नहीं है कि तुम्हारे कहने से चला चलूं.”
जियाराम – “आखिर कल तो इतवार है ही.”
मंसाराम – “इतवार को भी काम है.”
जियाराम – “अच्छा, कल आआगे न?”
मंसाराम – “नहीं, कल मुझे एक मैच में जाना है.”
सियाराम – “अम्माजी मूंग के लड्डू बना रही हैं. न चलोगे, तो एक भी पाआगे. हम तुम मिल के खा जायेंगे, जिया इन्हें न देंगे.”
जियाराम – “भैया, अगर तुम कल न गये, तो शायद अम्माजी यहीं चली आयें.”
मंसाराम – “सच! नहीं ऐसा क्यों करेंगी? यहाँ आयीं, तो बड़ी परेशानी होगी. तुम कह देना, वह कहीं मैच देखने गये हैं.”
जियाराम – “मैं झूठ क्यों बोलने लगा? मैं कह दूंगा, वह मुँह फुलाये बैठे थे. देख ले उन्हें साथ लाता हूँ कि नहीं.”
सियाराम – “हम कह देंगे कि आज पढ़ने नहीं गये. पड़े-पड़े सोते रहे.”
मंसाराम ने इन दूतों से कल आने का वादा करके गला छुड़ाया. जब दोनों चले गये, तो फिर चिंता में डूबा. रात-भर उसे करवटें बदलते गुजरी. छुट्टी का दिन भी बैठे-बैठे कट गया, उसे दिन भर शंका होती रहती कि कहीं अम्माजी सचमुच न चली आयें. किसी गाड़ी की खड़खड़ाहट सुनता, तो उसका कलेजा धकधक करने लगता. कहीं आ तो नहीं गयीं?
छात्रालय में एक छोटा-सा औषधालय था. एक डाक्टर साहब संध्या समय एक घंटे के लिए आ जाया करते थे. अगर कोई लड़का बीमार होता, तो उसे दवा देते. आज वह आये, तो मंसाराम कुछ सोचता हुआ उनके पास जाकर खड़ा हो गया. वह मंसाराम को अच्छी तरह जानते थे. उसे देखकर आश्चर्य से बोले – “यह तुम्हारी क्या हालत है जी? तुम तो मानो गले जा रहे हो. कहीं बाजार का का चस्का तो नहीं पड़ गया? आखिर तुम्हें हुआ क्या? ज़रा यहाँ तो आओ.”
मंसाराम ने मुस्कराकर कहा – “मुझे ज़िन्दगी का रोग है. आपके पास इसकी भी तो कोई दवा है?”
डाक्टर – “मैं तुम्हारी परीक्षा करना चाहता हूँ. तुम्हारी सूरत ही बदल गयी है, पहचाने भी नहीं जाते.”
यह कहकर, उन्होने मंसाराम का हाथ पकड़ लिया और छाती, पीठ, आँखें, जीभ सब बारी-बारी से देखीं. तब चिंतित होकर बोले – “वकील साहब से मैं आज ही मिलूंगा. तुम्हें थाइसिस हो रहा है. सारे लक्षण उसी के हैं.”
मंसाराम ने बड़ी उत्सुकता से पूछा – “कितने दिनों में काम तमाम हो जायेगा, डक्टर साहब?”
डाक्टर – “कैसी बात करते हो जी? मैं वकील साहब से मिलकर तुम्हें किसी पहाड़ी जगह भेजने की सलाह दूंगा. ईश्वर ने चाहा, तो बहुत जल्द अच्छे हो जाओगे. बीमारी अभी पहले स्टेज में है.”
मंसाराम – “तब तो अभी साल दो साल की देर मालूम होती है. मैं तो इतना इंतज़ार नहीं कर सकता. सुनिए, मुझे थायसिस-वायसिस कुछ नहीं है, न कोई दूसरी शिकायत ही है, आप बाबूजी को नाहक तरद्रदुद में न डालिएगा. इस वक्त मेरे सिर में दर्द है, कोई दवा दीजिए. कोई ऐसी दवा हो, जिससे नींद भी आ जाये. मुझे दो रात से नींद नहीं आती.”
डॉक्टर ने जहरीली दवाइयों की आलमारी खोली और शीशी से थोड़ी सी दवा निकालकर मंसाराम को दी. मंसाराम ने पूछा – “यह तो कोई जहर है भला इसे कोई पी ले तो मर जाये?”
डॉक्टर – “नहीं, मर तो नहीं जाये, पर सिर में चक्कर ज़रूर आ जाये.”
मंसाराम – “कोई ऐसी दवा भी इसमें है, जिसे पीते ही प्राण निकल जायें?”
डॉक्टर – “ऐसी एक-दो नहीं कितनी ही दवाएं हैं. यह जो शीशी देख रहे हो, इसकी एक बूंद भी पेट में चली जाये, तो जान न बचे. आनन-फानन में मौत हो जाये.”।
मंसाराम – “क्यों डॉक्टर साहब, जो लोग जहर खा लेते हैं, उन्हें बड़ी तकलीफ़ होती होगी?”
डॉक्टर – “सभी जहरों में तकलीफ़ नहीं होती. बाज़ तो ऐसे हैं कि पीते ही आदमी ठंडा हो जाता है. यह शीशी इसी किस्म की है, इस पीते ही आदमी बेहोश हो जाता है, फिर उसे होश नहीं आता.”
मंसाराम ने सोचा – ‘तब तो प्राण देना बहुत आसान है, फिर क्यों लोग इतना डरते हैं? यह शीशी कैसे मिलेगी? अगर दवा का नाम पूछकर शहर के किसी दवा-फरोश से लेना चाहूं, तो वह कभी न देगा. ऊंह, इसे मिलने में कोई दिक्कत नहीं. यह तो मालूम हो गया कि प्राणों का अंत बड़ी आसानी से किया जा सकता है. मंसाराम इतना प्रसन्न हुआ, मानो कोई इनाम पा गया हो. उसके दिल पर से बोझ-सा हट गया. चिंता की मेघ-राशि जो सिर पर मंडरा रही थी, छिन्न-भिन्न् हो गयी. महीनों बाद आज उसे मन में एक स्फूर्ति का अनुभव हुआ. लड़के थियेटर देखने जा रहे थे, निरीक्षक से आज्ञा ले ली थी. मंसाराम भी उनके साथ थियेटर देखने चला गया. ऐसा खुश था, मानो उससे ज्यादा सुखी जीव संसार में कोई नहीं है. थियेटर में नकल देखकर तो वह हँसते-हँसते लोट गया. बार-बार तालियाँ बजाने और ‘वन्स मोर’ की हांक लगाने में पहला नंबर उसी का था. गाना सुनकर वह मस्त हो जाता था, और ‘ओहो हो’ करके चिल्ला उठता था. दर्शकों की निगाहें बार-बार उसकी तरफ उठ जाती थीं. थियेटर के पात्र भी उसी की ओर ताकते थे और यह जानने को उत्सुक थे कि कौन महाशय इतने रसिक और भावुक हैं. उसके मित्रों को उसकी उच्छृंखलता पर आश्चर्य हो रहा था. वह बहुत ही शांतचित्त, गंभीर स्वभाव का युवक था. आज वह क्यों इतना हास्यशील हो गया है? क्यों उसके विनोद का पारावार नहीं है?
दो बजे रात को थियेटर से लौटने पर भी उसका हास्योन्माद कम नहीं हुआ. उसने एक लड़के की चारपाई उलट दी, कई लड़कों के कमरे के द्वार बाहर से बंद कर दिये और उन्हें भीतर से खट-खट करते सुनकर हँसता रहा. यहाँ तक कि छात्रालय के अध्यक्ष महोदय करी नींद में भी शोरगुल सुनकर खुल गयी और उन्होंने मंसाराम की शरारत पर खेद प्रकट किया. कौन जानता है कि उसके अंत:स्थल में कितनी भीषण क्रांति हो रही है? संदेह के निर्दय आघात ने उसकी लज्जा और आत्मसम्मान को कुचल डाला है. उसे अपमान और तिरस्कार का लेशमात्र भी भय नहीं है. यह विनोद नहीं, उसकी आत्मा का करुण विलाप है. जब और सब लड़के सो गये, तो वह भी चारपाई पर लेटा, लेकिन उसे नींद नहीं आयी. एक क्षण के बाद वह बैठा और अपनी सारी पुस्तकें बांधकर संदूक में रख दीं. जब मरना ही है, तो पढ़कर क्या होगा? जिस जीवन में ऐसी-एसी बाधाएं हैं, ऐसी-ऐसी यातनाएं हैं, उससे मृत्यु कहीं अच्छी.
यह सोचते-सोचते तड़का हो गया. तीन रात से वह एक क्षण भी न सोया था. इस वक्त वह उठा तो उसके पैर थर-थर कांप रहे थे और सिर में चक्कर सा आ रहा था. आँखें जल रही थीं और शरीर के सारे अंग शिथिल हो रहे थे. दिन चढ़ता जाता था और उसमें इतनी शक्ति दिन चढ़ता जाता था और उसमें इतनी शक्ति भी न थी कि उठकर मुँह हाथ धो डाले. एकाएक उसने भूंगी को रूमाल में कुछ लिए हुए एक कहार के साथ आते देखा. उसका कलेजा सन्न रह गया. हाय! ईश्वर वे आ गयीं. अब क्या होगा? भूंगी अकेले नहीं आयी होगी? बग्घी ज़रूर बाहर खड़ी होगी? कहाँ तो उससे उठा प्रश्न जाता था, कहाँ भूंगी को देखते ही दौड़ा और घबराई हुई आवाज में बोला- “अम्माजी भी आयी हैं, क्या रे? जब मालूम हुआ कि अम्माजी नहीं आयी, तब उसका चित्त शांत हुआ.”
भूंगी ने कहा – “भैया! तुम कल गये नहीं, बहूजी तुम्हारी राह देखती रह गयीं. उनसे क्यों रुठे हो भैया? कहती हैं, मैंने उनकी कुछ भी शिकायत नहीं की है. मुझसे आज रोकर कहने लगीं – उनके पास यह मिठाई लेती जा और कहना, मेरे कारण क्यों घर छोड़ दिया है? कहाँ रख दूं यह थाली?”
मंसाराम ने रुखाई से कहा – “यह थाली अपने सिर पर पटक दे चुड़ैल. वहाँ से चली है मिठाई लेकर. खबरदार, जो फिर कभी इधर आयी. सौगात लेकर चली है. जाकर कह देना, मुझे उनकी मिठाई नहीं चाहिए. जाकर कह देना, तुम्हारा घर है तुम रहो, वहाँ वे बड़े आराम से हैं. खूब खाते और मौज करते हैं. सुनती है, बाबूजी की मुँह पर कहना, समझ गयी? मुझे किसी का डर नहीं है, और जो करना चाहें, कर डालें, जिससे दिल में कोई अरमान न रह जाये. कहें तो इलाहाबाद, लखनऊ, कलकत्ता चला जाऊं. मेरे लिए जैसे बनारस वैसे दूसरा शहर. यहाँ क्या रखा है?”
भूंगी – “भैया, मिठाई रख लो, नहीं रो-रोकर मर जायेंगी. सच मानो रो-रोकर मर जायेंगी.”
मंसाराम ने आँसुओं के उठते हुए वेग को दबाकर कहा – “मर जायेंगी, मेरी बला से. कौन मुझे बड़ा सुख दे दिया है, जिसके लिए पछताऊं. मेरा तो उन्होंने सर्वनाश कर दिया. कह देना, मेरे पास कोई संदेशा न भेजें, कुछ ज़रूरत नहीं.”
भूंगी – “भैया, तुम तो कहते हो यहाँ खूब खाता हूँ और मौज करता हूँ, मगर देह तो आधी भी न रही. जैसे आये थे, उससे आधे भी न रहे.”
मंसाराम – “यह तेरी आँखों का फेर है. देखना, दो-चार दिन में मुटाकर कोल्हू हो जाता हूँ कि नहीं. उनसे यह भी कह देना कि रोना-धोना बंद करें. जो मैंने सुना कि रोती हैं और खाना नहीं खातीं, मुझसे बुरा कोई नहीं. मुझे घर से निकाला है, तो आप मन से रहें. चली हैं, प्रेम दिखाने. मैं ऐसे त्रिया-चरित्र बहुत पढ़े बैठा हूँ.”
भूंगी चली गयी. मंसाराम को उससे बातें करते ही कुछ ठंड मालूम होने लगी थी. यह अभिनय करने के लिए उसे अपने मनोभावों को जितना दबाना पड़ा था, वह उसके लिए असाध्य था. उसका आत्म-सम्मान उसे इस कुटिल व्यवहार का जल्द-से-जल्द अंत कर देने के लिए बाध्य कर रहा था, पर इसका परिणाम क्या होगा? निर्मला क्या यह आघात सह सकेगी? अब तक वह मृत्यु की कल्पना करते समय किसी अन्य प्राणी का विचार न करता था, पर आज एकाएक ज्ञान हुआ कि मेरे जीवन के साथ एक और प्राणी का जीवन-सूत्र भी बंधा हुआ है. निर्मला यह समझेगी कि मेरी निष्ठुरता ही ने इनकी जान ली. यह समझकर उसका कोमल हृदय फट न जायेगा? उसका जीवन तो अब भी संकट में है. संदेह के कठोर पंजे में फंसी हुई अबला क्या अपने का हत्यारिणी समझकर बहुत दिन जीवित रह सकती है?
मंसाराम ने चारपाई पर लेटकर लिहाफ ओढ़ लिया, फिर भी सर्दी से कलेजा कांप रहा था. थोड़ी ही देर में उसे जोर से ज्वर चढ़ आया, वह बेहोश हो गया. इस अचेत दशा में उसे भांति-भांति के स्वप्न दिखाई देने लगे. थोड़ी-थोड़ी देर के बाद चौंक पड़ता, आँखें खुल जाती, फिर बेहोश हो जाता.
सहसा वकील साहब की आवाज सुनकर वह चौंक पड़ा. हाँ, वकील साहब की आवाज थी. उसने लिहाफ़ फेंक दिया और चारपाई से उतरकर नीचे खड़ा हो गया. उसके मन में एक आवेग हुआ कि इस वक्त इनके सामने प्राण दे दूं. उसे ऐसा मालूम हुआ कि मैं मर जाऊं, तो इन्हें सच्ची खुशी होगी. शायद इसीलिए वह देखने आये हैं कि मेरे मरने में कितनी देर है. वकील साहब ने उसका हाथ पकड़ लिया, जिससे वह गिर न पड़े और पूछा – “कैसी तबीयत है लल्लू? लेटे क्यों न रहे? लेट न जाओ, तुम खड़े क्यों हो गये?”
मंसाराम – “मेरी तबीयत तो बहुत अच्छी है. आपको व्यर्थ ही कष्ट हुआ. मुंशी जी ने कुछ जवाब न दिया. लड़के की दशा देखकर उनकी आँखों से आँसू निकल आये. वह हृष्ट-पुष्ट बालक, जिसे देखकर चित्त प्रसन्न हो जाता था, अब सूखकर कांटा हो गया था. पाँच-छ: दिन में ही वह इतना दुबला हो गया था कि उसे पहचानना कठिन था. मुंशीजी ने उसे आहिस्ता से चारपाई पर लिटा दिया और लिहाफ़ अच्छी तरह उसे उढ़ाकर सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए. कहीं लड़का हाथ से तो नहीं जाएगा. यह ख़याल करके वह शोक विह्ववल हो गये और स्टूल पर बैठकर फूट-फूटकर रोने लगे. मंसाराम भी लिहाफ़ में मुँह लपेटे रो रहा था. अभी थोड़े ही दिनों पहले उसे देखकर पिता का हृदय गर्व से फूल उठता था, लेकिन आज उसे इस दारुण दशा में देखकर भी वह सोच रहे हैं कि इसे घर ले चलूं या नहीं. क्या यहाँ दवा नहीं हो सकती? मैं यहाँ चौबीसों घंटे बैठा रहूंगा. डॉक्टर साहब यहाँ हैं ही. कोई दिक्कत न होगी. घर ले चलने से में उन्हें बाधाएं-ही-बाधाएं दिखाई देती थीं, सबसे बड़ा भय यह था कि वहाँ निर्मला इसके पास हरदम बैठी रहेगी और मैं मना न कर सकूंगा, यह उनके लिए असह्य था.
इतने में अध्यक्ष ने आकर कहा – “मैं तो समझता हूँ कि आप इन्हें अपने साथ ले जायें. गाड़ी है ही, कोई तकलीफ़ न होगी. यहाँ अच्छी तरह देखभाल न हो सकेगी.”
मुंशीजी – “हाँ, आया तो मैं इसी ख़याल से था, लेकिन इनकी हालत बहुत ही नाज़ुक मालूम होती है. ज़रा-सी असावधानी होने से सरसाम हो जाने का भय है.”
अध्यक्ष – “यहाँ से इन्हें ले जाने में थोड़ी-सी दिक्कत ज़रुर है, लेकिन यह तो आप खुद सोच सकते हैं कि घर पर जो आराम मिल सकता है, वह यहाँ किसी तरह नहीं मिल सकता. इसके अतिरिक्त किसी बीमार लड़के को यहाँ रखना नियम-विरुद्ध भी है.”
मुंशीजी – “कहिए तो मैं हेडमास्टर से आज्ञा ले लूं. मुझे इनका यहाँ से इस हालत में ले जाना किसी तरह मुनासिब नहीं मालूम होता.
अध्यक्ष ने हेडमास्टर का नाम सुना, तो समझे कि यह महाशय धमकी दे रहे हैं. ज़रा तिनककर बोले – “हेडमास्टर नियम-विरुद्ध कोई बात नहीं कर सकते. मैं इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी कैसे ले सकता हूँ?”
अब क्या हो? क्या घर ले जाना ही पड़ेगा? यहाँ रखने का तो यह बहाना था कि ले जाने बीमारी बढ़ जाने की शंका है. यहाँ से ले जाकर हस्पताल में ठहराने का कोई बहाना नहीं है. जो सुनेगा, वह यही कहेगा कि डाक्टर की फीस बचाने के लिए लड़के को अस्पताल फेंक आये, पर अब ले जाने के सिवा और कोई उपाय न था. अगर अध्यक्ष महोदय इस वक्त रिश्वत लेने पर तैयार हो जाते, तो शायद दो-चार साल का वेतन ले लेते, लेकिन कायदे के पाबंद लोगों में इतनी बुद्धि, इतनी चतुराई कहाँ. अगर इस वक्त मुंशीजी को कोई आदमी ऐसा उज्र सुझा देता, जिसमें उनहें मंसाराम को घर न ले जाना पड़े, तो वह आजीवन असका एहसान मानते. सोचने का समय भी न था. अध्यक्ष महोदय शैतान की तरह सिर पर सवार था. विवश होकर मुंशीजी ने दोनों साईसों को बुलाया और मंसाराम को उठाने लगे. मंसाराम अर्धचेतना की दशा में था, चौंककर बोला, “क्या है? कौन है?”
मुंशीजी – “कोई नहीं है बेटा, मैं तुम्हें घर ले चलना चाहता हूँ, आओ, गोद में उठा लूं.”
मंसाराम – “मुझे क्यों घर ले चलते हैं? मैं वहाँ नहीं जाऊंगा.”
मुंशीजी – “यहाँ तो रह नहीं सकते, नियम ही ऐसा है.”
मंसाराम – “कुछ भी हो, वहाँ न जाऊंगा. मुझे और कहीं ले चलिए, किसी पेड़ के नीचे, किसी झोंपड़े में, जहाँ चाहे रखिए, पर घर पर न ले चलिए.”
अध्यक्ष ने मुंशीजी से कहा – “आप इन बातों का ख़याल न करें, यह तो होश में नहीं है.”
मंसाराम – “कौन होश में नहीं है? मैं होश में नहीं हूँ? किसी को गालियाँ देता हूँ? दांत काटता हूँ? क्यों होश में नहीं हूँ? मुझे यहीं पड़ा रहने दीजिए, जो कुछ होना होगा, होगा. अगर ऐसा है, तो मुझे अस्पताल ले चलिए, मैं वहाँ पड़ा रहूंगा. जीना होगा, जिऊंगा, मरना होगा मरुंगा, लेकिन घर किसी तरह भी न जाऊंगा.”
यह जोर पाकर मुंशीजी फिरा अध्यक्ष की मिन्नतें करने लगे, लेकिन वह कायदे का पाबंदी आदमी कुछ सुनता ही न था. अगर छूत की बीमारी हुई और किसी दूसरे लड़के को छूत लग गयी, तो कौन उसका जवाबदेह होगा. इस तर्क के सामने मुंशीजी की कानूनी दलीलें भी मात हो गयीं.
आखिर मुंशीजी ने मंसाराम से कहा – “बेटा, तुम्हें घर चलने से क्यों इंकार हो रहा है? वहाँ तो सभी तरह का आराम रहेगा. मुंशीजी ने कहने को तो यह बात कह दी, लेकिन डर रहे थे कि कहीं सचमुच मंसाराम लने पर राज़ी न हो जाये. मंसाराम को अस्पताल में रखने का कोई बहाना खोज रहे थे और उसकी ज़िम्मेदारी मंसाराम ही के सिर डालना चाहते थे. यह अध्यक्ष के सामने की बात थी, वह इस बात की साक्षी दे सकते थे कि मंसाराम अपनी ज़िद से अस्पताल जा रहा है. मुंशीजी का इसमे लेशमात्र भी दोष नहीं है.
मंसाराम ने झल्लाकर कहा – “नहीं, नहीं सौ बार नहीं, मैं घर नहीं जाऊंगा. मुझे अस्पताल ले चलिए और घर के सब आदमियों को मना कर दीजिए कि मुझे देखने न आये. मुझे कुछ नहीं हुआ है, बिल्कुल बीमार नहीं हूँ. आप मुझे छोड़ दीजिए, मैं अपने पांव से चल सकता हूँ.”
वह उठ खड़ा हुआ और उन्मत्त की भांति द्वार की ओर चला, लेकिन पैर लड़खडा गये. यदि मुंशीजी ने संभाल न लिया होता, तो उसे बड़ी चोट आती. दोनों नौकरों की मदद से मुंशीजी उसे बग्घी के पास लाये और अंदर बैठा दिया.
गाड़ी अस्पताल की ओर चली. वही हुआ जो मुंशीजी चाहते थे. इस शोक में भी उनका चित्त संतुष्ट था. लड़का अपनी इच्छा से अस्पताल जा रहा था, क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं था कि घर में इसे कोई स्नेह नहीं है? क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि मंसाराम निर्दोष है? वह उसक पर अकारण ही भ्रम कर रहे थे.
लेकिन ज़रा ही देर में इस तुष्टि की जगह उनके मन में ग्लानि का भाव जाग्रत हुआ. वह अपने प्राण-प्रिय पुत्र को घर न ले जाकर अस्पताल लिये जा रहे थे. उनके विशाल भवन में उनके पुत्र के लिए जगह न थी, इस दशा में भी, जबकि उसकी जीवन संकट में पड़ा हुआ था. कितनी विडंबना है!
एक क्षण के बाद एकाएक मुंशीजी के मन में प्रश्न उठा – ‘कहीं मंसाराम उनके भावों को ताड़ तो नहीं गया? इसीलिए तो उसे घर से घृणा नहीं हो गयी है? अगर ऐसा है, तो गजब हो जायेगा.’
उस अनर्थ की कल्पना ही से मुंशीजी के रोंए खड़े हो गये और कलेजा धकधक करने लगा. हृदय में एक धक्का-सा लगा. अगर इस ज्वर का यही कारण है, तो ईश्वर ही मालिक है. इस समय उनकी दशा अत्यंत दयनीय थी. वह आग, जो उन्होंने अपने ठिठुरे हुए हाथों को सेंकने के लिए जलाई थी, अब उनके घर में लगी जा रही थी. इस करुणा, शोक, पश्चात्ताप और शंका से उनका चित्त घबरा उठा. उनके गुप्त रोदन की ध्वनि बाहर निकल सकती, तो सुनने वाले रो पड़ते. उनके आँसू बाहर निकल सकते, तो उनका तार बंध जाता. उन्होंने पुत्र के वर्ण-हीन मुख की ओर एक वात्सल्यूपर्ण नेत्रों से देखा, वेदना से विकल होकर उसे छाती से लगा लिया और इतना रोये कि हिचकी बंच गयी.
सामने अस्पताल का फाटक दिखाई दे रहा था.
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