चैप्टर 3 – निर्मला : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 3 Nirmala Novel By Munshi Premchand In Hindi Read Online

Chapter 3 Nirmala Munshi Premchand Novel

Chapter 3 Nirmala Novel By Munshi Premchand In Hindi Read Online

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विवाह का विलाप और अनाथों का रोना सुनाकर हम पाठकों का दिल न दुखाएंगे. जिसके ऊपर पड़ती है, वह रोता है, विलाप करता है, पछाड़ें खाता है. यह कोई नयी बात नहीं. हाँ, अगर आप चाहें, तो कल्याणी की उस घोर मानसिक यातना का अनुमान कर सकते हैं, जो उसे इस विचार से हो रही थी कि मैं ही अपने प्राणाधार की घातिका हूँ. वे वाक्य, जो क्रोध के आवेश में उसके असंयत मुख से निकले थे, अब उसके हृदय को वाणों की भांति छेद रहे थे. अगर पति ने उसकी गोद में कराह-कराहकर प्राण-त्याग दिए होते, तो उसे संतोष होता कि मैंने उनके प्रति अपने कर्तव्य का पालन किया. शोकाकुल हृदय को इससे ज्यादा सांत्वना और किसी बात से नहीं होती. उसे इस विचार से कितना संतोष होता कि मेरे स्वामी मुझसे प्रसन्न गये, अंतिम समय तक उनके हृदय में मेरा प्रेम बना रहा. कल्याणी को यह संतोष न था.

वह सोचती थी – ‘हा! मेरी पच्चीस  बरस की तपस्या निष्फल हो गई. मैं अंत समय अपने प्राणपति के प्रेम के वंचित हो गयी. अगर मैंने उन्हें ऐसे कठोर शब्द न कहे होते, तो वह कदापि रात को घर से न जाते.’ न जाने उनके मन में क्या-क्या विचार आये हों? उनके मनोभावों की कल्पना करके और अपने अपराध को बढ़ा-बढ़ाकर वह आठों पहर कुढ़ती रहती थी. जिन बच्चों पर वह प्राण देती थी, अब उनकी सूरत से चिढ़ती. इन्हीं के कारण मुझे अपने स्वामी से रार मोल लेनी पड़ी. यही मेरे शत्रु हैं. जहाँ आठों पहर कचहरी-सी लगी रहती थी, वहाँ अब खाक उड़ती है. वह मेला ही उठ गया. जब खिलानेवाला ही न रहा, तो खाने वाले कैसे पड़े रहते? धीरे-धीरे एक महीने के अंदर सभी भांजे-भतीजे बिदा हो गये. जिनका दावा था कि हम पानी की जगह खून बहाने वालों में हैं, वे ऐसा सरपट भागे कि पीछे फिरकर भी न देखा. दुनिया ही दूसरी हो गयी. जिन बच्चों को देखकर प्यार करने को जी चाहता था, उनके चेहरे पर अब मक्खियाँ भिनभिनाती थीं. न जाने वह कांति कहाँ चली गई?

शोक का आवेग कम हुआ, तो निर्मला के विवाह की समस्या उपस्थित हुई. कुछ लोगों की सलाह हुई कि विवाह इस साल रोक दिया जाये, लेकिन कल्याणी ने कहा, “इतनी तैयारियों के बाद विवाह को रोक देने से सब किया-धरा मिट्टी में मिल जायेगा और दूसरे साल फिर यही तैयारियाँ करनी पड़ेंगी, जिसकी कोई आशा नहीं. विवाह कर ही देना अच्छा है. कुछ लेना-देना तो है ही नहीं. बारातियों के सेवा-सत्कार का काफी सामान हो चुका है, विलंब करने में हानि-ही-हानि है. अतएव महाशय भालचंद्र को शोक-सूचना के साथ यह संदेश भी भेज दिया गया.

कल्याणी ने अपने पत्र में लिखा – ‘इस अनाथिनी पर दया कीजिए और डूबती हुई नाव को पार लगाइये. स्वामीजी के मन में बड़ी-बड़ी कामनाएं थीं, किंतु ईश्वर को कुछ और ही मंज़ूर था. अब मेरी लाज आपके हाथ है. कन्या आपकी हो चुकी. मैं लोगों के सेवा-सत्कार करने को अपना सौभाग्य समझती हूँ, लेकिन यदि इसमें कुछ कमी हो, कुछ त्रुटि पड़े, तो मेरी दशा का विचार करके क्षमा कीजियेगा. मुझे विश्वास है कि आप इस अनाथिनी की निन्दा न होने देंगे, आदि.’

कल्याणी ने यह पत्र डाक से न भेजा, बल्कि पुरोहित से कहा, “आपको कष्ट तो होगा, पर आप स्वयं जाकर यह पत्र दीजिए और मेरी ओर से बहुत विनय के साथ कहियेगा कि जितने कम आदमी आयें, उतना ही अच्छ. यहाँ कोई प्रबंध करनेवाला नहीं है.”

पुरोहित मोटेराम यह संदेश लेकर तीसरे दिन लखनऊ जा पहुँचे.

संध्या का समय था. बाबू भालचंद्र दीवानखाने के सामने आरामकुर्सी पर नंग-धड़ंग लेटे हुए हुक्का पी रहे थे. बहुत ही स्थूल, ऊँचे कद के आदमी थे. ऐसा मालूम होता था कि काला देव है या कोई हब्शी अफ्रीका से पकड़कर आया है. सिर से पैर तक एक ही रंग था –काला. चेहरा इतना स्याह था कि मालूम न होता था कि माथे का अंत कहाँ है, सिर का आंरभ कहाँ. बस, कोयले की एक सजीव मूर्ति थी. आपको गर्मी बहुत सताती थी. दो आदमी खड़े पंखा झल रहे थे, उस पर भी पसीने का तार बंधा हुआ था. आप आबकारी के विभाग में एक ऊँचे ओहदे पर थे. पाँच सौ रूपये वेतन मिलता था. ठेकेदारों से खूब रिश्वत लेते थे. ठेकेदार शराब के नाम पानी बेचें, चौबीसों घंटे दुकान खुली रखें, आपको केवल खुश रखना काफी था. सारा कानून आपकी खुशी थी. इतनी भयंकर मूर्ति थी कि चाँदनी रात में लोग उन्हें देख कर सहसा चौंक पड़ते थे, बालक और स्त्रियाँ ही नहीं, पुरूष तक सहम जाते थे. चाँदनी रात इसलिए कहा गया कि अंधेरी रात में तो उन्हें कोई देख ही न सकता था – श्यामलता अंधकार में विलीन हो जाती थी. केवल आँखों का रंग लाल था. जैसे पक्का मुसलमान पाँच बार नमाज़ पढ़ता है, वैसे ही आप भी पाँच बार शराब पीते थे, मुफ़्त की शराब तो काजी को हलाल है, फिर आप तो शराब के अफसर ही थे, जितनी चाहें पियें, कोई हाथ पकड़ने वाला न था. जब प्यास लगती शराब पी लेते. जैसे कुछ रंगों में परस्पर सहानुभूति है, उसी तरह कुछ रंगों में परस्पर विरोध है. लालिमा के संयोग से कालिमा और भी भयंकर हो जाती है.

बाबू साहब ने पंडितजी को देखते ही कुर्सी से उठकर कहा, “अख्खाह! आप हैं? आइए-आइए. धन्य भाग! अरे कोई है. कहाँ चले गये सब-के-सब, झगडू, गुरदीन, छकौड़ी, भवानी, रामगुलाम कोई है? क्या सब-के-सब मर गये! चलो रामगुलाम, भवानी, छकौड़ी, गुरदीन, झगड़ू. कोई नहीं बोलता, सब मर गये! दर्जन-भर आदमी हैं, पर मौके पर एक की भी सूरत नहीं नजर आती, न जाने सब कहाँ गायब हो जाते हैं. आपके वास्ते कुर्सी लाओ.”

बाबू साहब ने ये पाँचों नाम कई बार दुहराये, लेकिन यह न हुआ कि पंखा झलनेवाले दोनों आदमियों में से किसी को कुर्सी लाने को भेज देते. तीन-चार मिनट के बाद एक काना आदमी खांसता हुआ आकर बोला, “सरकार, ईतना की नौकरी हमार कीन न होई! कहाँ तक उधार-बाढ़ी लै-लै खाई मांगत-मांगत थेथर होय गयेना.“

भाल – “बको मत, जाकर कुर्सी लाओ. जब कोई काम करने की कहा गया, तो रोने लगता है. कहिए पडितजी, वहाँ सब कुशल है?”

मोटेराम – “क्या कुशल कहूं बाबूजी, अब कुशल कहाँ? सारा घर मिट्टी में मिल गया.”

इतने में कहार ने एक टूटा हुआ चीड़ का संदूक लाकर रख दिया और बोला, “कुर्सी-मेज हमारे उठाये नाहीं उठत है.”
पंडितजी शर्माते हुए डरते-डरते उस पर बैठे कि कहीं टूट न जाये और कल्याणी का पत्र बाबू साहब के हाथ में रख दिया.

भाल – “अब और कैसे मिट्टी में मिलेगा? इससे बड़ी और कौन विपत्ति पड़ेगी? बाबू उदयभानु लाल से मेरी पुरानी दोस्ती थी. आदमी नहीं, हीरा था! क्या दिल था, क्या हिम्मत थी, (आँखें पोंछकर) मेरा तो जैसे दाहिना हाथ ही कट गया. विश्वास मानिए, जबसे यह खबर सुनी है, आँखों में अंधेरा-सा छा गया है. खाने बैठता हूँ, तो कौर मुँह में नहीं जाता. उनकी सूरत आँखों के सामने खड़ी रहती है. मुँह जूठा करके उठ जाता हूँ. किसी काम में दिल नहीं लगता. भाई के मरने का रंज़ भी इससे कम ही होता है. आदमी नहीं, हीरा था!”

मोटे – “सरकार, नगर में अब ऐसा कोई रईस नहीं रहा.”

भाल – “मैं खूब जानता हूँ, पंडितजी, आप मुझसे क्या कहते हैं. ऐसा आदमी लाख-दो-लाख में एक होता है. जितना मैं उनको जानता था, उतना दूसरा नहीं जान सकता. दो-ही-तीन बार की मुलाकात में उनका भक्त हो गया और मरने दम तक रहूंगा. आप समधिन साहब से कह दीजिएगा, मुझे दिली रंज़ है.”

मोटे – “आपसे ऐसी ही आशा थी! आज-जैसे सज्जनों के दर्शन दुर्लभ हैं. नहीं तो आज कौन बिना दहेज के पुत्र का विवाह करता है.”

भाल – “महाराज, देहज की बातचीत ऐसे सत्यवादी पुरूषों से नहीं की जाती. उनसे संबंध हो जाना ही लाख रूपये के बराबर है. मैं इसी को अपना अहोभाग्य समझता हूँ. हाँ! कितनी उदार आत्मा थी. रूपये को तो उन्होंने कुछ समझा ही नहीं, तिनके के बराबर भी परवाह नहीं की. बुरा रिवाज़ है, बेहद बुरा! मेरा बस चले, तो दहेज लेनेवालों और दहेज देनेवालों दोनों ही को गोली मार दूं, हाँ साहब, साफ गोली मार दूं, फिर चाहे फांसी ही क्यों न हो जाय! पूछो, आप लड़के का विवाह करते हैं कि उसे बेचते हैं? अगर आपको लड़के के शादी में दिल खोलकर खर्च करने का अरमान है, तो शौक के खर्च कीजिए, लेकिन जो कुछ कीजिए, अपने बल पर. यह क्या कि कन्या के पिता का गला रेतिए. नीचता है, घोर नीचता! मेरा बस चले, तो इन पाजियों को गोली मार दूं.”

मोटे – “धन्य हो सरकार! भगवान ने आपको बड़ी बुद्धि दी है. यह धर्म का प्रताप है. मालकिन की इच्छा है कि विवाह का मुहूर्त वही रहे और तो उन्होंने सारी बातें पत्र में लिख दी हैं. बस, अब आप ही उबारें, तो हम उबर सकते हैं. इस तरह तो बारात में जितने सज्जन आयेंगे, उनकी सेवा-सत्कार हम करेंगे ही, लेकिन परिस्थिति अब बहुत बदल गयी है सरकार, कोई करने-धरनेवाला नहीं है. बस ऐसी बात कीजिए कि वकील साहब के नाम पर बट्टा न लगे.”

भालचंद्र एक मिनट तक आँखें बंद किये बैठे रहे, फिर एक लंबी साँस खींचकर बोले, “ईश्वर को मंज़ूर ही न था कि वह लक्ष्मी मेरे घर आती, नहीं, तो क्या यह वज्र गिरता? सारे मंसूबे खाक में मिल गये. फूला न समाता था कि वह शुभ-अवसर निकट आ रहा है, पर क्या जानता था कि ईश्वर के दरबार में कुछ और षड़यंत्र रचा जा रहा है. मरनेवाले की याद ही रूलाने के लिए काफ़ी है. उसे देखकर तो ज़ख्म और भी हरा जो जायेगा. उस दशा में न जाने क्या कर बैठूं. इसे गुण समझिए, चाहे दोष कि जिससे एक बार मेरी घनिष्ठता हो गयी, फिर उसकी याद चित्त से नहीं उतरती. अभी तो खैर इतना ही है कि उनकी सूरत आँखों के सामने नाचती रहती है, लेकिन यदि वह कन्या घर में आ गयी, तब मेरा ज़िंदा रहना कठिन हो जायेगा. सच मानिए, रोते-रोते मेरी आँखें फूट जायेंगी. जानता हूँ, रोना-धोना व्यर्थ है. जो मर गया, वह लौटकर नहीं आ सकता. सब्र करने के सिवाय और कोई उपाय नहीं है, लेकिन दिल से मजबूर हूँ. उस अनाथ बालिका को देखकर मेरा कलेजा फट जायेगा.”

मोटे – “ऐसा न कहिए सरकार! वकील साहब नहीं तो क्या, आप तो हैं. अब आप ही उसके पिता-तुल्य हैं. वह अब वकील साहब की कन्या नहीं, आपकी कन्या है. आपके हृदय के भाव तो कोई जानता नहीं, लोग समझेंगे, वकील साहब का देहांत हो जाने के कारण आप अपने वचन से फिर गये. इसमें आपकी बदनामी है. चित्त को समझाइए और हँस-खुशी कन्या का पाणिग्रहण करा लीजिए. हाथी मरे तो नौ लाख का. लाख विपत्ति पड़ी है, लेकिन मालकिन आप लोगों की सेवा-सत्कार करने में कोई बात न उठा रखेंगी.

बाबू साहब समझ गये कि पंडित मोटेराम कोरे पोथी के ही पंडित नहीं, वरन व्यवहार-नीति में भी चतुर हैं. बोले, “पंडितजी, हलफ से कहता हूँ, मुझे उस लड़की से जितना प्रेम है, उतना अपनी लड़की से भी नहीं है, लेकिन जब ईश्वर को मंज़ूर नहीं है, तो मेरा क्या बस है? वह मृत्यु एक प्रकार की अमंगल सूचना है, जो विधाता की ओर से हमें मिली है. यह किसी आनेवाली मुसीबत की आकाशवाणी है, विधाता स्पष्ट रीति से कह रहा है कि यह विवाह मंगलमय न होगा. ऐसी दशा में आप ही सोचिये, यह संयोग कहाँ तक उचित है. आप तो विद्वान आदमी हैं. सोचिए, जिस काम का आरंभ ही अमंगल से हो, उसका अंत अमंगलमय हो सकता है? नहीं, जानबूझकर मक्खी नहीं निगली जाती. समधिन साहब को समझाकर कह दीजिएगा, मैं उनकी आज्ञापालन करने को तैयार हूँ, लेकिन इसका परिणाम अच्छा न होगा. स्वार्थ के वंश में होकर मैं अपने परम मित्र की संतान के साथ यह अन्याय नहीं कर सकता.”

इस तर्क ने पडितजी को निरुत्तर कर दिया. वादी ने यह तीर छोड़ा था, जिसकी उनके पास कोई काट न थी. शत्रु ने उन्हीं के हथियार से उन पर वार किया था और वह उसका प्रतिकार न कर सकते थे. वह अभी कोई जवाब सोच ही रहे थे, कि बाबू साहब ने फिर नौकरों को पुकारना शुरू किया, “अरे, तुम सब फिर गायब हो गये – झगडू, छकौड़ी, भवानी, गुरूदीन, रामगुलाम! एक भी नहीं बोलता, सब-के-सब मर गये. पंडितजी के वास्ते पानी-वानी की फिक्र है? ना जाने इन सबों को कोई कहाँ तक समझये. अक्ल छू तक नहीं गयी. देख रहे हैं कि एक महाशय दूर से थके-मांदे चले आ रहे हैं, पर किसी को जरा भी परवाह नहीं. लाओं, पानी-वानी रखो. पंडितजी, आपके लिए शर्बत बनवाऊं या फलाहारी मिठाई मंगवा दूं?”

मोटेराम जी मिठाइयों के विषय में किसी तरह का बंधन न स्वीकार करते थे. उनका सिद्धांत था कि घृत से सभी वस्तुएं पवित्र हो जाती हैं. रसगुल्ले और बेसन के लड्डू उन्हें बहुत प्रिय थे, पर शर्बत से उन्हें रुचि न थी. पानी से पेट भरना उनके नियम के विरूद्ध था. सकुचाते हुए बोले, “शर्बत पीने की तो मुझे आदत नहीं, मिठाई खा लूंगा.”

भाल – “फलाहारी न?”

मोटे – “इसका मुझे कोई विचार नहीं.”

भाल – “है तो यही बात. छूत-छात सब ढकोसला है. मैं स्वयं नहीं मानता. अरे, अभी तक कोई नहीं आया? छकौड़ी, भवानी, गुरुदीन, रामगुलाम, कोई तो बोले!”

अबकी भी वही बूढ़ा कहार खांसता हुआ आकर खड़ा हो गया और बोला, “सरकार, मोर तलब दै दीन जाय. ऐसी नौकरी मोसे न होई. कहाँ लो दौरी दौरत-दौरत गोड़ पिराय लागत है.”

भाल – “काम कुछ करो या न करो, पर तलब पहिले चहिए! दिन भर पड़े-पड़े खांसा करो, तलब तो तुम्हारी चढ़ रही है. जाकर बाजार से एक आने की ताजी मिठाई ला. दौड़ता हुआ जा.”

कहार को यह हुक्म देकर बाबू साहब घर में गये और स्त्री से बोले, “वहाँ से एक पंडितजी आये हैं. यह खत लाये हैं, ज़रा पढ़ो तो.”

पत्नी जी का नाम रंगीलीबाई था. गोरे रंग की प्रसन्न-मुख महिला थीं. रूप और यौवन उनसे विदा हो रहे थे, पर किसी प्रेमी मित्र की भांति मचल-मचल कर तीस साल तक जिसके गले से लगे रहे, उसे छोड़ते न बनता था.

रंगीलीबाई बैठी पान लगा रही थीं, बोली, “कह दिया न कि हमें वहाँ ब्याह करना मंज़ूर नहीं.”

भाल – “हाँ, कह तो दिया, पर मारे संकोच के मुँह से शब्द न निकलता था. झूठ-मूठ का होला करना पड़ता.”

रंगीली – “साफ बात करने में संकोच क्या? हमारी इच्छा है, नहीं करते. किसी का कुछ लिया तो नहीं है? जब दूसरी जगह दस हजार नगद मिल रहे हैं; तो वहाँ क्यों न करूं? उनकी लड़की कोई सोने की थोड़े ही है. वकील साहब जीते होते तो शरमाते-शमाते पंद्रह-बीस हजार दे मरते. अब वहाँ क्या रखा है?”

भाल – “एक दफ़ा ज़बान देकर मुकर जाना अच्छी बात नहीं. कोई मुख से कुछ न कह, पर बदनामी हुए बिना नहीं रहती. मगर तुम्हारी ज़िद से मजबूर हूँ.”

रंगीलीबाई ने पान खाकर खत खोला और पढ़ने लगीं. हिंदी का अभ्यास बाबू साहब को तो बिल्कुल न था और यद्यपि रंगीलीबाई भी शायद ही कभी किताब पढ़ती हों, पर खत-वत पढ़ लेती थीं. पहली ही पांति पढ़कर उनकी आँखें सजल हो गयीं और पत्र समाप्त किया, तो उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे. एक-एक शब्द करूणा के रस में डूबा हुआ था. एक-एक अक्षर से दीनता टपक रही थी. रंगीलीबाई की कठोरता पत्थर की नहीं, लाख की थी, जो एक ही आँच से पिघल जाती है. कल्याणी के करूणोत्पादक शब्दों ने उनके स्वार्थ-मंडित हृदय को पिघला दिया. रूंधे हुए कंठ से बोली, “अभी ब्राह्मण बैठा है न?”

भालचंद्र पत्नी के आँसुओं को देख-देखकर सूखे जाते थे. अपने ऊपर झल्ला रहे थे कि नाहक मैंने यह खत इसे दिखाया. इसकी ज़रूरत क्या थी? इतनी बड़ी भूल उनसे कभी न हुई थी. संदिग्ध भाव से बोले, “शायद बैठा हो, मैंने तो जाने को कह दिया था.”

रंगीली ने खिड़की से झांककर देखा. पंडित मोटेराम जी बगुले की तरह ध्यान लगाये बाजार के रास्ते की ओर ताक रहे थे. लालसा में व्यग्र होकर कभी यह पहलू बदलते, कभी वह पहलू. ‘एक आने की मिठाई’ ने तो आशा की कमर ही तोड़ दी थी, उसमें भी यह विलंब, दारूण दशा थी. उन्हें बैठे देखकर रंगीलीबाई बोली, “है-है अभी है, जाकर कह दो, हम विवाह करेंगे, ज़रूर करेंगे. बेचारी बड़ी मुसीबत में है.”

भाल – “तुम कभी-कभी बच्चों की-सी बातें करने लगती हो, अभी उससे कह आया हूँ कि मुझे विवाह करना मंज़ूर नहीं. एक लंबी-चौड़ी भूमिका बांधनी पड़ी. अब जाकर यह संदेश कहूंगा, तो वह अपने दिल में क्या कहेगा, जरा सोचो तो? यह शादी-विवाह का मामला है. लड़कों का खेल नहीं कि अभी एक बात तय की, अभी पलट गये. भले आदमी की बात न हुई, दिल्लगी हुई.”

रंगीली – “अच्छा, तुम अपने मुँह से न कहो, उस ब्राह्मण को मेरे पास भेज दो. मैं इस तरह समझा दूंगी कि तुम्हारी बात भी रह जाये और मेरी भी. इसमें तो तुम्हें कोई आपत्ति नहीं है.”

भाल – “तुम अपने सिवा सारी दुनिया को नादान समझती हो. तुम कहो या मैं कहूं, बात एक ही है. जो बात तय हो गयी, वह हो गई, अब मैं उसे फिर नहीं उठाना चाहता. तुम्हीं तो बार-बार कहती थीं कि मैं वहाँ न करूंगी. तुम्हारे ही कारण मुझे अपनी बात खोनी पड़ी. अब तुम फिर रंग बदलती हो. यह तो मेरी छाती पर मूंग दलना है. आखिर तुम्हें कुछ तो मेरे मान-अपमान का विचार करना चाहिए.”

रंगीली – “तो मुझे क्या मालूम था कि विधवा की दशा इतनी हीन हो गया है? तुम्हीं ने तो कहा था कि उसने पति की सारी संपत्ति छिपा रखी है और अपनी गरीबी का ढोंग रचकर काम निकालना चाहती है. एक ही छंटी औरत है. तुमने जो कहा, वह मैंने मान लिया. भलाई करके बुराई करने में तो लज्जा और संकोच है. बुराई करके भलाई करने मे कोई संकोच नहीं. अगर तुम ‘हाँ’ कर आये होते और मैं ‘नहीं’ करने को कहती, तो तुम्हारा संकोच उचित था. ‘नहीं’ करने के बाद ‘हाँ’ करने में तो अपना बड़प्पन है.”

भाल – “तुम्हें बड़प्पन मालूम होता हो, मुझे तो लुच्चापन ही मालूम होता है. फिर तुमने यह कैसे मान लिया कि मैंने वकीलाइन में विषय में जो बात कही थी, वह झूठी थी! क्या वह पत्र देखकर? तुम जैसी खुद सरल हो, वैसे ही दूसरे को भी सरल समझती हो.”

रंगीली – “इस पत्र में बनावट नहीं मालूम होती. बनावट की बात दिल में चुभती नहीं. उसमें बनावट की गंध अवश्य रहती है.”

भाल – “बनावट की बात तो ऐसी चुभती है कि सच्ची बात उसके सामने बिल्कुल फीकी मालूम होती है. यह किस्से-कहानियाँ लिखने वाले जिनकी किताबें पढ़-पढ़कर तुम घंटों रोती हो, क्या सच्ची बातें लिखते है? सरासर झूठ का तूमार बांधते हैं. यह भी एक कला है.”

रंगीली – “क्यों जी, तुम मुझसे भी उड़ते हो! दाई से पेट छिपाते हो? मैं तुम्हारी बातें मान जाती हूँ, तो तुम समझते हो, इसे चकमा दिया. मगर मैं तुम्हारी एक-एक नस पहचानती हूँ.तुम अपना ऐब मेरे सिर मढ़कर खुद बेदाग बचना चहाते हो. बोलो, कुछ झूठ कहती हूँ, जब वकील साहब जीते थे, जो तुमने सोचा था कि ठहराव की ज़रूरत ही क्या है, वे खुद ही जितना उचित समेझेंगे देंगे, बल्कि बिना ठहराव के और भी ज्यादा मिलने की आशा होगी. अब जो वकील साहब का देहांत हो गया, तो तरह-तरह के हीले-हवाले करने लगे. यह भलमनसी नहीं, छोटापन है, इसका इलज़ाम भी तुम्हारे सिर है. मैं,  अब शादी-ब्याह के नगीच न जाऊंगी. तुम्हारी जैसी इच्छा हो, करो. ढोंगी आदमियों से मुझे चिढ़ है. जो बात करो, सफाई से करो, बुरा हो या अच्छा. ‘हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और’ वाली नीति पर चलना तुम्हें शोभा नहीं देता. बोला आब भी वहाँ शादी करते हो या नहीं?”

भाल – “जब मैं बेईमान, दगाबाज और झूठा ठहरा, तो मुझसे पूछना ही क्या! मगर खूब पहचानती हो आदमियों को! क्या कहना है, तुम्हारी इस सूझ-बूझ की, बलैया ले लें!”

रंगीली – “हो बड़े हयादार, अब भी नहीं शरमाते. ईमान से कहा, मैंने बात ताड़ ली कि नहीं?”

भाल – “अजी जाओ, वह दूसरी औरतें होती हैं, जो मर्दों को पहचानती हैं. अब तक मैं यही समझता था कि औरतों की दृष्टि बड़ी सूक्ष्म होती है, पर आज यह विश्वास उठ गया और महात्माओं ने औरतों के विषय में जो तत्व की बाते कही है, उनको मानना पड़ा.”

रंगीली – “ज़रा आईने में अपनी सूरत तो देख आओं, तुम्हें मेरी कसम है. ज़रा देख लो, कितना झेंपे हुए हो.”

भाल – “सच कहना, कितना झेंपा हुआ हूँ?”

रंगीली – “इतना ही, जितना कोई भलामानस चोर चोरी खुल जाने पर झेंपता है.”

भाल – “खैर, मैं झेंपा ही सही, पर शादी वहाँ न होगी.”

रंगीली – “मेरी बला से, जहाँ चाहो करो. क्यों, भुवन से एक बार क्यों नहीं पूछ लेते?”

भाल – “अच्छी बात है, उसी पर फैसला रहा.”

रंगीली – “ज़रा भी इशारा न करना!”

भाल – “अजी, मैं उसकी तरफ़ ताकूंगा भी नहीं.”

संयोग से ठीक इसी वक्त भुवनमोहन भी आ पहुँचा. ऐसे सुंदर, सुडौल, बलिष्ठ युवक कालेजों में बहुत कम देखने में आते हैं. बिल्कुल माँ को पड़ा था, वही गोरा-चिट्टा रंग, वही पतले-पतले गुलाब की पत्ती के-से ओंठ, वही चौड़ा, माथा, वही बड़ी-बड़ी आँखें, डील-डौल बाप का-सा था. ऊँचा कोट, ब्रीचेज, टाई, बूट, हैट उस पर खूब खिल रहे थे. हाथ में एक हाकी-स्टिक थी. चाल में जवानी का ग़रूर था, आँखों में आमत्मगौरव.

रंगीली ने कहा, “आज बड़ी देर लगाई तुमने? यह देखो, तुम्हारी ससुराल से यह खत आया है. तुम्हारी सास ने लिखा है. साफ-साफ बतला दो, अभी सबेरा है. तुम्हें वहाँ शादी करना मंज़ूर है या नहीं?”

भुवन – “शादी करनी तो चाहिए अम्मा, पर मैं करूंगा नहीं.”

रंगीली – “क्यों?”

भुवन – “कहीं ऐसी जगह शादी करवाइये कि खूब रूपये मिलें और न सही एक लाख का तो डौल हो. वहाँ अब क्या रखा है? वकील साहब रहे ही नहीं, बुढ़िया के पास अब क्या होगा?”

रंगीली – “तुम्हें ऐसी बातें मुँह से निकालते शर्म नहीं आती?”

भुवन – “इसमें शर्म की कौन-सी बात है? रूपये किसे काटते हैं? लाख रूपये तो लाख जन्म में भी न जमा कर पाऊंगा. इस साल पास भी हो गया, तो कम-से-कम पाँच साल तक रूपये से सूरत नज़र न आयेगी. फिर सौ-दो-सौ रूपये महीने कमाने लगूंगा. पाँच-छ: तक पहुँचते-पहुँचते उम्र के तीन भाग बीत जायेंगे. रूपये जमा करने की नौबत ही न आयेगी. दुनिया का कुछ मज़ा न उठा सकूंगा. किसी धनी की लड़की से शादी हो जाती, तो चैन से कटती. मैं ज्यादा नहीं चाहता, बस एक लाख हो या फिर कोई ऐसी जायदादवाली बेवा मिले, जिसके एक ही लड़की हो.”

रंगीली – “चाहे औरत कैसे ही मिले?”

भुवन – “धन सारे ऐबों को छिपा देगा. मुझे वह गालियाँ भी सुनाये, तो भी चूं न करूं. दुधारू गाय की लात किसे बुरी मालूम होती है?
बाबू साहब ने प्रशंसा-सूचक भाव से कहा, “हमें उन लोगों के साथ सहानुभति है और दु:खी है कि ईश्वर ने उन्हें विपत्ति में डाला, लेकिन बुद्धि से काम लेकर ही कोई निश्चय करना चहिए. हम कितने ही फटे-हालों जायें, फिर भी अच्छी-खासी बारात हो जायेगी. वहाँ भोजन का भी ठिकाना नहीं. सिवा इसके कि लोग हँसे और कोई नतीजा न निकलेगा.”

रंगीली – “तुम बाप-पूत दोनों एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हो. दोनों उस गरीब लड़की के गले पर छुरी फेरना चाहते हो.”

भुवन – “जो गरीब है, उसे गरीबों ही के यहाँ संबंध करना चाहिए. अपनी हैसियत से बढ़कर….”

रंगीली – “चुप भी रह, आया है वहाँ से हैसियत लेकर. तुम कहाँ के धन्ना-सेठ हो? कोई आदमी द्वारा पर आ जाये, तो एक लोटे पानी को तरस जाये. बड़े हैसियतवाले बने हो!”

यह कहकर रंगीली वहाँ वसे उठकर रसोई का प्रबंध करने चली गयी.

भुवनमोहन मुस्कराता हुआ अपने कमरे में चला गया और बाबू साहब मूंछों पर ताव देते हुए बाहर आये कि मोटेराम को अंतिम निश्चय सुना दें. पर उनका कहीं पता न था.

मोटेरामजी कुछ देर तक तो कहार की राह देखते रहे, जब उसके आने में बहुत देर हुई, तो उनसे बैठा न गया. सोचा यहाँ बैठे-बैठे काम न चलेगा, कुछ उद्योग करना चाहिए. भाग्य के भरोसे यहाँ  अड़ी किये बैठे रहें, तो भूखों मर जायेंगे. यहाँ तुम्हारी दाल नहीं गलने की. चुपके से लकड़ी उठायी और जिधर वह कहार गया था, उसी तरफ चले. बाज़ार थोड़ी ही दूर पर था, एक क्षण में जा पहुँचे. देखा, तो बुड्ढा एक हलवाई की दूकान पर बैठा चिलम पी रहा था. उसे देखते ही आपने बड़ी बेतकल्लुफी से कहा, “अभी कुछ तैयार नहीं है क्या महरा? सरकार वहाँ बैठे बिगड़ रहे हैं कि जाकर सो गया या ताड़ी पीने लगा.”

मैंने कहा – “सरकार यह बात नहीं, बुढ्डा आदमी है, आते ही आते तो आयेगा. बड़े विचित्र जीव हैं. न जाने इनके यहाँ कैसे नौकर टिकते हैं.”

कहार – “मुझे छोड़कर आज तक दूसरा कोई टिका नहीं, और न टिकेगा. साल-भर से तलब नहीं मिली. किसी को तलब नहीं देते. जहाँ किसी ने तलब मांगी और लगे डांटने. बेचारा नौकरी छोड़कर भाग जाता है. वे दोनों आदमी, जो पंखा झल रहे थे, सरकारी नौकर हैं. सरकार से दो अर्दली मिले हैं न! इसी से पड़े हुए हैं. मैं भी सोचता हूँ, जैसा तेरा ताना-बाना वैसे मेरी भरनी! इस साल कट गये हैं, साल दो साल और इसी तरह कट जायेंगे.”

मोटेराम – “तो तुम्हीं अकेले हो? नाम तो कई कहारों का लेते है.”
कहार – “वह सब इन दो-तीन महीनों के अंदर आये और छोड़-छोड़ कर चले गये. यह अपना रोब जमाने को अभी तक उनका नाम जपा करते हैं. कहीं नौकरी दिलाइएगा, चलूं?”

मोटेराम – “अजी, बहुत नौकरी है. कहार तो आजकल ढूंढे नहीं मिलते. तुम तो पुराने आदमी हो, तुम्हारे लिए नौकरी की क्या कमी है? यहाँ कोई ताज़ी चीज? मुझसे कहने लगे, खिचड़ी बनाइएगा या बाटी लगाइएगा? मैंने कह दिया-सरकार, बुढ्डा आदमी है, रात को उसे मेरा भोजन बनाने में कष्ट होगा, मैं कुछ बाजार ही से खा लूंगा. इसकी आप चिंता न करें. बोले, अच्छी बात है, कहार आपको दुकान पर मिलेगा. बोलो साहजी, कुछ तर माल तैयार है? लड्डू तो ताजे मालूम होते हैं तौल दो एक सेर भर. आ जाऊं वहीं ऊपर न?”

यह कहकर मोटेरामजी हलवाई की दूकान पर जा बैठे और तर माल चखने लगे. खूब छककर खाया. ढाई-तीन सेर चट कर गये. खाते जाते थे और हलवाई की तारीफ़ करते जाते थे, “शाहजी, तुम्हारी ददुकान का जैसा नाम सुना था, वैसा ही माल भी पाया. बनारसवाले ऐसे रसगुल्ले नहीं बना पाते, कलाकंद अच्छी बनाते हैं, पर तुम्हारी उनसे बुरी नहीं, माल डालने से अच्छी चीज नहीं बन जाती, विद्या चाहिए.”

हलवाई – “कुछ और लीजिए महाराज! थोड़ी-सी रबड़ी मेरी तरफ से लीजिए.”

मोटेराम – “इच्छा तो नहीं है, लेकिन दे दो पाव-भर.”

हलवाई – “पाव-भर क्या लीजिएगा? चीज अच्छी है, आध सेर तो लीजिए.”

खूब इच्छापूर्ण भोजन करके पंडितजी ने थोड़ी देर तक बाजार की सैर की और नौ बजते-बजते मकान पर आये. यहाँ सन्नाटा-सा छाया हुआ था. एक लालटेन जल रही थी अपने चबूतरे पर बिस्तर जमाया और सो गये.

सबेरे अपने नियमानुसार कोई आठ बजे उठे, तो देखा कि बाबूसाहब टहल रहे हैं. इन्हें जगा देखकर वह पालागन कर बोले, “महाराज, आज रात कहाँ चले गये? मैं बड़ी रात तक आपकी राह देखता रहा. भोजन का सब सामान बड़ी देर तक रखा रहा. जब आज न आये, तो रखवा दिया गया. आपने कुछ भोजन किया था या नहीं?”

मोटे – “हलवाई की दुकान में कुछ खा आया था.”

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