Chapter 19 Nirmala Munshi Premchand Novel
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अबकी सुधा के साथ निर्मला को भी आना पड़ा. वह तो मैके में कुछ दिन और रहना चाहती थी, लेकिन शोकातुर सुधा अकेले कैसे रही! उसको आखिर आना ही पड़ा. रुक्मणी ने भूंगी से कहा – “देखती है, बहू मैके से कैसा निखरकर आयी है!”
भूंगी ने कहा – “दीदी, माँ के हाथ की रोटियाँ लड़कियों को बहुत अच्छी लगती है.”
रुक्मणी – “ठीक कहती है भूंगी, खिलाना तो बस माँ ही जानती है.”
निर्मला को ऐसा मालूम हुआ कि घर का कोई आदमी उसके आने से खुश नहीं. मुंशीजी ने खुशी तो बहुत दिखाई, पर हृदयगत चिंता को न छिपा सके. बच्ची का नाम सुधा ने आशा रख दिया था. वह आशा की मूर्ति-सी थी भी. देखकर सारी चिंता भाग जाती थी.
मुंशीजी ने उसे गोद में लेना चाहा, तो रोने लगी, दौड़कर माँ से लिपट गयी, मानो पिता को पहचानती ही नहीं. मुंशीजी ने मिठाइयों से उसे परचाना चाहा. घर में कोई नौकर तो था नहीं, जाकर सियाराम से दो आने की मिठाइयाँ लाने को कहा.
जियाराम भी बैठा हुआ था. बोल उठा – “हम लोगों के लिए तो कभी मिठाइयाँ नहीं आतीं.”
मुंशीजी ने झुंझलाकर कहा – “तुम लोग बच्चे नहीं हो.”
जियाराम – “और क्या बूढ़े हैं? मिठाइयाँ मंगवाकर रख दीजिए, तो मालूम हो कि बच्चे हैं या बूढ़े. निकालिए चार आना और आशा के बदौलत हमारे नसीब भी जागें.”
मुंशीजी – “मेरे पास इस वक्त पैसे नहीं है. जाओ सिया, जल्द जाना.”
जियाराम – “सिया नहीं जायेगा. किसी का गुलाम नहीं है. आशा अपने बाप की बेटी है, तो वह भी अपने बाप का बेटा है.”
मुंशीजी – “क्या फ़िजूल की बातें करते हो. नन्हीं-सी बच्ची की बराबरी करते तुम्हें शर्म नही आती? जाओ सियाराम, ये पैसे लो.”
जियाराम – “मत जाना सिया! तुम किसी के नौकर नहीं हो.”
सिया बड़ी दुविधा में पड़ गया. किसका कहना माने? अंत में उसने जियाराम का कहना मानने का निश्चय किया. बाप ज्यादा-से-ज्यादा घुड़क देंगे, जिया तो मारेगा, फिर वह किसके पास फ़रियाद लेकर जायेगा. बोला – “मैं न जाऊंगा.”
मुंशीजी ने धमकाकर कहा – “अच्छा, तो मेरे पास फिर कोई चीज मांगने मत आना.”
मुंशीजी खुद बाजार चले गये और एक रुपये की मिठाई लेकर लौटे. दो आने की मिठाई मांगते हुए उन्हें शर्म आयी. हलवाई उन्हें पहचानता था. दिल में क्या कहेगा?
मिठाई लिए हुए मुंशीजी अंदर चले गये. सियाराम ने मिठाई का बड़ा-सा दोना देखा, तो बाप का कहना न मानने का उसे दुख हुआ. अब वह किस मुँह से मिठाई लेने अंदर जायेगा. बड़ी भूल हुई. वह मन-ही-मन जियाराम को चोटों की चोट और मिठाई की मिठास में तुलना करने लगा.”
सहसा भूंगी ने दो तश्तरियाँ दोनो के सामने लाकर रख दीं. जियाराम ने बिगड़कर कहा – “इसे उठा ले जा!”
भूंगी – “काहे को बिगड़ता हो बाबू क्या मिठाई अच्छी नहीं लगती?”
जियाराम – “मिठाई आशा के लिए आयी है, हमारे लिए नहीं आयी? ले जा, नहीं तो सड़क पर फेंक दूंगा. हम तो पैसे-पैसे के लिए रटते रहते हैं और यहाँ रुपये की मिठाई आती है.”
भूंगी – “तुम ले लो सिया बाबू, यह न लेंगे न सहीं.”
सियाराम ने डरते-डरते हाथ बढ़ाया था कि जियाराम ने डांटकर कहा – “मत छूना मिठाई, नहीं तो हाथ तोड़कर रख दूंगा. लालची कहीं का!”
सियाराम यह घुड़की सुनकर सहम उठा, मिठाई खाने की हिम्मत न पड़ी. निर्मला ने यह कथा सुनी, तो दोनों लड़कों को मनाने चली. मुंशजी ने कड़ी कसम रख दी.
निर्मला – “आप समझते नहीं है. यह सारा गुस्सा मुझ पर है.”
मुंशीजी – “गुस्ताख हो गया है. इस ख़याल से कोई सख्ती नहीं करता कि लोग कहेंगे, बिना माँ के बच्चों को सताते हैं, नहीं तो सारी शरारत घड़ी भर में निकाल दूं.”
निर्मला – “इसी बदनामी का तो मुझे डर है.”
मुंशीजी – “अब न डरुंगा, जिसके जी में जो आये कहे.”
निर्मला – “पहले तो ये ऐसे न थे.”
मुंशीजी – “अजी, कहता है कि आपके लड़के मौजूद थे, आपने शादी क्यों की! यह कहते भी इसे संकोच नहीं होता कि आप लोगों ने मंसाराम को विष दे दिया. लड़का नहीं है, शत्रु है.”
जियाराम द्वार पर छिपकर खड़ा था. स्त्री-पुरुष मे मिठाई के विषय मे क्या बातें होती हैं, यही सुनने वह आया था. मुंशीजी का अंतिम वाक्य सुनकर उससे न रहा गया. बोल उठा – “शत्रु न होता, तो आप उसके पीछे क्यों पड़ते? आप जो इस वक्त कर रहे हैं, वह मैं बहुत पहले समझे बैठा हूँ. भैया न समझ थे, धोखा खा गये. हमारे साथ आपकी दाल न गलेगी. सारा जमाना कह रहा है कि भाई साहब को जहर दिया गया है. मैं कहता हूँ तो आपको क्यों गुस्सा आता है?”
निर्मला तो सन्नाटे में आ गयी. मालूम हुआ, किसी ने उसकी देह पर अंगारे डाल दिये. मंशजी ने डांटकर जियाराम को चुप कराना चाहा, जियाराम नि:शं खड़ा ईंट का जवाब पत्थर से देता रहा. यहाँ तक कि निर्मला को भी उस पर क्रोध आ गया. यह कल का छोकरा, किसी काम का न काज का, यो खड़ा टर्रा रहा है, जैसे घर भर का पालन-पोषण यही करता हो. त्योंरियां चढ़ाकर बोली – “बस, अब बहुत हुआ जियाराम, मालूम हो गया, तुम बड़े लायक हो, बाहर जाकर बैठो.”
मुंशीजी अब तक तो कुछ दब-दबकर बोलते रहे, निर्मला की शह पाई तो दिल बढ़ गया. दांत पीसकर लपके और इसके पहले कि निर्मला उनके हाथ पकड़ सकें, एक थप्पड़ चला ही दिया. थप्पड़ निर्मला के मुँह पर पड़ा, वही सामने पड़ी. माथा चकरा गया. मुंशीजी ने सूखे हाथों में इतनी शक्ति है, इसका वह अनुमान न कर सकती थी. सिर पकड़कर बैठ गयी. मुंशीजी का क्रोध और भी भड़क उठा, फिर घूंसा चलाया, पर अबकी जियाराम ने उनका हाथ पकड़ लिया और पीछे ढकेलकर बोला – “दूर से बातें कीजिए, क्यों नाहक अपनी बेइज्ज़ती करवाते हैं? अम्मांजी का लिहाज कर रहा हूँ, नहीं तो दिखा देता.”
यह कहता हुआ वह बाहर चला गया. मुंशीजी संज्ञा-शून्य से खड़े रहे. इस वक्त अगर जियाराम पर दैवी वज्र गिर पड़ता, तो शायद उन्हें हार्दिक आनंद होता. जिस पुत्र का कभी गोद में लेकर निहाल हो जाते थे, उसी के प्रति आज भांति-भांति की दुष्कल्पनाएं मन में आ रही थीं.”
रुक्मणी अब तक तो अपनी कोठरी में थी. अब आकर बोली – “बेटा आपने बराबर का हो जाये, तो उस पर हाथ न छोड़ना चाहिए.”
मुंशीजी ने ओंठ चबाकर कहा – “मैं इसे घर से निकालकर छोडूंगा. भीख मांगे या चोरी करे, मुझसे कोई मतलब नहीं.”
रुक्मणी – “नाक किसकी कटेगी?”
मुंशीजी – “इसकी चिंता नहीं.”
निर्मला – “मैं जानती कि मेरे आने से यह तूफ़ान खड़ा हो जायेगा, तो भूलकर भी न आती. अब भी भला है, मुझे भेज दीजिए. इस घर में मुझसे न रहा जायेगा.”
रुक्मणी – “तुम्हारा बहुत लिहाज करता है बहू, नहीं तो आज अनर्थ ही हो जाता.”
निर्मला – “अब और क्या अनर्थ होगा दीदीजी? मैं तो फूंक-फूंककर पांव रखती हूँ, फिर भी अपयश लग ही जाता है. अभी घर में पांव रखते देर नहीं हुई और यह हाल हो गया. ईश्वर ही कुशल करे.”
रात को भोजन करने कोई न उठा, अकेले मुंशीजी ने खाया. निर्मला को आज नयी चिंता हो गयी – ‘जीवन कैसे पार लगेगा?’ अपना ही पेट होता, तो विशेष चिंता न थी. अब तो एक नयी विपत्ति गले पड़ गयी थी. वह सोच रही थी – ‘मेरी बच्ची के भाग्य में क्या लिखा है राम?’
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