चैप्टर 12 – निर्मला : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 12 Nirmala Novel By Munshi Premchand In Hindi Read Online

Chapter 12 Nirmala Munshi Premchand Novel

 Chapter 12 Nirmala Novel By Munshi Premchand In Hindi Read Online

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तीन दिन गुजर गये और मुंशीजी घर न आये. रुक्मणी दोनों वक्त अस्पताल जातीं और मंसाराम को देख आती थीं. दोनों लड़के भी जाते थे, पर निर्मला कैसे जाती? उनके पैरों में तो बेड़ियाँ पड़ी हुई थीं. वह मंसाराम की बीमारी का हाल-चाल जानने के लिए व्यग्र रहती थी, यदि रुक्मणी से कुछ पूछती थीं, तो ताने मिलते थे और लड़को से पूछती तो बेसिर-पैर की बातें करने लगते थे. एक बार खुद जाकर देखने के लिए उसका चित्त व्याकुल हो रहा था. उसे यह भय होता था कि संदेह ने कहीं मुंशीजी के पुत्र-प्रेम को शिथिल न कर दिया हो, कहीं उनकी कृपणता ही तो मंसाराम क अच्छे होने में बाधक नहीं हो रही है?

डॉक्टर किसी के सगे नहीं होते, उन्हें तो अपने पैसों से काम है, मुर्दा दोजख में जाये या बहिश्त में. उसका मन मे प्रबल इच्छा होती थी कि जाकर अस्पताल क डॉक्टरों का एक हजार की थैली देकर कहे – इन्हें बचा लीजिए, यह थैली आपकी भेंट हैं, पर उसके पास न तो इतने रुपये ही थे, न इतने साहस ही था. अब भी यदि वहाँ पहुँच सकती, तो मंसाराम अच्छा हो जाता. उसकी जैसी सेवा-शुश्रूषा होनी चाहिए, वैसी नहीं हो रही है. नहीं तो क्या तीन दिन तक ज्वर ही न उतरता? यह दैहिक ज्वर नहीं, मानसिक ज्वर है और चित्त के शांत होने ही से इसका प्रकोप उतर सकता है. अगर वह वहाँ रात भर बैठी रह सकती और मुंशीजी ज़रा भी मन मैला न करते, तो कदाचित् मंसाराम को विश्वास हो जाता कि पिताजी का दिल साफ है और फिर अच्छे होने में देर न लगती, लेकिन ऐसा होगा? मुंशीजी उसे वहाँ देखकर प्रसन्नचित्त रह सकेंगे? क्या अब भी उनका दिल साफ नहीं हुआ? यहाँ से जाते समय तो ऐसा ज्ञात हुआ था कि वह अपने प्रमाद पर पछता रहे हैं. ऐसा तो न होगा कि उसके वहाँ जाते ही मुंशीजी का संदेह फिर भड़क उठे और वह बेटे की जान लेकर ही छोड़ें?

इस दुविधा में पड़े-पड़े तीन दिन गुजर गये और न घर में चूल्हा जला, न किसी ने कुछ खाया. लड़को के लिए बाजार से पूरियाँ ली जाती थीं, रुक्मणी और निर्मला भूखी ही सो जाती थीं. उन्हें भोजन की इच्छा ही न होती.

चौथे दिन जियाराम स्कूल से लौटा, तो अस्पताल होता हुआ घर आया. निर्मला ने पूछा – “क्यों भैया, अस्पताल भी गये थे? आज क्या हाल है? तुम्हारे भैया उठे या नहीं?”

जियाराम रुआंसा होकर बोला – “अम्माजी, आज तो वह कुछ बोलते-चालते ही न थे. चुपचाप चारपाई पर पड़े जोर-जोर से हाथ-पांव पटक रहे थे.”

निर्मला के चेहरे का रंग उड़ गया. घबराकर पूछा – “तुम्हारे बाबूजी वहाँ न थे?”

जियाराम – “थे क्यों नहीं? आज वह बहुत रोते थे.”

निर्मला का कलेजा धक्-धक् करने लगा पूछा – “डॉक्टर लोग वहाँ न थे?”

जियाराम – “डॉक्टर भी खड़े थे और आपस में कुछ सलाह कर रहे थे. सबसे बड़ा सिविल सर्जन अंग्रेजी में कह रहा था कि मरीज़ की देह में कुछ ताज़ा खून डालना चाहिए. इस पर बाबूजी ने कहा – मेरी देह से जितना खून चाहें ले लीजिए. सिविल सर्जन ने हँसकर कहा – आपके ब्लड से काम नहीं चलेगा, किसी जवान आदमी का ब्लड चाहिए. आखिर उसने पिचकारी से कोई दवा भैया के बाजू में डाल दी. चार अंगुल से कम के सुई न रही होगी, पर भैया मिनके तक नहीं. मैंने तो मारे डरके आँखें बंद कर लीं.”

बड़े-बड़े महान संकल्प आवेश में ही जन्म लेते हैं. कहाँ तो निर्मला भय से सूखी जाती थी, कहाँ उसके मुँह पर दृढ़ संकल्प की आभा झलक पड़ी. उसने अपनी देह का ताज़ा खून देने का निश्चय किया. आगर उसके रक्त से मंसाराम के प्राण बच जायें, तो वह बड़ी खुशी से उसकी अंतिम बूंद तक दे डालेगी. अब जिसका जो जी चाहे समझे, वह कुछ परवाह न करेगी. उसने जियाराम से कहा – “तुम लपककर एक एक्का बुला लो, मैं अस्पताला जाऊंगी.”

जियाराम – “वहाँ तो इस वक्त बहुत से आदमी होंगे. ज़रा रात हो जाने दीजिए.”

निर्मला – “नहीं, तुम अभी एक्का बुला लो.”

जियाराम – “कहीं बाबूजी बिगड़ें न?”

निर्मला – “बिगड़ने दो. तुम अभी जाकर सवारी लाओ.”

जियाराम – “मैं कह दूंगा, अम्माजी ही ने मुझसे सवारी मंगाई थी.”

निर्मला – “कह देना.”

जियाराम तो उधर तांगा लाने गया, इतनी देर में निर्मला ने सिर में कंघी की, जूड़ा बांधा, कपड़े बदले, आभूषण पहने, पान खाया और द्वार पर आकर तांगे की राह देखने लगी.

रुक्मणी अपने कमरे में बैठी हुई थीं, उसे इस तैयारी से आते देखकर बोलीं – “कहाँ जाती हो, बहू?”

निर्मला – “ज़रा अस्पताल तक जाती हूँ.”

रुक्मणी – “वहाँ जाकर क्या करोगी?”

निर्मला – “कुछ नहीं, करुंगी क्या? करने वाले तो भगवान हैं. देखने को जी चाहता है.”

रुक्मणी – “मैं कहतीं हूँ, मत जाओ.”

निर्मला ने विनीत भाव से कहा – “अभी चली आऊंगी, दीदीजी. जियाराम कह रहे हैं कि इस वक्त उनकी हालत अच्छी नहीं है. जी नहीं मानता, आप भी चलिए न?”

रुक्मणी – “मैं देख आई हूँ. इतना ही समझ लो कि, अब बाहरी खून पहुँचाने पर ही जीवन की आशा है. कौन अपना ताजा खून देगा और क्यों देगा? उसमें भी तो प्राणों का भय है.”

निर्मला – “इसीलिए तो मैं जाती हूँ. मेरे खून से क्या काम न चलेगा?”

रुक्मणी – “चलेगा क्यों नहीं, जवान ही का तो खून चाहिए, लेकिन तुम्हारे खून से मंसाराम की जान बचे, इससे यह कहीं अच्छा है कि उसे पानी में बहा दिया जाये.”

तांगा आ गया. निर्मला और जियाराम दोनों जा बैठे. तांगा चला.

रुक्मणी द्वार पर खड़ी देत तक रोती रही. आज पहली बार उसे निर्मला पर दया आई, उसका बस होता तो वह निर्मला को बांध रखती. करुणा और सहानुभूति का आवेश उसे कहाँ लिये जाता है, वह अप्रकट रुप से देख रही थी. आह! यह दुर्भाग्य की प्रेरणा है. यह सर्वनाश का मार्ग है.”

निर्मला अस्पताल पहुँची, तो दीपक जल चुके थे. डॉक्टर लोग अपनी राय देकर विदा हो चुके थे. मंसाराम का ज्वर कुछ कम हो गया था. वह टकटकी लगाए हुए द्वार की ओर देख रहा था. उसकी दृष्टि उन्मुक्त आकाश की ओर लगी हुई थी,  मानो किसी देवता की प्रतीक्षा कर रहा हो. वह कहाँ है, किस दशा में है, इसका उसे कुछ ज्ञान न था.

सहसा निर्मला को देखते ही वह चौंककर उठ बैठा. उसका समाधि टूट गई. उसकी विलुप्त चेतना प्रदीप्त हो गई. उसे अपने स्थिति का, अपनी दशा का ज्ञान हो गया, मानो कोई भूली हुई बात याद हो गई हो. उसने आँखें फाड़कर निर्मला को देखा और मुँह फेर लिया.
एकाएक मुंशीजी तीव्र स्वर से बोले – “तुम, यहाँ क्या करने आईं?”

निर्मला अवाक् रह गई. वह बतलाये कि क्या करने आई? इतने सीधे से प्रश्न का भी वह कोई जवाब दे सकी? वह क्या करने आई थी? इतना जटिल प्रश्न किसने सामने आया होगा? घर का आदमी बीमार है, उसे देखने आई है, यह बात क्या बिना पूछे मालूम न हो सकती थी? फिर प्रश्न क्यों?

वह हतबुद्धी-सी खड़ी रही, मानो संज्ञाहीन हो गई हो, उसने दोनों लड़को से मुंशीजी के शोक और संताप की बातें सुनकर यह अनुमान किया था कि अब उनका दिल साफ हो गया है. अब उसे ज्ञात हुआ कि वह भ्रम था. हाँ, वह महाभ्रम था. मगर वह जानती थी आँसुओं की दृष्टि ने भी संदेह की अग्नि शांत नहीं की, तो वह कदापि न आती. वह कुढ़-कुढ़ाकर मर जाती, घर से पांव न निकालती.
मुंशजी ने फिर वही प्रश्न किया – “तुम यहाँ क्यों आईं?”

निर्मला ने नि:शंक भाव से उत्तर दिया – “आप यहाँ क्या करने आये हैं?”

मुंशीजी के नथुने फड़कने लगे. वह झल्लाकर चारपाई से उठे और निर्मला का हाथ पकड़कर बोले – “तुम्हारे यहाँ आने की कोई ज़रूरत नहीं. जब मैं बुलाऊं तब आना. समझ गईं?”

अरे! यह क्या अनर्थ हुआ! मंसाराम जो चारपाई से हिल भी न सकता था, उठकर खड़ा हो गया और निर्मला के पैरों पर गिरकर रोते हुए बोला – “अम्माजी, इस अभागे के लिए आपको व्यर्थ इतना कष्ट हुआ. मैं आपका स्नेह कभी भी न भूलंगा. ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है कि मेरा पुर्नजन्म आपके गर्भ से हो, जिससे मैं आपके ऋण से अऋण हो सकूं. ईश्वर जानता है, मैंने आपको विमाता नहीं समझा. मैं आपको अपनी माता समझता रहा. आपकी उम्र मुझसे बहुत ज्यादा न हो, लेकिन आप, मेरी माता के स्थान पर थी और मैंने आपको सदैव इसी दृष्टि से देखा…अब नहीं बोला जाता अम्माजी, क्षमा कीजिए! यह अंतिम भेंट है.”

निर्मला ने अश्रु-प्रवाह को रोकते हुए कहा – “तुम ऐसी बातें क्यों करते हो? दो-चार दिन में अच्छे हो जाओगे.”

मंसाराम ने क्षीण स्वर में कहा – “अब जीने की इच्छा नहीं और न बोलने की शक्ति ही है.”

यह कहते-कहते मंसाराम अशक्त होकर वहीं जमीन पर लेट गया. निर्मला ने पति की ओर निर्भय नेत्रों से देखते हुए कहा – “डॉक्टर ने क्या सलाह दी?”

मुंशीजी – “सब-के-सब भांग खा गए हैं, कहते हैं, ताज़ा खून चाहिए,”

निर्मला – “ताज़ा खून मिल जाये, तो प्राण-रक्षा हो सकती है?”

मुंशीजी ने निर्मेला की ओर तीव्र नेत्रों से देखकर कहा – “मैं ईश्वर नहीं हूँ और न डॉक्टर ही को ईश्वर समझता हूँ.”

निर्मला – “ताज़ा खून तो ऐसी अलभ्य वस्तु नहीं!”

मुंशीजी – “आकाश के तारे भी तो अलभ्य नही! मुँह के सामने खदंक क्या चीज है?”
निर्मला –  “मैं आपना खून देने को तैयार हूँ. डॉक्टर को बुलाइए.”

मुंशीजी ने विस्मित होकर कहा – “तुम!”

निर्मला – “हाँ, क्या मेरे खून से काम न चलेगा?”

मुंशीजी – “तुम अपना खून दोगी? नहीं, तुम्हारे खून की ज़रूरत नहीं. इसमें प्राणो का भय है.”

निर्मला – “मेरे प्राण और किस दिन काम आयेंगे?”

मुंशीजी ने सजल-नेत्र होकर कहा – “नहीं निर्मला, उसका मूल्य अब मेरी निगाहों में बहुत बढ़ गया है. आज तक वह मेरे भोग की वस्तु थी, आज से वह मेरी भक्ति की वस्तु है. मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया है, क्षमा करो.”

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