Chapter 5 Nirmala Munshi Premchand Novel
Table of Contents
Chapter 1 | 2| 3| 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25
निर्मला का विवाह हो गया. ससुराल आ गयी. वकील साहब का नाम था मुंशी तोताराम. सांवले रंग के मोटे-ताजे आदमी थे. उम्र तो अभी चालीस से अधिक न थी, पर वकालत के कठिन परिश्रम ने सिर के बाल पका दिये थे. व्यायाम करने का उन्हें अवकाश न मिलता था. वहाँ तक कि कभी कहीं घूमने भी न जाते, इसलिए तोंद निकल आई थी. देह के स्थूल होते हुए भी आये दिन कोई-न-कोई शिकायत रहती थी. मंदाग्नि और बवासीर से तो उनका चिरस्थायी संबंध था. अतएव बहुत फूंक-फूंककर कदम रखते थे. उनके तीन लड़के थे. बड़ा मंसाराम सोहल वर्ष का था, मंझला जियाराम बारह और सियाराम सात वर्ष का. तीनों अंग्रेजी पढ़ते थे. घर में वकील साहब की विधवा बहिन के सिवा और कोई औरत न थी. वही घर की मालकिन थी. उनका नाम था रुक्मणी और अवस्था पचास के ऊपर थी. ससुराल में कोई न था. स्थायी रीति से यहीं रहती थीं.
तोताराम दंपत्ति-विज्ञान में कुशल थे. निर्मला के प्रसन्न रखने के लिए उनमें जो स्वाभाविक कमी थी, उसे वह उपहारों से पूरी करना चाहते थे. यद्यपि वह बहुत ही मितव्ययी पुरूष थे, पर निर्मला के लिए कोई-न-कोई तोहफ़ा रोज लाया करते. मौके पर धन की परवाह न करते थे. लड़के के लिए थोड़ा दूध आता था, पर निर्मला के लिए मेवे, मुरब्बे, मिठाइयाँ – किसी चीज की कमी न थी. अपनी ज़िन्दगी में कभी सैर-तमाशे देखने न गये थे, पर अब छुट्टियों में निर्मला को सिनेमा, सर्कस, थियेटर दिखाने ले जाते थे. अपने बहुमूल्य समय का थोड़ा-सा हिस्सा उसके साथ बैठकर ग्रामोफोन बजाने में व्यतीत किया करते थे. लेकिन निर्मला को न जाने क्यों तोताराम के पास बैठने और हँसने-बोलने में संकोच होता था. इसका कदाचित् यह कारण था कि अब तक ऐसा ही एक आदमी उसका पिता था, जिसके सामने वह सिर-झुकाकर, देह चुराकर निकलती थी, अब उनकी अवस्था का एक आदमी उसका पति था. वह उसे प्रेम की वस्तु नहीं सम्मान की वस्तु समझती थी. उनसे भागती फिरती, उनको देखते ही उसकी प्रफुल्लता पलायन कर जाती थी.
वकील साहब को दंपत्ति-विज्ञान न सिखाया था कि युवती के सामने खूब प्रेम की बातें करनी चाहिये. दिल निकालकर रख देना चहिये, यही उसके वशीकरण का मुख्य मंत्र है. इसलिए वकील साहब अपने प्रेम-प्रदर्शन में कोई कसर न रखते थे, लेकिन निर्मला को इन बातों से घृणा होती थी. वही बातें, जिन्हें किसी युवक के मुख से सुनकर उनका हृदय प्रेम से उन्मत्त हो जाता, वकील साहब के मुँह से निकलकर उसके हृदय पर शर के समान आघात करती थीं. उनमें रस न था, उल्लास न था, उन्माद न था, हृदय न था, केवल बनावट थी, धोखा था और शुष्क, नीरस शब्दाडम्बर. उसे इत्र और तेल बुरा न लगता, सैर-तमाशे बुरे न लगते, बनाव-सिंगार भी बुरा न लगता था, बुरा लगता था, तो केवल तोताराम के पास बैठना. वह अपना रूप और यौवन उन्हें न दिखाना चाहती थी, क्योंकि वहाँ देखने वाली आँखें न थीं. वह उन्हें इन रसों का आस्वादन लेने योग्य न समझती थी. कली प्रभात-समीर ही के सपर्श से खिलती है. दोनों में समान सारस्य है. निर्मला के लिए वह प्रभात समीर कहाँ था?
पहला महीना गुजरते ही तोताराम ने निर्मला को अपना खजांची बना लिया. कचहरी से आकर दिन-भर की कमाई उसे दे देते. उनका ख़याल था कि निर्मला इन रूपयों को देखकर फूली न समाएगी. निर्मला बड़े शौक से इस पद का काम अंज़ाम देती. एक-एक पैसे का हिसाब लिखती, अगर कभी रूपये कम मिलते, तो पूछती आज कम क्यों हैं. गृहस्थी के संबंध में उनसे खूब बातें करती. इन्हीं बातों के लायक वह उनको समझती थी. ज्यों ही कोई विनोद की बात उनके मुँह से निकल जाती, उसका मुख खिन्न हो जाता था.
निर्मला जब वस्त्राभूष्णों से अलंकृत होकर आइने के सामने खड़ी होती और उसमें अपने सौंदर्य की सुषमापूर्ण आभा देखती, तो उसका हृदय एक सतृष्ण कामना से तड़प उठता था. उस वक्त उसके हृदय में एक ज्वाला-सी उठती. मन में आता इस घर में आग लगा दूं. अपनी माता पर क्रोध आता, पर सबसे अधिक क्रोध बेचारे निरपराध तोताराम पर आता. वह सदैव इस ताप से जला करती. बांका सवार लद्रदू-टट्टू पर सवार होना कब पसंद करेगा, चाहे उसे पैदल ही क्यों न चलना पड़े? निर्मला की दशा उसी बांके सवार की-सी थी. वह उस पर सवार होकर उड़ना चाहती थी, उस उल्लासमयी विद्यत् गति का आनंद उठाना चाहती थी, टट्टू के हिनहिनाने और कनौतियाँ खड़ी करने से क्या आशा होती? संभव था कि बच्चों के साथ हँसने-खेलने से वह अपनी दशा को थोड़ी देर के लिए भूल जाती, कुछ मन हरा हो जाता, लेकिन रुक्मणी देवी लड़कों को उसके पास फटकने तक न देतीं, मानो वह कोई पिशाचिनी है, जो उन्हें निगल जायेगी. रुक्मणी देवी का स्वभाव सारे संसार से निराला था, यह पता लगाना कठिन था कि वह किस बात से खुश होती थीं और किस बात से नाराज़. एक बार जिस बात से खुश हो जाती थीं, दूसरी बार उसी बात से जल जाती थी. अगर निर्मला अपने कमरे में बैठी रहती, तो कहतीं कि न जाने कहाँ की मनहूसिन है! अगर वह कोठे पर चढ़ जाती या महरियों से बातें करती, तो छाती पीटने लगतीं-न लाज है, न शरम, निगोड़ी ने हया भून खाई! अब क्या कुछ दिनों में बाजार में नाचेगी! जब से वकील साहब ने निर्मला के हाथ में रुपये-पैसे देने शुरू किये, रुक्मणी उसकी आलोचना करने पर आरूढ़ हो गयी. उन्हें मालूम होता था कि अब प्रलय होने में बहुत थोड़ी कसर रह गयी है. लड़कों को बार-बार पैसों की ज़रूरत पड़ती. जब तक खुद स्वामिनी थीं, उन्हें बहला दिया करती थीं. अब सीधे निर्मला के पास भेज देतीं. निर्मला को लड़कों के चटोरापन अच्छा न लगता था. कभी-कभी पैसे देने से इंकार कर देती. रुक्मणी को अपने वाग्बाण सर करने का अवसर मिल जाता-अब तो मालकिन हुई है, लड़के काहे को जियेंगे. बिना माँ के बच्चे को कौन पूछे? रूपयों की मिठाइयाँ खा जाते थे, अब धेले-धेले को तरसते हैं. निर्मला अगर चिढ़कर किसी दिन बिना कुछ पूछे-ताछे पैसे दे देती, तो देवीजी उसकी दूसरी ही आलोचना करतीं-इन्हें क्या, लड़के मरे या जियें, इनकी बला से, माँ के बिना कौन समझाये कि बेटा, बहुत मिठाइयाँ मत खाओ. आयी-गयी तो मेरे सिर जायेगी, इन्हें क्या? यहीं तक होता, तो निर्मला शायद जब्त कर जाती, पर देवीजी तो खुफिया पुलिस से सिपाही की भांति निर्मला का पीछा करती रहती थीं. अगर वह कोठे पर खड़ी है, तो अवश्य ही किसी पर निगाह डाल रही होगी, महरी से बातें करती है, तो अवश्य ही उनकी निन्दा करती होगी. बाजार से कुछ मंगवाती है, तो अवश्य कोई विलास वस्तु होगी. यह बराबर उसके पत्र पढ़ने की चेष्टा किया करती. छिप-छिपकर बातें सुना करती. निर्मला उनकी दोधरी तलवार से कांपती रहती थी, यहाँ तक कि उसने एक दिन पति से कहा-आप जरा जीजी को समझा दीजिए, क्यों मेरे पीछे पड़ रहती हैं?
तोताराम ने तेज होकर कहा, “तुम्हें कुछ कहा है, क्या?’
“रोज ही कहती हैं. बात मुँह से निकालना मुश्किल है. अगर उन्हें इस बात की जलन हो कि यह मालकिन क्यों बनी हुई है, तो आप उन्हीं को रूपये-पैसे दीजिये, मुझे न चाहिये, यही मालकिन बनी रहें. मैं तो केवल इतना चाहती हूँ कि कोई मुझे ताने-मेहने न दिया करे.”
यह कहते-कहते निर्मला की आँखों से आँसू बहने लगे. तोताराम को अपना प्रेम दिखाने का यह बहुत ही अच्छा मौका मिला, बोले, “मैं आज ही उनकी खबर लूंगा. साफ कह दूंगा, मुँह बंद करके रहना है, तो रहो, नहीं तो अपनी राह लो. इस घर की स्वामिनी वह नहीं है, तुम हो. वह केवल तुम्हारी सहायता के लिए हैं. अगर सहायता करने के बदले तुम्हें दिक करती हैं, तो उनके यहाँ रहने की ज़रूरत नहीं। मैंने सोचा था कि विधवा हैं, अनाथ हैं, पाव भर आटा खायेंगी, पड़ी रहेंगी. जब और नौकर-चाकर खा रहे हैं, तो वह तो अपनी बहिन ही है. लड़कों की देखभाल के लिए एक औरत की ज़रूरत भी थी, रख लिया, लेकिन इसके यह माने नहीं कि वह तुम्हारे ऊपर शासन करें.
निर्मला ने फिर कहा, “लड़कों को सिखा देती हैं कि जाकर माँ से पैसे मांगे, कभी कुछ-कभी कुछ. लड़के आकर मेरी जान खाते हैं. घड़ी भर लेटना मुश्किल हो जाता है. डांटती हूँ, तो वह आँखें लाल-पीली करके दौड़ती हैं. मुझे समझती हैं कि लड़कों को देखकर जलती है. ईश्वर जानते होंगे कि मैं बच्चों को कितना प्यार करती हूँ. आखिर मेरे ही बच्चे तो हैं. मुझे उनसे क्यों जलन होने लगी?”
तोताराम क्रोध से कांप उठे, बोल, “तुम्हें जो लड़का दिक करे, उसे पीट दिया करो. मैं भी देखता हूँ कि लौंडे शरीर हो गये हैं. मंसाराम को तो में बोर्डिंग हाउस में भेज दूंगा. बाकी दोनों को तो आज ही ठीक किये देता हूँ. उस वक्त तोताराम कचहरी जा रहे थे, डांट-डपट करने का मौका न था, लेकिन कचहरी से लौटते ही उन्होंने घर में रुक्मणी से कहा, “क्यों बहिन, तुम्हें इस घर में रहना है या नहीं? अगर रहना है, शांत होकर रहो. यह क्या कि दूसरों का रहना मुश्किल कर दो.”
रुक्मणी समझ गयीं कि बहू ने अपना वार किया, पर वह दबने वाली औरत न थीं. एक तो उम्र में बड़ी, तिस पर इसी घर की सेवा में ज़िन्दगी काट दी थी. किसकी मज़ाल थी कि उन्हें बेदखल कर दे! उन्हें भाई की इस क्षुद्रता पर आश्चर्य हुआ, बोलीं, “तो क्या लौंडी बनाकर रखेगे? लौंडी बनकर रहना है, तो इस घर की लौंडी न बनूंगी. अगर तुम्हारी यह इच्छा हो कि घर में कोई आग लगा दे और मैं खड़ी देखा करूं, किसी को बेराह चलते देखूं; तो चुप साध लूं, जो जिसके मन में आये करे, मैं मिट्टी की देवी बनी रहूं, तो यह मुझसे न होगा. यह हुआ क्या, जो तुम इतना आपे से बाहर हो रहे हो? निकल गयी सारी बुद्धिमानी, कल की लौंडिया चोटी पकड़कर नचाने लगी? कुछ पूछना न ताछना, बस, उसने तार खींचा और तुम काठ के सिपाही की तरह तलवार निकालकर खड़े हो गये.”
तोता – “सुनता हूँ, कि तुम हमेशा खुचर निकालती रहती हो, बात-बात पर ताने देती हो. अगर कुछ सीख देनी हो, तो उसे प्यार से, मीठे शब्दों में देनी चाहिये. तानों से सीख मिलने के बदले उलटा और जी जलने लगता है.”
रुक्मणी – “तो तुम्हारी यह मर्ज़ी है कि किसी बात में न बोलूं, यही सही, किंतु फिर यह न कहना, कि तुम घर में बैठी थीं, क्यों नहीं सलाह दी. जब मेरी बातें ज़हर लगती हैं, तो मुझे क्या कुत्ते ने काटा है, जो बोलूं? मसल है- ‘नाटों खेती, बहुरियों घर.’ मैं भी देखूं, बहुरिया कैसे कर चलाती है!”
इतने में सियाराम और जियाराम स्कूल से आ गये. आते ही आते दोनों बुआजी के पास जाकर खाने को मांगने लगे.
रुक्मणी ने कहा, “जाकर अपनी नयी अम्मा से क्यों नहीं मांगते, मुझे बोलने का हुक्म नहीं है.”
तोता – “अगर तुम लोगों ने उस घर में कदम रखा, तो टांग तोड़ दूंगा. बदमाशी पर कमर बांधी है.”
जियाराम ज़रा शोख था, बोला, “उनको तो आप कुछ नहीं कहते, हमीं को धमकाते हैं. कभी पैसे नहीं देतीं.”
सियाराम ने इस कथन का अनुमोदन किया, “कहती हैं, मुझे दिक करोगे, तो कान काट लूंगी. कहती है कि नहीं जिया?”
निर्मला अपने कमरे से बोली, “मैंने कब कहा था कि तुम्हारे कान काट लूंगी, अभी से झूठ बोलने लगे?”
इतना सुनना था कि तोताराम ने सियाराम के दोनों कान पकड़कर उठा लिया. लड़का जोर से चीख मारकर रोने लगा.
रुक्मणी ने दौड़कर बच्चे को मुंशीजी के हाथ से छुड़ा लिया और बोलीं, “बस, रहने भी दो, क्या बच्चे को मार डालोगे? हाय-हाय! कान लाल हो गया. सच कहा है, नई बीवी पाकर आदमी अंधा हो जाता है. अभी से यह हाल है, तो इस घर के भगवान ही मालिक हैं.”
निर्मला अपनी विजय पर मन-ही-मन प्रसन्न हो रही थी, लेकिन जब मुंशी जी ने बच्चे का कान पकड़कर उठा लिया, तो उससे न रहा गया. छुड़ाने को दौड़ी, पर रुक्मणी पहले ही पहुँच गयी थी, बोलीं, “पहले आग लगा दी, अब बुझाने दौड़ी हो. जब अपने लड़के होंगे, तब आँखें खुलेंगी. पराई पीर क्या जानो?”
निर्मला – “खड़े तो हैं, पूछ लो न, मैंने क्या आग लगा दी? मैंने इतना ही कहा था कि लड़के मुझे पैसों के लिए बार-बार दिक करते हैं, इसके सिवाय जो मेरे मुँह से कुछ निकला हो, तो मेरे आँखें फूट जायें.”
तोता – “मैं खुद इन लौंडों की शरारत देखा करता हूँ, अंधा थोड़े ही हूँ. तीनों ज़िद्दी और शरीर हो गये हैं. बड़े मियां को तो मैं आज ही होस्टल में भेजता हूँ.”
रुक्मणी – “अब तक तुम्हें इनकी कोई शरारत न सूझी थी, आज आँखें क्यों इतनी तेज हो गयीं?”
तोताराम – “तुम्हीं न इन्हें इतना शोख कर रखा है.”
रुक्मणी – “तो मैं ही विष की गांठ हूँ. मेरे ही कारण तुम्हारा घर चौपट हो रहा है. लो मैं जाती हूँ, तुम्हारे लड़के हैं, मारो चाहे काटो, न बोलूंगी.”
यह कहकर वह वहाँ से चली गयीं. निर्मला बच्चे को रोते देखकर विहृल हो उठी. उसने उसे छाती से लगा लिया और गोद में लिए हुए अपने कमरे में लाकर उसे चुमकारने लगी, लेकिन बालक और भी सिसक-सिसक कर रोने लगा. उसका अबोध हृदय इस प्यार में वह मातृ-स्नेह न पाता था, जिससे दैव ने उसे वंचित कर दिया था. यह वात्सल्य न था, केवल दया थी. यह वह वस्तु थी, जिस पर उसका कोई अधिकार न था, जो केवल भिक्षा के रूप में उसे दी जा रही थी. पिता ने पहले भी दो-एक बार मारा था, जब उसकी माँ जीवित थी, लेकिन तब उसकी माँ उसे छाती से लगाकर रोती न थी. वह अप्रसन्न होकर उससे बोलना छोड़ देती, यहाँ तक कि वह स्वयं थोड़ी ही देर के बाद कुछ भूलकर फिर माता के पास दौड़ा जाता था. शरारत के लिए सजा पाना तो उसकी समझ में आता था, लेकिन मार खाने पार चुमकारा जाना उसकी समझ में न आता था. मातृ-प्रेम में कठोरता होती थी, लेकिन मृदुलता से मिली हुई. इस प्रेम में करूणा थी, पर वह कठोरता न थी, जो आत्मीयता का गुप्त संदेश है. स्वस्थ अंग की पारवाह कौन करता है? लेकिन वही अंग जब किसी वेदना से टपकने लगता है, तो उसे ठोस और धक्के से बचाने का यत्न किया जाता है. निर्मला का करूण रूदन बालक को उसके अनाथ होने की सूचना दे रहा था. वह बड़ी देर तक निर्मला की गोद में बैठा रोता रहा और रोते-रोते सो गया. निर्मला ने उसे चारपाई पर सुलाना चाहा, तो बालक ने सुषुप्तावस्था में अपनी दोनों कोमल बाहें उसकी गर्दन में डाल दीं और ऐसा चिपट गया, मानो नीचे कोई गढ़ा हो. शंका और भय से उसका मुख विकृत हो गया. निर्मला ने फिर बालक को गोद में उठा लिया, चारपाई पर न सुला सकी. इस समय बालक को गोद में लिये हुए उसे वह तुष्टि हो रही थी, जो अब तक कभी न हुई थी, आज पहली बार उसे आत्मवेदना हुई, जिसके ना आँख नहीं खुलती, अपना कर्त्तव्य-मार्ग नहीं समझता. वह मार्ग अब दिखाई देने लगा.
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