चैप्टर 8 – निर्मला : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 8 Nirmala Novel By Munshi Premchand In Hindi Read Online

Chapter 8 Nirmala Munshi Premchand Novel

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Chapter 8 Nirmala Novel By Munshi Premchand In Hindi Read Online

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जब कोई बात हमारी आशा के विरुद्ध होती है, तभी दु:ख होता है. मंसाराम को निर्मला से कभी इस बात की आशा न थी कि वे उसकी शिकायत करेंगी. इसलिए उसे घोर वेदना हो रही थी. वह क्यों मेरी शिकायत करती है? क्या चाहती है? यही न कि वह मेरे पति की कमाई खाता है, इसके पढ़ान-लिखाने में रुपये खर्च होते हैं, कपड़ा पहनता है. उनकी यही इच्छा होगी कि यह घर में न रहे. मेरे न रहने से उनके रुपये बच जायेंगे. वह मुझसे बहुत प्रसन्नचित्त रहती हैं. कभी मैंने उनके मुँह से कटु शब्द नहीं सुने. क्या यह सब कौशल है? हो सकता है? चिड़िया को जाल में फंसाने के पहले शिकारी दाने बिखेरता है. आह! मैं नहीं जानता था कि दाने के नीचे जाल है, यह मातृ-स्नेह केवल मेरे निर्वासन की भूमिका है.

अच्छा, मेरा यहाँ रहना क्यों बुरा लगता है? जो उनका पति है, क्या वह मेरा पिता नहीं है? क्या पिता-पुत्र का संबंध स्त्री-पुरुष के संबंध से कुछ कम घनिष्ट है? अगर मुझे उनके संपूर्ण आधिपत्य से ईर्ष्या नहीं होती, वह जो चाहे करें, मैं मुँह नहीं खोल सकता, तो वह मुझे एक अगुंल भर भूमि भी देना नहीं चाहतीं. आप पक्के महल में रहकर क्यों मुझे वृक्ष की छाया में बैठा नहीं देख सकतीं.

हाँ, वह समझती होंगी कि वह बड़ा होकर मेरे पति की संपत्ति का स्वामी हो जायेगा, इसलिए अभी से निकाल देना अच्छा है. उनको कैसे विश्वास दिलाऊं कि मेरी ओर से यह शंका न करें. उन्हें क्योंकर बताऊं कि मंसाराम विष खाकर प्राण दे देगा, इसके पहले कि उनका अहित कर. उसे चाहे कितनी ही कठिनाइयाँ सहनी पड़े, वह उनके हृदय का शूल न बनेगा. यों तो पिताजी ने मुझे जन्म दिया है और अब भी मुझ पर उनका स्नेह कम नहीं है, लेकिन क्या मैं इतना भी नहीं जानता कि जिस दिन पिताजी ने उनसे विवाह किया, उसी दिन उन्होंने हमें अपने हृदय से बाहर निकाल दिया? अब हम अनाथों की भांति यहां पड़े रह सकते हैं, इस घर पर हमारा कोई अधिकार नहीं है. कदाचित् पूर्व संस्कारों के कारण यहाँ अन्य अनाथों से हमारी दशा कुछ अच्छी है, पर हैं अनाथ ही. हम उसी दिन अनाथ हुए, जिस दिन अम्मा जी परलोक सिधारीं. जो कुछ कसर रह गयी थी, वह इस विवाह ने पूरी कर दी. मैं तो खुद पहले इनसे विशेष संबंध न रखता था. अगर, उन्हीं दिनों पिताजी से मेरी शिकायत की होती, तो शायद मुझे इतना दु:ख न होता. मैं तो उसे आघात के लिए तैयार बैठा था. संसार में क्या मैं मजदूरी भी नहीं कर सकता? लेकिन बुरे वक्त में इन्होंने चोट की. हिंसक पशु भी आदमी को गाफिल पाकर ही चोट करते हैं. इसीलिए मेरी आवभगत होती थी, खाना खाने के लिए उठने में ज़रा भी देर हो जाती थी, तो बुलावे पर बुलावे आते थे, जलपान के लिए प्रात: हलुआ बनाया जाता था, बार-बार पूछा जाता था-रुपयों की ज़रूरत तो नहीं है? इसीलिए वह सौ रुपयों की घड़ी मंगवाई थी.

मगर क्या इन्हें क्या दूसरी शिकायत न सूझी, जो मुझे आवारा कहा? आखिर उन्होंने मेरी क्या आवारगी देखी? यह कह सकती थीं कि इसका मन पढ़ने-लिखने में नहीं लगता, एक-न-एक चीज के लिए नित्य रुपये मांगता रहता है. यही एक बात उन्हें क्यों सूझी? शायद इसीलिए कि यही सबसे कठोर आघात है, जो वह मुझ पर कर सकती हैं. पहली ही बार इन्होंने मुझे पर अग्नि–बाण चला दिया, जिससे कहीं शरण नहीं. इसीलिए न कि वह पिता की नज़रों से गिर जाये? मुझे बोर्डिंग-हाउस में रखने का तो एक बहाना था. उद्देश्य यह था कि इसे दूध की मक्खी की तरह निकाल दिया जाये. दो-चार महीने के बाद खर्च-वर्च देना बंद कर दिया जाये, फिर चाहे मरे या जिये. अगर मैं जानता कि यह प्रेरणा इनकी ओर से हुई है, तो कहीं जगह न रहने पर भी जगह निकाल लेता. नौकरों की कोठरियों में तो जगह मिल जाती, बरामदे में पड़े रहने के लिए बहुत जगह मिल जाती। खैर, अब सबेरा है. जब स्नेह नहीं रहा, तो केवल पेट भरने के लिए यहाँ पड़े रहना बेहयाई है, यह अब मेरा घर नहीं. इसी घर में पैदा हुआ हूँ, यही खेला हूँ, पर यह अब मेरा नहीं. पिताजी भी मेरे पिता नहीं हैं. मैं उनका पुत्र हूँ, पर वह मेरे पिता नहीं हैं. संसार के सारे नाते स्नेह के नाते हैं. जहाँ स्नेह नहीं, वहाँ कुछ नहीं. हाय, अम्माजी, तुम कहाँ हो?”

यह सोचकर मंसाराम रोने लगा. ज्यों-ज्यों मातृ स्नेह की पूर्व-स्मृतियाँ जागृत होती थीं, उसके आँसू उमड़ते आते थे. वह कई बार अम्मा-अम्मा पुकार उठा, मानो वह खड़ी सुन रही हैं. मातृ-हीनता के दु:ख का आज उसे पहली बार अनुभव हुआ. वह आत्माभिमानी था, साहसी था, पर अब तक सुख की गोद में लालन-पालन होने के कारण वह इस समय अपने आप को निराधार समझ रहा था.

रात के दस बज गये थे. मुंशीजी आज कहीं दावत खाने गये हुए थे. दो बार महरी मंसाराम को भोजन करने के लिए बुलाने आ चुकी थी. मंसाराम ने पिछली बार उससे झुंझलाकर कह दिया था, “मुझे भूख नहीं है, कुछ न खाऊंगा.” बार-बार आकर सिर पर सवार हो जाती ह. इसीलिए जब निर्मला ने उसे फिर उसी काम के लिए भेजना चाहा, तो वह न गयी. बोली – ‘बहूजी, वह मेरे बुलाने से न आवेंगे.”

निर्मला – ‘आयेंगे क्यों नहीं? जाकर कह दे खाना ठंडा हुआ जाता है. दो चार कौर खा लें.”

महरी – “मैं यह सब कह के हार गयी, नहीं आते.’

निर्मला – “तूने यह कहा था कि वह बैठी हुई हैं.”

महरी – ‘नहीं बहूजी, यह तो मैंने नहीं कहा, झूठ क्यों बोलूं.”

निर्मला – ‘अच्छा, तो जाकर यह कह देना, वह बैठी तुम्हारी राह देख रही हैं. तुम न खाओगे तो वह रसोई उठाकर सो रहेंगी. मेरी भूंगी, सुन, अबकी और चली जा। (हँसकर) न आवें, तो गोद में उठा लाना.’

भूंगी नाक-भौं सिकोड़ते गयी, पर एक ही क्षण में आकर बोली, “अरे बहूजी, वह तो रो रहे हैं. किसी ने कुछ कहा है क्या?”

निर्मला इस तरह चौककर उठी और दो-तीन पग आगे चली, मानो किसी माता ने अपने बेटे के कुएं में गिर पड़ने की खबर पायी हो, फिर वह ठिठक गयी और भूंगी से बोली, “रो रहे हैं? तूने पूछा नहीं क्यों रो रहे हैं?”

भूंगी – “नहीं बहूजी, यह तो मैंने नहीं पूछा. झूठ क्यों बोलूं?”

वह रो रहे हैं. इस निस्तबध रात्रि में अकेले बैठै हुए वह रो रहे हैं. माता की याद आयी होगी? कैसे जाकर उन्हें समझाऊं? हाय, कैसे समझाऊं? यहां तो छींकते नाक कटती है. ईश्वर, तुम साक्षी हो अगर मैंने उन्हें भूल से भी कुछ कहा हो, तो वह मेरे आगे आये. मैं क्या करुं? वह दिल में समझते होंगे कि इसी ने पिताजी से मेरी शिकायत की होगी. कैसे विश्वास दिलाऊं कि मैंने कभी तुम्हारे विरुद्ध एक शब्द भी मुँह से नहीं निकाला? अगर मैं ऐसे देवकुमार के-से चरित्र रखने वाले युवक का बुरा चेतूं, तो मुझसे बढ़कर राक्षसी संसार में न होगी.
निर्मला देखती थी कि मंसाराम का स्वास्थ्य दिन-दिन बिगड़ता जाता है, वह दिन-दिन दुर्बल होता जाता है, उसके मुख की निर्मल कांति दिन-दिन मलिन होती जाती है, उसका सहास बदन संकुचित होता जाता है. इसका कारण भी उससे छिपा न था, पर वह इस विषय में अपने स्वामी से कुछ न कह सकती थी. यह सब देख-देखकर उसका हृदय विदीर्ण होता रहता था, पर उसकी ज़बान न खुल सकती थी. वह कभी-कभी मन में झुंझलाती कि मंसाराम क्यों ज़रा-सी बात पर इतना क्षोभ करता है? क्या इनके आवारा कहने से वह आवारा हो गया? मेरी और बात है, एक जरा-सा शक मेरा सर्वनाश कर सकता है, पर उसे ऐसी बातों की इतनी क्या परवाह?

उसके जी में प्रबल इच्छा हुई कि चलकर उन्हें चुप कराऊं और लाकर खाना खिला दूं. बेचारे रात-भर भूखे पड़े रहेंगे. हाय! मैं इस उपद्रव की जड़ हूँ. मेरे आने के पहले इस घर में शांति का राज्य था. पिता बालकों पर जान देता था, बालक पिता को प्यार करते थे. मेरे आते ही सारी बाधाएं आ खड़ी हुईं. इनका अंत क्या होगा? भगवान ही जाने. भगवान मुझे मौत भी नहीं देते. बेचारा अकेले भूखों पड़ा है. उस वक्त भी मुँह जूठा करके उठ गया था. और उसका आहार ही क्या है, जितना वह खाता है, उतना तो साल-दो-साल के बच्चे खा जाते हैं.

निर्मला चली. पति की इच्छा के विरुद्ध चली. जो नाते में उसका पुत्र होता था, उसी को मनाने जाते उसका हृदय कांप रहा था. उसने पहले रुक्मणी के कमरे की ओर देखा, वह भोजन करके बेखबर सो रही थीं, फिर बाहर कमरे की ओर गयी. वहाँ सन्नाटा था. मुंशी अभी न आये थे. यह सब देख-भालकर वह मंसाराम के कमरे के सामने जा पहुँची. कमरा खुला हुआ था, मंसाराम एक पुस्तक सामने रखे मेज पर सिर झुकाये बैठा हुआ था, मानो शोक और चिंता की सजीव मूर्ति हो. निर्मला ने पुकारना चाहा, पर उसके कंठ से आवाज़ न निकली.
सहसा मंसाराम ने सिर उठाकर द्वार की ओर देखा. निर्मला को देखकर अंधेरे में पहचान न सका. चौंककर बोला – “कौन?”
निर्मला ने कांपते हुए स्वर में कहा – “मैं तो हूँ. भोजन करने क्यों नहीं चल रहे हो? कितनी रात गयी.”

मंसाराम ने मुँह फेरकर कहा – “मुझे भूख नहीं है.”

निर्मला – “यह तो मैं तीन बार भूंगी से सुन चुकी हूँ.”

मंसाराम – “तो चौथी बार मेरे मुँह से सुन लीजिए.”

निर्मला – “शाम को भी तो कुछ नहीं खाया था, भूख क्यों नहीं लगी?”

मंसाराम ने व्यंग्य की हंसी हँसकर कहा, “बहुत भूख लगेगी, तो आयेग कहाँ से?”

यह कहते-कहते मंसाराम ने कमरे का द्वार बंद करना चाहा, लेकिन निर्मला किवाड़ों को हटाकर कमरे में चली आयी और मंसाराम का हाथ पकड़ सजल नेत्रों से विनय-मधुर स्वर में बोली, “मेरे कहने से चलकर थोड़ा-सा खा लो. तुम न खाओगे, तो मैं भी जाकर सो रहूंगी. दो ही कौर खा लेना. क्या मुझे रात-भर भूखों मारना चाहते हो?”

मंसाराम सोच में पड़ गया. अभी भोजन नहीं किया, मेरे ही इंतज़ार में बैठी रहीं. यह स्नेह, वात्सल्य और विनय की देवी हैं या ईर्ष्या और अमंगल की मायाविनी मूर्ति? उसे अपनी माता का स्मरण हो आया. जब वह रुठ जाता था, तो वे भी इसी तरह मनाने आ करती थीं और जब तक वह न जाता था, वहाँ से न उठती थीं. वह इस विनय को अस्वीकार न कर सका. बोला – “मेरे लिए आपको इतना कष्ट हुआ, इसका मुझे खेद है. मैं जानता कि आप मेरे इंतज़ार में भूखी बैठी हैं, तो तभी खा आया होता.”

निर्मला ने तिरस्कार-भाव से कहा, “यह तुम कैसे समझ सकते थे कि तुम भूखे रहोगे और मैं खाकर सो रहूंगी? क्या विमाता का नाता होने से ही मैं ऐसी स्वार्थिनी हो जाऊंगी?”

सहसा मर्दाने कमरे में मुंशीजी के खांसने की आवाज आयी. ऐसा मालूम हुआ कि वह मंसाराम के कमरे की ओर आ रहे हैं. निर्मला के चेहरे का रंग उड़ गया. वह तुरंत कमरे से निकल गयी और भीतर जाने का मौका न पाकर कठोर स्वर में बोली, “मैं लौंडी नहीं हूँ कि इतनी रात तक किसी के लिए रसोई के द्वार पर बैठी रहूं. जिसे न खाना हो, वह पहले ही कह दिया करे.”

मुंशीजी ने निर्मला को वहाँ खड़े देखा. यह अनर्थ. यह यहाँ क्या करने आ गयी? बोले – “यहाँ क्या कर रही हो?”

निर्मला ने कर्कश स्वर में कहा, “कर क्या रही हूँ, अपने भाग्य को रो रही हूँ. बस, सारी बुराइयों की जड़ मैं ही हूँ. कोई इधर रुठा है, कोई उधर मुंह फुलाये खड़ा है. किस-किस को मनाऊं और कहाँ तक मनाऊं?”

मुंशीजी कुछ चकित होकर बोले, “बात क्या है?”

निर्मला – “भोजन करने नहीं जाते और क्या बात है? दस दफे महरी को भेजा, आखिर आप दौड़ी आयी. इन्हें तो इतना कह देना आसान है, मुझे भूख नहीं है, यहाँ तो घर भर की लौंडी हूँ, सारी दुनिया मुँह  में कालिख पोतने को तैयार. किसी को भूख न हो, पर कहने वालों को यह कहने से कौन रोकेगा कि पिशाचिनी किसी को खाना नहीं देती.”

मुंशीजी ने मंसाराम से कहा, “खाना क्यों नहीं खा लेते जी? जानते हो क्या वक्त है?”

मंसाराम स्तब्ध सा खड़ा था. उसके सामने एक ऐसा रहस्य हो रहा था, जिसका मर्म वह कुछ भी न समझ सकता था. जिन नेत्रों में एक क्षण पहले विनय के आँसू भरे हुए थे, उनमें अकस्मात् ईर्ष्या की ज्वाला कहाँ से आ गयी? जिन अधरों से एक क्षण पहले सुधा-वृष्टि हो रही थी, उनमें से विष प्रवाह क्यों होने लगा? उसी अर्ध चेतना की दशा में बोला, “मुझे भूख नहीं है.”

मुंशीजी ने घुड़ककर कहा, “क्यों भूख नहीं है? भूख नहीं थी, तो शाम को क्यों न कहला दिया? तुम्हारी भूख के इंतज़ार में कौन सारी रात बैठा रहे? तुममें पहले तो यह आदत न थी. रुठना कब से सीख लिया? जाकर खा लो.”

मंसाराम – “जी नहीं, मुझे ज़रा भी भूख नहीं है.”

तोताराम ने दांत पीसकर कहा, “अच्छी बात है, जब भूख लगे तब खाना. यह कहते हुए वह अंदर चले गये. निर्मला भी उनके पीछे ही चली गयी. मुंशीजी तो लेटने चले गये, उसने जाकर रसोई उठा दी और कुल्लाकर, पान खा मुस्कराती हुई आ पहुँची. मुंशीजी ने पूछा, “खाना खा लिया न?”

निर्मला – “क्या करती, किसी के लिए अन्न-जल छोड़ दूंगी?”

मुंशीजी – “इसे न जाने क्या हो गया है, कुछ समझ में नहीं आता? दिन-दिन घुलता चला जाता है, दिन भर उसी कमरे में पड़ा रहता है.”

निर्मला कुछ न बोली. वह चिंता के अपार सागर में डुबकियाँ खा रही थी. मंसाराम ने मेरे भाव-परिवर्तन को देखकर दिल में क्या-क्या समझा होगा? क्या उसके मन में यह प्रश्न उठा होगा कि पिताजी को देखते ही इसकी त्योरियां क्यों बदल गयीं? इसका कारण भी क्या उसकी समझ में आ गया होगा? बेचारा खाने आ रहा था, तब तक यह महाशय न जाने कहाँ से फट पड़े? इस रहस्य को उसे कैसे समझाऊं समझाना संभव भी है? मैं किस विपत्ति में फंस गयी?

सवेरे वह उठकर घर के काम-धंधे में लगी. सहसा नौ बजे भूंगी ने आकर कहा, “मंसा बाबू तो अपने कागज-पत्तर सब इक्के पर लाद रहे हैं.”

भूंगी – “मैंने पूछा तो बोले, अब स्कूल में ही रहूंगा.”

मंसाराम प्रात:काल उठकर अपने स्कूल के हेडमास्टर साहब के पास गया था और अपने रहने का प्रबंध कर आया था. हेडमास्टर साहब ने पहले तो कहा- यहाँ जगह नहीं है, तुमसे पहले के कितने ही लड़कों के प्रार्थना-पत्र पडे हुए हैं, लेकिन जब मंसाराम ने कहा – मुझे जगह न मिलेगी, तो कदाचित् मेरा पढ़ना न हो सके और मैं इम्तहान में शरीक न हो सकूं, तो हेडमास्टर साहब को हार माननी पड़ी. मंसाराम के प्रथम श्रेणी में पास होने की आशा थी. अध्यापकों को विश्वास था कि वह उस शाला की कीर्ति को उज्जवल करेगा. हेडमास्टर साहब ऐसे लड़कों को कैसे छोड़ सकते थे? उन्होने अपने दफ्तर का कमरा खाली करा दिया. इसीलिए मंसाराम वहाँ से आते ही अपना सामान इक्के पर लादने लगा.”

मुंशीजी ने कहा, “अभी ऐसी क्या जल्दी है? दो-चार दिन में चले जाना. मैं चाहता हूँ, तुम्हारे लिए कोई अच्छा सा रसोइया ठीक कर दूं.”

मंसाराम – “वहाँ का रसोइया बहुत अच्छा भोजन पकाता है.”

मुंशीजी – “अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना. ऐसा न हो कि पढ़ने के पीछे स्वास्थ्य खो बैठो.”

मंसाराम – “वहाँ नौ बजे के बाद कोई पढ़ने नहीं पाता और सबको नियम के साथ खेलना पड़ता है.”

मुंशी जी – “बिस्तर क्यों छोड़ देते हो? सोओगे किस पर?”

मंसाराम – “कंबल लिए जाता हूँ. बिस्तर ज़रुरत नहीं.”

मुंशी जी – “कहार जब तक तुम्हारा सामान रख रहा है, जाकर कुछ खा लो. रात भी तो कुछ नहीं खाया था.”

मंसाराम – ‘वहीं खा लूंगा. रसोइये से भोजन बनाने को कह आया हूँ, यहाँ खाने लगूंगा, तो देर होगी.”
घर में जियाराम और सियाराम भी भाई के साथ जाने के जिद कर रहे थे, निर्मला उन दोनों के बहला रही थी – “बेटा, वहाँ छोटे नहीं रहते, सब काम अपने ही हाथ से करना पड़ता है.”

एकाएक रुक्मणी ने आकर कहा, “तुम्हारा वज्र का हृदय है, महारानी. लड़के ने रात भी कुछ नहीं खाया, इस वक्त भी बिना खाय-पीये चला जा रहा है और तुम लड़को के लिए बातें कर रही हो? उसको तुम जानती नहीं हो. यह समझ लो कि वह स्कूल नहीं जा रहा है, बनवास ले रहा है, लौटकर फिर न आयेगा. यह उन लड़कों में नहीं है, जो खेल में मार भूल जाते हैं. बात उसके दिल पर पत्थर की लकीर हो जाती है.”

निर्मला ने कातर स्वर में कहा, “क्या करुं, दीदीजी? वह किसी की सुनते ही नहीं. आप ज़रा जाकर बुला लें. आपके बुलाने से आ जायेंगे.”

रुक्मणी – “आखिर हुआ क्या, जिस पर भागा जाता है? घर से उसका जी कभ उचाट न होता था. उसे तो अपने घर के सिवा और कहीं अच्छा ही न लगता था. तुम्हीं ने उसे कुछ कहा होगा, या उसकी कुछ शिकायत की होगी. क्यों अपने लिए कांटे बो रही हो? रानी, घर को मिट्टी में मिलाकर चैन से न बैठने पाओगी.”

निर्मला ने रोकर कहा, “मैंने उन्हें कुछ कहा हो, तो मेरी ज़बान कट जाये. हाँ, सौतेली माँ होने के कारण बदनाम तो हूँ ही. आपके हाथ जोड़ती हूँ, ज़रा जाकर उन्हें बुला लाइये.”

रुक्मणी ने तीव्र स्वर में कहा, “तुम क्यों नहीं बुला लातीं? क्या छोटी हो जाओगी? अपना होता, तो क्या इसी तरह बैठी रहती?”

निर्मला की दशा उस पंखहीन पक्षी की तरह हो रही थी, जो सर्प को अपनी ओर आते देख कर उड़ना चाहता है, पर उड़ नहीं सकता, उछलता है और गिर पड़ता है, पंख फड़फड़ाकर रह जाता है. उसका हृदय अंदर ही अंदर तड़प रहा था, पर बाहर न जा सकती थी.
इतने में दोनों लड़के आकर बोले, “भैयाजी चले गये.”

निर्मला मूर्तिवत् खड़ी रही, मानो संज्ञाहीन हो गयी हो. चले गये? घर में आये तक नहीं, मुझसे मिले तक नहीं चले गये. मुझसे इतनी घृणा. मैं उनकी कोई न सही, उनकी बुआ तो थीं. उनसे तो मिलने आना चाहिए था? मैं यहाँ थी न. अंदर कैसे कदम रखते? मैं देख लेती न. इसीलिए चले गये.

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