चैप्टर 14 – निर्मला : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 14 Nirmala Novel By Munshi Premchand In Hindi Read Online

Chapter 14 Nirmala Munshi Premchand Novel

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दोनों बाते एक ही साथ हुईं – निर्मला के कन्या को जन्म दिया, कृष्णा का विवाह निश्चित हुआ और मुंशी तोताराम का मकान नीलाम हो गया. कन्या का जन्म तो साधारण बात थी, यद्यपि निर्मला की दृष्टि में यह उसके जीवन की सबसे महान घटना थी, लेकिन शेष दोनों घटनाएं असाधारण थीं. कृष्णा का विवाह ऐसे संपन्न घराने में क्यों कर ठीक हुआ? उसकी माता के पास तो दहेज के नाम को कौड़ी भी न थी और इधर बूढ़े सिन्हा साहब जो अब पेंशन लेकर घर आ गये थे, बिरादरी महालोभी मशहूर थे. वह अपने पुत्र का विवाह ऐसे दरिद्र घराने में करने पर कैसे राज़ी हुए. किसी को सहसा विश्वास न आता था. इससे भी बड़े आश्चर्य की बात मुंशीजी के मकान का नीलाम होना था. लोग मुंशीजी को अगर लखपति नहीं, तो बड़ा आदमी अवश्य समझते थे. उनका मकान कैसे नीलाम हुआ? बात यह थी कि मुंशीजी ने एक महाजन से कुछ रुपये क़र्ज़ लेकर एक गाँव रेहन रखा था. उन्हें आशा थी कि साल-आध-साल में यह रुपये पाट देंगे, फिर दस-पाँच साल में उस गाँव पर कब्जा कर लेंगे. वह जमींदार असल और सूद के कुल रुपये अदा करने में असमर्थ हो जायेगा. इसी भरोसे पर मुंशीजी ने यह मामला किया था. गाँव बहुत बड़ा था, चार-पाँच सौ रुपये नफ़ा होता था, लेकिन मन की सोची मन ही में रह गई. मुंशीजी दिल को बहुत समझाने पर भी कचहरी न जा सके. पुत्रशोक ने उनमें कोई काम करने की शक्ति ही नहीं छोड़ी. कौन ऐसा हृदय–शून्य पिता है, जो पुत्र की गर्दन पर तलवार चलाकर चित्त को शांत कर ले?

महाजन के पास जब साल भर तक सूद न पहुँचा और न उसके बार-बार बुलाने पर मुंशीजी उसके पास गये. यहाँ तक कि पिछली बार उन्होंने साफ-साफ कह दिया कि हम किसी के गुलाम नहीं हैं, साहूजी जो चाहे करें, तब साहूजी को गुस्सा आ गया. उसने नालिश कर दी. मुंशजी पैरवी करने भी न गये. एकाएक डिग्री हो गई. यहाँ  घर में रुपये कहाँ रखे थे? इतने ही दिनों में मुंशीजी की साख भी उठ गई थी. वह रुपये का कोई प्रबंध न कर सके. आखिर मकान नीलाम पर चढ़ गया. निर्मला सौर में थी. यह खबर सुनी, तो कलेजा सन्न-सा हो गया. जीवन में कोई सुख न होने पर भी धनाभाव की चिंताओं से मुक्त थी. धन मानव जीवन में अगर सर्वप्रधान वस्तु नहीं, तो वह उसके बहुत निकट की वस्तु अवश्य है. अब और अभावों के साथ यह चिंता भी उसके सिर सवार हुई. उसे दाई द्वारा कहला भेजा, मेरे सब गहने बेचकर घर को बचा लीजिए, लेकिन मुंशीजी ने यह प्रस्ताव किसी तरह स्वीकार न किया.

उस दिन से मुंशीजी और भी चिंताग्रस्त रहने लगे. जिस धन का सुख भोगने के लिए उन्होंने विवाह किया था, वह अब अतीत की स्मृति मात्र था. वह मारे ग्लानि के अब निर्मला को अपना मुँह तक न दिखा सकते. उन्हें अब उस अन्याय का अनुमान हो रहा था, जो उन्होंने निर्मला के साथ किया था और कन्या के जन्म ने तो रही-सही कसर भी पूरी कर दी, सर्वनाश ही कर डाला!

बारहवें दिन सौर से निकलकर निर्मला नवजात शिशु को गोद लिये पति के पास गई. वह इस अभाव में भी इतनी प्रसन्न थी, मानो उसे कोई चिंता नहीं है. बालिका को हृदय से लगाकर वह अपनी सारी चिंताएं भूल गई थी. शिशु के विकसित और हर्ष प्रदीप्त नेत्रों को देखकर उसका हृदय प्रफुल्लित हो रहा था. मातृत्व के इस उद्गार में उसके सारे क्लेश विलीन हो गये थे. वह शिशु को पति की गोद मे देकर निहाल हो जाना चाहती थी, लेकिन मुंशीजी कन्या को देखकर सहम उठे. गोद लेने के लिए उनका हृदय हुलसा नहीं, पर उन्होंने एक बार उसे करुण नेत्रों से देखा और फिर सिर झुका लिया, शिशु की सूरत मंसाराम से बिलकुल मिलती थी.

निर्मला ने उसके मन का भाव और ही समझा. उसने शतगुण स्नेह से लड़की को हृदय से लगा लिया, मानो उससे कह रही है – अगर तुम इसके बोझ से दबे जाते हो, तो आज से मैं इस पर तुम्हारा साया भी नहीं पड़ने दूंगी. जिस रतन को मैंने इतनी तपस्या के बाद पाया है, उसका निरादर करते हुए तुम्हार हृदय फट नहीं जाता? वह उसी क्षण शिशु को गोद से चिपकाते हुए अपने कमरे में चली आई और देर तक रोती रही. उसने पति की इस उदासीनता को समझने की ज़रा भी चेष्टा न की, नहीं तो शायद वह उन्हें इतना कठोर न समझती. उसके सिर पर उत्तरदायित्व का इतना बड़ा भार कहाँ था, जो उसके पति पर आ पड़ा था? वह सोचने की चेष्टा करती, तो क्या इतना भी उसकी समझ में न आता?

मुंशीजी को एक ही क्षण में अपनी भूल मालूम हो गई. माता का हृदय प्रेम में इतना अनुरक्त रहता है कि भविष्य की चिंता और बाधाएं उसे ज़रा भी भयभीत नहीं करतीं. उसे अपने अंत:करण में एक अलौकिक शक्ति का अनुभव होता है, जो बाधाओं को उनके सामने परास्त कर देती है. मुंशीजी दौड़े हुए घर मे आये और शिशु को गोद में लेकर बोले – “मुझे याद आती है, मंसा भी ऐसा ही था-बिल्कुल ऐसा ही!”

निर्मला – “दीदीजी भी तो यही कहती है.”

मुंशीजी – “बिल्कुल वहीं बड़ी-बड़ी आँखें और लाल-लाल ओंठ हैं. ईश्वर ने मुझे मेरा मंसाराम इस रुप में दे दिया. वही माथा है, वही मुंह, वही हाथ-पांव! ईश्वर तुम्हारी लीला अपार है.”

सहसा रुक्मणी भी आ गई. मुंशीजी को देखते ही बोली – “देखो बाबू, मंसाराम है कि नहीं? वही आया है. कोई लाख कहे, मैं न मानूंगी. साफ मंसाराम है. साल भर के लगभग हो भी तो गया.”

मुंशीजी – “बहिन, एक-एक अंग तो मिलता है. बस, भगवान् ने मुझे मेरा मंसाराम दे दिया.” (शिशु से) – “क्यों री, तू मंसाराम ही है? छोड़कर जाने का नाम न लेना, नहीं फिर खींच लाऊंगा. कैसे निष्ठुर होकर भागे थे. आखिर पकड़ लाया कि नहीं? बस, कह दिया, अब मुझे छोड़कर जाने का नाम न लेना. देखो बहिन, कैसी टुकुर-टुकुर ताक रही है?”

उसी क्षण मुंशीजी ने फिर से अभिलाषाओं का भवन बनाना शुरु कर दिया. मोह ने उन्हें फिर संसार की ओर खींचा मानव जीवन! तू इतना क्षणभंगुर है, पर तेरी कल्पनाएं कितनी दीर्घालु! वही तोताराम जो संसार से विरक्त हो रह थे, जो रात-दिन मुत्यु का आवाहन किया करते थे, तिनके का सहारा पाकर तट पर पहुँचने के लिए पूरी शक्ति से हाथ-पांव मार रहे हैं.

मगर तिनके का सहारा पाकर कोई तट पर पहुँचा है?

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