चैप्टर 2 – प्रेमा : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 2 Prema Novel By Munshi Premchand In Hindi Read Online

Chapter 2 Prema Novel By Munshi Premchand

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प्रेमा भाग – 2 : जलन बुरी बला 

लाला बद्रीप्रसाद अमृतराय के बाप के दोस्तों में थे और अगर उनसे अधिक प्रतिष्ठित न थे, तो बहुत हेठे भी न थे. दोनो में लड़के-लड़की के ब्याह की बातचीत पक्की हो गयी थी. और अगर मुंशी धनपतराय दो बरस भी और जीते, तो बेटे का सेहरा देख लेते. मगर कालवश हो गये. और यह अरमान मन मे लिये बैकुंठ को सिधारे. हाँ, मरते-मरते उनकी बेटे हो यह नसीहत थी कि मुंशी बद्रीप्रसाद की लड़की से अवश्य विवाह करना. अमृतराय ने भी लजाते-लजाते बात मानी थी. मगर मुंशी धनपतराय को मरे आज पाँच बरस बीत चुके थे. इस बीच में उन्होंने वकालत भी पास कर ली थी और अच्छे ख़ासे अंग्रेज बन बैठे थे. इस परिवर्तन ने पब्लिक की आँखों में उनका आदर घटा दिया था. इसके विपरीत बद्रीप्रसाद पक्के हिंदू थे. साल भर, बारहों मास, उनके यहाँ श्रीमद्भागवत की कथा हुआ करती थी. कोई दिन ऐसा न जाता कि भंडार में सौ-पचास साधुओं का प्रसाद न बनता हो. इस उदारता ने उनको सारे शहर में सर्वप्रिय बना दिया था. प्रतिदिन भोर होते ही, वह गंगा स्नान को पैदल जाया करते थे और रास्ते में जितने आदमी उनको देखते सब आदर से सिर झुकाते थे और आपस में काना-फूसी करते कि दुखियारों का यह दाता सदा फलता-फूलता रहे.

यद्यपि लाला बद्रीप्रसाद अमृतराय की चाल-ढाल को पसंद न करते थे और कई बार उनको समझा कर हार भी चुके थे. मगर शहर में ऐसा होनहार, विद्यावान, सुंदर और धनिक कोई दूसरा आदमी न था, जो उनकी प्राण से अधिक प्रिय लड़की प्रेमा के पति बनने के योग्य हो. इस कारण वे बेबस हो रहे थे. लड़की अकेली थी, इसलिए दूसरे शहर में ब्याह भी न कर सकते थे. इस लड़की के गुण और सुंदरता की इतनी प्रशंसा थी कि उस शहर के सब रईस उसे चाहते थे. जब किसी काम-काज के मौके पर प्रेमा सोलहों श्रंगार करके जाती, तो जितनी और स्त्रियाँ वहाँ होतीं, उसके पैरों तले आँखें बिछाती. बड़ी-बूढ़ी औरतें कहा करती थी कि ऐसी सुंदर लड़की कहीं देखने में नहीं आई. और जैसी प्रेमा औरतों में थी, वैसे ही अमृतराय मर्दो में थे. ईश्वर ने अपने हाथ से दोनों का जोड़ मिलाया था.

हाँ, शहर के पुराने हिंदू लोग इस विवाह के ख़िलाफ़ थे. वह कहते कि अमृतराय सब गुण अगर सही, मगर है तो ईसाई. उनसे प्रेमा जैसी लड़की का विवाह करना ठीक नहीं है. मुंशीजी के नातेदार लोग भी इस शादी के विरूद्ध थे. इसी खींचा-तान में पाँच बरस बीत चुके थे. अमृतराय भी कुछ बहुत उद्यम न मालूम होते थे. मगर इस साल मुंशी बद्रीप्रसाद ने भी हियाब किया, और अमृतराय भी मुस्तैद हुए और विवाह की साइत निश्चय की गयी. अब दोनों तरफ तैयारियाँ हो रही थी. प्रेमा की माँ अमृतराय के नाम पर बिकी हुई थी और लड़की के लिए अभी से गहने पाते बनवाने लगी थी, कि निदान आज यह महाभयानक खबर पहुँची कि अमृतराय ईसाई हो गया है और उसका किसी मेम से विवाह हो रहा है.

इस खबर ने मुंशी जी के दिल पर वही काम किया, जो बिजली किसी हरे-भरे पेड़ पर गिर कर करती है. वे बूढ़े तो थे ही,  इस धक्के को न सह सके और पछ़ाड़ खाकर जमीन पर गिर पड़े. उनका बेसुध होना था कि सारा भीतर बाहर एक हो गया. तमाम नौकर-चाकर, अपने पराये इकटठे हो गये और ‘क्या हुआ?’ ‘क्या हुआ?’ का शोर मचाने लगा. अब जिसको देखिये, यही कहता फिरता है कि अमृतराय ईसाई हो गया है. कोई कहता है थाने में रपट करो, कोई कहता है चलकर मारपीट करो. बाहर से दम ही दम में अंदर खबर पहुँची. वहाँ भी कोहराम मच गया. प्रेमा की माँ बेचारी बहुत दिनों से बीमार थी. और उन्हीं की ज़िद थी कि बेटी की शादी जहाँ तक जल्द हो जाय अच्छा है. यद्यपि वह पुराने विचार की बूढ़ी औरत थी और उनको प्रेमा का अमृतराय के पास प्रेमपत्र भेजना एक आँख न भाता था. तथापि जब से उन्होंने उनको एक बार अपने आँगन में खड़े देख लिया था, तबसे उनको यही धुन सवार थी कि मेरी आँखों की तारा का विवाह हो तो उन्हीं से हो. वह इस वक्त बैठी हुई बेटी से बातचीत कर रही थी कि बाहर से यह खबर पहुँची. वह अमृतराय को अपना डामाद समझने लगी थी—और कुछ तो न हो सका, बेटी को गले लगाकर रोने लगी. प्रेमा ने आँसू को रोकना चाहा, मगर न रोक सकी. उसकी बरसों की संचित आशारूपी बेल-क्षण मात्र में कुम्हला गयी. हाय! उससे रोया भी न गया. चित्त व्याकुल हो गया. माँ को रोती छोड़ वह अपने कमरे में आयी, चारपाई पर धम से गिर पड़ी. ज़बान से केवल इतना निकला कि नारायण, अब कैसे जीऊंगी और उसके भी होश जाते रहे. तमाम घर की लौड़ियाँ उस पर जान देती थी. सब की सब एकत्र हो गयीं और अमृतराय को ‘हत्यारे’ और ‘पापी’ की पदवियाँ दी जाने लगी.

अगर घर में कोई ऐसा था कि जिसको अमृतराय के ईसाई होने का विश्वास न आया, तो वह प्रेमा के भाई बाबू कमलाप्रसाद थे. बाबू साहब बड़े समझदार आदमी थे. उन्होंने अमृतराय के कई लेख मासिकपत्रों में देखे थे, जिनमें ईसाई मत का खंडन किया गया था और ‘हिंदू धर्म की महिमा’ नाम की. जो पुस्तक उन्होंने लिखी थी, उसकी तो बड़े-बड़े पंडितो ने तारीफ़ की थी. फिर कैसे मुमकिन था कि एकदम उनके ख़याल पलट जाते और वह ईसाई मत धारण कर लेते. कमलाप्रसाद यही सोच रहे थे कि दाननाथ आते दिखायी दिये. उनके चेहरे से घबराहट बरस रही थी. कमलाप्रसाद ने उनको बड़े आदर से बैठाया और पूछने लगे — “यार, यह खबर कहाँ से उड़ी? मुझे तो विश्वास नहीं आता.”

दाननाथ — “विश्वास आने की कोई बात भी तो हो. अमृतराय का ईसाई होना असंभव है. हाँ, वह रिफार्म मंडली में जा मिले है, मुझसे भूल हो गयी कि यही बात तुमसे न कही.”

कमलाप्रसाद — “तो क्या तुमने लाला जी से यह कह दिया?”

दाननाथ ने संकोच से सिर झुकाकर कहा — “यही तो भूल हो गई. मेरी अक्ल पर पत्थर पड़ गये थे. आज शाम को जब अमृतराय से मुलाकात करने गया, तो उन्होंने बात-बात में कहा कि अब मैं शादी न करूंगा. मैंने कुछ न सोचा-विचारा और यह बात आकर मुंशीजी से कह दी. अगर मुझको यह मालूम होता कि इस बात का यह बतंगड़ हो जायगा, तो मैं कभी न कहता. आप जानते हैं कि अमृतराय मेरे परम मित्र है. मैंने जो यह संदेशा पहुँचाया, तो इससे किसी की बुराई करने का आशय न था. मैंने केवल भलाई की नीयत से यह बात कही थी. क्या कहूं, मुंशीजी तो यह बात सुनते ही जोर से चिल्ला उठे — “वह ईसाई हो गया. मैंने बहुतेरा अपना मतलब समझाया, मगर कौन सुनता है? वह यही कहते मूर्छा खाकर गिर पड़े.”

कमलाप्रसाद यह सुनते ही लपककर अपने पिता के पास पहुँचे. वह अभी तक बेसुध थे. उनको होश में लाये और दाननाथ का मतलब समझाया और फिर घर में पहुँचे. उधर सारे मुहल्ले की स्त्रियाँ प्रेमा के कमरे में एकत्र हो गयी थीं और अपने-अपने विचारनुसार उसको सचेत करने की तरकीबें कर रही थी. मगर अब तक किसी से कुछ न बन पड़ा. निदान एक सुंदर नवयौवना दरवाजे से आती दिखायी दी. उसको देखते ही सब औरतो ने शोर मचाया, ‘लो पूर्णा आ गयी. अब रानी को चेत आ जायेगी.’

पूर्णा एक ब्राह्मणी थी. इसकी उम्र केवल बीस वर्ष की होगी. वह अति सुशीला और रूपवती थी. उसके बदन पर सादी साड़ी और सादे गहने बहुत ही भले मालूम होते थे. उसका विवाह पंडित बसंतकुमार से हुआ था, जो एक दफ्तर में तीस रूपये महीने के नौकर थे. उनका मकान पड़ोस ही में था. पूर्णा के घर में दूसरा कोई न था. इसलिए जब दस बजे पंडित जी दफ्तर को चले जाते, तो वह प्रेमा के घर चली आती और दोनो सखियाँ शाम तक अपने अपने मन की बातें सुना करतीं. प्रेमा उसको इतना चाहती थी कि यदि वह कभी किसी कारण से न आ सकती, तो स्वयं उसके घर चली जाती. उसे देखे बिना उसको कल न पड़ती थी. पूर्णा का भी यही हाल था.

पूर्णा ने आते ही सब स्त्रियों को वहाँ से हटा दिया, प्रेमा को इत्र सुंघाया केवड़े और गुलाब का छींटा मुख पर मारा. धीरे-धीरे उसके तलवे सहलाये, सब खिड़कियाँ खुलवा दीं. इस तरह जब ठंडक पहुँची, तो प्रेमा ने आँखें खोल दीं और चौंककर उठ बैठी. बूढ़ी माँ की जान में जान आई. वह पूर्णा की बलायें लेने लगी. और थोड़ी देर में सब स्त्रियाँ प्रेमा को आशीर्वाद देते हुए सिंधारी. पूर्णा रह गई. जब एकांत हुआ, तो उसने कहा — “प्यारी प्रेमा! आँखें खोलो. यह क्या गत बना रखी है?”

प्रेमा ने बहुत धीरे से कहा — “हाय! सखी मेरी तो सब आशाएं मिट्टी में मिल गयीं.”

पूर्णा — “प्यारी ऐसी बातें न करों. ज़रा दिल को संभालो और बताओ तुमको यह खबर कैसे मिली?”

प्रेमा — “कुछ न पूछो सखी, मैं बड़ी अभागिनी हूँ (रोकर) हाय, दिल बैठा जाता है. मैं कैसे जिउंगी.”

पूर्णा — “प्यारी ज़रा दिल को ढारस तो दो, मैं अभी सब पता लगाये देती हूँ. बाबू अमृतराय पर जो दोष लोगों ने लगाया है, वह सब झूठ है.”

प्रेमा — “सखी, तुम्हारे मुँह में घी-शक्कर. ईश्वर करें तुम्हारी बातें सच हों.” थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह फिर बोली —“कहीं एक दम के लिए मेरी उस कठकलेजिये से भेंट हो जाती, तो मैं उनका क्षेम कुशल पूछती. फिर मुझे मरने का रंज न होता.”
पूर्णा — “यह कैसी बात कहती हो सखी, मरे वह जो तुमको देख न सके. मुझसे कहो, मैं तांबे के पत्र पर लिख दूं कि अमृतराय अगर ब्याह करेंगे, तो तुम्हीं से करेंग. तुम्हारे पास उनके बीसियों पत्र पड़े हैं. मालूम होता है किसी ने कलेजा निकाल के धर दिया है. एक-एक शब्द से सच्चा प्रेम टपकता है. ऐसा आदमी कभी दगा नहीं कर सकता.

प्रेमा — “यही सब सोच-सोच कर तो आज चार बरस से दिल को ढारस दे रही हूँ. मगर अब उनकी बातों का मुझे विश्वास नहीं रहा. तुम्हीं बताओ, मैं कैसे जानू कि उनको मुझसे प्रेम है? आज चार बरस के दिन बीत गये. मुझे तो एक-एक दिन काटना दूभर हो रहा है और वहाँ कुछ खबर ही नहीं होती. मुझे कभी-कभी उनके इस टालमटोल पर ऐसी झुंझलाहट होती है कि तुमसे क्या कहूं. जी चाहता है, उनको भूल जाऊं. मगर कुछ बस नहीं चलता. दिल बेहया हो गया.”

यहाँ अभी यही बातें हो रही थी कि बाबू कमलाप्रसाद कमरे में दाखिल हुए. उनको देखते ही पूर्णा ने घूंघट निकाल ली और प्रेमा ले भी चट आँखों से आँसू पोंछ लिए और संभल बैठी.

कमलाप्रसाद — “प्रेमा, तुम भी कैसी नादान हो? ऐसी बातों पर तुमको विश्वास क्योंकर आ गया? इतना सुनना था कि प्रेमा का मुखड़ा गुलाब की तरह खिल गया. हर्ष के मारे आँखें चमकने लगी. पूर्णा ने आहिस्ता से उसकी एक उंगली दबायी. दोनों के दिल धड़कने लगे कि देखें यह क्या कहते है.

कमलाप्रसाद — “बात केवल इतनी हुई कि घंटा भर हुआ, लालाजी के पास बाबू दाननाथ आये हुए थे. शादी-ब्याह की चर्चा होने लगी, तो बाबू साहब ने कहा कि मुझे तो बाबू अमृतराय के इरादे इस साल भी पक्के नहीं मालूम होते. शायद वह रिफार्म मंडली में दाखिल होने वाले है. बस इतनी सी बात लोगों ने कुछ का कुछ समझ लिया. लाला जी अधर बेहोश होकर गिर पड़े. अम्मा उधर बदहवास हो गयी. अब जब तक उनको संभालू कि सारे घर में कोलाहल होने लगा. ईसाई होना क्या कोई दिल्लगी हैं? और फिर उनको इसकी ज़रूरत ही क्या है? पूजा-पाठ तो वह करते नहीं, तो उन्हें क्या कुत्ते ने काटा है कि अपना मत छोड़ कर नक्कू बनें. ऐसी बे सिर-पैर की बातों पर एतबार नहीं करना चाहिए. लो अब मुँह धो डालो. हँसी-ख़ुशी की बातचीत की. मुझे तुम्हारे रोने-धोने से बहुत रंज हुआ. यह कहकर बाबू कमलाप्रसाद बाहर चले गये और पूर्णा ने हँसकर कहा — “सुना कुछ मैं जो कहती थी कि यह सब झूठ हैं. ले अब मुँह मीठा करावो.”

प्रेमा ने प्रफुल्लित होकर पूर्णा को छाती से लिपटा लिया और उसके पतले पतले होठों को चूमकर बोली — “मुँह मीठा हुआ या और लोगी?”

पूर्णा — “यह मिठाइयाँ रख छोड़ो उनके वास्ते, जिनकी निठुराई पर अभी कुढ़ रही थी. मेरे लिए तो आगरा वाले की दुकान की ताजी-ताजी अमृतियाँ चाहिए.”

प्रेमा — “अच्छा अब की उनको चिट्ठी लिखूंगी, तो लिख दूंगी कि पूर्णा आपसे अमृतियाँ मांगती है.

पूर्णा — “तुम क्या लिखोगी, हां, मैं आज का सारा वृत्तांत लिखूंगी. ऐसा-ऐसा बनाऊंगी कि तुम भी क्या याद करो. सारी कलई खोल दूंगी.”

प्रेमा (लजाकर) – “अच्छा रहने दीजिए, यह सब दिल्लगी. सच मानो पूर्णा, अगर आज की कोई बात तुमने लिखी, तो फिर मैं तुमसे कभी न बोलूंगी.”

पूर्णा — “बोलो या न बोलो, मगर मैं लिखूंगी ज़रूर. इसके लिए तो उनसे जो चाहूंगी ले लूंगी. बस इतना ही लिख दूंगी कि प्रेमा को अब बहुत न तरसाइए.”

प्रेमा (बात काटकर) – “अच्छा लिखिएगा, तो देखूंगी. पंडितजी से कहकर वह दुर्गत कराऊंगी कि सारी शरारत भूल जाओगी. मालूम होता है, उन्होंने तुम्हें बहुत सिर चढ़ा रखा है.”

अभी दोनों सखियाँ जीभर कर ख़ुश न होने पायी थीं कि उनको रंज पहुँचाने का फिर सामान हो गया. प्रेमा की भावज अपनी ननद से हरदम जला करती थी. अपने सास-ससुर से यहाँ तक कि पति से भी,  क्रद रहती कि प्रेमा में ऐसे कौन से चाँद लगे कि सारा घराना उन पर निछावर होने को तैयार रहता है. उनका आदर सब क्यों करते है, मेरी बात तक कोई नहीं पूछता. मैं उनसे किसी बात मे कम नहीं हूँ. गोरेपन में, सुंदरता में, श्रृंगार में मेरा नंबर उनसे बराबर बढ़ा-चढ़ा रहता है. हाँ, वह पढ़ी-लिखी है. मैं बौरी इस गुण को नहीं जानती. उन्हें तो मर्दो में मिलना है, नौकरी-चाकरी करना है, मुझ बेचारी के भाग में तो घर का काम-काज करना ही बदा है. ऐसी निर्लज्ज लड़की. अभी शादी नहीं हुई, मगर प्रेम-पत्र आते-जाते है. तस्वीरें भेजी जाती है. अभी आठ-नौ दिन होते है कि फूलों के गहने आये है. आँखों का पानी मर गया है और ऐस कुलवंती पर सारा कुनबा जान देता है. प्रेमा उनके ताने और उनकी बोली-ठोलियों को हँसी में उड़ा दिया करती और अपने भाई के खातिर भावज को ख़ुश रखने की फिक्र में रहती थी. मगर भाभी का मुँह उससे हरदम फूला रहता.

आज उन्होंने ज्योंही सुना कि अमृतराय ईसाई हो गये है, तो मारे खुशी के फूली नहीं समायी. मुस्कुराते, मचलते, मटकते, प्रेमा के कमरे में पहुँची और बनावट की हँसी हँसकर बोली — “क्यों रानी आज तो बात खुल गयी.”

प्रेमा ने यह सुनकर लाज से सर झुका लिया, मगर पूर्णा बोली — “सारा भांडा फूट गया. ऐसी भी क्या कोई लड़की मर्दो पर फिसले.”

प्रेमा ने लजाते हुए जवाब दिया — “जाओ, तुम लोगों की बला से. मुझसे मत उलझों.”

भाभी — “नहीं-नहीं, दिल्लगी की बात नहीं. मर्द सदा के कठकलेजी होते है. उनके दिल में प्रेम होता ही नहीं. उनका ज़रा-सा सिर धमकें, तो हम खाना-पीना त्याग देती है, मगर हम मर ही क्यों न जायें, उनको ज़रा भी परवाह नहीं होती. सच है, मर्द का कलेजा काठ का.”
पूर्णा — “भाभी! तुम बहुत ठीक कहती हो. मर्दो का कलेजा सचमुच काठ का होता है. अब मेरे ही यहाँ देखो, महीने में कम-से-कम दस-बारह दिन उस मुये साहब के साथ दौरे पर रहते है. मैं तो अकेली सुनसान घर में पड़े-पड़े कराहा करती हूँ. वहाँ कुछ खबर ही नहीं होती. पूछती हूँ तो कहते है, रोना-गाना औरतों का काम है. हम रोंये-गाये तो संसार का काम कैसे चले?”

भाभी — “और क्या, जानो संसार अकेले मर्दो ही के थामे तो थमा है. मेरा बस चले ,तो इनकी तरफ आँख उठाकर भी न देखूं. अब आज ही देखो, बाबू अमृतराय का करतब खुला, तो रानी ने अपनी कैसी गत बना डाली? (मुस्कराकर) इनके प्रेम का तो यह हाल है और वहाँ चार वर्ष से हीला-हवाला करते चले आते है. रानी! नाराज़ न होना, तुम्हारे खत पर जाते है. मगर सुनती हूँ, वहाँ से विरले ही किसी खत का जवाब आता है. ऐसे निर्मोहियों से कोई क्या प्रेम करे? मेरा तो ऐसों से जी जलता है. क्या किसी को अपनी लड़की भारी पड़ी है कि कुएं में डाल दें. बला से कोई बड़ा मालदार है, बड़ा सुंदर है, बड़ी ऊँची पदवी पर है. मगर जब हमसे प्रेम ही न करें, तो क्या हम उसकी धन-दौलत को लेकर चाटै? संसार में एक से एक लाल पड़े है और, प्रेमा जैसी दुल्हन के वास्ते दुल्हों का काल.”

प्रेमा को यह बातें बहुत बुरी मालूम हुई, मगर मारे संकोच के कुछ बोल न सकी. हाँ, पूर्णा ने जवाब दिया — “नहीं, भाभी, तुम बाबू अमृतराय पर अन्याय कर रही हो. उनको प्रेमा से सच्चा प्रेम है. उनमें और दूसरे मर्दो मे बड़ा भेद है.”

भाभी — “पूर्णा अब मुँह न खुलवाओ. प्रेम नहीं पत्थर करते है? माना कि वे बड़े विद्यावाले है और छुटपने में ब्याह करना पसंद नहीं करते. मगर अब तो दोनो में कोई भी कमसिन नहीं है. अब क्या बूढ़े होकर ब्याह करेगे? मैं तो बात सच कहूंगी, उनकी ब्याह करने की चेष्ठा ही नहीं है. टालमटोल से काम निकालना चाहते है. यही ब्याह के लक्षण है कि प्रेमा ने जो तस्वीर भेजी थी, वह टुकड़े-टुकड़े करके पैरों तले कुचल डाली. मैं तो ऐसे आदमी का मुँह भी न देखूं.”

प्रेमा ने अपनी भावज को मुस्कराते हुए आते देखकर ही समझ लिया था कि कुशल नहीं है. जब यह मुस्कराती है, तो अवश्य कोई न कोई आग लगाती है. वह उनकी बातचीत का ढंग देखकर सहमी जाती थी कि देखे यह क्या सुनावनी सुनाती है. भाभी की यह बात तीर की तरह कलेजे के पार हो गई हक्का-बक्का होकर उसकी तरफ ताकने लगी, मगर पूर्णा को विश्वास न आया, बोली यह क्या अनर्थ करती हो, भाभी. भइया अभी आये थे, उन्होंने इसकी कुछ भी चर्चा नहीं की. मैं तो जानती हूँ कि पहली बात की तरह यह भी झूठी है. यह असंभव है कि वह अपनी प्रेमा की तस्वीर की ऐसी दुर्गत करे.

भाभी — “तुम्हारे न पतियाने को मै क्या करूं, मगर यह बात तुम्हारे भइया खुद मुझसे कह रहे थे और फिर इसमें बात ही कौन-सी है, आज ही तसवीर मँगा भेजो। देखो क्या जवाब देते है। अगर यह बात झूठी होगी तो अवश्य तस्वीर भेज देंगे या कम से कम इतना तो कहेंगे कि यह बात झूठी है. अब पूर्णा को भी कोई जवाब न सूझा. वह चुप हो गयी. प्रेमा कुछ न बोली. उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली. भावज का चेहरा ननद की इस दशा पर खिल गया. वह अत्यंत हर्षित होकर अपने कमरे में आई, दर्पण में मुँह देखा और आप ही आप मग्न होकर बोली — ‘यह घाव अब कुछ दिनों में भरेगा.

लाला बद्रीप्रसाद अमृतराय के बाप के दोस्तों में थे और अगर उनसे अधिक प्रतिष्ठित न थे, तो बहुत हेठे भी न थे. दोनो में लड़के-लड़की के ब्याह की बातचीत पक्की हो गयी थी. और अगर मुंशी धनपतराय दो बरस भी और जीते, तो बेटे का सेहरा देख लेते. मगर कालवश हो गये. और यह अरमान मन मे लिये बैकुंठ को सिधारे. हाँ, मरते-मरते उनकी बेटे हो यह नसीहत थी कि मुंशी बद्रीप्रसाद की लड़की से अवश्य विवाह करना. अमृतराय ने भी लजाते-लजाते बात मानी थी. मगर मुंशी धनपतराय को मरे आज पाँच बरस बीत चुके थे. इस बीच में उन्होंने वकालत भी पास कर ली थी और अच्छे ख़ासे अंग्रेज बन बैठे थे. इस परिवर्तन ने पब्लिक की आँखों में उनका आदर घटा दिया था. इसके विपरीत बद्रीप्रसाद पक्के हिंदू थे. साल भर, बारहों मास, उनके यहाँ श्रीमद्भागवत की कथा हुआ करती थी. कोई दिन ऐसा न जाता कि भंडार में सौ-पचास साधुओं का प्रसाद न बनता हो. इस उदारता ने उनको सारे शहर में सर्वप्रिय बना दिया था. प्रतिदिन भोर होते ही, वह गंगा स्नान को पैदल जाया करते थे और रास्ते में जितने आदमी उनको देखते सब आदर से सिर झुकाते थे और आपस में काना-फूसी करते कि दुखियारों का यह दाता सदा फलता-फूलता रहे.

यद्यपि लाला बद्रीप्रसाद अमृतराय की चाल-ढाल को पसंद न करते थे और कई बार उनको समझा कर हार भी चुके थे. मगर शहर में ऐसा होनहार, विद्यावान, सुंदर और धनिक कोई दूसरा आदमी न था, जो उनकी प्राण से अधिक प्रिय लड़की प्रेमा के पति बनने के योग्य हो. इस कारण वे बेबस हो रहे थे. लड़की अकेली थी, इसलिए दूसरे शहर में ब्याह भी न कर सकते थे. इस लड़की के गुण और सुंदरता की इतनी प्रशंसा थी कि उस शहर के सब रईस उसे चाहते थे. जब किसी काम-काज के मौके पर प्रेमा सोलहों श्रंगार करके जाती, तो जितनी और स्त्रियाँ वहाँ होतीं, उसके पैरों तले आँखें बिछाती. बड़ी-बूढ़ी औरतें कहा करती थी कि ऐसी सुंदर लड़की कहीं देखने में नहीं आई. और जैसी प्रेमा औरतों में थी, वैसे ही अमृतराय मर्दो में थे. ईश्वर ने अपने हाथ से दोनों का जोड़ मिलाया था.

हाँ, शहर के पुराने हिंदू लोग इस विवाह के ख़िलाफ़ थे. वह कहते कि अमृतराय सब गुण अगर सही, मगर है तो ईसाई. उनसे प्रेमा जैसी लड़की का विवाह करना ठीक नहीं है. मुंशीजी के नातेदार लोग भी इस शादी के विरूद्ध थे. इसी खींचा-तान में पाँच बरस बीत चुके थे. अमृतराय भी कुछ बहुत उद्यम न मालूम होते थे. मगर इस साल मुंशी बद्रीप्रसाद ने भी हियाब किया, और अमृतराय भी मुस्तैद हुए और विवाह की साइत निश्चय की गयी. अब दोनों तरफ तैयारियाँ हो रही थी. प्रेमा की माँ अमृतराय के नाम पर बिकी हुई थी और लड़की के लिए अभी से गहने पाते बनवाने लगी थी, कि निदान आज यह महाभयानक खबर पहुँची कि अमृतराय ईसाई हो गया है और उसका किसी मेम से विवाह हो रहा है.

इस खबर ने मुंशी जी के दिल पर वही काम किया, जो बिजली किसी हरे-भरे पेड़ पर गिर कर करती है. वे बूढ़े तो थे ही,  इस धक्के को न सह सके और पछ़ाड़ खाकर जमीन पर गिर पड़े. उनका बेसुध होना था कि सारा भीतर बाहर एक हो गया. तमाम नौकर-चाकर, अपने पराये इकटठे हो गये और ‘क्या हुआ?’ ‘क्या हुआ?’ का शोर मचाने लगा. अब जिसको देखिये, यही कहता फिरता है कि अमृतराय ईसाई हो गया है. कोई कहता है थाने में रपट करो, कोई कहता है चलकर मारपीट करो. बाहर से दम ही दम में अंदर खबर पहुँची. वहाँ भी कोहराम मच गया. प्रेमा की माँ बेचारी बहुत दिनों से बीमार थी. और उन्हीं की ज़िद थी कि बेटी की शादी जहाँ तक जल्द हो जाय अच्छा है. यद्यपि वह पुराने विचार की बूढ़ी औरत थी और उनको प्रेमा का अमृतराय के पास प्रेमपत्र भेजना एक आँख न भाता था. तथापि जब से उन्होंने उनको एक बार अपने आँगन में खड़े देख लिया था, तबसे उनको यही धुन सवार थी कि मेरी आँखों की तारा का विवाह हो तो उन्हीं से हो. वह इस वक्त बैठी हुई बेटी से बातचीत कर रही थी कि बाहर से यह खबर पहुँची. वह अमृतराय को अपना डामाद समझने लगी थी—और कुछ तो न हो सका, बेटी को गले लगाकर रोने लगी. प्रेमा ने आँसू को रोकना चाहा, मगर न रोक सकी. उसकी बरसों की संचित आशारूपी बेल-क्षण मात्र में कुम्हला गयी. हाय! उससे रोया भी न गया. चित्त व्याकुल हो गया. माँ को रोती छोड़ वह अपने कमरे में आयी, चारपाई पर धम से गिर पड़ी. ज़बान से केवल इतना निकला कि नारायण, अब कैसे जीऊंगी और उसके भी होश जाते रहे. तमाम घर की लौड़ियाँ उस पर जान देती थी. सब की सब एकत्र हो गयीं और अमृतराय को ‘हत्यारे’ और ‘पापी’ की पदवियाँ दी जाने लगी.

अगर घर में कोई ऐसा था कि जिसको अमृतराय के ईसाई होने का विश्वास न आया, तो वह प्रेमा के भाई बाबू कमलाप्रसाद थे. बाबू साहब बड़े समझदार आदमी थे. उन्होंने अमृतराय के कई लेख मासिकपत्रों में देखे थे, जिनमें ईसाई मत का खंडन किया गया था और ‘हिंदू धर्म की महिमा’ नाम की. जो पुस्तक उन्होंने लिखी थी, उसकी तो बड़े-बड़े पंडितो ने तारीफ़ की थी. फिर कैसे मुमकिन था कि एकदम उनके ख़याल पलट जाते और वह ईसाई मत धारण कर लेते. कमलाप्रसाद यही सोच रहे थे कि दाननाथ आते दिखायी दिये. उनके चेहरे से घबराहट बरस रही थी. कमलाप्रसाद ने उनको बड़े आदर से बैठाया और पूछने लगे — “यार, यह खबर कहाँ से उड़ी? मुझे तो विश्वास नहीं आता.”

दाननाथ — “विश्वास आने की कोई बात भी तो हो. अमृतराय का ईसाई होना असंभव है. हाँ, वह रिफार्म मंडली में जा मिले है, मुझसे भूल हो गयी कि यही बात तुमसे न कही.”

कमलाप्रसाद — “तो क्या तुमने लाला जी से यह कह दिया?”

दाननाथ ने संकोच से सिर झुकाकर कहा — “यही तो भूल हो गई. मेरी अक्ल पर पत्थर पड़ गये थे. आज शाम को जब अमृतराय से मुलाकात करने गया, तो उन्होंने बात-बात में कहा कि अब मैं शादी न करूंगा. मैंने कुछ न सोचा-विचारा और यह बात आकर मुंशीजी से कह दी. अगर मुझको यह मालूम होता कि इस बात का यह बतंगड़ हो जायगा, तो मैं कभी न कहता. आप जानते हैं कि अमृतराय मेरे परम मित्र है. मैंने जो यह संदेशा पहुँचाया, तो इससे किसी की बुराई करने का आशय न था. मैंने केवल भलाई की नीयत से यह बात कही थी. क्या कहूं, मुंशीजी तो यह बात सुनते ही जोर से चिल्ला उठे — “वह ईसाई हो गया. मैंने बहुतेरा अपना मतलब समझाया, मगर कौन सुनता है? वह यही कहते मूर्छा खाकर गिर पड़े.”

कमलाप्रसाद यह सुनते ही लपककर अपने पिता के पास पहुँचे. वह अभी तक बेसुध थे. उनको होश में लाये और दाननाथ का मतलब समझाया और फिर घर में पहुँचे. उधर सारे मुहल्ले की स्त्रियाँ प्रेमा के कमरे में एकत्र हो गयी थीं और अपने-अपने विचारनुसार उसको सचेत करने की तरकीबें कर रही थी. मगर अब तक किसी से कुछ न बन पड़ा. निदान एक सुंदर नवयौवना दरवाजे से आती दिखायी दी. उसको देखते ही सब औरतो ने शोर मचाया, ‘लो पूर्णा आ गयी. अब रानी को चेत आ जायेगी.’

पूर्णा एक ब्राह्मणी थी. इसकी उम्र केवल बीस वर्ष की होगी. वह अति सुशीला और रूपवती थी. उसके बदन पर सादी साड़ी और सादे गहने बहुत ही भले मालूम होते थे. उसका विवाह पंडित बसंतकुमार से हुआ था, जो एक दफ्तर में तीस रूपये महीने के नौकर थे. उनका मकान पड़ोस ही में था. पूर्णा के घर में दूसरा कोई न था. इसलिए जब दस बजे पंडित जी दफ्तर को चले जाते, तो वह प्रेमा के घर चली आती और दोनो सखियाँ शाम तक अपने अपने मन की बातें सुना करतीं. प्रेमा उसको इतना चाहती थी कि यदि वह कभी किसी कारण से न आ सकती, तो स्वयं उसके घर चली जाती. उसे देखे बिना उसको कल न पड़ती थी. पूर्णा का भी यही हाल था.

पूर्णा ने आते ही सब स्त्रियों को वहाँ से हटा दिया, प्रेमा को इत्र सुंघाया केवड़े और गुलाब का छींटा मुख पर मारा. धीरे-धीरे उसके तलवे सहलाये, सब खिड़कियाँ खुलवा दीं. इस तरह जब ठंडक पहुँची, तो प्रेमा ने आँखें खोल दीं और चौंककर उठ बैठी. बूढ़ी माँ की जान में जान आई. वह पूर्णा की बलायें लेने लगी. और थोड़ी देर में सब स्त्रियाँ प्रेमा को आशीर्वाद देते हुए सिंधारी. पूर्णा रह गई. जब एकांत हुआ, तो उसने कहा — “प्यारी प्रेमा! आँखें खोलो. यह क्या गत बना रखी है?”

प्रेमा ने बहुत धीरे से कहा — “हाय! सखी मेरी तो सब आशाएं मिट्टी में मिल गयीं.”

पूर्णा — “प्यारी ऐसी बातें न करों. ज़रा दिल को संभालो और बताओ तुमको यह खबर कैसे मिली?”

प्रेमा — “कुछ न पूछो सखी, मैं बड़ी अभागिनी हूँ (रोकर) हाय, दिल बैठा जाता है. मैं कैसे जिउंगी.”

पूर्णा — “प्यारी ज़रा दिल को ढारस तो दो, मैं अभी सब पता लगाये देती हूँ. बाबू अमृतराय पर जो दोष लोगों ने लगाया है, वह सब झूठ है.”

प्रेमा — “सखी, तुम्हारे मुँह में घी-शक्कर. ईश्वर करें तुम्हारी बातें सच हों.” थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह फिर बोली —“कहीं एक दम के लिए मेरी उस कठकलेजिये से भेंट हो जाती, तो मैं उनका क्षेम कुशल पूछती. फिर मुझे मरने का रंज न होता.”

पूर्णा — “यह कैसी बात कहती हो सखी, मरे वह जो तुमको देख न सके. मुझसे कहो, मैं तांबे के पत्र पर लिख दूं कि अमृतराय अगर ब्याह करेंगे, तो तुम्हीं से करेंग. तुम्हारे पास उनके बीसियों पत्र पड़े हैं. मालूम होता है किसी ने कलेजा निकाल के धर दिया है. एक-एक शब्द से सच्चा प्रेम टपकता है. ऐसा आदमी कभी दगा नहीं कर सकता.

प्रेमा — “यही सब सोच-सोच कर तो आज चार बरस से दिल को ढारस दे रही हूँ. मगर अब उनकी बातों का मुझे विश्वास नहीं रहा. तुम्हीं बताओ, मैं कैसे जानू कि उनको मुझसे प्रेम है? आज चार बरस के दिन बीत गये. मुझे तो एक-एक दिन काटना दूभर हो रहा है और वहाँ कुछ खबर ही नहीं होती. मुझे कभी-कभी उनके इस टालमटोल पर ऐसी झुंझलाहट होती है कि तुमसे क्या कहूं. जी चाहता है, उनको भूल जाऊं. मगर कुछ बस नहीं चलता. दिल बेहया हो गया.”

यहाँ अभी यही बातें हो रही थी कि बाबू कमलाप्रसाद कमरे में दाखिल हुए. उनको देखते ही पूर्णा ने घूंघट निकाल ली और प्रेमा ले भी चट आँखों से आँसू पोंछ लिए और संभल बैठी.

कमलाप्रसाद — “प्रेमा, तुम भी कैसी नादान हो? ऐसी बातों पर तुमको विश्वास क्योंकर आ गया? इतना सुनना था कि प्रेमा का मुखड़ा गुलाब की तरह खिल गया. हर्ष के मारे आँखें चमकने लगी. पूर्णा ने आहिस्ता से उसकी एक उंगली दबायी. दोनों के दिल धड़कने लगे कि देखें यह क्या कहते है.

कमलाप्रसाद — “बात केवल इतनी हुई कि घंटा भर हुआ, लालाजी के पास बाबू दाननाथ आये हुए थे. शादी-ब्याह की चर्चा होने लगी, तो बाबू साहब ने कहा कि मुझे तो बाबू अमृतराय के इरादे इस साल भी पक्के नहीं मालूम होते. शायद वह रिफार्म मंडली में दाखिल होने वाले है. बस इतनी सी बात लोगों ने कुछ का कुछ समझ लिया. लाला जी अधर बेहोश होकर गिर पड़े. अम्मा उधर बदहवास हो गयी. अब जब तक उनको संभालू कि सारे घर में कोलाहल होने लगा. ईसाई होना क्या कोई दिल्लगी हैं? और फिर उनको इसकी ज़रूरत ही क्या है? पूजा-पाठ तो वह करते नहीं, तो उन्हें क्या कुत्ते ने काटा है कि अपना मत छोड़ कर नक्कू बनें. ऐसी बे सिर-पैर की बातों पर एतबार नहीं करना चाहिए. लो अब मुँह धो डालो. हँसी-ख़ुशी की बातचीत की. मुझे तुम्हारे रोने-धोने से बहुत रंज हुआ.”

यह कहकर बाबू कमलाप्रसाद बाहर चले गये और पूर्णा ने हँसकर कहा — “सुना कुछ मैं जो कहती थी कि यह सब झूठ हैं. ले अब मुँह मीठा करावो.”

प्रेमा ने प्रफुल्लित होकर पूर्णा को छाती से लिपटा लिया और उसके पतले पतले होठों को चूमकर बोली — “मुँह मीठा हुआ या और लोगी?”

पूर्णा — “यह मिठाइयाँ रख छोड़ो उनके वास्ते, जिनकी निठुराई पर अभी कुढ़ रही थी. मेरे लिए तो आगरा वाले की दुकान की ताजी-ताजी अमृतियाँ चाहिए.”

प्रेमा — “अच्छा अब की उनको चिट्ठी लिखूंगी, तो लिख दूंगी कि पूर्णा आपसे अमृतियाँ मांगती है.

पूर्णा — “तुम क्या लिखोगी, हां, मैं आज का सारा वृत्तांत लिखूंगी. ऐसा-ऐसा बनाऊंगी कि तुम भी क्या याद करो. सारी कलई खोल दूंगी.”

प्रेमा (लजाकर) – “अच्छा रहने दीजिए, यह सब दिल्लगी. सच मानो पूर्णा, अगर आज की कोई बात तुमने लिखी, तो फिर मैं तुमसे कभी न बोलूंगी.”

पूर्णा — “बोलो या न बोलो, मगर मैं लिखूंगी ज़रूर. इसके लिए तो उनसे जो चाहूंगी ले लूंगी. बस इतना ही लिख दूंगी कि प्रेमा को अब बहुत न तरसाइए.”

प्रेमा (बात काटकर) – “अच्छा लिखिएगा, तो देखूंगी. पंडितजी से कहकर वह दुर्गत कराऊंगी कि सारी शरारत भूल जाओगी. मालूम होता है, उन्होंने तुम्हें बहुत सिर चढ़ा रखा है.”

अभी दोनों सखियाँ जीभर कर ख़ुश न होने पायी थीं कि उनको रंज पहुँचाने का फिर सामान हो गया. प्रेमा की भावज अपनी ननद से हरदम जला करती थी. अपने सास-ससुर से यहाँ तक कि पति से भी,  क्रद रहती कि प्रेमा में ऐसे कौन से चाँद लगे कि सारा घराना उन पर निछावर होने को तैयार रहता है. उनका आदर सब क्यों करते है, मेरी बात तक कोई नहीं पूछता. मैं उनसे किसी बात मे कम नहीं हूँ. गोरेपन में, सुंदरता में, श्रृंगार में मेरा नंबर उनसे बराबर बढ़ा-चढ़ा रहता है. हाँ, वह पढ़ी-लिखी है. मैं बौरी इस गुण को नहीं जानती. उन्हें तो मर्दो में मिलना है, नौकरी-चाकरी करना है, मुझ बेचारी के भाग में तो घर का काम-काज करना ही बदा है. ऐसी निर्लज्ज लड़की. अभी शादी नहीं हुई, मगर प्रेम-पत्र आते-जाते है. तस्वीरें भेजी जाती है. अभी आठ-नौ दिन होते है कि फूलों के गहने आये है. आँखों का पानी मर गया है और ऐस कुलवंती पर सारा कुनबा जान देता है. प्रेमा उनके ताने और उनकी बोली-ठोलियों को हँसी में उड़ा दिया करती और अपने भाई के खातिर भावज को ख़ुश रखने की फिक्र में रहती थी. मगर भाभी का मुँह उससे हरदम फूला रहता.

आज उन्होंने ज्योंही सुना कि अमृतराय ईसाई हो गये है, तो मारे खुशी के फूली नहीं समायी. मुस्कुराते, मचलते, मटकते, प्रेमा के कमरे में पहुँची और बनावट की हँसी हँसकर बोली — “क्यों रानी आज तो बात खुल गयी.”

प्रेमा ने यह सुनकर लाज से सर झुका लिया, मगर पूर्णा बोली — “सारा भांडा फूट गया. ऐसी भी क्या कोई लड़की मर्दो पर फिसले.”

प्रेमा ने लजाते हुए जवाब दिया — “जाओ, तुम लोगों की बला से. मुझसे मत उलझों.”

भाभी — “नहीं-नहीं, दिल्लगी की बात नहीं. मर्द सदा के कठकलेजी होते है. उनके दिल में प्रेम होता ही नहीं. उनका ज़रा-सा सिर धमकें, तो हम खाना-पीना त्याग देती है, मगर हम मर ही क्यों न जायें, उनको ज़रा भी परवाह नहीं होती. सच है, मर्द का कलेजा काठ का.”

पूर्णा — “भाभी! तुम बहुत ठीक कहती हो. मर्दो का कलेजा सचमुच काठ का होता है. अब मेरे ही यहाँ देखो, महीने में कम-से-कम दस-बारह दिन उस मुये साहब के साथ दौरे पर रहते है. मैं तो अकेली सुनसान घर में पड़े-पड़े कराहा करती हूँ. वहाँ कुछ खबर ही नहीं होती. पूछती हूँ तो कहते है, रोना-गाना औरतों का काम है. हम रोंये-गाये तो संसार का काम कैसे चले?”

भाभी — “और क्या, जानो संसार अकेले मर्दो ही के थामे तो थमा है. मेरा बस चले ,तो इनकी तरफ आँख उठाकर भी न देखूं. अब आज ही देखो, बाबू अमृतराय का करतब खुला, तो रानी ने अपनी कैसी गत बना डाली? (मुस्कराकर) इनके प्रेम का तो यह हाल है और वहाँ चार वर्ष से हीला-हवाला करते चले आते है. रानी! नाराज़ न होना, तुम्हारे खत पर जाते है. मगर सुनती हूँ, वहाँ से विरले ही किसी खत का जवाब आता है. ऐसे निर्मोहियों से कोई क्या प्रेम करे? मेरा तो ऐसों से जी जलता है. क्या किसी को अपनी लड़की भारी पड़ी है कि कुएं में डाल दें. बला से कोई बड़ा मालदार है, बड़ा सुंदर है, बड़ी ऊँची पदवी पर है. मगर जब हमसे प्रेम ही न करें, तो क्या हम उसकी धन-दौलत को लेकर चाटै? संसार में एक से एक लाल पड़े है और, प्रेमा जैसी दुल्हन के वास्ते दुल्हों का काल.”

प्रेमा को यह बातें बहुत बुरी मालूम हुई, मगर मारे संकोच के कुछ बोल न सकी. हाँ, पूर्णा ने जवाब दिया — “नहीं, भाभी, तुम बाबू अमृतराय पर अन्याय कर रही हो. उनको प्रेमा से सच्चा प्रेम है. उनमें और दूसरे मर्दो मे बड़ा भेद है.”

भाभी — “पूर्णा अब मुँह न खुलवाओ. प्रेम नहीं पत्थर करते है? माना कि वे बड़े विद्यावाले है और छुटपने में ब्याह करना पसंद नहीं करते. मगर अब तो दोनो में कोई भी कमसिन नहीं है. अब क्या बूढ़े होकर ब्याह करेगे? मैं तो बात सच कहूंगी, उनकी ब्याह करने की चेष्ठा ही नहीं है. टालमटोल से काम निकालना चाहते है. यही ब्याह के लक्षण है कि प्रेमा ने जो तस्वीर भेजी थी, वह टुकड़े-टुकड़े करके पैरों तले कुचल डाली. मैं तो ऐसे आदमी का मुँह भी न देखूं.”

प्रेमा ने अपनी भावज को मुस्कराते हुए आते देखकर ही समझ लिया था कि कुशल नहीं है. जब यह मुस्कराती है, तो अवश्य कोई न कोई आग लगाती है. वह उनकी बातचीत का ढंग देखकर सहमी जाती थी कि देखे यह क्या सुनावनी सुनाती है. भाभी की यह बात तीर की तरह कलेजे के पार हो गई हक्का-बक्का होकर उसकी तरफ ताकने लगी, मगर पूर्णा को विश्वास न आया, बोली यह क्या अनर्थ करती हो, भाभी. भइया अभी आये थे, उन्होंने इसकी कुछ भी चर्चा नहीं की. मैं तो जानती हूँ कि पहली बात की तरह यह भी झूठी है. यह असंभव है कि वह अपनी प्रेमा की तस्वीर की ऐसी दुर्गत करे.

भाभी — “तुम्हारे न पतियाने को मै क्या करूं, मगर यह बात तुम्हारे भइया खुद मुझसे कह रहे थे और फिर इसमें बात ही कौन-सी है, आज ही तसवीर मँगा भेजो। देखो क्या जवाब देते है। अगर यह बात झूठी होगी तो अवश्य तस्वीर भेज देंगे या कम से कम इतना तो कहेंगे कि यह बात झूठी है. अब पूर्णा को भी कोई जवाब न सूझा. वह चुप हो गयी. प्रेमा कुछ न बोली. उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली. भावज का चेहरा ननद की इस दशा पर खिल गया. वह अत्यंत हर्षित होकर अपने कमरे में आई, दर्पण में मुँह देखा और आप ही आप मग्न होकर बोली — ‘यह घाव अब कुछ दिनों में भरेगा.

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