Chapter 13 Nirmala Munshi Premchand Novel
Table of Contents
Chapter 1 | 2| 3| 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25
जो कुछ होना था हो गया, किसी को कुछ न चली. डॉक्टर साहब निर्मला की देह से रक्त निकालने की चेष्टा कर ही रहे थे कि मंसाराम अपने उज्ज्वल चरित्र की अंतिम झलक दिखाकर इस भ्रम-लोक से विदा हो गया. कदाचित् इतनी देर तक उसके प्राण निर्मला ही की राह देख रहे थे. उसे निष्कलंक सिद्ध किये बिना वे देह को कैसे त्याग देते? अब उनका उद्देश्य पूरा हो गया. मुंशीजी को निर्मला के निर्दोष होने का विश्वास हो गया, पर कब? जब हाथ से तीर निकल चुका था, जब मुसफिर ने रकाब में पांव डाल लिया था.
पुत्र-शोक में मुंशीजी का जीवन भार-स्वरुप हो गया. उस दिन से फिर उनके ओठों पर हँसी न आई. यह जीवन अब उन्हें व्यर्थ-सा जान पड़ता था. कचहरी जाते, मगर मुकदमों की पैरवी करने के लिए नहीं, केवल दिल बहलाने के लिए घंटे-दो-घंटे में वहाँ से उकताकर चले आते. खाने बैठते तो कौर मुँह में न जाता. निर्मला अच्छी से अच्छी चीज पकाती पर मुंशीजी दो-चार कौर से अधिक न खा सकते. ऐसा जान पड़ता कि कौर ममुँह से निकला आता है! मंसाराम के कमरे की ओर जाते ही उनका हृदय टूक-टूक हो जाता था. जहाँ उनकी आशाओं का दीपक जलता रहता था, वहाँ अब अंधकार छाया हुआ था. उनके दो पुत्र अब भी थे, लेकिन दूध देती हुई गाय मर गई, तो बछिया का क्या भरोसा? जब फूलने-फलनेवाला वृक्ष गिर पड़ा, नन्हे-नन्हे पौधों से क्या आशा? यों तो जवान-बूढ़े सभी मरते हैं, लेकिन दु:ख इस बात का था कि उन्होंने स्वयं लड़के की जान ली. जिस दम बात याद आ जाती, तो ऐसा मालूम होता था कि उनकी छाती फट जायेगी-मानो हृदय बाहर निकल पड़ेगा.
निर्मला को पति से सच्ची सहानुभूति थी. जहाँ तक हो सकता था, वह उनको प्रसन्न रखने की फ़िक्र रखती थी और भूलकर भी पिछली बातें ज़बान पर न लाती थी. मुंशीजी उससे मंसाराम की कोई चर्चा करते शरमाते थे. उनकी कभी-कभी ऐसी इच्छा होती कि एक बार निर्मला से अपने मन के सारे भाव खोलकर कह दूं, लेकिन लज्जा रोक लेती थी. इस भांति उन्हें सांत्वना भी न मिलती थी, जो अपनी व्यथा कह डालने से, दूसरो को अपने गम में शरीक कर लेने से, प्राप्त होती है. मवाद बाहर न निकलकर अंदर-ही-अंदर अपना विष फैलाता जाता था, दिन-दिन देह घुलती जाती थी.
इधर कुछ दिनों से मुंशीजी और उन डॉक्टर साहब में जिन्होंने मंसाराम की दवा की थी, याराना हो गया था, बेचारे कभी-कभी आकर मुंशीजी को समझाया करते, कभी-कभी अपने साथ हवा खिलाने के लिए खींच ले जाते. उनकी स्त्री भी दो-चार बार निर्मला से मिलने आई थीं. निर्मला भी कई बार उनके घर गई थी, मगर वहाँ से जब लौटती, तो कई दिन तक उदास रहती. उस दंपत्ति का सुखमय जीवन देखकर उसे अपनी दशा पर दु:ख हुए बिना न रहता था. डॉक्टर साहब को कुल दो सौ रुपये मिलते थे, पर इतने में ही दोनों आनंद से जीवन व्यतीत करते थे. घर में केवल एक महरी थी, गृहस्थी का बहुत-सा काम स्त्री को अपने ही हाथों करना पड़ता था. गहने भी उसकी देह पर बहुत कम थे, पर उन दोनों में वह प्रेम था, जो धन की तृण के बराबर परवाह नहीं करता. पुरुष को देखकर स्त्री का चेहरा खिल उठता था. स्त्री को देखकर पुरुष निहाल हो जाता था. निर्मला के घर में धन इससे कहीं अधिक था, अभूषणों से उनकी देह फटी पड़ती थी, घर का कोई काम उसे अपने हाथ से न करना पड़ता था. पर निर्मला संपन्न होने पर भी अधिक दु:खी थी, और सुधा विपन्न होने पर भी सुखी. सुधा के पास कोई ऐसी वस्तु थी, जो निर्मला के पास न थी, जिसके सामने उसे अपना वैभव तुच्छ जान पड़ता था. यहाँ तक कि वह सुधा के घर गहने पहनकर जाते शरमाती थी.
एक दिन निर्मला डॉक्टर साहब से घर आई, तो उसे बहुत उदास देखकर सुधा ने पूछा – “बहिन, आज बहुत उदास हो, वकील साहब की तबीयत तो अच्छी है, न?”
निर्मला – “क्या कहूं, सुधा? उनकी दशा दिन-दिन खराब होती जाती है, कुछ कहते नहीं बनता. न जाने ईश्वर को क्या मंज़ूर है?”
सुधा – “हमारे बाबूजी तो कहते हैं कि उन्हें कहीं जलवायु बदलने के लिए जाना ज़रूरी है, नहीं तो, कोई भंयकर रोग खड़ा हो जायेगा. कई बार वकील साहब से कह भी चुके हैं, पर वह यही कह दिया करते हैं कि मैं तो बहुत अच्छी तरह हूँ, मुझे कोई शिकायत नहीं. आज तुम कहना.”
निर्मला – “जब डॉक्टर साहब की नहीं सुना, तो मेरी सुनेंगे?”
यह कहते-कहते निर्मला की आँखें डबडबा गई और जो शंका, इधर महीनों से उसके हृदय को विकल करती रहती थी, मुँह से निकल पड़ी. अब तक उसने उस शंका को छिपाया था, पर अब न छिपा सकी. बोली – “बहिन मुझे लक्षण कुछ अच्छे नहीं मालूम होते. देखें, भगवान क्या करते हैं?”
सुधा – “तुम आज उनसे खूब ज़ोर देकर कहना कि कहीं जलवायु बदलने चाहिए. दो चार महीने बाहर रहने से बहुत सी बातें भूल जायेंगी. मैं तो समझती हूँ, शायद मकान बदलने से भी उनका शोक कुछ कम हो जायेगा. तुम कहीं बाहर जा भी न सकोगी. यह कौन-सा महीना है?”
निर्मला – “आठवां महीना बीत रहा है. यह चिंता तो मुझे और भी मारे डालती है. मैंने तो इसके लिए ईश्चर से कभी प्रार्थन न की थी. यह बला मेरे सिर न जाने क्यों मढ़ दी? मैं बड़ी अभागिनी हूँ बहिन, विवाह के एक महीने पहले पिताजी का देहांत हो गया. उनके मरते ही मेरे सिर शनीचर सवार हुए. जहाँ पहले विवाह की बातचीत पक्की हुई थी, उन लोगों ने आँखें फेर लीं. बेचारी अम्मा को हारकर मेरा विवाह यहाँ करना पड़ा. अब छोटी बहिन का विवाह होने वाला है. देखें, उसकी नाव किस घाट जाती है!”
सुधा – “जहाँ पहले विवाह की बातचीत हुई थी, उन लोगों ने इंकार क्यों कर दिया?”
निर्मला – “यह तो वे ही जानें. पिताजी न रहे, तो सोने की गठरी कौन देता?”
सुधा – “यह तो नीचता है. कहाँ के रहने वाले थे?”
निर्मला – “लखनऊ के. नाम तो याद नहीं, आबकारी के कोई बड़े अफसर थे.”
सुधा ने गंभीर भाव से पूछा – “और उनका लड़का क्या करता था?”
निर्मला – “कुछ नहीं, कहीं पढ़ता था, पर बड़ा होनहार था.”
सुधा ने सिर नीचा करके कहा – “उसने अपने पिता से कुछ न कहा था? वह तो जवान था, अपने बाप को दबा न सकता था?”
निर्मला – “अब यह मैं क्या जानूं बहिन? सोने की गठरी किसे प्यारी नहीं होती? जो पण्डित मेरे यहाँ से संदेश लेकर गया था, उसने तो कहा था कि लड़का ही इंकार कर रहा है. लड़के की माँ अलबत्ता देवी थी. उसने पुत्र और पति दोनों ही को समझाया, पर उसकी कुछ न चली.”
सुधा – “मैं तो उस लड़के को पाती, तो खूब आड़े हाथों लेती.”
निर्मला – “मेंरे भाग्य में जो लिखा था, वह हो चुका. बेचारी कृष्णा पर न जाने क्या बीतेगी?”
संध्या समय निर्मला ने जाने के बाद जब डॉक्टर साहब बाहर से आये, तो सुधा ने कहा – “क्यों जी, तुम उस आदमी का क्या कहोगे, जो एक जगह विवाह ठीक कर लेने बाद फिर लोभवश किसी दूसरी जगह विवाह करे?”
डॉक्टर सिन्हा ने स्त्री की ओर कुतूहल से देखकर कहा – “ऐसा नहीं करना चाहिए, और क्या?”
सुधा – “यह क्यों नहीं कहते कि ये घोर नीचता है, पहले सिरे का कमीनापन है!”
सिन्हा – “हाँ, यह कहने में भी मुझे इंकार नहीं.”
सुधा – “किसका अपराध बड़ा है? वर का या वर के पिता का?”
सिन्हा की समझ में अभी तक नहीं आया कि सुधा के इन प्रश्नों का आशय क्या है? विस्मय से बोले – “जैसी स्थिति हो, अगर वह पिता के अधीन हो, तो पिता का ही अपराध समझो.”
सुधा – “अधीन होने पर भी क्या जवान आदमी का अपना कोई कर्त्तव्य नहीं है? अगर उसे अपने लिए नये कोट की ज़रूरत हो, तो वह पिता के विराध करने पर भी उसे रो-धोकर बनवा लेता है. क्या ऐसे महत्व के विषय में वह अपनी आवाज पिता के कानों तक नहीं पहुँचा सकता? यह कहो कि वह और उसका पिता दोनों अपराधी हैं, परन्तु वर अधिक. बूढ़ा आदमी सोचता है – मुझे तो सारा खर्च संभालना पड़ेगा, कन्या पक्ष से जितना ऐंठ सकूं, उतना ही अच्छा. मगर वर का धर्म है कि यदि वह स्वार्थ के हाथों बिल्कुल बिक नहीं गया है, तो अपने आत्मबल का परिचय दे. अगर वह ऐसा नहीं करता, तो मैं कहूंगी कि वह लोभी है और कायर भी. दुर्भाग्यवश ऐसा ही एक प्राणी मेरा पति है और मेरी समझ में नहीं आता कि किन शब्दों में उसका तिरस्कार करुं!”
सिन्हा ने हिचकिचाते हुए कहा – “वह…वह…वह…दूसरी बात थी. लेन-देन का कारण नहीं था, बिलकुल दूसरी बात थी. कन्या के पिता का देहांत हो गया था। ऐसी दशा में हम लोग क्या करते? यह भी सुनने में आया था कि कन्या में कोई ऐब है. वह बिल्कुल दूसरी बाता थी, मगर तुमसे यह कथा किसने कही.”
सुधा – “कह दो कि वह कन्या कानी थी, या कुबड़ी थी या नाइन के पेट की थी या भ्रष्टा थी. इतनी कसर क्यों छोड़ दी? भला सुनूं तो, उस कन्या में क्या ऐब था?”
सिन्हा – “मैंने देखा तो था नहीं, सुनने में आया था कि उसमें कोई ऐब है.”
सुधा – “सबसे बड़ा ऐब यही था कि उसके पिता का स्वर्गवास हो गया था और वह कोई लंबी-चौड़ी रकम न दे सकती थी. इतना स्वीकार करते क्यों झेंपते हो? मैं कुछ तुम्हारे कान तो काट न लूंगी! अगर दो-चार फिकरे कहूं, तो इस कान से सुनकर दूसरे कान से उड़ा देना. ज्यादा-चीं-चपड़ करुं, तो छड़ी से काम ले सकते हो. औरत जात डण्डे ही से ठीक रहती है. अगर उस कन्या में कोई ऐब था, तो मैं कहूंगी, लक्ष्मी भी बे-ऐब नहीं. तुम्हारी किस्मत खोटी थी, बस! और क्या? तुम्हें तो मेरे पाले पड़ना था.”
सिन्हा – “तुमसे किसने कहा कि वह ऐसी थी वैसी थी? जैसे तुमने किसी से सुनकर मान लिया.”
सुधा – “मैंने सुनकर नहीं मान लिया. अपनी आँखों देखा. ज्यादा बखान क्या करुं, मैंने ऐसी सुंदरी स्त्री कभी नहीं देखी थी.”
सिन्हा ने व्यग्र होकर पूछा – “क्या वह यहीं कहीं है? सच बताओ, उसे कहाँ देखा! क्या तुम्हारे घर आई थी?”
सुधा – “हाँ, मेरे घर में आई थी और एक बार नहीं, कई बार आ चुकी है. मैं भी उसके यहाँ कई बार जा चुकी हूँ, वकील साहब के बीवी वही कन्या है, जिसे आपने ऐबों के कारण त्याग दिया.”
सिन्हा – “सच!”
सुधा – “बिल्कुल सच! आज अगर उसे मालूम हो जाये कि आप वही महापुरुष हैं, तो शायद फिर इस घर मे कदम न रखे. ऐसी सुशीला, घर के कामों में ऐसी निपुण और ऐसी परम सुंदरी स्त्री इस शहर मे दो ही चार होंगी. तुम मेरा बखान करते हो. मैं उसकी लौंडी बनने के योग्य भी नहीं हूँ. घर में ईश्वर का दिया हुआ सब कुछ है, मगर जब प्राणी ही मेल के नहीं, तो और सब रहकर क्या करेगा? धन्य है उसके धैर्य को कि उस बुड्ढे खूसट वकील के साथ जीवन के दिन काट रही है. मैंने तो कब का जहर खा लिया होता. मगर मन की व्यथा कहने से ही थोड़े प्रकट होती है. हँसती है, बोलती है, गहने-कपड़े पहनती है, पर रोयां-रोयां रोया करता है.”
सिन्हा – “वकील साहब की खूब शिकायत करती होगी?”
सुधा – “शिकायत क्यों करेगी? क्या वह उसके पति नहीं हैं? संसार मे अब उसके लिए जो कुछ हैं, वकील साहब. वह बुड्ढे हों या रोगी, पर हैं तो उसके स्वामी ही. कुलवंती स्त्रियाँ पति की निंदा नहीं करतीं, यह कुलटाओं का काम है. वह उनकी दशा देखकर कुढ़ती हैं, पर मुँह से कुछ नहीं कहती.”
सिन्हा – “इन वकील साहब को क्या सूझी थी, जो इस उम्र में ब्याह करने चले?”
सुधा – “ऐसे आदमी न हों, तो गरीब क्वारियों की नाव कौन पार लगाये? तुम और तुम्हारे साथी बिना भारी गठरी लिए बात नहीं करते, तो फिर ये बेचारी किसके घर जायें? तुमने यह बड़ा भारी अन्याय किया है, और तुम्हें इसका प्रायश्चित करना पड़ेगा. ईश्वर उसका सुहाग अमर करे, लेकिन वकील साहब को कहीं कुछ हो गया, तो बेचारी का जीवन ही नष्ट हो जायेगा. आज तो वह बहुत रोती थी. तुम लोग सचमुच बड़े निर्दयी हो. मैं तो अपने सोहन का विवाह किसी गरीब लड़की से करुंगी.”
डॉक्टर साहब ने यह पिछला वाक्या नहीं सुना. वह घोर चिंता में पड़ गये. उनके मन में यह प्रश्न उठ-उठकर उन्हें विकल करने लगा -कहीं वकील साहब को कुछ हो गया तो? आज उन्हें अपने स्वार्थ का भंयकर स्वरुप दिखायी दिया. वास्तव में यह उन्हीं का अपराध था. अगर उन्होंने पिता से ज़ोर देकर कहा होता कि मैं और कहीं विवाह न करुंगा, तो क्या वह उनकी इच्छा के विरुद्ध उनका विवाह कर देते?”
सहसा सुधा ने कहा – “कहो तो कल निर्मला से तुम्हारी मुलाकात करा दूं? वह भी ज़रा तुम्हारी सूरत देख ले. वह कुछ बोलगी तो नहीं, पर कदाचित् एक दृष्टि से वह तुम्हारा इतना तिरस्कार कर देगी, जिसे तुम कभी न भूल सकोगे. बोलों, कल मिला दूं? तुम्हारा बहुत संक्षिप्त परिचय भी करा दूंगी.”
सिन्हा ने कहा – “नहीं सुधा, तुम्हारे हाथ जोड़ता हूँ, कहीं ऐसा गज़ब न करना! नहीं तो सच कहता हूँ, घर छोड़कर भाग जाऊंगा.”
सुधा – “जो कांटा बोया है, उसका फल खाते क्यों इतना डरते हो? जिसकी गर्दन पर कटार चलाई है, ज़रा उसे तड़पते भी तो देखो. मेरे दादा जी ने पाँच हजार दिये न! अभी छोटे भाई के विवाह में पाँच-छ: हजार और मिल जायेंगे. फिर तो तुम्हारे बराबर धनी संसार में कोई दूसरा न होगा. ग्यारह हजार बहुत होते हैं. बाप-रे-बाप! ग्यारह हजार! उठा-उठाकर रखने लगे, तो महीनों लग जायें, अगर लड़के उड़ाने लगें, तो पीढ़ियों तक चले. कहीं से बात हो रही है या नहीं?
इस परिहास से डॉक्टर साहब इतना झेंपे कि सिर तक न उठा सके. उनका सारा वाक्-चातुर्य गायब हो गया. नन्हा-सा मुँह निकल आया, मानो मार पड़ गई हो. इसी वक्त किसी डॉक्टर साहब को बाहर से पुकारा, बेचारे जान लेकर भागे. स्त्री कितनी परिहास कुशल होती है, इसका आज परिचय मिल गया.”
रात को डॉक्टर साहब शयन करते हुए सुधा से बोले – “निर्मला की तो कोई बहिन है न?”
सुधा – “हाँ, आज उसकी चर्चा तो करती थी. इसकी चिंता अभी से सवार हो रही है. अपने ऊपर तो जो कुछ बीतना था, बीत चुका, बहिन की फ़िक्र में पड़ी हुई थी. माँ के पास तो अब ओर भी कुछ नहीं रहा, मजबूरन किसी ऐसे ही बूढ़े बाबा के गले वह भी मढ़ दी जायेगी.”
सिन्हा – “निर्मला तो अपनी माँ की मदद कर सकती है.”
सुधा ने तीक्ष्ण स्वर में कहा – “तुम भी कभी-कभी बिल्कुल बेसिर- पैर की बातें करने लगते हो. निर्मला बहुत करेगी, तो दो-चार सौ रुपये दे देगी, और क्या कर सकती है? वकील साहब का यह हाल हो रहा है, उसे अभी पहाड़-सी उम्र काटनी है. फिर कौन जाने उनके घर का क्या हाल है? इधर छ:महीने से बेचारे घर बैठे हैं. रुपये आकाश से थोड़े ही बरसते है. दस-बीस हजार होंगे भी तो बैंक में होंगे, कुछ निर्मला के पास तो रखे न होंगे. हमारा दो सौ रुपया महीने का खर्च है, तो क्या इनका चार सौ रुपये महीने का भी न होगा?”
सुधा को तो नींद आ गई, पर डॉक्टर साहब बहुत देर तक करवट बदलते रहे, फिर कुछ सोचकर उठे और मेज पर बैठकर एक पत्र लिखने लगे.
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