चैप्टर 17 – निर्मला : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 17 Nirmala Novel By Munshi Premchand In Hindi Read Online

Chapter 17 Nirmala Munshi Premchand Novel

Chapter 17 Nirmala Munshi Premchand Novel

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कृष्णा के विवाह के बाद सुधा चली गई, लेकिन निर्मला मैके ही में रह गई. वकील साहब बार-बार लिखते थे, पर वह न जाती थी. वहाँ जाने को उसका जी न चाहता था. वहाँ कोई ऐसी चीज न थी, जो उसे खींच ले जाये. यहाँ माता की सेवा और छोटे भाइयों की देखभाल में उसका समय बड़े आनंद से कट जाता था. वकील साहब खुद आते तो शायद वह जाने पर राज़ी हो जाती, लेकिन इस विवाह में, मुहल्ले की लड़कियों ने उनकी वह दुर्गत की थी कि बेचारे आने का नाम ही न लेते थे. सुधा ने भी कई बार पत्र लिखा, पर निर्मला ने उससे भी हीले-हव़ाले किया. आखिर एक दिन सुधा ने नौकर को साथ लिया और स्वयं आ धमकी.

जब दोनों गले मिल चुकीं, तो सुधा ने कहा – “तुम्हें तो वहाँ जाते मानो डर लगता है.”

निर्मला – “हाँ बहिन, डर तो लगता है. ब्याह की गई, तीन साल में आई, अब की तो वहाँ उम्र ही खतम हो जायेगी, फिर कौन बुलाता है और कौन आता है?”

सुधा – “आने को क्या हुआ, जब जी चाहे चली आना. वहाँ वकील साहब बहुत बेचैन हो रहे हैं.”

निर्मला – “बहुत बेचैन, रात को शायद नींद न आती हो.”

सुधा – “बहिन, तुम्हारा कलेजा पत्थर का है. उनकी दशा देखकर तरस आता है. कहते थे, घर मे कोई पूछने वाला नहीं, न कोई लड़का, न बाला, किससे जी बहलायें? जब से दूसरे मकान में उठ आए हैं, बहुत दुखी रहते हैं.”

निर्मला – “लड़के तो ईश्वर के दिये दो-दो हैं.”

सुधा – “उन दोनों की तो बड़ी शिकायत करते थे. जियाराम तो अब बात ही नहीं सुनता-तुर्की-बतुर्की जवाब देता है. रहा छोटा, वह भी उसी के कहने में है. बेचारे बड़े लड़के की याद करके रोया करते हैं.”

निर्मला – “जियाराम तो शरीर न था, वह बदमाशी कब से सीख गया? मेरी तो कोई बात न टालता था, इशारे पर काम करता था.”

सुधा – “क्या जाने बहिन, सुना, कहता है, आप ही ने भैया को जहर देकर मार डाला, आप हत्यारे हैं. कई बार तुमसे विवाह करने के लिए ताने दे चुका है. ऐसी-ऐसी बातें कहता है कि वकील साहब रो पड़ते हैं. अरे, और तो क्या कहूं, एक दिन पत्थर उठाकर मारने दौड़ा था.”
निर्मला ने गंभीर चिंता में पड़कर कहा – “यह लड़का तो बड़ा शैतान निकला. उसे यह किसने कहा कि उसके भाई को उन्होंने जहर दे दिया है?”

सुधा – “वह तुम्हीं से ठीक होगा.”

निर्मला को यह नई चिंता पैदा हुई. अगर जिया की यही रंग है, अपने बाप से लड़ने पर तैयार रहता है, तो मुझसे क्यों दबने लगा? वह रात को बड़ी देर तक इसी फ़िक्र मे डूबी रही. मंसाराम की आज उसे बहुत याद आई. उसके साथ ज़िन्दगी आराम से कट जाती. इस लड़के का जब अपने पिता के सामने ही वह हाल है, तो उनके पीछे उसके साथ कैसे निर्वाह होगा! घर हाथ से निकल ही गया. कुछ-न-कुछ क़र्ज़ अभी सिर पर होगा ही, आमदनी का यह हाल. ईश्ववर ही बेड़ा पार लगायेंगे. आज पहली बार निर्मला को बच्चों की फ़िक्र पैदा हुई. इस बेचारी का न जाने क्या हाल होगा? ईश्वर ने यह विपत्ति सिर डाल दी. मुझे तो इसकी ज़रूरत न थी. जन्म ही लेना था, तो किसी भाग्यवान के घर जन्म लेती. बच्ची उसकी छाती से लिपटी हुई सो रही थी. माता ने उसको और भी चिपटा लिया, मानो कोई उसके हाथ से उसे छीने लिये जाता है.

निर्मला के पास ही सुधा की चारपाई भी थी. निर्मेला तो चिंता सागर मे गोता था रही थी और सुधा मीठी नींद का आनंद उठा रही थी. क्या उसे अपने बालक की फ़िक्र सताती है? मृत्यु तो बूढ़े और जवान का भेद नहीं करती, फिर सुधा को कोई चिंता क्यों नहीं सताती? उसे तो कभी भविष्य की चिंता से उदास नहीं देखा.

सहसा सुधा की नींद खुल गई. उसने निर्मला को अभी तक जागते देखा, तो बोली – “अरे अभी तुम सोई नहीं?”

निर्मला – “नींद ही नहीं आती.”

सुधा – “आँखें बंद कर लो, आप ही नींद आ जायेगी. मैं तो चारपाई पर आते ही मर-सी जाती हूँ. वह जागते भी हैं, तो खबर नहीं होती. न जाने मुझे क्यों इतनी नींद आती है. शायद कोई रोग है.”

निर्मला – “हाँ, बड़ा भारी रोग है, इसे राज-रोग कहते हैं. डॉक्टर साहब से कहो-दवा शुरु कर दें.”

सुधा – “तो आखिर जागकर क्या सोचूं? कभी-कभी मैके की याद आ जाती है, तो उस दिन ज़रा देर में आँख लगती है.”

निर्मला – “डॉक्टर साहब की याद नहीं आती?”

सुधा – “कभी नहीं, उनकी याद क्यों आये? जानती हूँ कि टेनिस खेलकर आये होंगे, खाना खाया होगा और आराम से लेटे होंगे.”

निर्मला – “लो, सोहन भी जाग गया. जब तुम जाग गईं, तो भला यह क्यों सोने लगा?”

सुधा – “हाँ बहिन, इसकी अजीब आदत है. मेरे साथ सोता और मेरे ही साथ जागता है. उस जन्म का कोई तपस्वी है. देखो, इसके माथे पर तिलक का कैसा निशान है. बांहों पर भी ऐसे ही निशान हैं. ज़रुर कोई तपस्वी है.”

निर्मला – “तपस्वी लोग तो चंदन-तिलक नहीं लगाते. उस जन्म का कोई धूर्त पुजारी होगा. क्यों रे, तू कहाँ का पुजारी था? बता?”

सुधा – “इसका ब्याह मैं तेरी बच्ची से करुंगी.”

निर्मला – “चलो बहिन, गाली देती हो. बहिन से भी भाई का ब्याह होता है?”

सुधा – “मैं तो करुंगी, चाहे कोई कुछ कहे. ऐसी सुंदर बहू और कहाँ पाऊंगी? ज़रा देखो तो बहन, इसकी देह कुछ गर्म है या मुझके ही मालूम होती है.”

निर्मला ने सोहन का माथा छूकर कहा – “नहीं नहीं, देह गर्म है. यह ज्वर कब आ गया! दूध तो पी रहा है न?”

सुधा – “अभी सोया था, तब तो देह ठंडी थी. शायद सर्दी लग गई, उढ़ाकर सुलाये देती हूँ. सबेरे तक ठीक हो जायेगा.”

सबेरा हुआ तो सोहन की दशा और भी खराब हो गई. उसकी नाक बहने लगी और बुखार और भी तेज हो गया. ऑंखें चढ़ गईं और सिर झुक गया. न वह हाथ-पैर हिलाता था, न हँसता-बोलता था, बस, चुपचाप पड़ा था. ऐसा मालूम होता था कि उसे इस वक्त किसी का बोलना अच्छा नहीं लगता. कुछ-कुछ खांसी भी आने लगी. अब तो सुधा घबराई. निर्मला की भी राय हुई कि डॉक्टर साहब को बुलाया जाये, लेकिन उसकी बूढ़ी माता ने कहा – “डॉक्टर-हकीम साहब का यहाँ कुछ काम नहीं, साफ तो देख रही हूँ कि बच्चे को नज़र लग गई है. भला डॉक्टर आकर क्या करेंगे?”

सुधा – “अम्माजी, भला यहाँ नज़र कौन लगा देगा? अभी तक तो बाहर कहीं गया भी नहीं.”

माता – “नज़र कोई लगाता नहीं बेटी, किसी-किसी आदमी की दीठ बुरी होती है, आप-ही-आप लग जाती है. कभी-कभी माँ-बाप तक की नज़र लग जाती है. जब से आया है, एक बार भी नहीं रोया. चंचल बच्चों को यही गति होती है. मैं इसे हुमकते देखकर डरी थी कि कुछ-न-कुछ अनिष्ट होने वाला है. आँखें नहीं देखती हो, कितनी चढ़ गई हैं. यही नज़र की सबसे बड़ी पहचान है.”

बुढ़िया महरी और पड़ोस की पंडिताइन ने इस कथन का अनुमोदन कर दिया. बस महंगू ने आकर बच्चे का मुँह देखा और हँस कर बोला – “मालकिन, यह दीठ है और नहीं. ज़रा पतली-पतली तीलियाँ मंगवा दीजिए. भगवान ने चाहा तो संझा तक बच्चा हँसने लगेगा.

सरकण्डे के पाँच टुकड़े लाये गये. महगूं ने उन्हें बराबर करके एक डोरे से बांध दिया और कुछ बुदबुदाकर उसी पोले हाथों से पाँच बार सोहन का सिर सहलाया. अब जो देखा, तो पाँचों तीलियाँ छोटी-बड़ी हो गई थी. सब स्त्रियों यह कौतुक देखकर दंग रह गईं. अब नज़र में किसे संदेह हो सकता था. महगूं ने फिर बच्चे को तीलियों से सहलाना शुरु किया. अब की तीलियाँ बराबर हो गईं. केवल थोड़ा-सा अंतर रह गया. यह सब इस बात का प्रमाण था कि नज़र का असर अब थोड़ा-सा और रह गया है. महगू सबको दिलासा देकर शाम को फिर आने का वायदा करके चला गया. बालक की दशा दिन को और खराब हो गई. खांसी का ज़ोर हो गया. शाम के समय महगूं ने आकर फिर तीलियों का तमाशा किया. इस वक्त पाँचों तीलियाँ बराबर निकलीं. स्त्रियाँ निश्चित हो गईं, लेकिन सोहन को सारी रात खांसते गुजरी. यहाँ तक कि कई बार उसकी आँखें उलट गईं. सुधा और निर्मला दोनों ने बैठकर सबेरा किया. खैर, रात कुशल से कट गई. अब वृद्धा माताजी नया रंग लाईं. महगूं नज़र न उतार सका, इसलिए अब किसी मौलवी से फूंक डलवाना ज़रूरी हो गया. सुधा फिर भी अपने पति को सूचना न दे सकी. मेहरी सोहन को एक चादर से लपेट कर एक मस्जिद में ले गई और फूंक डलवा लाई, शाम को भी फूंक छोड़ी, पर सोहन ने सिर न उठाया. रात आ गई, सुधा ने मन मे निश्चय किया कि रात कुशल से बीतेगी, तो प्रात:काल पति को तार दूंगी.”

लेकिन रात कुशल से न बीतने पाई. आधी रात जाते-जाते बच्चा हाथ से निकल गया. सुधा की जीन-संपत्ति देखते-देखते उसके हाथों से छिन गई.

वही जिसके विवाह का दो दिन पहले विनोद हो रहा था, आज सारे घर को रुला रहा है. जिसकी भोली-भाली सूरत देखकर माता की छाती फूल उठती थी, उसी को देखकर आज माता की छाती फटी जाती है. सारा घर सुधा को समझाता था, पर उसके आँसू न थमते थे, सब्र न होता था. सबसे बड़ा दु:ख इस बात का था कि पति को कौन मुँह दिखलाऊंगी! उन्हें खबर तक न दी.

रात ही को तार दे दिया गया और दूसरे दिन डॉक्टर सिन्हा नौ बजते-बजते मोटर पर आ पहुँचे. सुधा ने उनके आने की खबर पाई, तो और भी फूट-फूटकर रोने लगी. बालक की जल-क्रिया हुई, डॉक्टर साहब कई बार अंदर आये, किन्तु सुधा उनके पास न गई. उनके सामने कैसे जाये? कौन सा मुँह दिखाये? उसने अपनी नादानी से उनके जीवन का रत्न छीनकर दरिया में डाल दिया. अब उनके पास जाते उसकी छाती के टुकड़े-टुकड़े हुए जाते थे. बालक को उसकी गोद में देखकर पति की आँखें चमक उठती थीं. बालक हुमककर पिता की गोद में चला जाता था. माता फिर बुलाती, तो पिता की छाती से चिपट जाता था और लाख चुमराने-दुलारने पर भी बाप को गोद न छोड़ता था. तब माँ कहती थी – “बड़ा मतलबी है. आज वह किसे गोद मे लेकर पति के पास जायेगी? उसकी सूनी गोद देखकर कहीं वह चिल्लाकर रो न पड़े. पति के सम्मुख जाने की अपेक्षा उसे मर जाना कहीं आसान जान पड़ता था. वह एक क्षण के लिए भी निर्मला को न छोड़ती थी कि कहीं पति से सामना न हो जाये.

निर्मला ने कहा – “बहिन, जो होना था वह हो चुका, अब उनसे कब तक भागती फिरोगी. रात ही को चले जायेंगे. अम्मा कहती थीं.”

सुधा से सजल नेत्रों से ताकते हुए कहा – “कौन सा मुँह लेकर उनके पास जाऊं? मुझे डर लग रहा है कि उनके सामने जाते ही मेरा पैर न थर्राने लगे और मैं गिर पडूं.”

निर्मला – “चलो, मैं तुम्हारे साथ चलती हूँ. तुम्हें संभाले रहूंगी.”

सुधा – “मुझे छोड़कर भाग तो न जाओगी?”

निर्मला – “नहीं-नहीं, भागूंगी नहीं.”

सुधा – “मेरा कलेजा तो अभी से उमड़ा आता है. मैं इतना घोर व्रजपाता होने पर भी बैठी हूँ, मुझे यही आश्चर्य हो रहा है. सोहन को वह बहुत प्यार करते थे बहिन. न जाने उनके चित्त की क्या दशा होगी. मैं उन्हें ढाढ़स क्या दूंगी, आप हो रोती रहूंगी. क्या रात ही को चले जायेंगे?”

निर्मला – “हाँ, अम्माजी तो कहती थी छुट्टी नहीं ली है.”

दोनो सहेलियां मर्दाने कमरे की ओर चलीं, लेकिन कमरे के द्वार पर पहुँचकर सुधा ने निर्मला को विदा कर दिया. अकेली कमरे मे दाखिल हुई.

डॉक्टर साहब घबरा रहे थे कि न जाने सुधा की क्या दशा हो रही है. भांति-भांति की शंकाएं मन मे आ रही थीं. जाने को तैयार बैठे थे, लेकिन जी न चाहता था. जीवन शून्य-सा मालूम होता था. मन-ही-मन कुढ़ रहे थे, अगर ईश्वर को इतनी जल्दी यह पदार्थ देकर छीन लेना था, तो दिया ही क्यों था? उन्होंने तो कभी संतान के लिए ईश्वर से प्रार्थना न की थी. वह आजन्म नि:सन्तान रह सकते थे, पर संतान पाकर उससे वंचित हो जाना उन्हें असह्र जान पड़ता था. क्या सचमुच मनुष्य ईश्वर का खिलौना है? यही मानव जीवन का महत्व है? यह केवल बालकों का घरौंदा है, जिसके बनने का न कोई हेतु है न बिगड़ने का? फिर बालकों को भी तो अपने घरौंदे से अपनी कागेज की नावों से, अपनी लकड़ी के घोड़ों से ममता होती है. अच्छे खिलौने का वह जान के पीछे छिपाकर रखते हैं. अगर ईश्वर बालक ही है, तो वह विचित्र बालक है/
किंतु बुद्धि तो ईश्वर का यह रुप स्वीकार नहीं करती. अनन्त सृष्टि का कर्त्ता उद्दण्ड बालक नहीं हो सकता है. हम उसे उन सारे गुणों से विभूषित करते हैं, जो हमारी बुद्वि का पहुँच से बाहर है.

खिलाड़ीपन तो साउन महान् गुणों मे नहीं! क्या हँसते-खेलते बालकों का प्राण हर लेना खेल है? क्या ईश्वर ऐसा पैशाचिक खेल खेलता है?
सहसा सुधा दबे-पांव कमरे में दाखिल हुई. डॉक्टर साहब उठ खड़े हुए और उसके समीप आकर बोले – “तुम कहाँ थी, सुधा? मैं तुम्हारी राह देख रहा था.”

सुधा की आँखों से कमरा तैरता हुआ जान पड़ा. पति की गर्दन मे हाथ डालकर उसने उनकी छाती पर सिर रख दिया और रोने लगी, लेकिन इस अश्रु-प्रवाह में उसे असीम धैर्य और सांत्वना का अनुभव हो रहा था. पति के वक्ष-स्थल से लिपटी हुई वह अपने हृदय में एक विचित्र स्फूर्ति और बल का संचार होते हुए पाती थी, मानो पवन से थरथराता हुआ दीपक अंचल की आड़ में आ गया हो.

डॉक्टर साहब ने रमणी के अश्रु-सिंचित कपोलों को दोनो हाथो में लेकर कहा – “सुधा, तुम इतना छोटा दिल क्यों करती हो? सोहन अपने जीवन में जो कुछ करने आया था, वह कर चुका था, फिर वह क्यों बैठा रहता? जैसे कोई वृक्ष जल और प्रकाश से बढ़ता है, लेकिन पवन के प्रबल झोकों ही से सुदृढ़ होता है, उसी भांति प्रणय भी दु:ख के आघातों ही से विकास पाता है. खुशी के साथ हँसने वाले बहुतेरे मिल जाते हैं, रंज में जो साथ रोये, वही हमारा सच्चा मित्र है. जिन प्रेमियों को साथ रोना नहीं नसीब हुआ, वे मुहब्बत के मज़े क्या जानें? सोहन की मृत्यु ने आज हमारे द्वैत को बिल्कुल मिटा दिया. आज ही हमने एक दूसरे का सच्चा स्वरुप देखा.”

सुधा ने सिसकते हुए कहा – “मैं नज़र के धोखे में थी. हाय! तुम उसका मुँह भी न देखने पाये. न जाने इन दिनों उसे इतनी समझ कहाँ से आ गई थी. जब मुझे रोते देखता, तो अपने कष्ट भूलकर मुस्करा देता. तीसरे ही दिन मरे लाडले की आँख बंद हो गई. कुछ दवा-दर्पन भी न करने पाईं.”

यह कहते-कहते सुधा के आँसू फिर उमड़ आये. डॉक्टर सिन्हा ने उसे सीने से लगाकर करुणा से कांपती हुई आवाज में कहा – “प्रिये, आज तक कोई ऐसा बालक या वृद्ध न मरा होगा, जिससे घरवालों की दवा-दर्पन की लालसा पूरी हो गई.”

सुधा – “निर्मला ने मेरी बड़ी मदद की. मैं तो एकाध झपकी ले भी लेती थी, पर उसकी आँखें नहीं झपकी. रात-रात लिये बैठी या टहलती रहती थी. उसके अहसान कभी न भूलंगी. क्या तुम आज ही जा रहे हो?”

डॉक्टर – “हाँ, छुट्टी लेने का मौका न था. सिविल सर्जन शिकार खेलने गया हुआ था.”

सुधा – “यह सब हमेशा शिकार ही खेला करते हैं?”

डॉक्टर – “राजाओं को और काम ही क्या है?”

सुधा – “मैं तो आज न जाने दूंगी.”

डॉक्टर – “जी तो मेरा भी नहीं चाहता.”

सुधा – “तो मत जाओ, तार दे दो. मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी. निर्मला को भी लेती चलूंगी.”

सुधा वहाँ से लौटी, तो उसके हृदय का बोझ हल्का हो गया था. पति की प्रेमपूर्णा कोमल वाणी ने उसके सारे शोक और संताप का हरण कर लिया थ. प्रेम में असीम विश्वास है, असीम धैर्य है और असीम बल है.

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