चैप्टर 4 – निर्मला : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 4 Nirmala Novel By Munshi Premchand In Hindi Read Online

Chapter 4 Nirmala Munshi Premchand Novel

Chapter 4 Nirmala Novel By Munshi Premchand In Hindi Read Online

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कल्याणी के सामने अब एक विषम समस्या आ खड़ी हुई. पति के देहांत के बाद उसे अपनी दुरावस्था का यह पहला और बहुत ही कड़वा अनुभव हुआ. दरिद्र विधवा के लिए इससे बड़ी और क्या विपत्ति हो सकती है कि जवान बेटी सिर पर सवार हो? लड़के नंगे पांव पढ़ने जा सकते हैं, चौका-बर्तन भी अपने हाथ से किया जा सकता है, रूखा-सूखा खाकर निर्वाह किया जा सकता है, झोपड़े में दिन काटे जा सकते हैं, लेकिन युवती कन्या घर में नहीं बैठाई जा सकती. कल्याणी को भालचन्द्र पर ऐसा क्रोध आता था कि स्वयं जाकर उसके मुँह में कालिख लगाऊं, सिर के बाल नोच लूं, कहूं कि तू अपनी बात से फिर गया, तू अपने बाप का बेटा नहीं. पंडित मोटेराम ने उनकी कपट-लीला का नग्न वृत्तांत सुना दिया था.

वह इसी क्रोध में भरी बैठी थी कि कृष्णा खेलती हुई आयी और बोली, “कै दिन में बारात आयेगी अम्मा? पंडित तो आ गये.”

कल्याणी – “बारात का सपना देख रही है क्या?”

कृष्णा – “वही चंदर तो कह रहा है कि-दो-तीन दिन में बारात आयेगी, क्या न जायेगी अम्मा?”

कल्याणी – “एक बार तो कह दिया, सिर क्यों खाती है?”

कृष्णा – “सबके घर तो बारात आ रही है, हमारे यहाँ क्यों नहीं आती?”

कल्याणी– तेरे यहां जो बारात लाने वाला था, उसके घर में आग लग गई।

कृष्णा – “सच, अम्मा! तब तो सारा घर जल गया होगा. कहाँ रहते होंगे? बहन कहाँ जाकर रहेगी?”

कल्याणी – “अरे पगली! तू तो बात ही नहीं समझती. आग नहीं लगी. वह हमारे यहाँ ब्याह न करेगा.”

कृष्णा- “यह क्यों अम्मा? पहले तो वहीं ठीक हो गया था न?”

कल्याणी – “बहुत से रुपये मांगता है. मेरे पास उसे देने को रुपये नहीं हैं.”

कृष्णा- “क्या बड़े लालची हैं, अम्मा?”

कल्याणी – “लालची नहीं, तो और क्या है? पूरा कसाई निर्दयी, दगाबाज.”

कृष्णा – “तब तो अम्मा, बहुत अच्छा हुआ कि उसके घर बहन का ब्याह नहीं हुआ. बहन उसके साथ कैसे रहती? यह तो खुश होने की बात है अम्मा, तुम रंज क्यों करती हो?”

कल्याणी ने पुत्री को स्नेहमयी दृष्टि से देखा. इनका कथन कितना सत्य है? भोले शब्दों में समस्या का कितना मार्मिक निरूपण है? सचमुच यह ते प्रसन्न होने की बात है कि ऐसे कुपात्रों से सम्बन्ध नहीं हुआ, रंज की कोई बात नहीं. ऐसे कुमानुसों के बीच में बेचारी निर्मला की न जाने क्या गति होती? अपने नसीबों को रोती. ज़रा सा घी दाल में अधिक पड़ जाता, तो सारे घर में शोर मच जाता, ज़रा खाना ज्यादा पक जाता, तो सास दुनिया सिर पर उठा लेती. लड़का भी ऐसा लोभी है. बड़ी अच्छी बात हुई, नहीं, बेचारी को उम्र भर रोना पड़ता. कल्याणी यहाँ से उठी, तो उसका हृदय हल्का हो गया था.

लेकिन विवाह तो करना ही था और हो सके तो इसी साल, नहीं तो दूसरे साल फिर नये सिरे से तैयारियाँ करनी पड़ेगी. अब अच्छे घर की ज़रूरत न थी. अच्छे वर की ज़रूरत न थी. अभागिनी को अच्छा घर-वर कहाँ मिलता! अब तो किसी भांति सिर का बोझा उतारना था, किसी भांति लड़की को पार लगाना था, उसे कुएं में झोंकना था. यह रूपवती है, गुणशीला है, चतुर है, कुलीन है, तो हुआ करें, दहेज नहीं तो उसके सारे गुण दोष हैं, दहेज हो, तो सारे दोष गुण हैं. प्राणी का कोई मूल्य नहीं, केवल देहज का मूल्य है. कितनी विषम भाग्यलीला है!

कल्याणी का दोष कुछ कम न था. अबला और विधवा होना ही उसे दोषों से मुक्त नहीं कर सकता. उसे अपने लड़के अपनी लड़कियों से कहीं ज्यादा प्यारे थे. लड़के हल के बैल हैं, भूसे खली पर पहला हक उनका है, उनके खाने से जो बचे वह गायों का! मकान था, कुछ नकद था, कई हजार के गहने थे, लेकिन उसे अभी दो लड़कों का पालन-पोषण करना था, उन्हें पढ़ाना-लिखाना था. एक कन्या और भी चार-पाँच साल में विवाह करने योग्य हो जायेगी. इसलिए वह कोई बड़ी रकम दहेज में न दे सकती थी, आखिर लड़कों को भी तो कुछ चाहिए. वे क्या समझेंगे कि हमारा भी कोई बाप था.

पंडित मोटेराम को लखनऊ से लौटे पंद्रह दिन बीत चुके थे. लौटने के बाद दूसरे ही दिन से वह वर की खोज में निकले थे. उन्होंने प्रण किया था कि मैं लखनऊ वालों को दिखा दूंगा कि संसार में तुम्हीं अकेले नहीं हो, तुम्हारे ऐसे और भी कितने पड़े हुए हैं. कल्याणी रोज दिन गिना करती थी. आज उसने उन्हें पत्र लिखने का निश्चय किया और कलम-दवात लेकर बैठी ही थी कि पंडित मोटेराम ने पदार्पण किया.

कल्याणी – “आइये पंड़ितजी, मैं तो आपको खत लिखने जा रही थी, कब लौटे?”

मोटेराम – “लौटा तो प्रात:काल ही था, पर इसी समय एक सेठ के यहाँ से निमंत्रण आ गया. कई दिन से तर माल न मिले थे. मैंने कहा कि लगे हाथ यह भी काम निपटाता चलूं अभी उधर ही से लौटा आ रहा हूं, कोई पाँच सौ ब्रह्राणों को पंगत थ.

कल्याणी – “कुछ कार्य भी सिद्ध हुआ या रास्ता ही नापना पड़ा.”

मोटेराम – “कार्य क्यों न सिद्ध होगा? भला, यह भी कोई बात है? पाँच जगह बातचीत कर आया हूँ. पाँचों की नकल लाया हूँ. उनमें से आप चाहे, जिसे पसंद करें. यह देखिए इस लड़के का बाप डाक के सीगे में सौ रूपये महीने का नौकर है. लड़का अभी कालेज में पढ़ रहा है. मगर नौकरी का भरोसा है, घर में कोई जायदाद नहीं. लड़का होनहार मालूम होता है. खानदान भी अच्छा है, दो हजार में बात तय हो जायेगी. मांगते तो यह तीन हजार हैं.

कल्याणी – “लड़के के कोई भाई है?’

मोटे – “नहीं, मगर तीन बहनें हैं और तीनों क्वांरी. माता जीवित है. अच्छा अब दूसरी नकल दिय. यह लड़का रेल के सीगे में पचास रूपये महीना पाता है. माँ-बाप नहीं हैं. बहुत ही रूपवान, सुशील और शरीर से खूब हृष्ट-पुष्ट कसरती जवान है. मगर खानदान अच्छा नहीं, कोई कहता है, माँ नाइन थी, कोई कहता है, ठकुराइन थी. बाप किसी रियासत में मुख्तार थे. घर पर थोड़ी सी जमींदारी है, मगर उस पर कई हजार का कर्ज़ है. वहाँ कुछ लेना-देना न पडेगा. उम्र कोई बीस साल होगी.”

कल्याण – “खानदान में दाग न होता, तो मंज़ूर कर लेती. देखकर तो मक्खी नहीं निगली जाती.”

मोटे – “तीसरी नकल देखिए. एक जमींदार का लड़का है, कोई एक हजार सालाना नफ़ा है. कुछ खेती-बारी भी होती है. लड़का पढ़ा-लिखा तो थोड़ा ही है, कचहरी-अदालत के काम में चतुर है. दुहाजू है, पहली स्त्री को मरे दो साल हुए. उससे कोई संतान नहीं, लेकिन रहना-सहन, मोटा है. पीसना-कूटना घर ही में होता है.”

कल्याणी – “कुछ देहज मांगते हैं?”

मोटे – “इसकी कुछ न पूछिए. चार हजार सुनाते हैं. अच्छा यह चौथी नकल दिये. लड़का वकील है, उम्र कोई पैंतीस साल होगी. तीन-चार सौ की आमदनी है. पहली स्त्री मर चुकी है, उससे तीन लड़के भी हैं. अपना घर बनवाया है. कुछ जायदाद भी खरीदी है. यहाँ भी लेन-देन का झगड़ा नहीं है.”

कल्याणी – “खानदान कैसा है?”

मोटे – “बहुत ही उत्तम, पुराने रईस हैं. अच्छा, यह पाँचवीं नकल दिए. बाप का छापाखाना है. लड़का पढ़ा तो बी.ए. तक है, पर उस छापेखाने में काम करता है. उम्र अठारह साल की होगी. घर में प्रेस के सिवाय कोई जायदाद नहीं है, मगर किसी का क़र्ज़ सिर पर नहीं. खानदान न बहुत अच्छा है, न बुरा. लड़का बहुत सुंदर और सच्चरित्र है. मगर एक हजार से कम में मामला तय न होगा, मांगते तो वह तीन हजार हैं. अब बताइए, आप कौन-सा वर पसंद करती हैं?”

कल्याणी – “आपकों सबों में कौन पसंद है?”

मोटे – “मुझे तो दो वर पसंद हैं. एक वह जो रेलवई में है और दूसरा जो छापेखाने में काम करता है.”

कल्याणी – “मगर पहले के तो खानदान में आप दोष बताते हैं?”

मोटे – “हाँ, यह दोष तो है. छापेखाने वाले को ही रहने दीजिये.”

कल्याणी – “यहाँ एक हजार देने को कहाँ से आयेगा? एक हजार तो आपका अनुमान है, शायद वह और मुँह फैलाये. आप तो इस घर की दशा देख ही रहे हैं, भोजन मिलता जाये, यही गनीमत है. रूपये कहाँ  से आयेंगे? जमींदार साहब चार हजार सुनाते हैं, डाक बाबू भी दो हजार का सवाल करते हैं. इनको जाने दीजिए. बस, वकील साहब ही बच सकते हैं. पैंतीस साल की उम्र भी कोई ज्यादा नही. इन्हीं को क्यों न रखिए.”

मोटेराम – “आप खूब सोच-विचार लें. मैं यों आपकी मर्ज़ी का ताबेदार हूँ. जहाँ कहिएगा, वहाँ जाकर टीका कर आऊंगा. मगर हजार का मुँह न देखिए, छापेखाने वाला लड़का रत्न है. उसके साथ कन्या का जीवन सफल हो जाएगा. जैसी यह रूप और गुण की पूरी है, वैसा ही लड़का भी सुंदर और सुशील है.”

कल्याणी – “पसंद तो मुझे भी यही है महाराज, पर रुपये किसके घर से आयें! कौन देने वाला है! है कोई दानी? खानेवाले खा-पीकर चंपत हुए. अब किसी की भी सूरत नहीं दिखाई देती, बल्कि और मुझसे बुरा मानते हैं कि हमें निकाल दिया. जो बात अपने बस के बाहर है, उसके लिए हाथ ही क्यों फैलाऊं? संतान किसको प्यारी नहीं होती? कौन उसे सुखी नहीं देखना चाहता? पर जब अपना काबू भी हो. आप ईश्वर का नाम लेकर वकील साहब को टीका कर आइये. आयु कुछ अधिक है, लेकिन मरना-जीना विधि के हाथ है. पैंतीस साल का आदमी बुढ्डा नहीं कहलाता. अगर लड़की के भाग्य में सुख भोगना बदा है, तो जहाँ जायेगी सुखी रहेगी, दु:ख भोगना है, तो जहाँ जायेगी दु:ख झेलेगी. हमारी निर्मला को बच्चों से प्रेम है. उनके बच्चों को अपना समझेगी. आप शुभ मुहूर्त देखकर टीका कर आयें.”

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