अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास, Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas Read Online, Apsara Novel Suryakant Tripathi Nirala
Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas
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(अप्सरा निराला की कथा-यात्रा का प्रथम सोपान है। अप्सरा-सी सुंदर और कला-प्रेम में डूबी एक वीरांगना की यह कथा हमारे हृदय पर अमिट प्रभाव छोड़ती है। अपने व्यवसाय से उदासीन होकर वह अपना हृदय एक कलाकार को दे डालती है और नाना दुष्चक्रों का सामना करती हुई अंततः अपनी पावनता को बनाए रख पाने में समर्थ होती है। इस प्रक्रिया में उसकी नारी सुलभ कोमलताएँ तो उजागर होती ही हैं, उसकी चारित्रिक दृढ़ता भी प्रेरणादायक हो उठती है। इस उपन्यास में तत्कालीन भारतीय परिवेश और स्वाधीनता-प्रेमी युवा-वर्ग की दृढ़ संकल्पित मानसिकता का चित्रण हुआ है, जो कि महाप्राण निराला की सामाजिक प्रतिबद्धता का एक ज्वलंत उदाहरण है।)
अप्सरा को साहित्य में सबसे पहले मन्द गति से सुन्दर-सुकुमार कवि-मित्र सुमित्रानन्दन पन्त की ओर बढ़ते हुए देखा, पन्त की ओर नहीं । मैंने देखा, पन्तजी की तरफ एक स्नेह-कटाक्ष कर, सहज फिरकर उसने मुझसे कहा-इन्हीं के पास बैठकर इन्हीं से मैं अपना जीवन-रहस्य कहूँगी, फिर चली गई ।
‘निराला’
वक्तव्य
अन्यान्य भाषाओं के मुकाबले हिन्दी में उपन्यासों की संख्या थोड़ी है । साहित्य तथा समाज के गले पर मुक्ताओं की माला की तरह इने-गिने उपन्यास ही हैं । मैं श्री प्रेमचन्दजी के उपन्यासों के उद्देश्य पर कह रहा हूँ । इनके अलावा और भी कई ऐसी रचनाएँ हैं, जो स्नेह तथा आदर-सम्मान प्राप्त कर चुकी हैं । इन बड़ी-बड़ी तोंदवाले औपन्यासिक सेठों की महफिल में मेरी दंशिताघरा अप्सरा उतरते हुए बिलकुल संकुचित नहीं हो रही- उसे विश्वास है, वह एक ही दृष्टि से इन्हें अपना अनन्य भक्त कर लेगी । किसी दूसरी रूपवाली अनिन्द्य सुन्दरी से भी आँखें मिलाते हुए वह नहीं घबराती, क्योंकि वह स्पर्द्धा की एक ही सृष्टि, अपनी ही विद्युत् से चमकती हुई चिर-सौन्दर्य के आकाश-तत्त्व में छिप गई है ।
मैंने किसी विचार से अप्सरा नहीं लिखी, किसी उद्देश्य की पुष्टि भी इसमें नहीं। अप्सरा स्वयं मुझे जिस-जिस ओर ले गई, दीपक-पतंग की तरह में उसके साथ रहा । अपनी ही इच्छा से अपने मुक्त जीवन-प्रसंग का प्रांगण छोड़ प्रेम की सीमित, पर दृढ़ बाँहों में सुरक्षित, बँध रहना उसने पसन्द किया ।
इच्छा न रहने पर भी प्रासंगिक काव्य, दर्शन, समाज, आदि की कुछ बातें चरित्रों के साथ व्यावहारिक जीवन की समस्या की तरह आ पड़ी हैं, वे अप्सरा के ही रूप-रुचि के अनुकूल हैं। उनसे पाठकों को शिक्षा के तौर पर कुछ मिलता हो, अच्छी बात है; न मिलता हो, रहने दें; मैं अपनी तरफ से केवल अप्सरा उनकी भेंट कर रहा हूँ ।
लखनऊ
1.1.1931
‘निराला’
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