चैप्टर 2 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 2 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas

चैप्टर 2 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास, Chapter 2 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas, Chapter 2 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

Chapter 2 Apsara Suryakant Tripathi Nirala

Chapter 2 Apsara Suryakant Tripathi Nirala

कनक धीरे-धीरे अठारहवें वर्ष के पहले चरण में आ पड़ी । अपार अलौकिक सौन्दर्य, एकान्त में, कभी-कभी अपनी मनोहर रागिनी सुना जाता । वह कान लगा उसके अमृत-स्वर को सुनती पान किया करती । अज्ञात एक अपूर्व आनन्द का प्रवाह अंगों को आपादमस्तक नहला जाता । स्नेह की विद्युल्लता काँप उठती । उस अपरिचित कारण की तलाश में विस्मय से आकाश की ओर ताककर रह जाती । कभी-कभी खिले हुए अंगों के स्नेहभार में एक स्पर्श मिलता, जैसे अशरीर कोई उसकी आत्मा में प्रवेश कर रहा हो ! उस गुदगुदी में उसके तमाम अंग कॉपकर खिल उठते । अपनी देह के वृन्त अपलक खिली हुई ज्योत्स्ना के चन्द्र-पुष्प की तरह, सौन्दर्योज्ज्वल पारिजात की तरह एक अज्ञात प्रणय की वायु डोल उठती । आँखों में प्रश्न फूट पड़ता, संसार के रहस्यों के प्रति विस्मय ।

कनक गन्धर्व-कुमारिका थी । उसकी माता सर्वेश्वरी बनारस की रहनेवाली थी । नृत्य-संगीत में वह भारत- प्रसिद्ध हो चुकी थी । बड़े-बड़े राजे-महाराजे जलसे में उसे बुलाते, उसकी बड़ी आवभगत करते । इस तरह सर्वेश्वरी ने अपार सम्पत्ति एकत्र कर ली थी । उसने कलकत्ता-बहूबाजार में आलीशान अपना एक खास मकान बनवा लिया था, और व्यवसाय की वृद्धि के लिए, उपार्जन की सुविधा के विचार से, प्रायः वहीं रहती भी थी । सिर्फ बुढ़वा-मंगल के दिनों, तवायफों तथा रईसों पर अपने नाम की मुहर मार्जित कर लेने के विचार से काशी-आवास करती थी । वहाँ भी उसकी एक कोठी थी ।

सर्वेश्वरी की इस अथाह सम्पत्ति की नाव पर एकमात्र उसकी कन्या कनक ही कर्णधार थी, इसलिए कनक में सब तरफ से ज्ञान का थोड़ा-थोड़ा प्रकाश भर देना-भविष्य के सुखपूर्वक निर्वाह के लिए, अपनी नाव खेने की सुविधा के लिए-उसने आवश्यक समझ लिया था । वह जानती थी, कनक अब कली नहीं, उसके अंगों के कुल दल खुल गए हैं । उसके हृदय के चक्र में चारों ओर के सौन्दर्य का मधु भर गया है । पर उसका लक्ष्य उसकी शिक्षा की तरफ था । अभी तक उसने उसका जातीय शिक्षा का भार अपने हाथों नहीं लिया । अभी दृष्टि से ही वह कनक को प्यार कर लेती, उपदेश दे देती थी । कार्यतः उसकी तरफ से अलग थी । कभी-कभी जब व्यवसाय और व्यावसायियों से फुर्सत मिलती, वह कुछ देर के लिए कनक को बुला लिया करती । और, हर तरफ से उसने कन्या के लिए स्वतन्त्र प्रबन्ध कर रखा था । उसके पढ़ने का घर में ही इन्तजाम कर दिया था । एक अंग्रेज-महिला, श्रीमती कैथरिन, तीन घंटे उसे पढ़ा जाया करती थी । दो घंटे के लिए एक अध्यापक आया करते थे ।

इस तरह वह शुभ्र-स्वच्छ निर्झरिणी विद्या के ज्योत्स्ना-लोक के भीतर से मुखर शब्द-कलरव करती हुई ज्ञान के समुद्र की ओर अबाध वह चली । हिन्दी के अध्यापक उसे पढ़ाते हुए अपनी अर्थ-प्राप्ति की कलुषित कामना पर पश्चात्ताप करते, कुशाग्रबुद्धि शिष्या के भविष्य का पंकिल चित्र खींचते हुए मन-ही-मन सोचते-इसकी पढ़ाई ऊसर वर्षा है- तलवार में ज्ञान, नागिन का दूध पीना । इसका काटा हुआ एक कदम भी नहीं चल सकता । पर नौकरी छोड़ने की चिन्ता-मात्र से व्याकुल हो उठते थे । उसकी अंग्रेजी की प्राचार्या उसे बाइबिल पढ़ाती हुई बड़ी एकाग्रता से देखती, और मन-ही-मन निश्चय करती थी कि किसी दिन उसे प्रभु ईसा की शरण में लाकर कृतार्थ कर देगी।

कनक भी अंग्रेजी में जैसी तेज थी, उसे अपनी सफलता पर जरा भी द्विधा न थी । उसकी माता सोचती-इसके हृदय को जिन तारों से बाँधकर मैं इसे सजाऊँगी, उनके स्वर-झंकार से एक दिन संसार के लोग चकित हो जाएँगे, इसके द्वारा अप्सरा-लोक में एक नया ही परिवर्तन कर दूँगी, और वह केवल एक ही अंग में नहीं, चारों तरफ मकान के सभी शून्य छिद्रों को जैसे प्रकाश और वायु भरते रहते हैं, आत्मा का एक ही समुद्र जैसे सभी प्रवाहों का चरम परिणाम है ।

इस समय कनक अपनी सुगन्ध से आप ही आश्चर्यचकित हो रही थी। अपने बालपन की बालिका तन्वी कवयित्री को चारों ओर केवल कल्पना का आलोक देख पड़ता था, उसने अभी उसकी किरण-तन्तुओं से जाल बुनना नहीं सीखा था । काव्य था, पर शब्द-रचना नहीं-जैसे उस प्रकाश में उसकी तमाम प्रगतियाँ फँस गई हों ! जैसे इस अवरोध से बाहर निकलने की वह राज न जानती हो ! वहीं उसका सबसे बड़ा सौन्दर्य, उसमें एक अतुल नैसर्गिक विभूति थी । संसार के कुल मनुष्य और वस्तुएँ उसकी दृष्टि में मरीचिका के ज्योति-चित्रों की तरह आतीं, अपने यथार्थ स्वरूप में नहीं ।

कनक की दिनचर्या बहुत साधारण थी । दो दासियाँ उसकी देख-रेख के लिए थीं, पर उन्हें प्रतिदिन दो बार उसे नहला देने और तीन-चार बार वस्त्र बदलवा देने के इन्तजाम में ही जो कुछ थोड़ा-सा काम था, बाकी समय यों ही कटता था । कुछ समय साड़ियाँ चुनने में लग जाता था ।

कनक प्रतिदिन शाम को मोटर पर किले के मैदान की तरफ निकलती थी । ड्राइवर की बगल में एक अर्दली बैठता था । पीछे की सीट पर अकेली कनक । कनक प्रायः आभरण नहीं पहनती थी । कभी-कभी हाथों में सोने की चूड़ियाँ डाल लेती थी । गले में एक हीरे की कनी का जड़ाऊ हार । कानों में हीरे के दो चम्पे पड़े रहते । सन्ध्या-समय, सात बजे के बाद से दस तक और दिन में भी इसी तरह सात से दस तक पढ़ती थी । भोजन-पान में बिलकुल सादगी, पर पुष्टिकारक भोजन उसे दिया जाता था।

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