चैप्टर 3 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 3 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas

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Chapter 3 Apsara Suryakant Tripathi Nirala 

Chapter 3 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

धीरे-धीरे ऋतुओं के सोने के पंख फड़का, एक साल और उड़ गया । मन के खिलते हुए प्रकाश के अनेक झरने उसकी कमल-सी आँखों से होकर बह गए । पर अब उसके मुख से आश्चर्य की जग-ज्ञान की मुद्रा चित्रित हो जाती । वह स्वयं अब अपने भविष्य के तट पर तुलिका चला लेती है । साल-भर से माता के पास उसे नृत्य और संगीत की शिक्षा मिल रही है । इधर उसकी उन्नति के चपल क्रम को देख सर्वेश्वरी पहले की कल्पना की अपेक्षा शिक्षा के पथ पर उसे और दूर तक ले चलने का विचार करने लगी, और गन्धर्व जाति के छूटे हुए पूर्व गौरव को स्पर्द्धा से प्राप्त करने के लिए उसे उत्साह भी दिया करती थी । कनक अपलक ताकती हुई माता के वाक्यों को सप्रमाण सिद्ध करने का मन-ही-मन निश्चय करती, प्रतिज्ञाएँ करती । माता ने उसे सिखलाया, “किसी को प्यार मत करना । हमारे लिए प्यार करना आत्मा की कमजोरी है, यह हमारा धर्म नहीं ।”

कनक ने अस्फुट वाणी में मन-ही-मन प्रतिज्ञा की, ‘किसी को प्यार नहीं करूँगी । यह हमारे लिए आत्मा की कमजोरी है, धर्म नहीं ।’

माता ने कहा, ‘संसार के और लोग भीतर से प्यार करते हैं, हम लोग बाहर से ।’

कनक ने निश्चय किया, ‘और लोग भीतर से प्यार करते हैं, मैं बाहर से करूँगी ।’

माता ने कहा, “हमारी जैसी स्थिति है, इस पर ठहरकर भी हम लोक में वैसी ही विभूति, वैसा ही ऐश्वर्य, वैसा ही सम्मान अपनी कला के प्रदर्शन से प्राप्त कर सकती हैं; साथ ही, जिस आत्मा को और लोग अपने सर्वस्व का त्याग कर प्राप्त करते हैं, उसे भी हम लोग अपनी कला के उत्कर्ष के द्वारा, उसी में प्राप्त करती हैं, उसी में लीन होना हमारी मुक्ति है । जो आत्मा सभी सृष्टियों का सूक्ष्मतम तन्तु की तरह उनके प्राणों के प्रियतम संगीत को झंकृत करती, जिसे लोग बाहर के कुल सम्बन्धों को छोड़, ध्वनि के द्वारा तन्मय हो प्राप्त करते, उसे हम अपने बाह्य यन्त्र के तारों से झंकृत कर, मूर्ति में जगा लेतीं, फिर अपने जलते हुए प्राणों का गरल, उसी शिव को, मिलकर पिला देती हैं । हमारी मुक्ति इस साधना द्वारा होती है, इसीलिए ऐश्वर्य पर हमारा सदा ही अधिकार रहता है । हम बाहर से जितनी सुन्दर, भीतर से उतनी ही कठोर इसीलिए हैं । और-और लोग बाहर से कठोर, पर भीतर से कोमल हुआ करते हैं, इसलिए वे हमें पहचान नहीं पाते और अपने सर्वस्व तक का दान कर हमें पराजित करना चाहते हैं । हमारे प्रेम को प्राप्त कर, जिस पर केवल हमारे कौशल के शिव का ही एकाधिकार है, जब हम लोग अपने इस धर्म के गर्त से, मौखरिए की रागिनी सुन मुग्ध हुई नागिन की तरह, निकल पड़ती हैं, तब हमारे महत्त्व के प्रति भी हमें कलंकित अहल्या की तरह शाप से बाँध, पतित कर चले जाते हैं । हम अपनी स्वतन्त्रता के सुखमय बिहार को छोड़ मौखरिए की संकीर्ण टोकरी में बन्द हो जाती हैं, फिर वही हमें इच्छानुसार नचाता, अपनी स्वतन्त्र इच्छा के वश में हमें गुलाम बना लेता है । अपनी बुनियाद पर इमारत की तरह तुम्हें अटल रहना होगा, नहीं तो फिर अपनी स्थिति से ढह जाओगी, बह जाओगी ।”

कनक के मन में होंठ काँपकर रह गए, ‘अपनी बुनियाद में इमारत की तरह अटल रहूँगी !’

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