चैप्टर 4 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 4 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas

चैप्टर 4 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास, Chapter 4 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas, Chapter 4 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

Chapter 4 Apsara Suryakant Tripathi Nirala

Chapter 4 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas

अखबारों में बड़े-बड़े अक्षरों में सूचना निकली :

‘कोहनूर-थिएटर’ में

शकुन्तला ! शकुन्तला !! शकुन्तला !!!

शकुन्तला : मिस कनक

दुष्यन्त : राजकुमार वर्मा, एम.ए. !’

प्रशंसा में और भी बड़े-बड़े आकर्षक शब्द लिखे हुए थे । थिएटर-शौकीनों को हाथ बढ़ाकर स्वर्ग मिला । वे लोग थिएटरों का तमाम इतिहास कंठाग्र रखते थे । जितने भी एक्टर (अभिनेता) और बड़ी-छोटी जितनी भी मशहूर एक्ट्रेस (अभिनेत्रियाँ) थीं, उन्हें सबके नाम मालूम थे, सबकी सूरतें पहचानते थे, पर यह मिस कनक अपरिचित थी । विज्ञापन के नीचे कनक की तारीफ भी खूब की गई थी । लोग टिकट खरीदने के लिए उतावले हो गए । टिकट-घर के सामने अपार भीड़ लग गई, जैसे आदमियों का सागर तरंगित हो रहा हो । एक-एक झोंके से बाढ़ के पानी की तरह वह जनसमुद्र इधर-से-उधर डोल उठता था । बॉक्स, ऑर्केस्ट्रा, फर्स्ट क्लास में भी और दिनों से ज्यादा भीड़ थी ।

विजयपुर के कुँअर साहब भी उन दिनों कलकत्ते की सैर कर रहे थे । इन्हें इस्टेट से छः हजार मासिक जेब-खर्च के लिए मिलता था । वह सब नई रोशनी, नए फैशन में फूँककर ताप लेते थे । आपने भी एक बॉक्स किराए पर लिया । थिएटर की मिसों की प्रायः आपकी कोठी में दावत होती थी, और तरह-तरह के तोहफे आप उनके मकान पहुँचा दिया कते थे । संगीत का आपको अजहद शौक था । खुद भी गाते थे, पर आवाज जैसे ब्रह्मभोज के पश्चात कड़ाह रगड़ने की । लोग इस पर भी कहते थे, क्या मँजी हुई आवाज है ! आपको भी मिस कनक का पता मालूम न था । इससे और उतावले हो रहे थे । जैसे ससुराल जा रहे हों, और स्टेशन के पास गाड़ी पहुँच गई हो !

देखते-देखते सन्ध्या के छः का समय हुआ । थिएटर-गेट के सामने पान खाते, सिगरेट पीते, हँसी-मजाक करते हुए बड़ी-बड़ी तोंदवाले सेठ छड़ियाँ चमकाते, सुनहली डण्डी का चश्म लगाए हुए कॉलेज के छोकरे, अंग्रेजी अखबारों की एक-एक प्रति लिए हुए हिन्दी के सम्पादक सहकारियों पर अपने अपार ज्ञान का बुखार उतारते हुए, पहले ही से कला की कसौटी पर अभिनय की परीक्षा करने की प्रतिज्ञा करते हुए टहल रहे थे । इन सब बाहरी दिखलावों के अन्दर सबके मन की आँखें मिसों के आगमन की प्रतीक्षा कर रही थीं । उनके चकित दर्शन, चंचल चलन को देखकर चरितार्थ होना चाहती थीं । जहाँ बड़े-बड़े आदमियों का यह हाल था, वहाँ थर्ड क्लास तिमंजले पर फटी-हालत, नंगे बदन, रूखी सूरत, बैठे हुए बीड़ी-सिगरेट के धुएँ से छत भर देनेवाले, मौके-बेमौके तालियाँ पीटते हुए ‘इनकोर इनकोर’ के अप्रतिहत शब्द से कानों के पर्दे पार कर देनेवाले, अशिष्ट, मुँहफट, कुली-क्लास के लोगों का बयान ही क्या ? वहीं इन धन-कुबेरों और संवाद-पत्रों के सर्वज्ञों, वकीलों, डॉक्टरों, प्रोफेसरों और विद्यार्थियों के साथ ये लोग भी कला के प्रेम में साम्यवाद के अधिकारी हो रहे थे ।

देखते-देखते एक लारी आई । लोगों की निगाह तमाम बाधाओं को चीरती हुई, हवा की गोली की तरह, निशाने पर जा बैठी । पर, उस समय गाड़ी से उतरने पर, वे जितनी-मिस डली, मिस कुन्दन, मिस हीरा, पन्ना, पुखराज । रमा, क्षमा, शान्ति, शोभा, किसमिस और अंगूर-बालाएँ-थीं, जिनमें किसी ने हिरन की चाल दिखाई, किसी ने मोर की, किसी ने नागिन-जैसी-सब-की-सब जैसे डामर से पुती, अफ्रीका से हाल ही आई, प्रोफेसर डीवर या मिस्टर चटर्जी की सिद्ध की हुई, हिन्दुस्तान की आदिम जाति की ही कन्याएँ और बहनें थीं, और ये सब इतने बड़े-बड़े लोग इन्हें ही कला की दृष्टि से देख रहे थे । कोई छः फीट ऊँची, तिस पर नाक नदारद । कोई डेढ़ ही हाथ की छटंकी, पर होंठ आँखों की उपमा लिए हुए आकर्ण-विस्तृत । किसी की साढ़े तीन हाथ की लम्बाई चौड़ाई में बदली हुई-एक-एक कदम पर पृथ्वी काँप उठती । किसी की आँखें मक्खियों-सी छोटी और गालों में तबले मढ़े हुए । किसी की उम्र का पता नहीं, शायद सन् 57 के गदर में मिस्टर हडसन को गोद खिलाया हो । इस पर ऐसी दुलकी चाल सबने दिखाई, जैसे भुलभुल में पैर पड़ रहे हों ! गेट के भीतर चले जाने के कुछ सेकंड तक जनता तृष्णा की विस्तृत अपार आँखों से कला के उस अप्राप्य अमृत का पान करती रही ।

कुछ देर बाद एक प्राइवेट मोटर आई । बिना किसी इंगित के ही जनता की क्षुब्ध तरंग शान्त हो गई । सब लोगों के अंग रूप की तड़ित से प्रहत निश्चेष्ट रह गए । सर्वेश्वरी का हाथ पकड़े हुए कनक मोटर से उतर रही थी । सबकी आँखों के सन्ध्याकाश में जैसे सुन्दर इन्द्रधनुष अंकित हो गया हो । सबने देखा, मूर्तिमती के प्रभात की किरण है ।

उस दिन घर से अपने मन के अनुसार सर्वेश्वरी उसे सजा लाई थी । धानी रंग की रेशमी साड़ी पहने हुए, हाथों में सोने की, रोशनी से चमकती हुई चूड़ियाँ; गले में हीरे का हार; कानों में चम्पा; रेशमी फीते से बँधे तरंगित, खुले लम्बे बाल; स्वस्थ, सुन्दर देह; कान तक खिंची, किसी की खोज-सी करती हुई बड़ी-बड़ी आँखें; काले रंग से कुछ स्याह कर तिरछाई हुई भौंहें । लोग स्टेज की अभिनेत्री शकुन्तला को मिस कनक के रूप में अपलक नेत्रों से देख रहे थे ।

लोगों के मनोभावों को समझकर सर्वेश्वरी देर कर रही थी । मोटर से सामान उतरवाने, ड्राइवर को मोटर लाने का वक्त बतलाने, नौकर को कुछ भुला हुआ सामान मकान से ले आने की आज्ञा देने में लगी रही । फिर धीरे-धीरे कनक का हाथ पकड़े हुए, अपने अर्दली के साथ, ग्रीन-रूम की तरफ चली गई ।

लोग जैसे स्वप्न देखकर जागे । फिर चहल-पहल मच गई । लोग मुक्त कंठ से प्रशंसा करने लगे । धन-कुबेर सेठ दूसरे परिचितों से आँखों से इशारे करने लगे । इन्हीं लोगों में विजयपुर के कुँबर साहब भी थे । और, न जाने कौन-कौन-से राजे-महाराजे सौन्दर्य के समुद्र से अतन्द्र अम्लान निकली हुई इस अप्सरा की कृपा-दृष्टि के भिक्षुक हो रहे थे ।

जिस समय कनक खड़ी थी, कुँवर साहब अपनी आँखों से नहीं, खुर्दबीन की आँखों से उसके बृहत् रूप के अंश में अपने को सबसे बड़ा हकदार साबित कर रहे थे, और इस कार्य में उन्हें जरा भी संकोच नहीं हो रहा था । कनक उस समय मुस्कुरा रहा थी ।

भीड़ तितर-बितर होने लगी । खेल आरम्भ होने में पौन घंटा और रह गया । लोग पानी, पान, सोडा-लेमनेड आदि खाने-पीने में लग गए । कुछ लोग बीड़ियाँ फूँकते हुए खुली, असभ्य भाषा में कनक की आलोचना कर रहे थे ।

ग्रीन-रूम में अभिनेत्रियाँ सज रही थीं । कनक नौकर नहीं थी, उसकी माँ भी नौकर नहीं थी । उसकी माँ उसे स्टेज पर पूर्णिमा के चाँद की तरह एक ही रात में लोगों की दृष्टि में खोलकर प्रसिद्ध कर देना चाहती थी । थिएटर के मालिक पर उसका काफी प्रभाव था । साल में कई बार उसी स्टेज पर, टिकट ज्यादा बिकने के लोभ से, थिएटर के मालिक उसे गाने तथा अभिनय करने के लिए बुलाते थे । वह जिस रोज स्टेज पर उतरती, रंगशाला दर्शक-मण्डली से भर जाती । कनक रिहर्सल में कभी नहीं गई, यह भार उसकी माता ने ले लिया था ।

कनक को शकुन्तला का वेश पहनाया जाने लगा । उसके कपड़े उतार दिए गए । एक साधारण-सा वस्त्र, वल्कल की जगह, पहना दिया गया । गले में फूलों का हार । बाल अच्छी तरह खोल दिए गए । उसकी सखियाँ अनुसूया और प्रियंवदा भी सज गईं । उधर राजकुमार को दुष्यन्त का वेश पहनाया जाने लगा । और-और पात्र भी सजा कर तैयार कर दिए गए ।

राजकुमार भी कम्पनी में नौकर नहीं था । वह शौकिया बड़ी-बड़ी कम्पनियों में उतारकर प्रधान पार्ट किया करता था । इसका कारण खुद मित्रों से बयान किया करता । कहा करता था, हिन्दी के स्टेज पर लोग ठीक-ठीक हिन्दी-उच्चारण नहीं करते, उर्दू के उच्चारण की नकल करते हैं, इससे हिन्दी का उच्चारण बिगड़ जाता है । हिन्दी के उच्चारण में जीभ की स्वतन्त्र गति होती है । यह हिन्दी ही की शिक्षा के द्वारा दुरुस्त होगी । कभी-कभी हिन्दी में वह स्वयं भी नाटक लिखा करता । यह शकुन्तला-नाटक उसी का लिखा हुआ था । हिन्दी की शुभकामना से प्रेरित हो उसने विवाह भी नहीं किया । इससे घरवाले कुपित भी हुए थे, पर उसने परवा नहीं की । कलकत्ता-सिटी-कॉलेज में वह हिन्दी का प्रोफेसर है । शरीर जैसा हृष्ट-पुष्ट, वैसा ही सुन्दर और बलिष्ठ भी है । कलकत्ता की साहित्य-समितियाँ उसे अच्छी तरह पहचानती हैं ।

तीसरी घंटी बजी । लोगों की उत्सुक आँखें स्टेज की ओर लगीं । पहले बालिकाओं ने स्वागत-गीत गाया, पश्चात् नाटक शुरू हुआ । पहले-ही-पहल कण्व के तपोवन में शकुन्तला के दर्शन कर दर्शकों की आंखें तृप्ति से खुल गई । आश्रम के उपवन की वह खिली हुई कली अपने अंगों की सुरभि से कम्पित दर्शकों के हृदय को, संगीत की मधुर मीड़ की तरह काँपकर उठती देह की दिव्य द्युति से, प्रसन्न-पुलकित कर रही थी । जिधर-जिधर चपल तरंग की तरह वह डोलती फिरती, लोगों की अचंचल, अपलक दृष्टि उधर-ही-उधर उस छवि-स्वर्ण-किरण से लगी रहती । एक ही प्रत्यंग संचालन से उसने लोगों पर जादू डाल दिया । सभी उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे । उसे गौरवपूर्ण आश्चर्य से देखने लगे ।

महाराज दुष्यन्त का प्रवेश हुआ । देखते ही कनक चौंक उठी । दुष्यन्त भी, अपनी तमाम एकाग्रता से, उसे सविस्मय देखते रहे । यह मौन अभिनय लोगों के मन में दुष्यन्त और शकुन्‍तला की झलक भर गया । कनक मुस्कुराई । दोनों ने दोनों को पहचान लिया था ।

उनके अभ्यन्तर भावों की प्रसन्नता की छाया दर्शकों पर भी पड़ी । लोगों ने कहा, “कितना स्वाभाविक अभिनय हो रहा है !”

क्रमशः आलाप-परिचय, राग-रस-प्रियता आदि अभिनीत होते रहे । रंगशाला में सन्नाटा छाया था, मानो सब लोग निर्वाक् कोई मनोहर स्वप्न देख रहे हों । गान्धर्व रीति से विवाह होने लगा । लोग तालियाँ पीटते, सीटियाँ बजाते रहे । शकुन्तला ने अपनी माला दुष्यन्त को पहना दी, दुष्यन्त ने अपनी शकुन्तला को । स्टेज खिल गया ।

ठीक इसी समय, बाहर से भीड़ को ठेलते, चैकरों की भी परवा न करते हुए, कुछ कान्स्टेबलों को साथ ले, पुलिस के दारोगाजी बड़ी गम्भीरता से स्टेज के सामने आ धमके । लोग विस्मय की दृष्टि से एक दूसरा नाटक देखने लगे । दारोगाजी ने मैनेजर को पुकारकर कहा, “यहाँ, इस नाटक-मण्डली में, राजकुमार वर्मा कौन है ? उसके नाम वारन्ट है, हम उसे गिरफ्तार करेंगे ।”

तमाम स्टेज थर्रा गया । उसी समय लोगों ने देखा, राजकुमार वर्मा, दुष्यन्त की ही सम्राट चाल से निश्शंक, वन्य दृश्य-पट के किनारे से, स्टेज के बिलकुल सामने आकर खड़ा हो गया, और वीर-दृष्टि से दारोगा को देखने लगा । वह दृष्टि कह रही थी-हमें गिरफ्तार होने का बिलकुल खौफ नहीं । कनक भी शकुन्तला के अभिनय को सार्थक करती हुई, किनारे से चलकर अपने प्रिय पति के पास आ, उसका हाथ पकड़ दारोगा को निस्संकोच दृप्त दृष्टि से देखने लगी । कनक को देखते ही शहद की मक्खियों की तरह दारोगा की आँखें उससे लिपट गई । दर्शक नाटक देखने के लिए चंचल हो उठे ।

“हमने रुपए खर्च किए हैं । हमारे मनोरंजन का टैक्स लेकर फिर उसमें बाधा डालने का सरकार को कोई अधिकार नहीं । यह दारोगा की मूर्खता है, जो अभियुक्त को यहाँ कैद करने आया । निकाल दो उसे ।” कॉलेज के एक विद्यार्थी ने जोर से पुकारकर कहा ।

“निकालो, निकालो, निकाल बाहर करो !” हजारों कंठ एक साथ कह उठे ।

ड्राप गिरा दिया गया ।

“निकल जाओ, निकल जाओ !” पटापट तालियों के वाद्य से स्टेज गूँज उठा । सीटियाँ बजने लगीं । “अहा-हा-हा ! कुर्बान जाऊँ साफा ! कुर्बान जाऊँ डंडा ! छछूंदर-जैसी मूँछें ! यह कद्दू-जैसा मुँह ।”

दारोगाजी का सिर लटक पड़ा । ‘भागो भागो, भागो’ के बीच उन्हें भागना ही पड़ा । मैनेजर ने कहा, “नाटक हो जाने के बाद आप उन्हें गिरफ्तार कर लीजिएगा । मैं उनके पास गया था । उन्होंने आपके लिए यह संवाद भेजा है ।”

दारोगा को मैनेजर गेट पर ले जाने लगे । उन्होंने स्टेज के भीतर रहकर नाटक देखने की इच्छा प्रकट की । मैनेजर ने टिकट खरीदने के लिए कहा । दारोगाजी एक बार घूरकर रह गए । फिर अपने लिए एक ऑरकेस्ट्रा का टिकट खरीद लिया । कान्स्टेबलों को मैनेजर ने थर्ड क्लास में ले आकर भर दिया । वहाँ के लोगों को मनोरंजन की दूसरी सामग्री मिल गई ।

थिएटर होता रहा । मिस कनक द्वारा किया गया शकुन्तला का पार्ट लोगों को बहुत पसन्द आया । एक ही रात में वह शहर-भर में प्रसिद्ध हो गई ।

नाटक समाप्त हुआ । राजकुमार को ग्रीन-रूम से निकलते ही गिरफ्तार कर लिया गया ।

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