चैप्टर 5 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास, Chapter 5 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas, Chapter 5 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi
Chapter 5 Apsara Suryakant Tripathi Nirala
एक बड़ी-सी, अनेक प्रकार के देश-देश की अप्सराओं, बादशाहजादियों, नर्तकियों के सत्य तथा काल्पनिक चित्रों तथा बेलबूटों से सजी हुई दालान । झाड़-फानूस टँगे हुए, फर्श पर कीमती गलीचा-कारपेट बिछा हुआ । मखमल की गद्दीदार कुर्सियाँ । कोच और सोफे तरह-तरह की मेजों के चारों ओर कायदे से रखे हुए । बीच-बीच में बड़े-बड़े आदमी के आकार में ड्योढ़े शीशे । एक तरफ टेबल-हारमोनियम और एक तरफ पियानो रखा हुआ । और-और यन्त्र भी-सितार, सुर-बहार, इसराज, वीणा, सरोद, बैंजों, बेला, क्लारियोनेट, कारनेट, मँजीरे, तबले, पखावज, सारंगी आदि यथास्थान सुरक्षित रखे हुए ।
छोटी-छोटी मेजों पर चीनी-मिट्टी के कीमती शो-पीस रखे हुए । किसी में फूलों के तोड़े । रंगीन शीशे-जड़े तथा झँझरियोंदार डबल दरवाजे लगे हुए । दोनों किनारों पर मखमल की सुनहरी जालीदार झूल चौथ के चाँद के आकार से पड़ी हुई । बीच में छः हाथ की चौकोर करीब डेढ़ हाथ की उँची गद्दी, तकिए लगे हुए । उस पर अकेली बैठी हुई, रात आठ बजे के लगभग, कनक सुरबहार बजा रही है । मुख पर चिन्ता की एक रेखा स्पष्ट खिंची हुई उसके बाहरी सामान से चित्त बहलाने का हाल बयान कर रही है । नीचे लोगों की भीड़ जमा है । सब कान लगाए सुरबहार सुन रहे हैं ।
एक दूसरे कमरे से एक नौकर ने आकर कहा, “मौजी कहती हैं, कुछ गाने के लिए कहो ।”
कनक ने सुना । नौकर चलने लगा, कनक ने उससे हारमोनियम दे जाने के लिए कहा ।
हारमोनियम आने पर उसने सुरबहार चढ़ा दिया । नौकर उस पर गिलाफ चढ़ाने लगा । कनक दूसरे सप्तक के ‘सा’ स्वर पर उँगली रखकर बेली करने लगी । गाने से जी उचट रहा था, पर माता की आज्ञा थी, उसने गाया :
“प्यार करती हूँ , अलि, इसलिए मुझे भी करते हैं ये प्यार,
बह गई हूँ अजान की ओर , इसलिए वह जाता संसार ।
रुके नहीं , धनि-चरण घाट पर,
देखा मैंने मरन-बाट पर ,
टूट गए सब आट-ठाट , घर,
छूट गया परिवार-
तभी सखि , करते हैं वे प्यार ।
आप बही या बहा दिया था ,
खिंची स्वयं या खींच लिया था ,
नहीं याद कुछ कि क्या किया था ,
हुई जीत या हार-
तभी री , करते हैं वे प्यार ।
खुले नयन , जब रही सदा तिर-
स्नेह तरंगों पर उठ-उठ गिर ;
सुखद पालने पर में फिर-फिर
करती थी शृंगार –
मुझे तब करते हैं वे प्यार ।
कर्म-कुसुम अपने सब चुन-चुन
निर्जन में प्रिय के गिन-गिन गुन ,
गूँथ निपुण कर से उनको सुन ,
पहनाया था हार –
इसलिए करते हैं वे प्यार । “
कनक ने कल्याण में भरकर यमन गाया । नीचे कई सौ आदमी मन्त्र-मुग्ध से खड़े हुए सुन रहे थे । गाने से प्रसन्न हो, सर्वेश्वरी ने अपने कमरे से उठकर, कनक के पास आकर बैठ गई । गाना समाप्त हुआ । सर्वेश्वरी ने प्यार से कन्या का चिन्तित मुख चूम लिया ।
तभी नीचे से एक नौकर ने आकर कहा, “विजयपुर के कुँवर साहब के यहाँ से एक बाबू आए हैं । कुछ बातचीत करना चाहते हैं ।”
सर्वेश्वरी नीचे अपने दो मंजिलवाले कमरे में उत्तर गई । यह कनक का कमरा था । अभी कुछ दिन हुए, कनक के लिए सर्वेश्वरी ने सजाया था । कुछ देर बाद सर्वेश्वरी लौटकर ऊपर आई । कनक से कहा, “कुँबर साहब विजयपुर तुम्हारा गाना सुनना चाहते हैं ।”
“मेरा गाना सुनना चाहते हैं !” कनक सोचने लगी । “अम्मा !” कनक ने कहा, “मैं रईसों की महफिल में गाना नहीं गाऊँगी ।”
“नहीं, वह यहीं आएंगे । बस, दो-चार चीजें सुना दो । तबियत अच्छी न हो, तो कहो, कह दें, फिर कभी आएँगे ।”
“अच्छा अम्मा, किसी कीमती, खूबसूरत पत्ते पर हुई ओस की बूँद अगर हवा के झोंके से जमीन पर गिर जाए तो अच्छा या प्रभात के सूर्य से चमकती हुई उसकी किरणों से खेलकर फिर अपने निवास-स्थान- आकाश को चली जाए ?”
“दोनों अच्छे हैं उसके लिए । हवा के झूले का आनन्द किरणों से हँसने में नहीं, वैसे ही किरणों से हँसने का आनन्द हवा के झूले में नहीं । और, अन्ततः वास-स्थान तो पहुँच ही जाती है, गिरे या डाल पर सूख जाए !”
“और अगर हवा में झूलने से पहले ही सूखकर उड़ गई हो ?”
“तब तो बात ही और है ।”
“मैं उसे यथार्थ रंगीन पंखोंवाली परी मानती हूँ ।”
“क्या तू खुद ही परी बनना चाहती है ?”
“हाँ, अम्मा ! मैं कला को कला की दृष्टि से देखती हूँ । क्या उससे अर्थ-प्राप्ति करना उसके महत्त्व को घटा देना नहीं ?”
“ठीक है । पर यह एक प्रकार का समझौता है । अर्थवाले अर्थ देते हैं, और कला के जानकार उसका आनन्द । संसार में एक-दूसरे से ऐसा ही सम्बन्ध है ।”
“कला के ज्ञान के साथ-ही-साथ कुछ ऐसी गन्दगी भी हम लोगों के चरित्र में रहती है, जिससे मुझे सख्त नफरत है ।”
माता चुप रही । कन्या के विशद अभिप्राय को ताड़कर कहा, “तुम इससे बच रहकर भी अपने ही जीने से छत पर जा सकती हो, जहाँ सबकी तरह तुम्हें भी आकाश तथा प्रकाश का बराबर अंश मिल सकता है ।”
“मैं इतना सब नहीं समझती । समझती भी हूँ, तो भी मुझे कला को एक सीमा में परिणत रखना अच्छा लगता है। ज्यादा विस्तार से वह कलुषित हो जाती है, जैसे बहाव का पानी । उसमें गन्दगी डालकर भी लोग उसे पवित्र मानते हैं, पर कुएँ के लिए यह बात सार्थक नहीं । स्वास्थ्य के विचार से कुएँ का पानी बहते हुए पानी से बुरा नहीं । विस्तृत व्याख्या तथा अधिक बहाव के कारण अच्छे-से-अच्छे कृत्य बुरे धब्बों से रँगे रहते हैं ।”
“प्रवृत्ति के वशीभूत हो लोग अनर्थ करने लगते हैं । यही अत्याचार धार्मिक अनुष्ठानों में प्रत्यक्ष हो रहा है, पर बृहत् अपनी महत्ता में बहत् ही है । बहाव और कुएँवाली बात जँचकर भी फीकी रही ।”
“सुनो, अम्मा ! तुम्हारी कनक अब तुम्हारी नहीं रही । उसके हार में ईश्वर ने एक नीलम जड़ दिया है ।”
सर्वेश्वरी ने ताअज्जुब की निगाह से कन्या को देखा । कुछ-कुछ उसका मतलब वह समझ गई, पर उसने कन्या से पूछा, “तुम्हारे कहने का मतलब ?”
“यह ।” कनक ने हाथ की चूड़ी, कलाई उठाकर दिखाई ।
सर्वेश्वरी हँसने लगी, “तमाशा कर रही है ? यह कौन-सा खेल ?”
“नहीं अम्मा !” कनक गम्भीर हो गई । चेहरे पर एक स्थिर प्रौढ़ता झलकने लगी, “में ठीक कहती हूँ, मैं ब्याही हुई हूँ । अब में महफिल में गाना नहीं गाऊँगी । अगर कहीं गाऊँगी भी, तो खूब सोच-समझकर, जिससे मुझे सन्तोष रहे ।”
सर्वेश्वरी अपलक दृष्टि से कनक को देखती रही ।
“यह विवाह कब हुआ, और किससे हुआ ? किया किसने ?”
“यह विवाह आपने किया ईश्वर की इच्छा से, कोहनूर-कम्पनी के स्टेज पर कल हुआ, दुष्यन्त का पाठ करनेवाले राजकुमार के साथ, शकुन्तला के रूप में सजी हुई तुम्हारी कनक का । ये चूड़ियाँ, एक-एक दोनों हाथों में, इस प्रमाण की रक्षा के लिए मैंने पहन ली हैं । और देखो….” कनक ने जरा-सी सिन्दूर की बिन्दी सिर पर लगा ली थी, “अम्मा, यह एक रहस्य हो गया। राजकुमार को…”
माता ने बीच में ही हँसकर कहा, “सुहागिनें अपने पति का नाम नहीं लिया करती ।”
“पर में लिया करूँगी । मैं कोई घूँघट काढ़नेवाली सुहागिन तो हूँ नहीं । कुछ पैदायशी स्वतन्त्र हक अपने साथ रखूँगी, नहीं तो कुछ दिक्कत पड़ सकती है । गाने-बजाने पर भी मेरा ऐसा ही विचार रहेगा । हाँ, राजकुमार को तुम नहीं जानतीं । उन्होंने ही मुझे इडेनगार्डेन में बचाया था ।”
कन्या की भावना पर, ईश्वर की विचित्र घटनाओं के भीतर से इस प्रकार मिलाने पर कुछ देर तक सर्वेश्वरी सोचती रही । देखा, उसके हृदय के कमल पर कनक की इस उक्ति की किरण सूर्य की किरण की तरह पड़ रही थी, जिससे आप-ही-आप उसके सब दल प्रकाश की ओर खुलते जा रहे थे । तरंगों से उसका स्नेह-समुद्र कनक के रेखा-तक को छूने लगा । एकाएक स्वाभाविक परिवर्तन को प्रत्यक्ष लक्ष्य कर सर्वेश्वरी ने अप्रिय, विरोधी प्रसंग छोड़ दिया । हवा का रुख जिस तरफ हो, उसी तरफ नाव को वहा ले जाना उचित है, जबकि लक्ष्य केवल सैर है, कोई गम्य स्थान नहीं ।
हँसकर सर्वेश्वरी ने पूछा, “तुम्हारा इस प्रकार स्वयंवरा होना उन्हें भी मंजूर है न, या अन्त तक शकुन्तला की ही दशा भोगनी होगी ? और, वह तो कैद भी हो गए हैं ।”
कनक संकुचित लज्जा से द्विगुणित हो गई । कहा, “मैंने उनसे तो इसकी चर्चा नहीं की । करना भी व्यर्थ है । इसे मैं अपनी हद तक रखूँगी । किसके कैसे खयालात हैं, मुझे क्या मालूम ! अगर वह मुझे, मेरे कुल का विचार कर, ग्रहण न करें, तो इस तरह का अपमान बरदाश्त कर जाना मेरी शक्ति से बाहर है । वह कैद शायद उसी मामले में हुए हैं ।”
उनके बारे में और भी कुछ तुम्हारा समझा हुआ है ?”
“मैं और कुछ नहीं जानती, अम्मा ! पर कल तक…सोचती हूँ, थानेदार को बुलाकर कुछ पूछें, और पता लगाकर भी देखूँ कि क्या कर सकती हूँ ।”
सर्वेश्वरी ने कुँवर साहब के आदमियों के पास कहला भेजा कि कनक की तबियत अच्छी नहीं, इसलिए किसी दूसरे दिन गाना सुनने की कृपा करें ।
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