चैप्टर 6 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 6 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas

चैप्टर 6 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास, Chapter 6 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas, Chapter 6 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

Chapter 6 Apsara Suryakant Tripathi Nirala 

Chapter 6 Apsara Suryakant Tripathi Nirala 

कनक का जमादार एक पत्र लेकर, बड़ा बाजार थाने में, दारोगाजी के पास गया ।

दारोगाजी बैठे हुए एक मारवाड़ी को किसी काम में शहादत के लिए समझा रहे थे कि उनके लिए, और खास तौर से सरकार के लिए, इतना-सा काम कर देने पर वह मारवाड़ी महाशय को कहाँ तक पुरस्कृत कर सकते हैं, सरकार की दृष्टि में उनकी कितनी इज्जत होगी, और आर्थिक उन्हें कितने बड़े लाभ की सम्भावना है । मारवाड़ी महाशय बड़े नम्र शब्दों में, डरे हुए, पहले तो इनकार करते रहे, पर दारोगाजी की वक्तृता के प्रभाव से, अपने भविष्य के चमकते हुए भाग्य का काल्पनिक चित्र देख-देख पीछे से हाँ-ना के बीच खड़े हुए मन-ही-मन हिल रहे थे, कभी इधर, कभी उधर । उसी समय कनक के जमादार ने खत लिए हुए उन्हें घुटनों तक झुककर सलाम किया ।

दारोगा साहब ने ‘आज तख्त बैठो दिल्लीपति नर’ की नजर से क्षुद्र जमादार को देखा । बढ़कर उसने चिट्ठी दे दी।

दारोगाजी तुरन्त चिट्ठी खोलकर पढ़ने लगे । पढ़ते जाते और मुस्कुराते जाते थे । पढ़कर जेब में हाथ डाला । एक नोट था पाँच रुपए का । जमादार को दे दिया । कहा, “तुम चलो । कह देना, हम अभी आए ।”

अंग्रेजी में पत्र यों था :

3. बहूबाजार-स्ट्रीट,

कलकत्ता

3-4-18

प्रिय दारोगा साहब,

आपसे मिलना चाहती हूँ । जब से स्टेज पर से आपको देखा-आहा ! कैसी गजब की हैं आपकी आँखें । दोबारा जब तक नहीं देखती, मुझे चैन नहीं । क्या आप कल नहीं मिलेंगे ?

आप ही की

कनक

थानेदार साहब खूबसूरत न थे, पर उन्हें उस समय अपने सामने शहजादे सलीम का रंग फीका और किसी परीजाद की आँख भी छोटी जान पड़ी । तुरन्त उन्होंने मारवाड़ी महाशय को बिदा कर दिया । तहकीकात करने के लिए मछुवा बाजार जाना था, यह काम छोटे थानेदार के सिपुर्द कर दिया, यद्यपि वहाँ बहुत-से रुपए गुंडों से मिलनेवाले थे ।

उठकर कपड़े बदले और सादी, सफेद पोशाक में वह बाजार की सैर करने चल पड़े । पत्र जेब में रखने लगे, तो फिर उन्हें अपनी आँखों की बात याद आई । तुरन्त शीशे के सामने जाकर खड़े हो गए, और तरह-तरह से मुँह बना-बनाकर आँखें फाड़-फाड़कर देखने लगे । उनके मन को, उस सूरत से, उन आँखों से तृप्ति न थी, पर जबरन मन को समझा रहे थे । दस मिनट तक इसी तरह अपनी सूरत देखते रहे । शीशे के सामने बैसलीन ज्यादा-सी पोत ली । मुँह धोया । पाउडर लगाया । सेंट छिड़का । फिर आईने के सामने खड़े हो गए । मन को फिर भी न अच्छा लगा, पर जोर दे-देकर अपने को अच्छा साबित करते रहे ।

कनक के मन्त्र ने स्टेज पर ही इन्हें वशीभूत कर लिया था । अब पत्र भी आया और वह भी प्रणय-पत्र के साथ-साथ प्रशंसा-पत्र । उनकी विजय का इससे बड़ा और कौन-सा प्रमाण होता ! कहाँ उन्हें ही उसके पास प्रणयभिक्षा के लिए जाना था, कहाँ वही उनके प्रेम के लिए उनकी जादू-भरी निगाह के लिए पागल है । इस पर भी उनका मन उन्हें सुन्दर नहीं मानता, यह उनके लिए सहन कर जानेवाली बात थी ।

एक कांस्टेबल को टैकसी ले आने के लिए भेज दिया था । बड़ी देर से खड़ी हुई टैक्सी हॉर्न दे रही थी, पर वह अपने बिगड़े हुए मन से लड़ रहे थे ।

कांस्टेबल ने आकर कहा, “दारोगाजी, बड़ी देर से टैक्सी खड़ी है ।” तब आपने छड़ी उठाई और थाने से बाहर हो गए । सड़क पर टैक्सी खड़ी थी, बैठ गए । कहा, “बहूबाजार ।”

ड्राइवर बहूबाजार चल दिया । जकरिया-स्ट्रीट के बराबर टैक्सी पहुँची, तब आपको याद आया कि टोपी भूल आए हैं । कहा, “अरे ड्राइवर, भाई, जरा फिर थाने चलो ।”

गाड़ी फिर थाने आई । आप अपने कमरे से टोपी लेकर फिर टैक्सी पर पहुँचे । टैक्सी पुनः बहूबाजार चली ।

तीन नम्बर के आलीशान मकान के नीचे टैक्सी खड़ी हो गई । पुरस्कृत जमादार ने लौटकर अपने पुरस्कार का हाल कनक से कह दिया था । कनक ने उसे ही द्वार पर दारोगा साहब के स्वागत के लिए रखा था, और समझा दिया था कि ‘बड़े अदब से, दो मंजिलेवाले कमरे में, जिसमें मैं पढ़ती थी, बैठाना और तब मुझे खबर देना ।’

जमादार ने सलाम कर थानेदार साहब को उसी कमरे में ले जाकर एक कोच पर बैठाया और फिर ऊपर कनक को खबर देने के लिए गया ।

कमरे में, शीशेदार अलमारियों में, कनक की किताबें रखी थीं । उनकी जिल्दों पर सुनहरे अक्षरों से किताबों के नाम लिखे हुए थे । दारोगाजी विद्या की तौल में कनम को अपने से छौटा एवं अमान्य समझ रहे थे, परन्तु उन किताबों की तरफ देखकर उसके प्रति उनके दिल में कुछ इज्जत पैदा हो गई । उसकी विद्या की मन-ही-मन बैठे तरफ वह थाह ले रहे थे ।

कनक ऊपर से उतरी । साधारणतया जैसी उसकी सज्जा मकान में रहती थी, वैसी ही-सभ्य तरीके से एक जरी की किनारीदार देसी साड़ी, मोजे और ऊँची एड़ी के जूते पहने हुए ।

कनक को आते देख थानेदार साहब खड़े हुए । कनक ने हँसकर कहा, “गुडमॉर्निंग !”

थानेदार कुछ झेंप गए । डरे कि कहीं बातचीत का सिलसिला अंग्रेजी में इसने चलाया, तो नाक कट जाएगी । इस व्याधि से बचने के लिए उन्होंने स्वयं ही हिन्दी में बातचीत छेड़ दी, “आपका नाटक कल देखा, मैं सच कहता हूँ, ईश्वर जाने, ऐसा नाटक जिन्दगी-भर मैंने नहीं देखा।”

“आपको पसन्द आया, मेरे भाग्य ! माँ तो उसमें तरह-तरह की त्रुटियाँ निकालती हैं। कहती हैं, अभी बहुत कुछ सीखना है, तारीफवाली अभी कोई बात नहीं हुई।”

कनक ने बातचीत का रुख बदला । सोचा, इस तरह व्यर्थ ही समय नष्ट करना होगा । बोली, “आप हम लोगों के यहाँ जलपान करने में शायद संकोच करें ?”

मोटी हँसी हँसकर दारोगा ने कहा, “संकोच ? संकोच का तो यहाँ नाम नहीं, और फिर तू…आ…आपके यहाँ !”

कनक ने दारोगाजी का आन्तरिक भाव समझ लिया था । नौकर को आवाज दी । नौकर आया । उससे खाना लाने के लिए कहकर आलमारी से खुद उठकर एक रेड-लेवल और दो बोतलें सोडे की निकालीं ।

शीशे के एक गिलास में एक बड़ा पैग ढालते हुए कनक ने कहा, “आप मुझे ‘तुम’ ही कहें । कितना मधुर शब्द है-तुम ! ‘तुम’ मिलानेवाला है, ‘आप’ शिष्टता की तलवार से दो जुड़े हुओं को काटकर जुदा कर देनेवाला ।”

दारोगाजी बाग-बाग हो गए । बादल से काले मुँह की हँसी में सफेद दाँतों की कतार बिजली की तरह चमक उठी । कनक ने बड़े जोर से सिर गड़ाकर हँसी रोकी ।

थानेदार साहब की तरफ अपने जीवन का पहला ही कटाक्ष कर कनक ने देखा, तीर अचूक बैठा है, पर उसके कलेजे में बिच्छू डंक मार रहे थे ।

कनक ने गिलास में कुछ सोडा डालकर थानेदार साहब को दिया । वह बिना हाँ-ना किए लेकर पी गए ।

कनक ने दूसरा पैग ढाला, उसे भी पी गए । तीसरा ढाला, उसे भी पी लिया ।

तब तक नौकर खाना लेकर आ गया । कनक ने सहूलियत से मेज पर रखवा दिया ।

थानेदार साहब ने कहा, “अब मैं तुम्हें पिलाऊँ ?”

कनक ने भौंहे चढ़ा लीं, “आज शाम को नवाब साहब मुर्शिदाबाद के यहाँ मेरा मुजरा है, माफ कीजिएगा, किसी दूसरे दिन आइएगा, तब पिऊँगी । पर मैं शराब नहीं पीती, ‘पोर्ट वाईन’ पीती हूँ । आप मेरे लिए एक लेते आइएगा ।”

थानेदार साहब ने कहा, “अच्छा, खाना तो साथ खाओ ।”

कनक ने एक टुकड़ा उठाकर खाया । थानेदार भी खाने लगे । कनक ने कहा, “मैं नाश्ता कर चुकी हूँ, माफ फरमाइएगा, बस ।”

उसने वहीं, नीचे रखे हुए, ताम्बे के एक बड़े-से बर्तन में हाथ-मुँह धोकर डिब्बे से निकालकर पान खाया । दारोगाजी खाते रहे । कनक ने डरते हुए चौथा पैग तैयार कर सामने रख दिया । खाते-खाते थानेदार साहब उसे भी पी गए । कनक उनकी आँखों में चढ़ता सरूर देख रही थी ।

धीरे-धीरे थानेदार साहब का प्रेम प्रबल रूप रूप धारण करने लगा । शराब की जैसी वृष्टि हुई थी, उनकी नदी में वैसी ही बाढ़ भी आ गई । कनक ने पाँचवाँ पैग तैयार किया । थानेदार साहब भी प्रेम की इस परीक्षा में फेल हो जानेवाले आदमी न थे । इनकार नहीं किया । खाना खा चुकने के बाद नौकर ने उनको हाथ धुला दिए ।

धीरे-धीरे उनके शब्दों में प्रेम का तूफान उठ चला । कनक डर रही थी कि वह इतना सब सहन कर सकेगी या नहीं । वह उन्हें माता की बैठक में ले गई । सर्वेश्वरी दूसरे कमरे में चली गई थी ।

गद्दे पर पड़ते ही थानेदार साहब लम्बे हो गए । कनक ने हारमोनियम उठाया । बजाते हुए पूछा, “वह जो कल दुष्यन्त बना था, उसे गिरफ्तार क्यों किया आपने, कुछ समझ में नहीं आया।”

“उससे हैमिल्टन साहब नाराज हैं । उस पर बदमाशी का चार्ज लगाया गया है ।”

“ये हैमिल्टन साहब कौन हैं ?”

“अपने सुपरिंटेंडेंट पुलिस हैं ।”

“कहाँ रहते हैं ?” कनक ने एक गत का चरण बजाकर पूछा ।

“रौडन-स्ट्रीट, नं. 5 उन्हीं का बँगला है ।”

“क्या राजकुमार को सजा हो गई है ?”

“नहीं, कल पेशी है । पुलिस की शहादत गुजर जाने पर सजा हो जाएगी।”

“में तो बहुत डरी, जब आपको वहाँ देखा ।” आँखें मूँदे हुए दारोगाजी मूँछों पर ताव देने लगे ।

कनक ने कहा, “पर मैं कहूँगी, आप-जैसा खूबसूरत जवान बना-चुना मुझे दूसरा नहीं नजर आया ।”

दारोगाजी उठकर बैठ गए । इसी सिलसिले में प्रासंगिक-अप्रासंगिक, सुनने-लायक, न सुनने-लायक बहुत-सी बातें कह गए । धीरे-धीरे लड़कर आए हुए भैंसे की आँखों की तरह आँखें खूनी हो चलीं । भले-बुरे की लगाम मन के हाथ से छूट गई । इस अनर्गल शब्द-प्रवाह को बेहोश होने की घड़ी तक रोक रखने के अभिप्राय से कनक गाने लगी ।

गाना सुनते-ही-सुनते मन विस्मृति के मार्ग से अन्धकार में बेहोश हो गया ।

कनक ने गाना बन्द कर दिया । उठकर दारोगाजी के पॉकेट की तलाशी ली । कुछ नोट थे, और उसकी चिट्ठी । नोटों को उसने रहने दिया, चिट्ठी निकाल ली ।

कमरे में तमाम दरवाजे बन्द कर ताली लगा दी ।

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