चैप्टर 7 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 7 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas

चैप्टर 7 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास, Chapter 7 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas, Chapter 7 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

Chapter 7 Apsara Suryakant Tripathi Nirala 

Chapter 7 Apsara Suryakant Tripathi Nirala 

कनक घबरा उठी । क्या करें, कुछ समझ में नहीं आ रहा था । राजकुमार के बारे में जितना ही सोचती, चिन्ताओं की छोटी-बड़ी अनेक तरंगों, आवर्तों से मन मथ जाता, पर उन चिन्ताओं के भीतर से उपाय की कोई मणि नहीं मिल रही थी, जिसकी प्रभा उसके मार्ग को प्रकाशित करती । राजकुमार के प्रति उसके प्रेम का यह प्रखर प्रवाह, बंधी हुई जल-राशि से छूटकर अनुकूल पथ पर वह चलने की तरह, स्वाभाविक और सार्थक था । पहले ही दिन उसने राजकुमार के शौर्य का जैसा दृश्य देखा था, उसके सबसे एकान्त स्थान पर जहाँ तमाम जीवन में मुश्किल से किसी का प्रवेश होता है, पत्थर के अक्षरों की तरह उसका पौरुष चित्रित हो गया था । सबसे बड़ी बात जो रह-रहकर उसे याद आती थी, वह राजकुमार की उसके प्रति श्रद्धा थी ।

कनक ने ऐसा चित्र अब तक नहीं देखा था, इसलिए उस पर राजकुमार का स्थायी प्रभाव पड़ गया । माता की समस्त मौखिक शिक्षा इस प्रत्यक्ष उदाहरण के सामने पराजित हो गई । और, वह जिस तरह की शिक्षा के भीतर से आ रही थी, परिचय के पहले ही प्रभात में किसी मनोहर दृश्य पर उसकी दृष्टि का बँध जाना, अटक जाना उसके उस जीवन की स्वच्छ, अबाध प्रगति का उचित परिणाम ही हुआ । उसकी माता शिक्षित तथा समझदार थी, इसलिए उसने कन्या के सबसे प्रिय जीवनोन्मेष को बाहरी आवरण द्वारा ढक देना उसकी बाढ़ के साथ ही जीवन की प्रगति को भी रोक देना समझा था ।

सोचते-सोचते कनक को याद आया, उसने साहब की जेब से एक चिट्ठी निकाली थी, फिर उसे अपनी फाइल में रख दिया था । वह तुरन्त उठकर फाइल की तलाशी लेने लगी । चिट्ठी मिल गई ।

साहब की जेब से वह राजकुमार की चिट्ठी निकाल लेना चाहती थी, पर हाथ एक दूसरी चिट्टी लगी । उस समय घबराहट में, वहाँ उसने पढ़कर नहीं देखा । घर जाकर खोला, तो काम की बातें न मिलीं । उसने चिट्टी को फाइल में नत्थी कर दिया । उसने देखा था, युवक ने पेंसिल से पत्र लिखा है, पर यह स्याही से लिखा गया था । इसकी बातें भी उस सिलसिले से नहीं मिलती थीं । इस तरह ऊपरी दृष्टि से देखकर ही उसने चिट्ठी रख दी । आज निकालकर फिर पढ़ने लगी । एक बार दो बार, तीन बार पढ़ा । बड़ी प्रसन्न हुई । यह वही हैमिल्टन साहब थे । वह हों, न हों, पर यह पत्र हेमिल्टन साहब ही के नाम लिखा गया था-उसके एक दूसरे अंग्रेज मित्र मिस्टर चर्चित द्वारा । मजमून था, रिश्वत और अन्याय का । कनक की आँखें चमक उठीं ।

इस कार्य में सहायता की बात सोचते ही उसे मिसेज कैथरिन की आई । अब कनक पढ़ती नहीं, इसीलिए मिसेज कैथरिन का आना बन्द है । कभी-कभी आकर मिल जातीं, मकान में पढ़ने की किताबें पसन्द कर जाया करतीं । वह अब भी कनक को वैसे ही प्यार करती हैं । कभी-कभी पाश्चात्य कला-संगीत और नृत्य-की शिक्षा के लिए साथ यूरोप चलने की चर्चा भी करती । सर्वेश्वरी की भी उसे यूरोप भेजने की इच्छा थी, पर पहले वह अच्छी तरह से उसे अपनी शिक्षा दे देना चाहती थी ।

कनक ने ड्राइवर से मोटर लाने के लिए कहा, और कपड़े बदलकर चलने को तैयार हो गई ।

मोटर में बैठकर ड्राइवर से पार्क-स्ट्रीट चलने के लिए कहा ।

कितनी व्यग्रता ! जितने भी दृश्य आँखों पर पड़ते हैं, जैसे बिना प्राणों के हों । दृष्टि कहीं भी नहीं ठहरती । पलकों पर एक ही स्वप्न संसार की अपार कल्पनाओं से मधुर हो रहा है । व्यग्रता ही इस समय यथार्थ जीवन है, और सिद्धि के लिए वेदना के भीतर से काम्य-साधना अन्तर्जगत् के कुल अन्धकार को दूर करने के लिए उसका ही प्रदीप पर्याप्त है । उसके हृदय की लता को सौन्दर्य की सुगन्ध से पूरित रखने के लिए उसका एक ही फूल बस है । तमाम भावनाओं के तार अलग-अलग स्वरों में झंकार करते हैं । उसकी रागिनी से एक ही तार मिला हुआ है । असंख्य ताराओं की आवश्यकता नहीं, उसके झरोखे से एक ही चन्द्र की किरण उसे प्रिय है । तमाम संसार जैसे अनेक कलरवों के बुदबुद गीतों से समुद्वेलित, क्षुब्ध और पैरों को स्खलित कर बहा ले जानेवाला विपत्ति-संकुल है । एक ही बए को हृदय से लगा, तैरती हुई, वह पार जा सकेगी । सृष्टि के सब रहस्य इस महाप्रलय में डूब गए हैं । उसका एक ही रहस्य, तपस्या से प्राप्त अमर वर की तरह, उसके साथ सम्बद्ध है । शक्ति दृष्टि से वह इस प्रलय को देख रही है ।

पार्क-स्ट्रीट आ गया । कैथरिन के मकान के सामने गाड़ी खड़ी करवा कनक उतर पड़ी । नौकर से खबर भिजवाई । कैथरिन बँगले से बाहर निकली, और बड़े स्नेह से कनक को भीतर ले गई ।

कैथरिन से कनक की बातचीत अंग्रेजी में ही होती थी । आने का कारण पूछने पर कनक ने साधारण कुल किस्सा बयान कर दिया । कैथरिन सुनकर पहले तो कुछ चिन्तित-सी हुई फिर कुछ सोचकर मुस्कुराई । कनक की सरल बातों से उसे बड़ा आनन्द हुआ । “तुम्हारा विवाह चर्च में नहीं, थिएटर में हुआ ! तुमने एक नया काम किया।” उसने कनक को इसके लिए बधाई दी ।

“कल पेशी है ।” कनक उत्तर-प्राप्ति की दृष्टि से देख रही थी ।

“मेरे विचार से मिस्टर हेमिल्टन के पास इस समय जाना ठीक नहीं । वह ऐसी हालत में अधिक जोर-दबाव नहीं डाल सकते । और, इस पत्र में उन पर एक दूसरा मुकदमा चल सकता है, पर यह सब मुफ्त ही दिक्कत बढ़ाना है । अगर आसानी से अदालत का काम हो जाए, तो इतनी परेशानी से क्या फायदा ?”

“आसानी से अदालत का काम कैसे हो ?”

“तुम घर जाओ, मैं हैमिल्टन को लेकर आती हूँ । मेरी-उनकी अच्छी जान-पहचान है । खूब सज-धजकर रहना, और अंग्रेजी तरीके से नहीं, हिन्दोस्तानी तरीके से,” कहकर कैथरिन हँसने लगी ।

आचार्या से मुक्ति का अमोघ मन्त्र मिलते ही कनक ने भी परी की तरह अपने सुख की काल्पनिक पंख फैला दिए ।

कैथरिन गैरेज में अपनी गाड़ी लेने चली गई, कनक रास्ते पर टहलती रही । कैथरिन हँसती हुई, “जल्दी जाओ” कहकर रोडन-स्ट्रीट की तरफ चली, और कनक बहूबाजार की तरफ ।

घर आकर कनक माँ से मिली । सर्वेश्वरी दारोगा की गिरफ्तारी से कुछ व्याकुल थी । कनक की बातों से उसकी शंका दूर हो गई । कनक ने माता को अच्छी तरह, थोड़े शब्दों में, समझा दिया । माता से उसने कुल जेवर पहना देने के लिए कहा । सर्वेश्वरी हँसने लगी । नौकर को बुलाया । जेवर का बॉक्स उठवा तिमंजिले पर कनक के कमरे की ओर चली ।

सभी रंगों की रेशमी साड़ियाँ थीं । कनक के स्वर्ण-रंग को दोपहर की आभा में कौन-सा रंग ज्यादा खिला सकता है, सर्वेश्वरी इसकी जाँच कर रही थी । उसकी देह में सटा-सटाकर उसकी और साड़ियों की चमक देखती रही । उसे हरे रंग की साड़ी पसन्द आई । पूछा, “बता सकती हो, उस समय यह रंग क्यों अच्छा होगा ?”

“उहूँ !” कनक प्रश्न और कौतुक की दृष्टि से देखने लगी ।

“तेज धूप में हरे रंग पर नजर ज्यादा बैठती है, उससे आराम मिलता है ।”

उस बेशकीमती कामदार साड़ी को रखकर कनक नहाने चली गई । माता एक-एक कर समस्त बहुमूल्य हीरे, पन्ने, पुखराज के जड़ाऊ जेवर निकाल रही थी । कनक नहाकर धूप में; चारदीवार के सहारे, पीठ के बल खड़ी बाल सुखा रही थी । मन राजकुमार के साथ अभिनय की सुखद कल्पना में लीन था । वह अभिनय को प्रत्यक्ष की तरह देखती रही थी । उन्होंने कहा है, सोचती, ‘मैं तुम्हें कभी नहीं भूलूँगा ।’ अमृत-रस से सर्वांग तर हो रहा था । बाल सूख गए, पर वह खड़ी ही रही ।

तभी माँ ने पुकारा, ऊँची आवाज से । कल्पना की तन्द्रा टूट गई । वह धीरे-धीरे माता के पास चली ।

सर्वेश्वरी कन्या को सजाने लगी । पैर, कमर, कलाई, बाजू, वक्ष, गला और मस्तक अलंकारों से चमक उठे । हरी साड़ी के ऊपर तथा भीतर से रत्नों के प्रकाश की छटा, छुरियों-सी निकलती हुई किरणों के बीच उसका सुन्दर, सुडौल चित्र-सा खिंचा हुआ मुख, एक नजर आपाद-मस्तक देखकर माता ने तृप्ति की साँस ली ।

कनक एक बड़े से आईने के सामने जाकर खड़ी हो गई । देखा, राजकुमार की याद आई, कल्पना में दोनों की आत्माएँ मिल गई; देखा, आईने में वह हँस रही थी ।

नीचे से आकर नौकर ने खबर दी, मेमसाहब के साथ एक साहब आए हुए हैं ।

कनक ने उन्हें ऊपर ले आने के लिए कहा ।

कैथरिन ने हैमिल्टन साहब से कहा कि उन्हें ऐसी एक सुन्दरी भारतीय पढ़ी-लिखी युवती दिखाएँगी, जैसी उन्होंने शायद ही कहीं देखी हो । वह गाती भी लाजवाब है, और अंग्रेजों की तरह उसी लहजे में अंग्रेजी भी बोलती है ।

हैमिल्टन साहब, कुछ दिल से और कुछ पुलिस में रहने के कारण, सौन्दर्योपासक बन गए थे । इतनी खूबसूरत पढ़ी-लिखी भारतीय युवती से, बिना परिश्रम के ही, कैथरिन उन्हें मिला सकती है, ऐसा शुभ अवसर छोड़ देना उन्होंने किसी सुन्दरी के स्वयंवर में बुलाए जाने पर भी लौट आना समझा। कैथरिन ने यह भी कहा था कि आज अवकाश है, दूसरे दिन इतनी सुगमता से भेंट नहीं हो सकती । साहब तत्काल कैथरिन के साथ चल दिए थे । रास्ते मे कैथरिन ने समझा दिया था कि किसी अशिष्ट व्यवहार से वह अंग्रेज-जाति को कलंकित नहीं करेंगे, और यदि उसे अपने प्रेम-जाल में फँसा सके, तो यह जाति के लिए गौरव की बात होगी । साहब दिल-ही-दिल प्रेम-परीक्षा में कैसे उत्तीर्ण होंगे, इसका प्रश्नपत्र हल कर रहे थे, तब तक ऊपर से कनक ने बुला भेजा ।

कैथरिन आगे-आगे, साहब पीछे-पीछे चले । साहब ने चलते समय चमड़े के कलाईबन्द में बँधी हुई घड़ी देखी । बारह बज रहे थे ।

नौकर दोनों को तिमन्जिले पर ले गया । मकान देखकर साहब के दिल में अदेख सुन्दरी के प्रति इज्जत पैदा हुई थी । कमरे की सजावट देखकर साहब आश्चर्य में पड़ गए । सुन्दरी को देखकर तो साहब के होश ही उड़ गए ! दिल में कुछ घबराहट हुई, पर कैथरिन कनक से बातचीत करने लगी, तो कुछ सँभल गए । सामने दो कुर्सियाँ पड़ी थीं । कैथरिन और साहब बैठ गए । यों अन्य दिन उठकर कनक कैथरिन से मिलती, पर आज वह बैठी ही रही । कैथरिन इसका कारण समझ गई । साहब ने इसे हिन्दुस्तानी कुमारियों का ढंग समझा । कनक ने सूरत देखते ही साहब को पहचान लिया, पर साहब उसे नहीं पहचान सके । तब से इस सूरत में साज के कारण बड़ा फर्क था ।

साहब अनिमेष आँखों से उस रूप की सुधा को पीते रहे । मन-ही-मन उन्होंने उसकी बड़ी प्रशंसा की । उसके लिए, यदि वह कहे तो, साहब सर्वस्व देने को तैयार थे । कैथरिन ने साहब को समझा दिया था कि उसके कई अंग्रेज प्रेमी हैं, पर अभी उसका किसी से प्यार नहीं हुआ । यदि वह उसे प्राप्त कर सकें, तो राज्यकन्या के साथ ही राज्य भी उन्हें मिल जाएगा; कारण उसकी माँ की जायदाद पर उसी का अधिकार है ।

कैथरिन ने साहब का परिचय देते हुए कहा, “मिस कनक, इनसे मिलो । यह हैं मिस्टर हैं मिस्‍टर हैमिल्‍टन, पुलिस-सुपरिटेंडेंट, 24 परगना । तुमसे मिलने के लिए आए हैं । इन्हें अपना गाना सुनाओ ।”

कनक ने उठकर हाथ मिलाया । साहब उसकी सभ्यता से बहुत प्रसन्न हुए ।

कनक ने कहा, “हम लोग पृथक-पृथक आसन से वार्तालाप करेंगे, इससे आलाप का सुख नहीं मिल सकता । साहब अगर पतलून उतार डालें, मैं इन्हें धोती दे सकती हूँ, तो संगसुख की प्राप्ति पूरी मात्रा में हो । कुर्सी पर बैठकर पियानो, टेबल हारमोनियम बजाए जा सकते हैं, पर आप लोग तो यहाँ हिन्दुस्तानी गीत ही सुनने के लिए आए हैं, जो सितार और सुरबहार से अच्छी तरह अदा होंगे, और उनका बजाना बराबर जमीन पर बैठकर ही हो सकता है ।”

कनक ने अंग्रेजी में कहा । कैथरिन ने साहब की तरफ देखा ।

नायिका के प्रस्ताव के अनुसार ही उसे खुश करना चाहिए । साहब ने अपने साहबी ढर्रे से समझा, और उन्हें वहाँ दूसरे प्रेमियों से बढ़कर अपने प्रेम की परीक्षा भी देनी थी । उधर कैथरिन की मौन चितवन का मतलब भी उन्होंने यही समझा । साहब तैयार हो गए । कनक ने एक धुली 48 इंच की बढ़िया धोती मँगा दी । कैथरिन ने साहब को धोती पहनना बतला दिया । दूसरे कमरे से साहब धोती पहन आए, और कनक के बराबर गद्दी पर बैठ गए; एक तकिए कर सहारा कर लिया ।

कनक ने सुरबहार मँगवाया । तार स्वर से मिलाकर पहले एक गत बजाई । स्वर की मधुरता के साथ-साथ साहब के मन में उस परी को प्राप्त करने की प्रतिज्ञा भी दृढ़ होती गई ।

कैथरिन ने बड़े स्नेह से पूछा, “यह किससे सीखा ? अपनी माँ से ?”

“जी हाँ ।” कनक ने सिर झुका लिया ।

“अब एक गाना सुनाओ, हिन्दुस्तानी गाना; फिर हम चलेंगे, हमें देर हो रही है ।”

कनक ने एक बार स्वरों पर हाथ फेरा और फिर गाने लगी :

गाना (सारंग)

याद रखना इतनी बात ।

नहीं चाहते, मत चाहो तुम,

मेरे अर्घ्य, सुमन-दल-नाथ !

मेरे वन में भ्रमण करोगे जब तुम,

अपना पथ-श्रम आप हरोगे जब तुम,

ढक लूँगी मैं अपने दृग-मुख,

छिपा रहूँगी गात-

याद रखना इतनी ही बात ।

सरिता के उस नीरव-निर्जन तट पर

आओगे जब मन्द चरण तुम चलकर-

मेरे शून्य घाट के प्रति करुणा कर,

हेरोगे नित प्रात-

याद रखना इतनी ही बात ।

मेरे पथ की हरित लताएँ, तृण-दल

मेरे श्रम सिंचित्, देखोगे अचपल,

पलक-हीन नयनों से तुमको प्रतिपल

हरेंगे अज्ञात-

याद रखना इतनी ही बात ।

मैं नहीं रहूँगी जब, सुना होगा जग,

समझोगे तब यह मंगल-कलरव सब-

था मेरे ही स्वर से सुन्दर जगमग;

चला गया सब साथ-

याद रखना इतनी ही बात ।

साहब एकटक मन की आँखों से देखते, और हृदय के कानों से सुनते रहे । उस स्वर की सरिता अनेक तरंग-भंगों से बहती हुई जिस समुद्र से मिली थी, वहाँ तक सभी यात्राएँ पर्यवसित हो जाती थीं ।

कैथरिन ने पूछा, “कुछ आपकी समझ में आया ?”

साहब ने अनजान की तरह सिर हिलाया । कहा, “इनका स्वरों से खेलना मुझे बहुत पसन्द आया, पर गीत का अर्थ मैं नहीं समझ सका ।”

कैथरिन ने थोड़े शब्दों में अर्थ समझा दिया ।

“हिन्दुस्तानी भाषा में ऐसे भी गीत हैं ?” साहब ताअज्जुब करने लगे ।

कनक को साहब देख रहा था । उसकी मुद्राएँ, भंगिमाएँ गाते समय इस तरह अपने मनोभावों को व्यंजित कर रही थीं, जैसे वह स्वर के स्रोत में बहती हुई प्रकाश के द्वार पर गई हो, और अपने प्रियतम से कुछ कह रही हो, जैसे अपने प्रियतम को अपना सर्वस्व पुरस्कार दे रही हो ।

संगीत के लिए कैथरिन ने कनक को धन्यवाद दिया, और साहब को अपने चलने का संवाद । साथ ही उन्हें समझा दिया कि उसकी इच्छा हो, तो कुछ वह वहाँ ठहर सकते हैं । कनक ने सुरबहार एक बगल रख दिया ।

एकान्त में प्रिय कल्पना से, अभीप्सित की प्राप्ति के लोभ से, साहब ने कहा, “अच्छा, आप चलें, मैं कुछ देर बाद आ जाऊँगा ।”

कैथरिन चली गई । साहब को एकान्त मिला । कनक बातचीत करने लगी ।

साहब कनक पर कुछ अपना भी प्रभाव जतलाना चाहते थे, और दैवात् कनक ने प्रसंग भी वैसा ही छेड़ दिया, “देखिए, हम हिन्दुस्तानी हैं, प्रेम की बातें हिन्दी में कीजिए । आप 24 परगने के पुलिस-सुपरिंटेंडेंट हैं ?”

“हाँ ।” ठोड़ी ऊँची कर साहब ने सगर्व कहा, और जहाँ तक तनते बना, तन गए ।

“आपकी शादी तो हो गई होगी ?”

साहब की शादी हो गई थी, पर मेमसाहब को कुछ दिन बाद आप पसन्द नहीं आए, इसलिए इनके भारत आने से पहले ही वह इन्हें तलाक दे चुकी थीं-एक साधारण से कारण को बहुत बढ़ाकर । पर यह साहब साफ इनकार कर गए, और इसे ही उन्होंने प्रेम बढ़ाने का उपाय समझा ।

“अच्छा, अब तक आप अविवाहित हैं ? आपसे किसी का प्रेम नहीं हुआ ?”

“हमको अभी तक कोई पसंड नईं आया । हब टुमको पसंड करता ।” साहब कुछ नजदीक खिसक आए ।

कनक डरी । उपाय एक ही उसने आजमाया था, और उसी का उपयोग वह साहब के लिए भी कर बैठी । बोली, “शराब पीजिएगा ? हमारे यहाँ शराब पिलाने की चाल है ।”

साहब पीछे कदम धरनेवाले न थे । उन्होंने स्वीकार कर लिया । कनक ने ईश्वर को धन्यवाद दिया ।

नौकर से शराब और सोडा मँगवाया ।

“तो अब तक किसी से प्यार नहीं किया ? सच कहिएगा ।”

“आम शच बोलटा, किशी को बी नई ।”

साहब को पैग तैयार कर एक गिलास में दिया । साहब बड़े अदब से पी गए । दूसरा, तीसरा, चौथा…पाँचवें पर इनकार कर गए । अधिक शराब जल्दी-जल्दी पी जाने से नशा तेज होता है, यह कनक जानती थी, इसीलिए वह फुर्ती कर रही थी । साहब को भी अपनी शराब-पाचन शक्ति का परिचय देना था, साथ ही अपने अकृत्रिम प्रेम की परीक्षा ।

कनक ने सोचा, भूत सिद्धि की तरह हमेशा भूत को एक काम देते रहना चाहिए । नहीं तो, कहा गया है, वह अपने साधक पर ही सवारी कस बैठता है ।

कनक ने तुरन्त फरमाइश की, “कुछ गाओ और नाचो । मैं तुम्हारा विदेशी नाच देखना चाहती हूँ ।”

“टब टुम बी आओ, हियाँ डांसिंग-स्टेज कहाँ ?”

“यहीं नाचो । पर मुझे नाचना नहीं आता, मैं तो सिर्फ गाती हूँ ।”

“अच्छा, टुम बोलटा, टो हम नाच सकटा ।”

साहब अपनी भोंपू-आवाज में गाने और नाचने लगे । कनक देख-देखकर हँस रही थी । कभी-कभी साहब का उत्साह बढ़ाती, “बहुत अच्छा, बहुत सुन्दर ।”

साहब की नजर पियानो पर पड़ी । कहा, “डेक्खो, आबी हम पियानो बजाटा, फिर टुम कहेगा, टो हम नाचेगा ।”

“अच्छा, बजाओ ।”

साहब पियानो बजाने लगे । कनक ने तब तक अंग्रेजी गीतों का अभ्यास नहीं किया था, पर कविता के यति-भंग की तरह सब स्वरों का सम्मिलित विद्रोह उसे असह्य हो गया । उसने कहा, “साहब, हमें तुम्हारा नाचना गाने से ज्यादा पसन्द है ।”

साहब अब तक औचित्य की रेखा पार कर चुके थे । आँखें लाल हो रही थीं । प्रेमिका को नाच पसन्द है, सुनकर बहुत ही खुश हुए, और शीघ्र ही उसे प्रसन्न कर वर प्राप्त कर लेने की लालसा से नाचने लगे ।

नौकर ने बाहर से संकेत किया । कनक उठ गई । नौकर को इशारे से आदेश दे लौट आई ।

धड़-धड़-धड़ कई आदमी जीने पर चढ़ रहे थे । आगन्तुक बिलकुल कमरे के सामने आ गए । हैमिल्टन को नाचते हुए देखा । हैमिल्टन ने भी उन्हें देखा, पर उनकी परवा न कर नाचते ही रहे ।

“ओ ! टुम डूसरे हो रॉबिंसन ।” हैमिल्टन ने पुकारकर कहा ।

“नहीं, मैं चौथा हूँ ।” रॉबिंसन ने बढ़ते हुए जवाब दिया ।

तितलियों-सी मूँछें, लम्बे-तगड़े रॉबिंसन साहब मजिस्ट्रेट थे । कैथरिन के पीछे-पीछे कमरे के भीतर गए । कई और आदमी भी साथ थे । कुर्सियाँ खालीं थीं । बैठ गए । कैथरिन ने कनक से रॉबिंसन साहव से हाथ मिलाने के लिए कहा, “यह मजिस्ट्रेट हैं, तुम अपना कुल किस्सा इनसे बयान कर दो ।”

हैमिल्टन को धोती पहने नाचता हुआ देख रॉबिंसन बारूद हो गए थे । कनक ने हैमिल्टन की जेब से निकाली हुई चिट्ठी साहब को दे दी । पढ़ते ही आग में पेट्रोल पड़ गया ।

कनक कहने लगी, “एक दिन में इडेन-गार्डेन में, तालाब के किनारेवाली बेंच पर अकेली बैठी थी । हैमिल्टन ने मुझे पकड़ लिया, और मुझे जैसे अशिष्ट शब्द कहे, मैं कह नहीं सकती । उसी समय एक युवक वहाँ पहुँच गया, उसने मुझे बचाया । हैमिल्टन उससे बिगड़ गया, और उसे मारने के लिए तैयार हो गया । दोनों में कुछ देर हाथापाई होती रही । उस युवक ने हैमिल्टन को गिरा दिया और कुछ रद्दे जमाए, जिससे हैमिल्टन बेहोश हो गया । तब उस युवक ने अपने रूमाल से हैमिल्टन का मुँह धो दिया, और सिर पर उसी की पट्टी लपेट दी । फिर उसने एक चिट्ठी लिखी, और उसकी जेब में डाल दी । मुझसे जाने के लिए कहा । मैंने उससे पता पूछा, पर उसने नहीं बताया । यह हाईकोर्ट की राह चला गया । अपने बचानेवाले का पता मालूम कर लेना मैंने अपना फर्ज समझा, इसलिए वहीं फिर लौट गई । चिट्ठी निकालने के लिए जेब में हाथ डाला, पर भ्रम से युवक की चिट्ठी की जगह यह चिट्ठी मिली । एकाएक कोहनूर-स्टेज पर में शकुन्तला का अभिनय करने गई । देखा, वही युवक दुष्यन्त बना था । थोड़ी ही देर में दारोगा सुन्दरसिंह उसे गिरफ्तार करने गया, पर दर्शक बिगड़ गए थे, इसलिए अभिनय समाप्त हो जाने पर गिरफ्तार किया । राजकुमार का कुसूर कुछ भी नहीं; अगर है, तो सिर्फ यही कि उसने मुझे बचाया था ।”

अक्षर-अक्षर साहब पर चोट कर रहे थे । कनक ने कहा, “और देखिए, यह हैमिल्टन के चरित्र का दूसरा पत्र ।”

कनक ने दारोगा की जेब से निकाला हुआ पत्र भी साहब को दिखाया । इसमें हैमिल्टन के मित्र सुपरिटेंडेंट मिस्टर मूर ने दारोगा को बिला वजह राजकुमार को गिरफ्तार कर, बदमाशी के सुबूत दिलाकर सजा करा देने के लिए लिखा था । उसमें यह भी लिखा था कि इस काम से तुम्हारे ऊपर हम और हेमिल्टन साहब बहुत खुश होंगे ।

मजिस्ट्रेट रॉबिंसन ने उस पत्र को भी ले लिया । पढ़कर दोनों की तिथियाँ मिलाईं । सोचा । कनक की बातें बिलकुल सच जान पड़ीं । रॉबिंसन कनक से बहुत खुश हुए ।

कनक ने भड़ककर कहा, “यह दारोगा साहब भी तो यहीं तशरीफ रखते हैं । आपको तकलीफ होगी, चलकर उनके भी उत्तम चरित्र का प्रमाण से सकते हैं ।”

रॉबिंसन तैयार हो गए । हैमिल्टन को साथ चलने के लिए कहा । कनक आगे-आगे नीचे उतरने लगी ।

सुन्दरसिंह के कमरे की ताली नौकर को दे दी, और कुछ दरवाजे खोल देने के लिए कहा । सब दरवाजे खोल दिए गए । भीतर सब लोग एकसाथ घुस गए । दारोगा साहब करवट बदल रहे थे । रॉबिंसन ने एक छड़ी लेकर खोद दिया । तब तक नशे में कुछ उतार आ गया था, पर फिर भी वह सँभलने लायक न थे । रॉबिंसन ने डाँटकर पुकारा । साहबी आवाज से यह घबराकर उठ बैठे । कई आदमियों और अंग्रेजों को सामने खड़ा देख चौंककर खड़े हो गए । पर सँभलने की ताब न थी, कटे हुए पेड़ की तरह वहीं ढेर हो गए । होश दुरुस्त थे, पर शक्ति न थी । दारोगा साहब फूट-फूटकर रोने लगे ।

“साहब खड़े हैं, और आप लेटे रहिएगा ?” कनक के नौकर खोद-खोदकर दारोगा साहब को उठाने लगे । एक ने बाँह पकड़कर उन्हें खड़ा कर दिया ।

उन्हें विवश देख रॉबिंसन दूसरे कमरे की तरफ चल दिए । कहा, “इशे पड़ी रहने डो, हम शब समझ गया ।”

यह कनक का अध्ययन कक्ष था । सजी हुई पुस्तकों पर नजर गई । रॉबिंसन उन्हें खोलकर देखने के लिए उत्सुक हो उठे । नौकर ने अलमारियाँ खोल दीं । साहब ने कई पुस्तकें निकालीं, उलट-पुलटकर देखते रहे । इज्जत की निगाह से कनक की ओर देखकर अंग्रेजी में कहा, “अच्छा, मिस कनक, तुम क्या चाहती हो ?”

“सिर्फ इन्साफ ।” कनक ने मँजे स्वर से कहा ।

साहब सोचते रहे । निगाह उठाकर पूछा, “क्या तुम इन लोगों पर मुकदमा चलाना चाहती हो ?”

“नहीं ।”

साहब कनक को देखते रहे । आँखों में तअज्जुब था, और सम्मान । पूछा, “फिर कैसा इन्साफ ?”

“राजकुमार को बिला वजह तकलीफ दी जा रही है । वह छोड़ दिए जाएँ ।” कनक की पलकें झुक गईं ।

साहब कैथरिन को देख हँसने लगे । फिर हिन्दी में बोले, “हम कल ही छोड़ डेगा । टुमशे अम बहुत खुश हुआ ।”

कनक चुपचाप खड़ी रही ।

“तुम्हारी पटलून क्या हुई मिस्टर हेमिल्टन ?” हैमिल्टन को घृणा से देखकर साहब ने पूछा ।

अब तक हैमिल्टन को होश ही न था कि वह धोती पहने हुए हैं । नशा इस समय भी पूरी मात्रा में था । जब एकाएक यह मुकदमा पेश हो गया, तब उनके दिल से प्रेम का मनोहर स्वप्न सूर्य के प्रकाश से कटते हुए अन्धकार की तरह दूर हो गया । एकाएक चोट खाकर, नशे में होते. हुए भी, वह होश में आ गए थे । कोई उपाय न था, इसलिए मन-ही-मन पश्चात्ताप करते हुए यन्त्रवत् रॉबिंसन के पीछे-पीछे चल रहे थे । मुकदमे के चक्कर में बचने के अनेक उपायों का आविष्कार करते हुए वह अपनी हालत को भूल ही गए थे । पतलून की जगह धोती और वह भी एक दूसरे अंग्रेज के सामने ! उन्हें कनक पर बड़ा क्रोध आया । मन में बहुत ही क्षुब्ध हुए । अब तक वीर की तरह सजा के लिए तैयार थे, पर अब लज्जा से आँखें झुक गईं ।

एक नौकर ने पतलून लाकर दिया । बगल के एक दूसरे कमरे में साहब ने उसे पहन लिया ।

कनक को धैर्य देकर रॉबिंसन चलने लगे । चलते समय हेमिल्टन और दारोगा को शीघ्र निकाल देने के लिए एक नौकर से कहा । कनक ने कहा, “ये लोग शायद अकेले घर न जा सकेंगे । आप कहें, तो मैं ड्राइवर से कह दूँ, इन्हें छोड़ आवे ।”

रॉबिंसन ने सिर झुका लिया, मानो अपना अदब जाहिर कर रहे हों । फिर धीरे-धीरे नीचे उतरने लगे । कैथरिन से उन्होंने धीमे शब्दों में कुछ कहा, नीचे उसे अलग बुलाकर । फिर अपनी मोटर में बैठ गए ।

कनक ने अपनी मोटर से हैमिल्टन और दारोगा को उनके स्थान पर पहुँचवा दिया ।

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