चैप्टर 8 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 8 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas

चैप्टर 8 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास,  Chapter 8 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas, Chapter 8 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

Chapter 8 Apsara Suryakant Tripathi Nirala 

Chapter 8 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas

अदालत लगी हुई थी । एक हिस्सा रेलिंग से घिरा था । बीच में बड़े तख्त पर मेज और कुर्सी रखी थी । मजिस्ट्रेट मिस्टर रॉबिंसन बैठे थे । एक ओर कठघरे के अन्दर बन्दी राजकुमार खड़ा हुआ, एक दृष्टि से बेंच पर बैठी हुई कनक को देख रहा था, और देख रहा था उन वकीलों, बैरिस्टरों और कर्मचारियों को, जो उसे देख-देखकर आपस में एक-दूसरे को खोद-खोदकर मुस्कुरा रहे थे, जिनके चेहरे पर झूठ, फरेब, जाल, दगाबाजी, कठहुज्जती, दम्भ, दास्य और तोताचश्मी-सिनेमा के बदलते हुए दृश्यों की तरह-आ-जा रहे थे, और जिनके पर्दे में छिपे हुए वे सुख-वैभव और शान्ति की साँस ले रहे थे । वहाँ के अधिकांश लोगों की दृष्टि निस्तेज, सूरत बेईमान और स्वर कर्कश था । राजकुमार ने देखा, एक तरफ पत्रों के संवाददाता भी बैठे हुए थे, एक तरफ वकील-बैरिस्टर तथा दर्शक ।

वहाँ कनक उसके लिए सबसे बढ़कर रहस्यमयी थी । बहुत कुछ मानसिक प्रयत्न करने पर भी उसके आने का कारण वह न समझ सका । स्टेज पर कनक को देखकर उसके प्रति दिल में अश्रद्धा, अविश्वास तथा घृणा पैदा हो गई थी । जिस युवती को इडेन-गार्डेन में एक गोरे के हाथों से उसने बचाया, जिसके प्रति सभ्य, सम्भ्रान्त महिला के रूप में देखकर वह सभक्ति खिंच गया था, वह स्टेज की नायिका है-यह उसके लिए बरदाश्त से बाहर की बात थी । कनक का समस्त सौन्दर्य उसके दिल में पैदा हुए इस घृणा-भाव को प्रशमित तथा पराजित न कर सका । उस दिन स्टेज पर राजकुमार दो पार्ट कर रहा था- एक मन से, दूसरा जबान से, इसीलिए कनक की अपेक्षा वह कुछ उतरा हुआ समझा गया था । उसके सिर्फ दो-एक स्थल अच्छे हुए थे ।

इजलास में कनक को बैठी देखकर उसने अनुमान लगाया, शायद पुलिस की गवाह या ऐसी ही कुछ होकर आई है । क्रोध और घृणा से हृदय तक भर आया । उसने सोचा, इडेन-गार्डेन में उससे गलती हो गई । मुमकिन है, वह साहब की प्रेमिका रही हो, और व्यर्थ ही उसने साहब को दंड दिया । राजकुमार के हृदय-प्राचीर पर जो अस्पष्ट रेखा कनक की थी, बिलकुल मिट गई । ‘मनुष्य के लिए स्त्री कितनी बड़ी समस्या है ! इसकी सोने-सी देह के भीतर कितना तीव्र जहर !’ राजकुमार सोच रहा था, ‘मैंने भी कितना बड़ा धोखा खाया ! इसका दंड ही से प्रायश्चित्त करना ठीक है ।”

राजकुमार को देखकर कनक की आँखों में आँसू आ गए । राजकुमार तथा दूसरों की आँखें बचा रूमाल से चुपचाप उसने आँसू पोंछ लिए । उस रोज लोगों की निगाह में कनक ही कमरे की रोशनी थी । उसे देखते हुए सभी की आँखें औरों की आँखों को धोखा दे रही थीं । सबकी आँखों की चाल तिरछी हो रही थी ।

एक तरफ दारोगा साहब खड़े थे । चेहरा उतरा हुआ था । राजकुमार ने सोचा, शायद मुझे अकारण गिरफ्तार करने के विचार से यह उदास हैं । राजकुमार बिलकुल निश्चिन्त था ।

दारोगा साहब ने रविवार के दिन रॉबिंसन का जैसा रुख देखा था, उसके अनुसार शहादत के लिए दौड़-धूप करना अनावश्यक समझ अपने बरखास्त होने, सजा पाने और न जाने किस-किस तरह की कल्पनाएँ लड़ा रहे थे । इसी समय मजिस्ट्रेट ने दारोगा साहब को तलब किया । पर यहाँ कोई तैयारी थी ही नहीं । बड़ी करुण भाव से, दृष्टि में कृपा चाहते हुए, दारोगा साहब मजिस्ट्रेट को देखने लगे ।

अभियुक्त को छोड़ देना ही मजिस्ट्रेट का अभिप्राय था, इसलिए उन्होंने उसी रोज, उसके पैरवीकार सॉलिसिटर जयनारायण को उसकी भलमनसाहत के सबूत लेना आरम्भ किया । कनक एकाग्रचित्त हो मुकदमे की कार्रवाई देख रही थी ।

राजकुमार के मन का एकाएक परिवर्तन हो गया । वह अपने पक्ष में प्रमाण पेश होते हुए देख चकित हो गया । कुछ समझ में न आया उसकी । उस समय कनक का उत्साह देखकर वह अनुमान करने लगा कि शायद यह सब व्यवस्था इसी की हुई हैं । कनक के प्रति उसकी भावनाएँ बदल गई-आँखों में श्रद्धा आ गई, पर दूसरे ही क्षण, उपकृत द्वारा मुक्ति पाने की कल्पना कर, वह बेचैन हो उठा । उस-जैसे निर्भीक वीर के लिए, जिसने स्वयं ही यह सब आफत बुला ली थी, कितनी लज्जा की बात है कि वह एक साधारण बजारू स्त्री की कृपा से मुक्त हो । क्षोभ और घृणा से उसका सर्वांग मुरझा गया । जोश में आ वह अपने कठघरे से पुकारकर बोला, “मैंने कुसूर किया है ।”

मजिस्ट्रेट लिख रहे थे । नजर उठाकर एक बार उसे देखा, फिर कनक को । कनक घबरा गई । राजकुमार को देखा, वह निश्चिन्त दृष्टि से मजिस्ट्रेट की ओर देख रहा था । कनक ने वकील को देखा । राजकुमार की तरफ फिरकर वकील ने कहा, “तुमसे कुछ पूछा नहीं जा रहा, अतः तुम्हें कुछ कहने का अधिकार नहीं ।”

फ़ैसला लेकर हँसते हुए वकील ने कहा, “राजकुमार छोड़ दिए गए ।”

वकील को पुरस्कृत कर, राजकुमार का हाथ पकड़ कनक अदालत से बाहर निकल चली । साथ-साथ कैथरिन भी चली । पीछे-पीछे हँसती हुई कुछ जनता ।

रास्ते पर एक किनारे कनक की मोटर खड़ी थी । राजकुमार और कैथरिन के साथ कनक भी पीछे की सीट पर बैठ गई, ड्राइवर गाड़ी ले चला ।

एक अज्ञात मनोहर प्रदेश में राजकन्या की तलाश में विचरण करते हुए पूर्वश्रुत राजपुत्र की याद आई । राजकुमार निर्लिप्त द्रष्टा की तरह वह स्वर्णिम स्वप्न देख रहा था ।

मकान के सामने गाड़ी खड़ी हो गई । कनक ने हाथ पकड़कर राजकुमार से उतरने के लिए कहा ।

कैथरिन बैठी रही । दूसरे रोज आने का कनक ने उससे आग्रह किया । ड्राइवर उसे पार्क-स्ट्रीट ले चला ।

ऊपर सीधे कनक माता के कमरे में गई । बराबर राजकुमार का हाथ पकड़े रही । राजकुमार भावावेश में यन्त्रवत् उसके साथ-साथ चल रहा था ।

“यह मेरी माँ हैं ।” राजकुमार से कहकर कनक ने माता को प्रणाम किया । आवेश में, स्वतः प्रेरित की तरह, अपनी दशा तथा परिस्थिति के ज्ञान से रहित, राजकुमार ने भी हाथ जोड़ दिए ।

प्रणाम कर प्रसन्न कनक राजकुमार से हटकर खड़ी हो गई । माता ने दोनों के मस्तक पर स्नेह-स्पर्श कर आशीर्वाद दिया, और नौकरों को बुलाकर, उन्हें हर्ष से एक-एक महीने की तनख्वाह देखकर पुरस्कृत किया ।

कनक राजकुमार को अपने कमरे में ले गई । मकान देखते ही कनक के प्रति राजकुमार के भीतर सम्भ्रम का भाव पैदा हो गया था । कमरा देखकर उस ऐश्वर्य से वह और भी नत हो गया।

कनक ने उसे गद्दी पर आराम करने के लिए बैठाया । खुद भी एक बगल बैठ गई ।

“दो रोज से आँख नहीं लगी, सोऊँगा ।”

“सोइए ।” कनक ने आग्रह से कहा । फिर उठकर हाथ की बनी, बेल-बूटेदार, एक पंखी ले आई, और बैठकर झलने लगी ।

“नहीं, इसकी जरूरत नहीं, बिजली का पंखा तो है ही, खुलवा दीजिए ।” राजकुमार ने सहज स्वर से कहा ।

जैसे किसी ने कनक का कलेजा मसल दिया हो, ‘खुलवा दीजिए ।’ ओह ! कितना दुराव ! आँखें छलछला आईं । राजकुमार आँखें मूँदे पड़ा था । सँभलकर कनक ने कहा, “पंखे की हवा गर्म होगी ।”

वह उसी तरह पंखा झलती रही । हाथ थोड़ी ही देर में दुखने लगे, कलाइयाँ भर आईं, पर वह झलती रही । उत्तर में राजकुमार ने कुछ भी न कहा । उसे नींद लग रही थी । धीरे-धीरे सो गया ।

Prev | Next | All Chapters 

तीसरी कसम फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास

सूरज का सातवां घोड़ा धर्मवीर भारती का उपन्यास

कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास

ब्राह्मण की बेटी शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास

Leave a Comment