चैप्टर 9 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 9 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas

चैप्टर 9 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास, Chapter 9 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas, Chapter 9 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi  

Chapter 9 Apsara Suryakant Tripathi Nirala 

Chapter 9 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas

राजकुमार के स्नान आदि का कुल प्रबन्ध कनक ने उसके जागने से पहले ही नौकरों से करा रखा था । राजकुमार के सोते समय सर्वेश्वरी कन्या के कमरे में एक बार गई, और उसे पंखा झलते देख, हँसकर लौट आई । कनक माता को देखकर उठी नहीं । लज्जा से आँखें झुका उसी तरह बैठी पंखा झलती रही ।

दो घंटे बाद राजकुमार की आँखें खुलीं । देखा, कनक पंखा झल रही है । बड़ा संकोच हुआ । उससे सेवा लेने के कारण लज्जा भी हुई । उसने कनक की कलाई पकड़ ली । कहा, “बस, आपको बड़ा कष्ट हुआ ।”

एक तीर पुनः कनक के हृदय-लक्ष्य को पार कर गया । चोट खा, काँपकर सँभल गई । कहा, “आप नहाइएगा नहीं ?”

“हाँ, स्नान तो जरूर करूँगा, पर धोती ?”

कनक हँस पड़ीं, “मेरी धोती पहन लीजिएगा ।”

“मुझे इसमें कोई लज्जा नहीं ।”

“तो ठीक है । थोड़ी देर में आपकी धोती सूख जाएगी ।”

कनक के यहाँ मर्दानी धोतियाँ भी थीं, पर स्वाभाविक हास्यप्रियता के कारण नहाने के पश्चात् राजकुमार को उसने अपनी ही एक धुली हुई साड़ी दी । राजकुमार ने भी अम्लान, अविचल भाव से वह साड़ी मर्दों की तरह पहन ली । नौकर मुस्कुराता हुआ उसे कनक के कमरे में ले गया ।

“हमारे यहाँ भोजन करने में आपको कोई एतराज तो न होगा ?”

“कुछ भी नहीं । मैं तो प्रायः होटलों में खाया करता हूँ ।” राजकुमार ने असंकुचित स्वर से कहा ।

“क्या आप मांस खाते हैं ?”

“हाँ, मैं सक्रिय जीवन के समय मांस को एक उत्तम खाद्य मानता हूँ, इसीलिए खाता हूँ ।”

“इस वक्त तो आपके लिए बाजार से भोजन मँगवाती हूँ, शाम को पकाऊँगी ।” कनक ने विश्वस्त स्वर से कहा ।

राजकुमार ने देखा, जैसे अज्ञात, अब तक अपरिचित शक्ति से उसका अंग-अंग कनक की ओर खिंचा जा रहा था, जैसे चुम्बक की तरफ लोहे की सुइयाँ । केवल हृदय के केन्द्र में द्रष्टा की तरह बैठा हुआ वह उस नवीन प्रगति से परिचित हो रहा था ।

वहीं बैठी हुई थाली में एक-एक खाद्य पदार्थ चुन-चुनकर कनक ने रखा । एक तश्तरी पर ढक्कनदार ग्लास में बन्द वासित जल रख दिया । राजकुमार भोजन करने लगा । कनक वहीं एक बगल बैठकर पान लगाने लगी । भोजन हो जाने पर नौकर ने हाथ घुला दिए ।

पान की रकाबी कनक ने बढ़ा दी । पान खाते हुए राजकुमार ने कहा, “आपका शकुन्तला का पार्ट उस रोज बहुत अच्छा हुआ था । हाँ, धोती तो अब सूख गई होगी ।”

“इसे ही पहने रहिए ! समझ लीजिए, अब आप ही शकुन्तला हैं । निस्सन्देह आपका पार्ट बहुत अच्छा हुआ था । आप कहें, तो मैं दुष्यन्त का पार्ट करने के लिए तैयार हूँ ।”

मुखर कनक को राजकुमार कोई उत्तर न दे सका ।

कनक उठकर दूसरे कमरे में गई और धुली हुई मर्दानी धोती ले आई ।

“इसे पहन लीजिए, यह मैली हो गई है ।” सहज आँखों से मुस्कुराकर कहा कनक ने ।

राजकुमार ने धोती पहन ली । कनक फिर चली गई । अपनी एक रेशमी चादर ले आई ।

“इसे ओढ़ लीजिए ।”

राजकुमार ने आढ़ लिया ।

एक नौकर ने आकर कहा, ‘माँजी याद कर रही हैं ।”

“अभी आई ।” कहकर कनक माता के पास चली गई ।

हृदय के एकान्त प्रवेश में जीवन का एक नया ही रहस्य खुल रहा है । वर्षा की प्रकृति की तरह जीवन की धात्री देवी नए साज से सज रही है । एक श्रेष्ठ पुरस्कार प्राप्त करने के लिए कभी-कभी, बिना उसके जाने हुए ही, लालसा के हाथ फैल जाते हैं । आज तक जिस एक ही स्रोत से बहता हुआ वह चला आ रहा था, अब एक दूसरा रुख बदलना चाहता है । एक अप्सरा कुमारी, सम्पूर्ण ऐश्वर्य के रहते हुए भी, आँखों में प्रार्थना की रेखा लिए, रूप की ज्योति से जगमग, मानो उसी के लिए तपस्या करती आ रही है । राजकुमार चित्त को स्थिर कर विचार कर रहा था, यह सब क्या है ?… क्या इस ज्योति से मिल जाऊँ ?…न, जल जाऊँ, तो ? इसे निराश कर दूँ ?…बुझा दूँ ?…न, मैं इतना कर्कश, तीव्र, निर्दय न हूँ, न हूँगा; फिर ?… आह ! यह चित्र कितना सुन्दर, कितना स्नेहमय है ?… इसे प्यार करूँ ?…न, मुझे अधिकार क्या ? मैं तो प्रतिश्रुत हूँ कि इस जीवन में भोगविलास को स्पर्श भी न करूँ, प्रतिज्ञा !…की हुई प्रतिज्ञा से टल जाना महापाप है ! और यह… स्नेह का निरादर ?

कनक के भावों से राजकुमार को अब तक मालूम हो चुका था कि वह पुष्‍प सी की पूजा में चढ़ गया है । उसके द्वारा रक्षित होकर उसने अपनी पुष्प चिर रक्षा का भार उसे सौंप दिया है । उसके आकार, इंगित और गति इसकी साक्षी हैं ! राजकुमार धीर और शिक्षित युवक था । उसे कनक के मनोभावों को समझने में देर नहीं लगी । जिस तरह उसके उपकार का कनक ने प्रतिदान दिया, उसको याद कर कनक के गुणों के साथ उस कोमल स्वभाव की ओर वह आकर्षित हो चुका था । केवल लगाम अभी तक उसके हाथ में थी । उसी रसप्रियता के अन्तर्लक्ष्य को ताड़कर मन-ही-मन वह सुखानुभव कर रहा था, पर दूसरे ही क्षण इस अनुभव को वह अपनी कमजोरी भी समझता था । कारण, इसके पहले ही वह अपने जीवन की गति निश्चित कर चुका था- साहित्य तथा देश की सेवा के लिए वह आत्मार्पण कर चुका था । इधर कनक का इतना अधिक एहसान उस पर चढ़ गया था जिसके प्रति उसकी मनुष्यता स्वतः नतमस्तक हो रही थी । उसकी आज्ञा के प्रतिकूल आचरण की जैसे उसमें शक्ति ही न रह गई हो । वह अनुकूल-प्रतिकूल अनेक प्रकार की ऐसी ही कल्पनाएँ कर रहा था ।

सर्वेश्वरी ने कनक को सस्नेह पास बैठाकर कहा, “ईश्वर ने तुम्हें अच्छा वरदान दिया है । वह तुम्हें सुखी और प्रसन्न करे ! आज एक नई बात सुनाऊँगी । 0आज तक तुम्हें अपनी माता के सिवा पिता का नाम नहीं मालूम था । अब तुम्हारे पिता का नाम तुम्हें बता देना मेरा धर्म है । कारण, तुम्हारे कार्यों से मैं देखती हूँ, तुम्हारे स्वभाव में पिता-पक्ष ही प्रबल है । बेटी, तुम रणजीतसिंह की कन्या हो । तुम्हारे पिता जयनगर के महाराज थे । उन दिनों मैं वहीं थी । उनका शरीर नहीं रहा । होते, तो वह तुम्हें अपनी ही देख-रेख में रखते । आज देखती हूँ, तुम्हारे कुल के संस्कार ही तुम में प्रबल हैं । इससे मुझे प्रसन्नता है । अब तुम अपनी अनमोल, अलभ वस्तु सँभालकर रखो, उसे अपने अधिकार में करो । आगे तुम्हारा धर्म तुम्हारे साथ है ।”

माता की सहृदय बातों से कनक को बड़ा सुख हुआ । स्नेह-जल से सिक्त होकर वह बोली, “अम्मा, यह सब तो वह कुछ जानते ही नहीं । मैं कह भी नहीं सकती । किसी तरह इशारा करती हूँ, तो कोई जैसे मुझे पकड़कर दबा देता है । कुछ बोलना चाहती हूँ तो कंठ से आवाज ही नहीं निकलती ।”

“तुम उन्हें कुछ दिन बहला रखो । समय आने पर सब बातें आप खुल जाएँगी । मैं अपनी तरफ से कोई कार्रवाई करूँगी, तो इसका उन पर बुरा असर पड़ेगा ।”

नौकर से जेवर का बॉक्स बढ़ा देने के लिए सर्वेश्वरी ने कहा ।

आज कनक के लिए सबसे बड़ी परीक्षा का दिन है । आज की विजय उसकी सदा की विजय है । इस विचार से सर्वेश्वरी बड़े विचार से सोने और हीरे के अनेक प्रकार के आभरणों से उसे सजाने लगी । बालों में सुगन्धित तेल लगा, किनारे से तिरछाई माँग काढ़, चोटी गूँथकर चक्राकार जूड़ा बाँध दिया । हीरे की कनीजड़े सोने के फूलदार काँटे जूड़े में पिरो दिए । कनक ने अच्छी तरह सिन्दूर माँग में भर लिया । उसकी ललाई उस सिर का किसी के द्वारा कलम किया जाना सूचित कर रही थी । सर्वेश्वरी ने बसन्ती रंग की साड़ी पसन्द की । सिर से पैर तक कनक को सजा दिया उसने ।

“अम्मा, मुझे तो यह सब भार लग रहा है । मैं चल न सकूँगी ।”

सर्वेश्वरी ने कोई उत्तर नहीं दिया । कनक राजकुमार के कमरे की ओर चली । जीने पर उतरते समय आभरणों की झंकार से राजकुमार का ध्यान आकर्षित हुआ ? अलंकारों की मंजीर-ध्वनि धीरे-धीरे निकट होती गई । अनुमान से उसने कनक के आने का निश्चय कर लिया । दरवाजे के पास आते ही कनक के पाँव ठिठक गए । सर्वांग संकोच से शिथिल पड़ गया । कृत्रिमता पर बड़ी लज्जित हुई । मन को किसी प्रकार दृढ़ कर, होंठ काटती, मुस्कुराती, वायु को केशों की सुरभि से सुगन्धित करती हुई, धीरे-धीरे चलकर गद्दी के एक प्रान्त में, राजकुमार के बिलकुल निकट बैठ गई ।

राजकुमार ने केवल एक नजर कनक को देख लिया । हृदय ने प्रशंसा की । मन ने एकटक यह छवि खींच ली । तत्काल प्रतिज्ञा के अदम्य झटके से हृदय की प्रतिमा शून्य में परमाणुओं की तरह विलीन हो गई ? राजकुमारद चुपचाप बैठा रहा । हृदय पर जैसे पत्थर रख दिया गया हो ।

कनक के मन में राजकुमार के बहलाने की बात उठी । उठकर वह पास ही रखा सुरबहार उठा लाई । स्वर मिलाकर राजकुमार से कहा, “कुछ गाइए ।”

“मैं गाता नहीं, आप गाइए । बड़ा सुन्दर गाती हैं आप ।” ‘आप’ फिर कनक के प्राणों में चुभ गया । तिलमिला गई । इस चोट से हृदय के तार और दर्द से भर गए । वह गाने लगी-

हमें जाना इस जग के पार ।

जहाँ नयनों से नयन मिले,

ज्योति के रूप सहस्रा खिले,

सदा ही बहती रे रस-धार-

वहीं जाना इस जग के पार ।

कामना के कुसुमों को कीट

काट करता छिद्रों की छीट

यहाँ रे सदा प्रेम की ईंट

परस्पर खुली सौ-सौ बार ।

डोल सहसा संशय में प्राण

रोक लेते हैं अपना गान,

यहाँ रे सदा प्रेम में मान,

ज्ञान में बैठा मोह असार ।

दूसरे को कस, अन्तर तोल

नहीं होता प्राणों का मोल;

वहाँ के बल केवल वे लोल,

नयन दिखलाते निश्चल प्यार ।

अपने मुक्त पंखों से स्वर के आकाश में उड़ती हुई भावना की परी अपलक नेत्रों से राजकुमार देख रहा था । स्वर के स्रोत में उसने भी हाथ-पैर ढीले कर दिए । अलक्ष्य अज्ञान में बहते हुए उसे अपार आनन्द मिल रहा था । आँखों में प्रेम का बसन्त फूट आया, संगीत में प्रेमिका कोकिला कूक रही थी । एक साथ प्रेम की लीला में मिलन और विरह प्रणय के स्नेह-स्पर्श से स्वप्न की तरह जाग उठे । सोती हुई स्मृति की विद्युत शिखाएँ हृदय से लिपटकर लपटों में जलने-जलाने लगीं । तृष्णा की सूखी हुई भूमि पर वर्षा की धारा बह चली । दूर की किसी भूल हुई बात को याद करने के लिए, मधुर अस्फुट ध्वनि से श्रवण-सुख प्राप्त करने के लिए, दोनों कान एकाग्र हो चले । मन्त्र-मुग्ध मन में माया का अभिराम सुख-प्रवाह भर रहा था ।

वह अकम्पित-अचंल पलकों से प्रेम की पूर्णिमा में ज्योत्स्नामृत पान कर रहा था । देह की कैसी नवीन कान्ति ! कैसे भरे हुए सहज-सुन्दर अंग ! कैसी कटी-छटी शोभा ! इसके साथ मँजा हुआ अपनी प्रगति का कैसा अबोध स्वर ! जिसके स्पर्श से जीवन अमर, मधुर कल्पनाओं का केन्द्र बन रहा है । रागिनी की तरंगों से काँपते हुए उच्छ्वास, तान-मूर्च्छनाएँ उसी के हृदय-सागर की ओर अनर्गत विविध भगिमाओं से बढ़ती चली आ रही है । कैसा कुशल छल । उसका सर्वस्व उससे छीन लिया, और इस दान में प्राप्ति भी कितनी अधिक, जैसे इसके तमाम अंग उसके हुए जा रहे हैं, और उसके इसके ।

राजकुमार एकाग्रचित से रूप और स्वर पान कर रहा था । एक-एक शब्द से कनक उसके मर्म तक स्पर्श कर रही थी । संगीत के नशे में, रूप के लावण्य में अलंकारों की प्रभा से चमकती हुई कनक मरीचिका के उस पथिक को पथ से भुलाकर बहुत दूर-बहुत दूर ले गई । वह सोचने लगा, ‘यह सुख क्या व्यर्थ है ? यह प्रत्यक्ष ऐश्वर्य आकाश-पुष्प की तरह केवल काल्पनिक कहा जाएगा ? यदि इस जीवन की कान्ति हृदय के मधु और सुरभि के साथ वृक्ष ही पर सूख गई, तो क्या फल ?’

“कनक, तुम मुझे प्यार करती हो ?” सहसा वह कह उठा ।

कनक को इष्ट मन्त्र के लक्ष जप के पश्चात् सिद्धि मिली । उसके हृदय-सागर को पूर्णिमा का चन्द्र दीख पड़ा । उसके यौवन का प्रथम स्वप्न, सत्य के रूप में मूर्तिमान् हो, आँखों के सामने आ गया । चाहा कि जवाब दे, पर लज्जा से समस्त अंग जकड़ से गए । हृदय में एक अननुभूत विद्युत प्रवेश कर गुदगुदा रही थी । ऐसी दशा आज तक कभी न हुई थी । ‘मुक्तः आकाश में उड़ती हुई रंगीन परों की विहग-परी राजकुमार के मन की डाल पर बैठी थी, पर किसी जंजीर से नहीं बँधी, किसी पिंजड़े में नहीं आई, पर इस समय उसी की प्रकृति उसके प्रतिकूल हो रही है । वह चाहती है, कहूँ, पर प्रकृति उसे कहने नहीं देती । क्या वह प्यार वह प्रदीप है, जो एक ही एकान्त गृह का अन्धकार दूर कर सकता है ? क्या वे सूर्य और चन्द्र नहीं, जो प्रतिगृह को प्रकाशित करें ?

इस एकाएक आए हुए लाज-पाश को काटने की कनक ने बड़ी कोशिश की, पर निष्फल हुई । उसके प्रयत्न की शक्ति से आकस्मिक लज्जा के आक्रमण में ज्यादा शक्ति थी । कनक हाथ में सुरबहार लिए, रत्नों की प्रभा में चमकती हुई, सिर झुकाए, चुपचाप बैठी रही । इस समय राजकुमार की तरफ निगाह भी नहीं उठ रही थी । मानो एक ‘तुम’ द्वारा जिसने उसे इतना दे दिया, जिसके भार से आप-ही-आप उसके अंग दादा की दृष्टि में नत हो गए, उस स्नेह-सुख का भाव हटाकर आँखें उठाना उसे स्वीकार नहीं ।

बड़ी मुश्किल से एक बार सजल, अनिमेष दृगों से, सिर झुकाए हुए ही उसने राजकुमार की ओर देखा । वह दृष्टि कह रही थी, ‘क्या अब भी तुम्हें अविश्वास है ?- क्या अभी और प्रमाण देने की आवश्यकता होगी ?’

उन आँखों की वाणी पढ़कर राजकुमार एक दूसरी परिस्थिति में पहुँच गया-जहाँ प्रचण्ड क्रान्ति विवेक को पराजित कर लेती है, किसी स्नेह अथवा स्वार्थ के विचार से दूसरी श्रृंखला तोड़ दी जाती है, अनावश्यक परिणाम को एक भूल समझकर ।

सन्ध्या हो रही थी । सूर्य की किरणों का तमाम सोना कनक के सोने के रंग में, पीत सोने-सी साड़ी और सोने के रत्नाभूषणों में, मिलकर अपनी सुन्दरता एवं अपना प्रकाश देखना चाहता था, और कनक चाहती थी, सन्ध्या के स्वर्ण-लोक में अपने सफल जीवन की प्रथम स्मृति को हृदय में सोने के अक्षरों से लिख ले ।

इंगित से एक नौकर को बुला कनक ने पढ़ने के कमरे से कागज, कलम और दवात ले आने के लिए कहा । सुरबहार वहीं, गद्दी पर एक बगल रख दिया । नौकर कुल सामान ले आया ।

कनक ने कुछ लिखा, और गाड़ी तैयार करने की आज्ञा दी । कागज नौकर को देते हुए कहा, “यह सामान नीचे की दुकान से जल्द ले आओ ।”

राजकुमार को कनक की शिक्षा के बारे में अधिक ज्ञान न था । वह उसे साधारण पढ़ी-लिखी स्त्री में शुमार कर रहा था ।

कनक जब लिख रही थी, तब लिपि देखकर उसे मालूम हो गया कि कनक अंग्रेजी जानती है । लिखावट सुन्दर, सधी हुई दूर से मालूम दे रही थी ।

“अब हवाखोरी का समय है ।” कनक एक भार-सा अनुभव कर रही थी, जो बोलते समय उसके शब्दों पर भी अपना गुरुत्व रख रहा था । राजकुमार के संकोच की अर्गला, कनक के आदर, शिष्टता और स्वभाव के अकृत्रिम प्रदर्शन से आप-ही-आप खुल गई । यों भी वह एक बहुत ही स्पष्ट, स्वतन्त्र प्रकृति का युवक था । अनावश्यक सभ्यता का प्रदर्शन उसमें नाम-मात्र को न था । जब तक वह कनक को समझ न सका, उसने शिष्टाचार बरता । फिर घनिष्ठ परिचय के पश्चात्, अभिनय से सत्य की कल्पना लेकर, दोनों ने एक-दूसरे के प्रति कार्यतः जैसा प्रेम सूचित किया था, राजकुमार उससे कनक के प्रसंग को बिलकुल खुले हुए प्रवाह की तरह, हवा की तरह स्पर्श कर, बहने लगा । वह देखता था, उससे कनक प्रसन्न होती है, यद्यपि उसकी प्रसन्नता बाढ़ के जल की तरह उसके हृदय के कूलों को छापकर नहीं छलकने पाती । केवल अपने सुख की पूर्णता, अपनी अन्तस्तरंगों की टलमल, प्रसन्नता अपनी सुखद स्थिति का ज्ञान-मात्र करा देती है।

“तुम अंग्रेजी जानती हो, मुझे नहीं मालूम था ।”

कनक मुस्कुराई, “हाँ, मुझे कैथरिन घर पर पढ़ा जाया करती थी । थोड़े ही दिन हुए, मैंने पढ़ना बन्द किया है । हम लोगों के साथ, अदालत से आते समय कैथरिन ही थी ।”

राजकुमार के मानसिक सम्मान में कनक का दर्जा बढ़ गया । उसने उस ग्रन्थ को पूर्णतया नहीं पढ़ा, इस अज्ञान- मिश्रित दृष्टि से कनक को देख रहा था । उसी समय नौकर एक कागज में बँधा हुआ कुछ सामान लाकर कनक के सामने रख गया ।

कनक ने उसे खोलकर देखा । फिर राजकुमार से कहा, “लीजिए, पहन लीजिए । शाम हो रही है, टहल आवें प्रिन्स-ऑफ-वेल्स घाट की तरफ ।”

राजकुमार को बड़ा संकोच मालूम हुआ । पर कनक के आग्रह को टाल न सका वह । चुपचाप नए वस्त्र और जूते पहन लिए ।

कनक ने कपड़े नहीं बदले । उन्हीं वस्त्रों में वह उठकर खड़ी हो गई । राजकुमार के सामने ही एक बड़ा शीशा दीवार पर लगा था । कनक इस तरह खड़ी हुई कि उसकी साड़ी और कुछ दाहिने-अंग राजकुमार के आधे अंगों से छू गए । वह उसी तरह खड़ी हुई हृदय की आँखों से राजकुमार की दर्पण की आँखें देख रही थी । वहाँ उसे जैसे लज्जा न थी । राजकुमार ने भी छाया की कनक को देखा । दर्पण में चार असंकुचित नेत्र, जिनमें एक ही मर्म, एक ही स्नेह का प्रकाश था, मुस्कुरा उठे ।

अलंकारों के भार से कनक की सरल गति कुछ मन्द पड़ गई थी । राजकुमार को बुलाकर वह नीचे उतरने लगी । कुछ देर तक खड़ा वह उसे देखता रहा । कनक नीचे उतर गई । राजकुमार भी चला ।

कार तैयार खड़ी थी । अर्दली ने पीछे की सीट का द्वार खोल दिया । कनक ने राजकुमार को बैठने के लिए कहा । राजकुमार बैठ गया । लोगों की भीड़ लग रही थी । अवाक् नेत्रों से आला-अदना सभी कनक को देख रहे थे । राजकुमार के बैठ जाने पर कनक भी वहीं एक बगल बैठ गई । आगे की सीट पर, ड्राइवर की बाईं तरफ, अर्दली भी बैठ गया । गाड़ी चल दी । राजकुमार ने पीछे किसी को कहते हुए सुना, “वाह रे तेरे भाग !”

गाड़ी बेलिंगटन-स्ट्रीट से होकर धरमतल्ले की तरफ दौड़ने लगी ।

सूर्य की अन्तिम किरणें दोनों के मुख पर सीधी पड़ रही थीं, जिससे कनक पर लोगों की निगाह नहीं ठहरती थी । सामने खड़े लोग उसे एकटक देखते रहते । इस प्रकार आभूषणों से सजी हुई महिला को अवगुण्ठित, निस्त्रस्त चितवन, स्वतन्त्र रूप से, खुली मोटर पर विहार करते प्रायः किसी ने नहीं देखा था । इस अकाट्य युक्ति को कटी हुई प्रमाण के रूप में प्रत्यक्ष कर लोगों को बड़ा आश्चर्य हो रहा था । कनक के वेश में उसके मातृपक्ष की तरफ जरा भी इशारा न था । कारण, उसके मस्तक का सिन्दूर ऐसे समस्त सन्देह की जड़ काट रहा था । कलकत्ता की अपार जनता की मानस-प्रतिमा बनी हुई, अपने नवीन नयनों की स्निग्ध किरणों से दर्शकों को प्रसन्न करती, कनक किले की तरफ जा रही थी ।

कितने ही, छिपकर आँखों से रूप पीनेवाले, मुँहचोर, हवाखोर, उसकी मोटर के पीछे अपनी गाड़ी लगाए हुए, अनर्गल शब्दों में उसकी समालोचना करते हुए, उच्च स्वर से कभी-कभी सुनाते हुए भी चले जा रहे थे । गाड़ी इडेन-गार्डेन के पास से गुजर रही थी ।

“अभी वह स्थान-देखिए-नहीं देख पड़ता ।” कनक ने राजकुमार का हाथ पकड़कर कहा ।

“हाँ, पेड़ों की आड़ है । यह क्रिकेट ग्राउंड है । वह क्लब है, जो पत्तियों में हरा-हरा दिखाई दे रहा है । एक बार फर्स्ट बटालियन से यहीं हम लोगों का फाइनल कूचबिहार-शील्ड-मैच हुआ था ।” भूली बात के आकस्मिक स्मरण से राजकुमार का स्वर कुछ मन्द पड़ रहा था ।

“आप किस टीम में थे ?”

“विद्या सागर-कॉलेज की टीम में । तब मैं चौथे वर्ष में था ।”

“स्कोर क्या रहा ?”

“356-130 से हम लोग जीते थे ।”

“बड़ा डिफरेन्स रहा ।”

“हाँ ।”

“किसी ने सेंचुरी भी की थी ।”

“हाँ, इसी से तो इतना अन्तर आ गया था । हमारे प्रो. बनर्जी बॉलिंग बहुत अच्छी करते थे ।”

“सेंचुरी किसने की थी ?”

राजकुमार कुछ देर चुप रहा । फिर धीमे सहज कंठ से कहा, “मैंने ।”

गाड़ी अब प्रिन्स-ऑफ-वेल्स-घाट के सामने थी ।

कनक ने ड्राइवर को आदेश दिया, “इडेन-गार्डेन लौट चलो ।”

ड्राइवर ने मोटर घुमा दी ।

राजकुमार किले के बेतार-के-तारवाले ऊँचे खम्भे को देख रहा था । कनक की ओर देखकर कहा, “इसकी कल्पना पहले हमारे जगदीशचन्द्र बसु के मस्तिष्क में आई थी !”

मोटर बढ़ाकर ड्राइवर ने गेट के पास रोक दी । राजकुमार उतरकर कलकत्ता-ग्राउन्ड का हो-हल्ला सुनने लगा ।

कनक ने कहा, “क्या आज कोई विशेष मैच था ?”

“मालूम नहीं । लगता है, मोहनबागान तथा कलकत्ता लीग में मैच हो रहा है, और शायद मोहनबागान ने गोल किया है । जीतने पर अँग्रेज इतना हल्ला नहीं करते ।”

दोनों धीरे-धीरे सामने बढ़ने लगे । मैदान बीच से पार करने लगे । किनारे की कुर्सियों पर बहुत-से लोग बैठे थे । कोई-कोई टहल रहे थे । पश्चिम की ओर यूरोपियन उनकी महिलाएँ और बालक थे, पूर्व की कतार में बंगाली, हिन्दोस्तानी, गुजराती, मराठी, मद्रासी, पंजाबी, मारवाड़ी, सिन्धी आदि मुक्त कंठ से अपनी-अपनी मातृभाषा का महत्त्व प्रकट कर रहे थे । सहसा इन सबकी दृष्टि के आकर्षण का मुख्य केन्द्र उस समय कनक हो गई । श्रुत-अश्रुत, स्फुट-अस्फुट अनेक प्रकार की, समीचीन-अर्वाचीन, आलोचना-प्रत्यालोचनाएँ सुनती हुई, निस्संकोच, अम्लान, निर्भय, वीतराग, धीरे-धीरे, राजकुमार का हाथ पकड़े हुए, कनक फव्वारे की तरफ बढ़ रही थी । युवक राजकुमार की आँखों में वीर्य, प्रतिभा, उच्छृंखलता और तेज झलक रहा था ।

“उधर चलिए ।” कनक ने एक कुंज की ओर इशारा किया । दोनों उधर ही बढ़ चले ।

दूसरा छोटा मैदान पार कर दोनों उसी पूर्व-परिचित कुंज की ओर बढ़े । बेन्च खाली पड़ी थी । दोनों बैठ गए । सूर्यास्त हो चुका था । बत्तियाँ जल चुकी थीं । कनक मजबूती से राजकुमार का हाथ पकड़े हुए पुल के नीचे से डाँड बन्द कर आते हुए नाव पर कुछ नवयुवकों को देख रही थी । वे नाव घाट की तरफ ले गए । राजकुमार एक दूसरी बेन्च पर बैठे हुए नवीन यूरोपीय जोड़े को देख रहा था । वह बेंच पुल के उस तरफ, खुली जमीन पर, खाई के किनारे थी ।

“आपने यहीं मेरी रक्षा की थी ।” कुछ भरे हुए सहज स्वर में कनक ने कहा ।

“दैव-योग से मैंने देख लिया था, अन्यथा…”

“अब आपको सदा मेरी रक्षा करनी होगी ।” कनक ने राजकुमार के हाथ को मुट्ठी में जोर से दबाया ।

राजकुमार कुछ न बोला, सिर्फ कनक के स्वर से कुछ सजग होकर उसकी तरफ निहारा । उसके मुख पर बिजली का प्रकाश पड़ रहा था । आँखें एक दूसरी ही ज्योति से चमक रही थीं, जैसे वह एक प्रतिज्ञा की मूर्ति देख रहा हो ।

“तुमने भी मुझे बचाया है ।”

“मैंने तो अपने स्वार्थ के लिए आपको बचाया ।”

“तुम्हारा कौन-सा स्वार्थ ?”

कनक ने सिर झुका लिया । कहा, “मैंने अपना धर्म पालन किया ।”

“हाँ, तुमने उस दिन के उपकार का पूरे अंशों में बदला चुका दिया ।”

कनक काँप उठी । ‘कितने कठोर होते हैं पुरुष ! इन्हें सँभलकर वार्तालाप करना नहीं आता । क्या यही यथार्थ उत्तर है ?’ कनक सोचती रही । फिर तमककर कहा, “हाँ, मैंने ठीक बदला चुकाया, मैं भी स्त्री हूँ ।” उसने राजकुमार का हाथ छोड़ दिया ।

राजकुमार को कनक के कर्कश स्वर से सख्त चोट लगी । चोट खाने की आदत न थी । आँखें चमक उठीं । हृदय-दर्शी की तरह मन ने कहा, ‘इसने ठीक उत्तर दिया, बदले की बात तुम्हीं ने तो उठाई थी ।’ राजकुमार के अंग शिथिल पड़ गए ।

कनक को अपने उत्तेजित उत्तर के लिए कष्ट हुआ । उसने पुनः राजकुमार का हाथ पकड़ स्नेह-सिक्त, कोमल स्वर में कहा, “बदला क्या ! क्या मेरी रक्षा किसी आकांक्षा के विचार से तुमने की थी ?”

‘तुमने !’ राजकुमार का सम्पूर्ण तेज पिघलकर ‘तुमने’ में वह गया । हाथ आप ही आप उठकर कनक के कन्धे पर ठहर गया । विवश कंठ ने आप-ही-आप कहा, “क्षमा करो, गलती मेरी थी ।”

सामने से बिजली की रोशनी और पत्तों के बीच से हँसती हुई चन्द्रज्योत्सना दोनों के मुख पर पड़ रही थी । पत्रों के मर्मर से मुखर बहती हुई अदृश्य हवा डालियों, पुष्प-पल्लवों और दोनों के बँधे हुए हृदयों को सुख की लालसा से स्नेह के झूले में हिलाकर चली गई । दोनों कुछ देर चुपचाप बैठे रहे ।

दोनों स्नेह-दीप के प्रकाश में, एकान्त हृदय के कक्ष में, परिचित हो गए । कनक पति की पावन मूर्ति देख रही थी, और राजकुमार प्रेमिका की सरस, लावण्यमयी, अपराजित ऑंखें-संसार के प्रलय से बचने के लिए उसके हृदय में लिपटी हुई एक कृशांगी सुन्दरी ।

“एक बात पूलूँ ?” कनक ने राजकुमार के कन्धे पर ठोढ़ी रखते हुए पूछा ।

“पूछो ।”

“तुम मुझे क्या समझते हो ?”

“मेरी सुबह की पलकों पर उषा की किरण ।” राजकुमार कहता गया, “मेरे साहित्यिक जीवन-संग्राम की विजय ।”

कनक के सूखे कंठ की तृष्णा को केवल तृप्त हो रहने को जल था; पूरी तृप्ति का भरा हुआ तड़ाग अभी दूर था ।

राजकुमार कहता गया, “मेरी आँखों की ज्योति, कंठ की वाणी, शरीर की आत्मा, कार्य की सिद्धि, कल्पना की तस्वीर, रूप की रेखा, डाल की कली, गले की माला, स्नेह की परी, जल की तरंग, रात की चाँदनी, दिन की छाँह… !”

“बस-बस ! इतनी कविता एक ही साथ कि मैं याद भी न कर सकूँ । कवि लोग, सुनती हूँ, दो-ही-चार दिन में अपनी ही लिखी हुई पंक्तियाँ भूल जाते हैं ।”

“पर कविता तो नहीं भूलते ?”

“तब काव्य की प्रतिमा उनके सामने दूसरे ही रूप में खड़ी होती है ।”

“कवि एक ही सरस्वती में समस्त मूर्तियों का समावेश देख लेते हैं ।”

“और यदि मानसिक विद्रोह के कारण सरस्वती के अस्तित्व पर भी सन्देह ने सिर उठाया ?”

“तो पक्की लिखा-पढ़ी भी बेकार है । कारण, किसी अदालत का अस्तित्व मानने-न-मानने पर ही स्थिर है ।”

कनक चुप हो गई । एक घंटा रात बीत चुकी थी । उसे अपनी प्रतिज्ञा याद आई । कहा, “आज मैंने कहा था, तुम्हें खुद पकाकर खिलाऊँगी । अब चलना चाहिए ।”

राजकुमार उठकर खड़ा हो गया । कनक भी खड़ी हुई । राजकुमार का बायाँ हाथ अपने दाहिने हाथ में लपेट, चाँदनी में चमकती, लावण्य की नई लता-सी हिलती-डोलती सड़क की तरफ चली ।

“मैं अब भी तुम्हें नहीं समझ सका, कनक !”

“मैं कोई गूढ़ समस्या बिलकुल नहीं हूँ । तुम मुझी से मुझे समझ सकते हो, उसी तरह, जैसे अपने को आईने से; और तुम्हारे-जैसे आदमी के लिए जिसने मेरे जीवन के कुछ अंक पढ़े हों, मुझे न समझ सकना मेरे लिए भी वैसे ही रहस्य की सृष्टि करता है । और, यह जानकर तुम्हें कुछ लज्जा होगी कि तुम मुझे नहीं समझ सके, पर अब मेरे लिए तुम्हें समझने की कोई दुरूहता नहीं रही ।”

“तुमने मुझे क्या समझा ?”

“यह मैं नहीं बतलाना चाहती । तुम्हें मैंने…न, नहीं बतलाऊँगी ।”

“क्यों, क्यों नहीं बतलाइएगा ? मैं भी आज सुनकर ही छोडूँगा ।”

राजकुमार, कनक को पकड़कर, फव्वारे के पास खड़ा हो गया । उस समय वहाँ दूसरा कोई न था ।

“चलो भी-सच, बड़ी देर हो रही है-मुझे अभी बड़ा काम है ।”

“नहीं, अब बतलाना होगा ।”

“क्या ?”

“यही, आप मुझे क्या समझीं ?”

“क्या समझीं ?”

“हाँ, क्या समझीं !”

“लो, कुछ नहीं समझे, यही समझे ।”

“अच्छा, अब शायरी होगी ।”

“तभी तो आपके सब रूपों में कविता बनकर रहा जाएगा । नहीं, अब ठहरना ठीक नहीं । चलो । अच्छा-अच्छा, नाराजगी ठीक नहीं, मैंने तुम्हें दुष्यन्त समझा ! कहो, बात अब भी साफ नहीं हुई ?”

“कहाँ हुई ?”

“और समझाना मेरी शक्ति के बाहर है । समय आया, तो समझा दिया जाएगा ।”

राजकुमार मन-ही-मन सोचता रहा, ‘दुष्यन्त का पार्ट जो मैंने किया था, इसने उसका मजाक तो नहीं उड़ाया ? अभिनय कहीं-कहीं बिगड़ जो गया था । और ? और क्या बात होगी ?’ राजकुमार जितना ही बनता, कल्पना-जाल उतना ही जटिल होता जा रहा था । दोनों गाड़ी के पास आ गए । अर्दली ने दरवाजा खोल दिया । दोनों बैठ गए । मोटर चल दी ।

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