चैप्टर 10 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 10 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas

चैप्टर 10 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास, Chapter 10 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas, Chapter 10 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

Chapter 10 Apsara Suryakant Tripathi Nirala

Chapter 10 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas

घर आकर कनक ने राजकुमार को अपने पढ़नेवाले कमरे में छोड़ दिया । स्वयं माता के पास चली गई । नौकर ने आलमारियाँ खोल दीं । राजकुमार किताबें निकालकर देखने लगा । अंग्रेजी साहित्य के बड़े-बड़े कवि, नाटककार और उपन्यासकारों की कृतियाँ थीं । दूसरे देशों के बड़े-बड़े साहित्यिकों के अंग्रेजी अनुवाद भी रखे थे । राजकुमार आग्रहपूर्वक किताबों के नाम देखता रहा ।

कनक माता के पास गई । सर्वेश्वरी ने सस्नेह कन्या को पास बैठा लिया ।

“कोई तकरार तो नहीं की ?” माता ने पूछा ।

“तकरार कैसी, अम्मा ! पर उड़ता हुआ स्वभाव है, यह पींजड़ेवाले नहीं हो सकते !” कनक ने लज्जा से रुकते हुए स्वर में कहा ।

कन्या के भविष्य सुख की कल्याण कल्पना से माँ की आँखों में चिन्ता की रेखा अंकित हो गई । “तुम्हें प्यार तो करते हैं न ?” पुनः प्रश्न किया उसने ।

कनक का सौन्दर्य-दीप्त मस्तक आप-ही-आप झुक गया, “हाँ, बड़े सहृदय हैं, पर दिल में एक आग है, जिसे मैं बुझा नहीं सकती । और मेरे विचार से उस आग को बुझाने की कोशिश में मुझे अपनी मर्यादा से गिर जाना होगा । मैं ऐसा नहीं कर सकूँगी । चाहती भी नहीं । बल्कि देखती हूँ, मैं स्वभाव के कारण कभी-कभी उसमें हवा का काम कर जाती हूँ।”

“इसीलिए तो मैंने तुम्हें पहले समझाया था, पर तुम्हें अब अपनी तरफ से कोई शिक्षा मैं नहीं दे सकती ।”

“आज अपने हाथों पकाया भोजन खिलाने का वादा किया है, अम्मा !” कनक उठकर खड़ी हो गई । कपड़े बदलकर नहाने के कमरे में चली गई । नौकर को तिमन्जिलेवाले खाली कमरे में भोजन का कुछ सामान तैयार रखने को कहा ।

राजकुमार एक कुर्सी पर बैठा संवाद-पत्र पढ़ रहा था । हिन्दी और अंग्रेजी के कई पत्र कायदे से टेबिल पर रखे थे । एक पत्र में बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था :

“चन्दनसिंह गिरफ्तार !”

आग्रह-स्फारित नेत्रों से एक साँस में राजकुमार कुछ इबारत पढ़ गया । लखनऊ-षडयन्त्र के मामले में चन्दन गिरफ्तार किया गया था । दोनों एक ही साथ कॉलेज में पढ़ते थे । दोनों एक ही दिन अपने-अपने लक्ष्य पर पहुँचने के लिए मैदान में आए थे । चन्दन राजनीति की तरफ गया था, राजकुमार साहित्य की तरफ । चन्दन का स्वभाव कोमल था, हृदय उग्र । व्यवहार में उसने कभी किसी को नीचा नहीं दिखाया । राजकुमार को स्मरण आया, वह जब उससे मिलता, झरने की तरह शुभ्र, स्वच्छ बहती हुई अपने स्वभाव की जल-राशि में नहला वह उसे शीतल कर देता था । वह सदा ही उसके साहित्यिक कार्यों की प्रशंसा करता रहता है । उसे वसन्त की शीतल हवा में सुगन्धित पुष्पों के प्रसन्न कौतुक-हास्य के भीतर के कोयलों, पपीहों तथा अन्यान्य वन्य विहंगों के स्वागत-गीत से मुखर डालों की छाया से होकर गुजरनेवाला देव-लोक का यात्री ही कहता रहा है, और अपने को ग्रीष्म के तपे हुए मार्ग का पथिक, सम्पत्तिवालों की क्रूर हास्य-कुंचित दृष्टि में फटा निस्सम्मान भिक्षुक, गली-गली की ठोकरें खाता हुआ, मारा-मारा फिरनेवाला, रस लेशरहित कंकाल बतलाया करता था । वही मित्र, दुख के दिनों का वही साथी, सुख के समय का वही संयमी आज निस्‍सहाय की तरह पकड़ लिया गया

राजकुमार क्षुब्ध हो उठा । अपनी स्थिति से उसे घृणा हो गई । एक तरफ उसका वह मित्र था, और दूसरी तरफ माया के परिमल वसन्त में कनक के साथ वह ? छिः-छिः, वह और चन्दन… ?

राजकुमार की वृत्तियाँ एक ही अंकुश से सतर्क हो गई । उसकी प्रतिज्ञा घृणा की दृष्टि से उसे देख रही थी, ‘साहित्यिक ! तुम कहाँ हो ? तुम्हें केवल रस-प्रदान करने का अधिकार है, रस-ग्रहण करने का नहीं ।

उसकी प्रकृति उसका तिरस्कार करने लगी, ‘आज आँसुओं में अपनी श्रृंगार-छवि देखने के लिए आए हो ? कल्पना के प्रासाद-शिखर पर एक दिन एकाकी देवी के रूप में तुमने पूजा की, आज दूसरी को प्रेयसी के रूप से हृदय से लगाना चाहते हो ! छिः-छिः, संसार के सहस्रों प्राणों के पावन संगीत तुम्हारी कल्पना से निकलने चाहिए । कारण, वहाँ साहित्य की देवी-सरस्वती ने अपना अधिष्ठान किया, जिनका सभी के हृदयों में सूक्ष्म रूप से वास है । आज तुम इतने संकुचित हो गए कि उस समस्त प्रसार को सीमित कर रहे हो ? श्रेष्ठ को इस प्रकार बन्दी करना असम्भव है, शीघ्र ही तुम्हें उस स्‍वर्गीय शक्ति से रहित होना होगा । जिस मेघ ने वर्षा की जलद राशि वाष्प के आकार से संचित कर रखी थी, आज यह एक ही हवा चिरकाल के लिए उसे तृष्णार्थ भूमि के ऊपर से उड़ा देगी ।’

राजकुमार त्रस्त हो उठा । हृदय ने कहा, गलती की । निश्चय ने सलाह दी, प्रायश्चित करो । बन्दी की हँसती हुई आँखों ने कहा, “साहित्य की सेवा करते हो न मित्र ? मेरी माँ थी, जन्मभूमि, और तुम्हारी माँ भाषा । देखो, आज माता ने एकान्त में मुझे अपनी गोद में, अन्धकार की गोद में छिपा रखा है, तुम अपनी माता के स्नेह की गोद में प्रसन्न हो न ?”

व्यंग्य के सहस्रों शूल एकसाथ चुभ गए । जिस माता को वह राजराजेश्वरी के रूप में ज्ञान की सर्वोच्च भूमि पर अलंकृत बैठी हुई देख रहा था, आज उसी के नयनों में पुत्र की दशा पर करुणाश्रु बरस रहे थे । एक ओर चन्दन की समादृत मूर्ति देखी, दूसरी ओर अपनी तिरस्कृत ।

राजकुमार अधीर हो गया । देखा सहस्रों दृष्टियाँ उसकी ओर इंगित कर रही हैं-यही है; यही है-इसी ने प्रतिज्ञा की थी । देखा, इसके कुल अंग गल गए हैं । लोग उसे देखकर घृणा से मुँह फेर लेते हैं । मस्तिष्क पर जोर देकर, आँखें फाड़कर देखा, साक्षात् देवी एक हाथ में पूजार्घ्य की तरह थाली लिए हुए, दूसरे में वासित जल, कुल रहस्यों की एक ही मूर्ति में निस्संशय उत्तर की तरह धीरे-धीरे, प्रशान्त हेरती हुई, अपने अपार सौन्दर्य की आप-ही उपमा, कनक आ रही थी । जितनी दूर-जितनी दूर भी निगाह गई, कनक साथ-ही-साथ, अपने परमाणुओं में फैलती हुई, दृष्टि की शान्ति की तरह, चलती गई । चन्दन, भाषा-भूमि, कहीं भी उसकी प्रगति प्रतिहत नहीं । सबने उसे बड़े आदर तथा स्नेह की स्निग्ध-दृष्टि से देखा, पर राजकुमार के लिए सर्वत्र एक ही-सा व्यंग्य, कौतुक और हास्य !

कनक ने टेबिल पर तश्तरी रख दी । एक ओर लोटा रख दिया । नौकर ने ग्लास दिया, भरकर ग्लास भी रख दिया ।

“भोजन कीजिए ।” शान्त दृष्टि से राजकुमार को देख रही थी वह । राजकुमार उद्विग्न था । उसके हाथ, उसकी आँखें, उसकी इन्द्रियतन्त्रियाँ उसके वश में न थीं । विद्रोह के कारण सब विशृंखल हो गई थीं । उनका सम्राट् ही उस समय दुर्बल हो रहा था । भर्राई आवाज से कहा, “नहीं खाऊँगा ।”

कनक तड़प उठी ।

“क्यों ?”

“इच्छा नहीं ।”

“आखिर कोई वजह ?”

“कोई वजह नहीं ।”

कनक सहम गई । क्या जिसे होटल में खाते हुए कोई संकोच नहीं, वह बिना किसी कारण उसका पकाया भोजन नहीं खा रहा ?

“कोई वजह नहीं ?” कनक कुछ कर्कश स्वर से बोली ।

राजकुमार के सिर पर जैसे किसी ने लाठी मार दी । उसने कनक की तरफ देखा, आँखों से दोपहर की लपटें निकल रही थीं ।

कनक डर गई । खोजकर भी उसने अपना कोई कसूर नहीं पाया । आप-ही-आप साहस ने उमड़कर कहा, खाएँगे कैसे नहीं !

“मेरा पकाया हुआ है ।”

“किसी का हो ।”

“किसी का हो ! यह कैसा उत्तर ?” कनक कुछ संकुचित हो गई । अपने जीवन पर सोचने लगी । खिन्न हो गई । माता की बात याद आई, वह महाराज-कुमारी है । आँखों में साहस चमक उठा ।

राजकुमार तमककर खड़ा हो गया । दरवाजे की तरफ बढ़ा । कनक वहीं मूर्तिवत्, निर्वाक्, अनिमेष नेत्रों से राजकुमार के आकस्मिक परिवर्तन को पढ़ रही थी । चलते देख स्वभावतः बढ़कर उसे पकड़ लिया ।

“कहाँ जा रहे हो ?”

“छोड़ दो ।”

“क्यों ?”

“छोड़ दो ।”

राजकुमार ने झटका दिया, कनक का हाथ छूट गया । कलाई दरवाजे से लगी । चूड़ी फूट गई । हवा में पीपल के पत्ते की तरह शंका से हृदय काँप उठा । चूड़ी कलाई में गड़ गई थी, खून बह निकला ।

राजकुमार का किसी भी तरफ ध्यान न था । वह बराबर बढ़ता गया । कलाई का खून झटकते हुए कनक ने बढ़कर बाँहों में बाँध लिया उसे ।

“कहाँ जाते हो ।”

“छोड़ दो ।”

कनक फूट पड़ी । आँसुओं का तार बँध गया । निःशब्द कपोलों से बहते हुए कई बूँद आँसू राजकुमार की दाहिनी भुजा पर गिरे । राजकुमार की जलती आग पर आकाश के शिशिरकणों का कुछ भी असर न पड़ा ।

“नहीं खाओगे ?”

“नहीं ।”

“आज यहीं रहो । बहुत-सी बातें हैं, सुन लो, फिर कभी न आना । मैं हमेशा तुम्हारी राह छोड़ दिया करूँगी ।”

“नहीं ।”

“नहीं ? “

“नहीं ।”

“क्यों ? “

“तबियत ?”

“तबियत ?”

“हाँ ।”

“जाओ ।”

कनक ने छोड़ दिया । उसी जगह, तस्वीर की तरह खड़ी आँसुओं के धुन्ध से, एकटक देखती रही । राजकुमार सीधा नीचे उतर आया । दरवाजे से कुछ ही दूर तीन-चार आदमी खड़े आपस में बातें कर रहे थे-

“उस रोज गाना नहीं सुनाया ।”

दूसरे ने कहा, “घर में कोई रहा होगा, इसीलिए बहाना कर दिया कि तबियत अच्छी नहीं ।”

तीसरा बोला, “लो, एक यह जा रहे हैं !”

“अजी, यह कहाँ जाएँगे ? बेटा निकाल दिए गए होंगे । देखो न, सूरत क्या कहती है ।”

राजकुमार सुनता जा रहा था । पास ही एक मोटर खड़ी थी । फुटपाथ पर खड़े ये चारों बात कर रहे थे । घृणा से राजकुमार का अंग-अंग जल उठा । इन बातों से क्या उसके चरित्र पर कहीं सन्देह करने की जगह रह गई । इससे भी बड़ा प्रमाण और क्या होगा…? छिः ! इतना पतन भी राजकुमार-जैसा दृढ़-प्रतिज्ञ पुरुष सह सकता है ? उसे लगा कि किसी अन्ध-कारागार से मुक्ति मिली, उसका उतनी देर के लिए रौरवभोग था, समाप्त हो गया ।

वह सीधे कार्नवालिस-स्ट्रीट की तरफ चला । चोरबागान, अपने डेरे पर पहुँच ससंकोच कपड़े उतार दिए, धोती बदल डाली । नए कपड़े लपेटकर नीचे, एक बगल, जमीन पर रख दिए । हाथ-पैर धो अपने चारपाई पर लेट रहा । बिजली की बत्ती जल रही थी ।

चन्दन की याद आई । बिजली से खिंची हुई-सी कनक यहाँ अपने प्रकाश में चमक उठी । राजकुमार जितनी ही घृणा, जितनी ही उपेक्षा कर रहा था, वह उतनी ही चमक रही थी । आँखों से चन्दन का चित्र उस प्रकाश में छाया की तरह विलीन हो जाता, केवल कनक रह जाती थी । कान बराबर उस मधुर स्वर को सुनना चाहते थे । हृदय से निरन्तर प्रतिध्वनि होने लगी, ‘आज यहीं रहो । बहुत-सी बातें हैं, सुन लो, फिर कभी न आना । मैं हमेशा ही तुम्हारी राह छोड़ दिया करूँगी ।”

राजकुमार ने नीचे देखा, अखबारवाला झरोखे से उसका अखबार डाल गया था । उठकर पढ़ने लगा । अक्षर लकीर-से मालूम पड़ने लगे । जोर से पलकें दबा लीं । हृदय में उदास खड़ी कनक कह रही थी, “आज रहो… ।” राजकुमार उठकर बैठ गया । एक कुर्ता निकालकर पहनते हुए घड़ी की तरफ देखा, ठीक दस का समय था । बॉक्स खोलकर कुछ रुपए निकाले । स्लीपर पहनकर बत्ती बुझा दी । दरवाजा बन्द कर दिया । बाहर सड़क पर आ खड़ा देखता रहा ।

“टैक्सी !”

टैक्सी खड़ी हो गई । राजकुमार बैठ गया ।

“कहाँ चलिएगा ?”

“भवानीपुर ।”

टैक्सी एक दुमन्जिले मकान के गेट के सामने, फुटपाथ पर, खड़ी हुई । राजकुमार ने भाड़ा चुका दिया । दरबान के पास जा खबर देने के लिए कहा ।

“अरे भैया, यहाँ बड़ी आफत रही, अब आपको मालूम हो जाएगा । माताजी को साथ लेकर बड़े भैया लखनऊ चले गए हैं । घर में बहूरानी अकेली हैं ।” एक साँस में दरबान सुना गया ।

फिर दौड़ता हुआ मकान के नीचे से पुकारने लगा, “महरी, ओ महरी ! सो गई क्या ?”

महरी नीचे आई ।

“क्या है ? इतनी रात को महरी, ओ महरी !”

“अरे भई, खफा न हो, जरा बहूरानी को खबर कर दे, रज्जू बाबू खड़े हैं ।”

“यह बात नीचे से नहीं कह सकते थे ?” तीन जगह से लोच खाती हुई, खासतौर से दरबान को अपनी नजाकत दिखाने के उद्देश्य से, महरी चली गई । इस दरबान से उसका कुछ प्रेम था, पर ध्वनि-तत्त्व के जानकारों को इस दरबान के प्रति बढ़ते हुए अपने प्रेम का पता लगाने का मौका अपने ही गले की आवाज से वह किसी तरह भी न देती थी ।

ऊपर से उतरकर दासी राजकुमार को साथ ले गई । साफ, अल्पसज्जित एक बड़े से कमरे में 21-22 साल की एक सुन्दरी युवती पलंग पर, सन्ध्या की संकुचित सुरोजनी की तरह, उदास बैठी हुई थी । पलकों के पत्र आँसुओं के शिशिर से भारी हो रहे थे । एक ओर एक विशृंखल अंग्रेजी संवाद-पत्र पड़ा हुआ था ।

“कई रोज बाद आए रज्जू बाबू ! अच्छे तो हो न ?” युवती ने सहज धीमे स्वर से पूछा ।

“जी ।” राजकुमार ने पलंग के पास जा, हाथ जोड़ सिर झुका दिया । “बैठो ।” कन्धे पर हाथ रख युवती ने प्रति-नमस्कार किया । पास की एक कुर्सी, पलंग के बिलकुल नजदीक, खींचकर राजकुमार बैठ गया ।

“रज्जू बाबू, तुम बड़े मुरझाए हुए हो । चार ही रोज में आधे रह गए, क्या बात है ?”

“तबियत अच्छी नहीं थी ।” इच्छा रहते हुए भी राजकुमार को अपनी विपत्ति सुनाना अनुचित जान पड़ा ।

“कुछ खाया तो क्यों होगा ?” युवती ने सस्नेह पूछा ।

“नहीं, इस वक्त नहीं खाया ।” राजकुमार ने चिन्ता से सिर झुका लिया ।

“महरी ।”

महरी सुखासन में बैठी हुई कुछ बीड़ों में चूना और कत्था छोड़ चिट्टचिट्ट सुपारी कतर रही थी । आवाज पा, सरीता रखकर दौड़ी ।

“जी ।” महरी पलँग के बगल में खड़ी हो गई ।

“मिठाई, नमकीन और कुछ फल तश्तरी में ले आ ।”

महरी चली गई ।

“हम लोग तो बड़ी विपत्ति में फँस गए हैं, रज्जू बाबू ! अखवार में तुमने पढ़ा होगा ।”

“हाँ, अभी ही पढ़ा है, पर विशेष बातें कुछ समझ नहीं सका ।”

“मुझे भी नहीं मालूम । छोटे बाबू ने तुम्हारे भैया को लिखा था कि वहाँ किसानों का संगठन कर रहे हैं । इसके बाद ही सुना, लखनऊ-षड्यन्त्र में गिरफ्तार हो गए ।” कहते-कहते युवती की आँखें भर आई ।

राजकुमार ने एक लम्बी साँस ली । कुछ देर कमरा प्रार्थना-मन्दिर की तरह निस्तब्ध रहा ।

“बात यह है कि राजकर्मचारी बहुत जगह, अकारण की लांछन लगाकर, दूसरे विभाग के कार्यकर्त्ताओं को भी पकड़ लिया करते हैं ।”

“अभी तो ऐसा ही जान पड़ता है ।”

“ऐसी ही बात होगी, बहू जी ! और लोग छिपकर बागी हो जाते हैं, उन्हें बागी बनाने की जिम्मेदारी भी उन्हीं अधिकारियों पर है । उनके साथ इनका कुछ ऐसा तीखा बर्ताव होता है, ये जैसी नीची निगाह से उन्हें देखते हैं, वे बर्दाश्त नहीं कर पाते, और उनकी मनुष्यता, जिस तरह भी सम्भव हुआ, इनके अधिकारों के विरुद्ध विद्रोह की घोषणा कर बैठती है ।”

“मुमकिन है, ऐसा ही कुछ छोटे बाबू के साथ भी हुआ हो ।”

“बाबू जी, चलते समय भैया और कुछ भी तुमसे नहीं कह गए ?” तेज निगाह से राजकुमार ने युवती को देखकर कहा ।

“ना ।” युवती सरल नेत्रों से इसका आशय पूछ रही थी ।

“यहाँ चन्दन की किसी दूसरी तरह की चिट्ठियाँ तो नहीं हैं ?” युवती घबराई, “मुझे नहीं मालूम ।”

“उनकी विप्लवात्मक किताबें तो होंगी ही, अगर ले नहीं गए ?”

“मैंने उनकी आलमारी नहीं देखी ।” युवती का कलेजा धक्-धक् करने लगा ।

“तअज्जुब क्या, अगर कल पुलिस यहाँ सर्च करे ।”

युवती त्रस्त चितवन से सहायता-प्रार्थना कर रही थी ।” अच्छा हुआ, तुम आ गए, रज्जू बाबू ! मुझे इन बातों से बड़ा डर लग रहा है ।”

“बहू जी !” राजकुमार ने चिन्ता की नजर से, कल्पना द्वारा दूर परिणाम तक पहुँचकर पुकारा ।

“क्या ?” स्वर के तार में शंका थी ।

“ताली तो आलमारियों की होगी तुम्हारे पास ? चन्दन की पुस्तकें और चिट्ठियाँ जितनी हों, सब एक बार देखना चाहता हूँ ।”

युवती घबराई हुई उठकर द्वार की ओर चली । खोजकर तालियों का एक गुच्छा निकाला । राजकुमार के आगे-आगे जीने से नीचे उतरने लगी, पीछे राजकुमार अवश्यम्भावी विपत्ति पर अनेक प्रकार की कल्पनाएँ करता हुआ । नीचे एक बड़े-से हाल के एक ओर एक कमरा था । यहीं चन्दन का कमरा था । वह जब यहाँ रहता था, प्रायः इस कमरे में बन्द रहा करता था । ऐसा ही उसे पढ़ने का व्यसन था । कमरे में कई आलमारियाँ थीं । आलमारियों की अद्भुत किताबें राजकुमार की स्मृति में अपनी करुणा की कथाएँ कहती हुई सहानुभूति की प्रतीक्षा में मौन ताक रही थीं । कारागार उन्हें असह्य हो रहा था । वे शीघ्र अपने प्रिय के पाणिग्रहण की आशा कर रही थीं ।

“बहू गुच्छा मुझे दे दो ।”

राजकुमार ने एक आलमारी खोली । वह एक, दो, तीन, चार, पाँच, छः, सात, आठ किताबें निकालता हुआ फटाफट फर्श पर फेंक रहा था ।

युवती यन्त्र की तरह एक टेबिल के सहारे खड़ी अपलक दृष्टि से उन किताबों को देख रही थी ।

दूसरी, तीसरी, चौथी, पाँचवीं, छठी, कुल आलमारियों की राजकुमार ने अच्छी तरह तलाशी ली । जमीन पर करीब-करीब डेढ़-दो सौ किताबों का ढेर लग गया ।

फ्रांस, रूस, चीन, अमेरिका, भारत, इजिप्ट, इंग्लैण्ड सब देशों की, सजीव स्वर में बोलती हुई, स्वतन्त्रता के अभिषेक से दृप्त-मुख, मनुष्य को मनुष्यता की शिक्षा देनेवाली किताबें थीं । राजकुमार दो मिनट तक दोनों हाथ कमर से लगाए उन किताबों को देखता रहा । युवती राजकुमार को देख रही थी । टप-टप कई आँसू राजकुमार की आँखों से गिर गए । उसने एक ठंडी साँस ली ।

मुकुलित आँखों से युवती भविष्य की शंका की ओर देख रही थी ।

“ये कुल किताबें अब चन्दन के राजनीतिक चरित्र के लिए आपत्तिकर सकती हैं ।”

“जैसा जान पड़े करो ।”

“भैयाजी शायद इन्हें जला देते”

“और तुम ?”

“मैं जला नहीं सकूंगा ।”

“तब ?”

‘भाई चन्दन, तुम जीते । मेरी सौन्दर्य की कल्पना एक दूसरी जगह छिन गई, मेरी दृढ़ता पर तुम्हारी विजय हुई ।’ राजकुमार सोच रहा था । युवती राजकुमार की ओर एकटक देख रही थी ।

“इन्हें मैं अपने यहाँ ले जाऊँगा ।”

“अगर तुम भी पकड़ लिए गए ? न रज्जू बाबू ! इन्हें फूँक दो ।”

“क्या ?”

राजकुमार की आँखें देख युवती डर गई ।

राजकुमार ने किताबों को एकत्र कर बाँधा । फिर कहा, “और जहाँ-जहाँ आप जानती हों, जल्द देख लीजिए । अब तो दो बज रहे होंगे ?”

युवती कर्त्तव्य-रहित-सी निर्वाक् खड़ी राजकुमार की कार्यवाही देख रही थी । सचेत हो, ऊपर जाकर कोठरियों के कागज-पत्र देखने चली । कमरे के बाहर महरी खड़ी मिली । एकाएक इस परिवर्तन को देखकर भीतर आने की उसकी हिम्मत न हुई । दहशत खाती हुई बोली, “जलपान बड़ी देर से रखा है ।”

युवती लौट आई । राजकुमार से कहा, “रज्जू बाबू, पहले कुछ जलपान कर लो ।”

“आप जल्द जाइए, में खा लूँगा । वहीं टेबिल पर रखवा दीजिए ।”

युवती चली गई । महरी ने वहीं, चन्दन की टेबल पर, तश्तरी रख दी । जल-भरा ढक्कनदार लोटा और गिलास रख दिया ।

राजकुमार शीघ्र ही दुबारा कुल आलमारियों की जाँचकर ऊपर चला गया । दो-एक घरेलू पत्र ही मिले ।

“एक बात कहूँ ?”

“कहो ।”

“भैयाजी कब तक लखनऊ रहेंगे ?”

“कुछ कह नहीं गए ।”

“शायद जब तक चन्दन का फैसला न हो जाए, तब तक रहें ।”

“सम्भव है ।”

“आप एक काम करें ।”

“क्या ?”

“चलिए, आपको आपके मायके छोड़ दूँ ।”

युवती सोचती रही ।

“सोचने का समय नहीं । जल्द हीं-ना कीजिए ।”

“चलो ।”

“यहाँ पुलिस के लोग रहेंगे । आवश्यक चीजें-अपने गहने और नकद जो कुछ हों-ले लीजिए । शीघ्र ही सब ठीक कर लीजिए, ताकि चार रुपए, बजे के पहले हम लोग यहाँ से निकल जाएँ ।”

“मुझे बड़ा डर लग रहा है, रज्जू बाबू !”

“मैं हूँ ही अभी, कोई इनसान आपका क्या बिगाड़ सकेगा ? मैं लौटकर आपको तैयार देखें !”

राजकुमार गैरेज से मोटर निकाल लाया । किताबों का लम्‍बा-सा बँधा हुआ बण्डल उठाकर, सीट के बीच में रख बैठ गया । फिर कलकत्ते की तरफ उड़ चला ।

अपने घर पहुँचा । जिस तरफ फाटक का छोटा दरवाजा वह खोलकर चिपका गया था, वैसा ही था, धक्के से खुल गया । चौकीदार को फाटक बन्द करते समय दरवाजे का खयाल नहीं आया । राजकुमार किताबों का बण्डल लेकर अपने कमरे में गया । बक्स का सामान निकाल किताबें भर दीं । ताला लगा दिया । जल्दी में जो कुछ सूझा, बाँधकर बत्ती बुझा दी । दरवाजा बन्द कर दिया । फिर मोटर पर अपना सामान रख भवानीपुर चल दिया । जब भवानीपुर से लौटा, तो तीन बजकर पन्द्रह मिनट हुए थे ।

“क्या-क्या लिया, देखें !”

युवती अपना सामान दिखलाने लगी । एक बॉक्स में कुछ कपड़े, 8-10 हजार के गहने और 20 हजार नम्बरी नोट थे । यह सब उसका अपना सामान था । महरी को मकान की झाड़-पोंछ करने के लिए वहीं रहने दिया । रक्षा के लिए चार दरवान थे । युवती ने सबको ऊपर बुलाया । अच्छी तरह मकान की रक्षा करते हुए सुखपूर्वक समय पार करने के कुछ उपदेश दिए । दरबानों को विपत्ति की सूचना हो चुकी थी, कुछ न बोले ।

महरी बाहर से दुखी थी, पर भीतर एकान्त की चिन्ता से खुश भी । बहू का बॉक्स उठाकर एक दरबान ने गाड़ी पर रख दिया । वह राजकुमार के साथ-साथ नीचे उतरी । गेट की बगल में शिव-मन्दिर था । मन्दिर में जा, भगवान विश्वनाथ को भूमिष्ठ हो प्रणाम किया ।

राजकुमार ने ड्राइवर को बुलाया । गाड़ी गेट के सामने लगाए हुए चारों तरफ देख रहा था । अपनी रिस्टवाच में देखा, साढ़े चार हो गया था । ड्राइवर आया, राजकुमार उतर पड़ा ।

“जल्दी कीजिए ।”

बहू प्रणाम कर लौट आई ।

महरी ने पीछे की सीट का दरवाजा खोल दिया । बहू बैठकर कालीजी को प्रणाम करने लगी । बगल में राजकुमार बैठ गया । सामने सीट पर एक दरबान ।

“अगर कोई पुलिस की तरफ से यहाँ आए, तो कह देना, मकान में कोई नहीं है । अगर इस पर भी वे मकान की तलाशी लें, तो घबराना मत, और हर एक की पहले अच्छी तरह से तलाशी ले लेना । रोज मकान देख लिया करना । अपनी तरफ से कोई सख्ती न करना । डरने की कोई बात नहीं ।”

“अच्छा हुजूर ।”

“चलो,” राजकुमार ने ड्राइवर से कहा, “सियालदह ।”

गाड़ी चल दी । सीधे चौरंगी होकर जा रही थी । अब तक अँधेरा दूर हो गया था । उषा उगते हुए सूर्य के प्रकाश से अरुण हो चली थी, जैसे भविष्य की कोई क्रान्ति का कोई पूर्व लक्षण हो । राजकुमार की चिन्ताग्रस्त, असुप्त आँखें भी इसी तरह लाल हो रही थीं । बगल में अनवगुण्ठित बैठी हुई सुन्दरी की आँखें भी विषाद तथा निद्रा के भार से छलछलाई हुई लाल हो रही थीं ।

गाड़ी सेंट्रल एवेन्यू पार कर अब बहूबाजार स्ट्रीट से गुजर रही थी । गर्मियों के दिन थे । सूर्य का कुछ-कुछ प्रकाश फैल चुका था । मोटर पूर्व की ओर जा रही थी । दोनों के मुख पर सुबह की किरणें पड़ रही थीं । दोनों के मुखों की क्लान्ति प्रकाश में प्रत्यक्ष हो रही थी । एकाएक राजकुमार की दृष्टि स्वतः-प्रेरित-सी एक तिमन्जिले, विशाल भवन की तरफ उठ गई । युवती भी आकर्षक मकान देखकर उधर ही ताकने लगी-बरामदे पर कनक रेलिंग पकड़े हुए एक दृष्टि से मोटर की तरफ देख रही थी । उसकी अनिंद्य-सुन्दर आँखों में भी उषा की लालिमा थी । उसने राजकुमार को पहचान लिया था । दोनों की आँखें एक ही लक्ष्य में बिंध गई । कनक स्थिर खड़ी ताकती रही । राजकुमार ने आँखें झुका लीं । उसे कल के लोगों की बातें याद आईं-घृणा से सर्वांग जर्जर हो गया ।

“बहूजी, देखा ?”

“हाँ, उस खूबसूरत लड़की को न ?”

“हाँ, यही एक्ट्रेस कनक है ।”

मोटर मकान को पीछे छोड़ चुकी थी । राजकुमार बैठा रहा । युवती ने फिरकर देखा । कनक वैसे ही खड़ी ताक रही थी ।

“अभी भी देख रही है । तुमको पहचान लिया है शायद ।”

राजकुमार कुछ न बोला ।

जब तक मोटर अदृश्य न हो गई, कनक खड़ी हुई ताकती रही ।

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