चैप्टर 13 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास, Chapter 13 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas, Chapter 13 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi
Chapter 13 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka
दो रोज और बीत गए । अंगों के ताप से कनक का स्वर्ण-रंग और चमक उठा । आँखों में भावना मूर्तिमती हो गई । उसके जीवन के प्रखर स्रोत पर मध्याह का तपन तप रहा था, जिसके वाष्प के बाह्यावरण के भीतर प्रवाह पर भावनाओं के सूर्य के सहस्रों ज्योतिर्मय पुष्प खुले हुए थे, पर उसे इनका ज्ञान न था । वह केवल अपने बाहरी आवरण को देखकर दैन्य से मुरझा रही थी । जिस स्नेह की डोर से उसके प्रणय के हाथों ने राजकुमार को बाँधा था, केवल वही अब उसके रिक्त हाथों में रह गई है ।
अब उसकी दृष्टि में कर्त्तव्य का ज्ञान न रहा । स्वयं ही संचालित की तरह बाह्य वस्तुओं पर, और फिर वहाँ से उसी तरह हताश हो उठ आती है । उनसे उसकी आत्मा का संयोग नहीं रहता, जैसे वह स्वयं अब अकेली रह गई हो । इस आकांक्षा और अप्राप्ति के अपराजित समर में उन्हीं की तरह वह भी उच्छृंखल हो गई । इसीलिए, माता के साथ अलक्ष्य गति पर चलती हुई, वह गाने के लिए राजी हो गई । जिस जीवन का राजकुमार की दृष्टि में ही आदर न हुआ, उसका अब उसकी दृष्टि में भी कोई महत्त्व न रहा ।
सर्वेश्वरी कनक को प्रसन्न रखने के हर तरह के उपाय करती, पर वह उसे सदा ही वीतराग देखती, अतः भावी सुख के प्रति उसका सन्देह बढ़ रहा था । वह देखती, चिन्ता से उसके अचंचल कपोलों पर आत्मसम्मान की एक दिव्य ज्योति खुल पड़ती थी, जिससे उसे कुछ त्रस्त हो जाना पड़ता और कनक की देह की हरियाली के ऊपर से जेठ की लू बह जाती थी । जल की मराल-बालिका को स्थल से फिर जल में ले जाने की सर्वेश्वरी कोशिश किया करती, पर उसका इच्छित तड़ाग दूर था । जिस सरोवर में वह उसे छोड़ना चाहती, वह उसे पंकिल देख पड़ता । स्वयं निर्मित रूप का जब अस्तित्व ही नहीं रहा, तब कला की निर्जीव मूर्तियों पर कब तक उसकी दृष्टि रम सकती थी ?
सर्वेश्वरी के चलने का समय आया । तैयारियाँ होने लगी । वस्त्र, अलंकार, पेशवाज, साज-सामान आदि बँधने लगे । आकाश में उड़ती हुई परी, पर काटकर, कमरे में कैद की जाने लगी । सुख के सागर की बालिका जी बहलाने के लिए कृत्रिम सरोवर में छोड़ दी गई । जीवन के दिन सुख से काटने के विचार से कनक को अपना पेशा अपनाने की पुनश्च सलाह दी जाने लगी । सर्वेश्वरी के साथ वाद्यकार भी जमा हो गए, और अनेक तरह की स्तुतियों से कनक को प्रसन्न करने लगे । कनक रात्रि के सौन्दर्य की तरह इन सबकी आँखों से ओझल हो गई, रही केवल गायिका-नायिका कनक । अपनी तमाम चन्द्रिकाओं के साथ बादलों की आड़ से ज्योत्स्ना एक दूसरे ही लोक में पहुँच गई थी, यहाँ उसकी छाया- मात्र रह गई थी ।
कनक तार भिजवा चुकी थी । चलते समय इनकार न कर सकी । सर्वेश्वरी कुछ देर तक कैथरिन की प्रतीक्षा करती रही, पर जब गाड़ी के लिए सिर्फ आधा घंटा समय रह गया, तब परमात्मा को मन-ही-मन स्मरण कर मोटर पर बैठ गई । कनक भी बैठ गई । कनक समझ गई, कैथरिन के न आने का कारण उस रोज का जवाब होगा ।
कनक और सर्वेश्वरी को फर्स्ट क्लास का किराया मिला था, कनक को नहीं मालूम था कि कभी कुँवर साहब को वह इतनी तेज निगाह से देख चुकी है कि देखते ही पहचान लेगी । सर्वेश्वरी भी न जानती थी कि कुँवर साहब के आदमी कभी उसके मकान पर आकर लौट गए थे, वही कुँबर साहब बालिग होकर अब राजा साहब के आसन पर लाखों प्रजाओं पर शासन करेंगे ।
रेल समय पर, ठीक चार बजे शाम को, विजयपुर स्टेशन पहुंची । विजयपुर वहाँ से तीन कोस था, पर स्टेशन का नाम विजयपुर ही रखा गया था । राजा साहब-वर्तमान राजा साहब के पिता-ने स्टेशन का यही नाम रखवाने के लिए बड़ी लिखा-पढ़ी की थी । कुछ रुपए भी दिए थे । कम्पनी तो उन्हीं के नाम से स्टेशन कर देना चाहती थी, पर राजा साहब को कम्पनी की माँगी हुई रकम देना मंजूर न था । वह पुराने विचारों के मनुष्य थे । रुपए को नाम से अधिक महत्त्व देते थे । कहते हैं, एक बार स्वाद की बातचीत हो रही थी, तो उन्होंने कहा था कि बासी दाल में सरसों का तेल डालकर खाएँ, तो ऐसा स्वाद और किसी सालन में नहीं मिलता । वह नहीं रहे, पर गरीबों में उनकी यह कीर्ति-कथा रह गई थी ।
स्टेशन पर कनक के लिए कुँवर साहब ने अपनी मोटर भेज दी थी । सर्वेश्वरी के लिए विजिटर्स कार और उसके आदमियों के लिए एक लारी ।
तार पाने के पश्चात् अपने कर्मचारियों में कुँवर साहब ने कनक की बड़ी तारीफ की थी, जिससे छह-सात कोस के इर्द-गिर्द एक ही दिन में खबर फैल गई कि कलकत्ते की मशहूर तवायफ आ रही है, जिसका मुकाबला हिन्दोस्तान की कोई भी गानेवाली नहीं कर सकती । आज दो ही बजे से तमाम गाँवों के लोग एकत्र होने लगे थे । आज से ही महफिल शुरू होनेवाली थी ।
कनक माता के साथ ही विजिटर्स कार पर बैठने लगी, तो एक सिपाही ने कहा, “कनक साहबा के लिए महाराज ने अपनी मोटर भेजी है ।”
“तुम उस पर बैठ जाओ ।” सर्वेश्वरी ने कहा ।
“नहीं, इसी पर चलूँगी ।”
“यह क्या ? हम जैसा कहें, वैसा कीजिए ।” सिपाही ने कहा ।
कनक उठकर राजा साहब की मोटर पर चली गई । ड्राइवर कनक को ले चला । सर्वेश्वरी की मोटर खड़ी रही । कहने पर भी ड्राइवर, “चलते हैं, चलते हैं ।” कहकर इधर-उधर करता रहा । कभी पानी पीता, कभी पान खाता, कभी सिगरेट सुलगाता । सर्वेश्वरी का कलेजा काँपने लगा । शंका की अनिमेष दृष्टि से कनक की मोटर को तरफ ताकती रही । मोटर अदृश्य हो गई ।
कनक भी पहले घबराई, पर दूसरे ही क्षण सँभल गई । एक अमोघ मन्त्र जो उसके पास था, वह अब भी है, उसने सोचा । रही शरीर की बात, इसका सदुपयोग, दुरुपयोग भी उसके हाथ में है । फिर शंका किस बात की ? जिसका कोई लक्ष्य ही न हो, उसे किसी भी प्रगति का विचार ही क्या ?
कनक निस्वस्त एक बगल पीछे की सीट पर बैठी थी । मोटर उड़ी जा रही थी । ड्राइवर को निश्चित समय पर कुँवर साहब के पास पहुँचना था । भावी के दृश्य कनक के मन को सजग कर रहे थे, पर उसका हृदय बैठ चुका था । अब उसमें उत्साह न रह गया था । रास्ते के पेड़ों, किनारे खड़े हुए आदमियों को देखती, सबकुछ अपरिचित था । हृदय की शून्यता बाहर के अज्ञात शून्य से मिल जाती । मार्ग पार हो रहा था । आगे क्या होगा, उसकी माँ उसके साथ क्यों नहीं आने पाई ? आदि प्रश्न मन में उभरते, और फिर डूब जाते थे । जो एक निरन्तर मरोड़ उसके हृदय में थी, उससे अधिक प्रभाव ये न डाल पा रहे थे ।
सहसा उसकी तमाम शून्यता एकबारगी भर गई । हृदय से आँखों तक पिचकारी की तरह स्नेह का रंग भर गया-उसने देखा, रास्ते के किनारे राजकुमार खड़ा है । हृदय उमड़कर फिर बैठ गया-अब यह मेरे नहीं हैं ।
दर्शन के बाद मोटर एक फर्लांग बढ़ गई । दूसरे, प्रेम के दबाव से वह कुछ कह भी न सकी । राजकुमार खड़ा-खड़ा देखता रहा । कनक ने दो बार फिर-फिरकर देखा । राजकुमार को बड़ी लज्जा लगी, मानो उसी के कलंक की मूर्ति सहस्रों इंगितों से कनक के द्वारा उसके अपयश की घोषणा कर रही थी ।
राजकुमार बिलकुल सादी वेश-भूषा में था । गाना सुनने के लिए जा रहा था, दूसरों के मत से; अपने मत से कनक को तारा से मिलाने । तारा ने जब से कहा कि गलती तुम्हारी है, तब से कनक को पाने के लिए उसके दिल में पुनः लालसा का अंकुर फूटने लगा था, पर फिर अपनी प्रतिज्ञा याद कर हताश हो जाता । कनक से मुलाकात तो हुई, दो बार उसने फिर-फिरकर देखा भी । क्या वह अब भी मुझे चाहती है ? वह राजा साहब के यहाँ जा रही है । मुमकिन है, मुझे रोव दिखलाया हो । मैं क्या कहूँगा ? न, लौट जाऊँ, कह दूँ, यह मुझसे न होगा । लौटकर कलकत्ते जाएगी, तब जो बातचीत करना चाहें, कर लीजिएगा ।
अनेक हर्ष और विषाद की तस्वीरों को देखता हुआ, आशा और नैराश्य के जाल में उलझा, राजकुमार विजयपुर की ही तरफ जा रहा था । घर लौटने की इच्छा प्रबल बाधा की तरह मार्ग रोककर खड़ी हो जाती, पर भीतर न-जाने एक और कौन थी, जिसकी दृष्टि से उसे हिम्मत बँधती । बाधा के रहने पर भी अज्ञात पदक्षेप उधर ही हो रहे थे । ज्यादा जोश में आने पर राजकुमार भूल जाता था, कुछ समझ नहीं सकता था कि कनक से आखिर वह क्या कहेगा । बेहोशी के वक्त, कल्पना के लोक में, तमाम सृष्टि उसके अनुकूल हो जाती-कनक उसकी छाया लोक उसके, बाग, इमारत, आकाश-पृथ्वी-सब उसके । उसके एक-एक इंगित पर कनक उठती-बैठती, जैसे कभी तकरार हुई ही नहीं, कभी हुई थी, इसकी भी याद नहीं । राजकुमार इसी द्विधा में धीरे-धीरे चला जा रहा था ।
पीछे से एक मोटर और आ रही थी । यह सर्वेश्वरी की मोटर थी । कनक जब चली गई, तब सर्वेश्वरी को ज्ञात हुआ कि उसने गलती की । वहाँ सहायक कोई न था । दूसरा उपाय भी न था । कनक की रक्षा के लिए वह उतावली हो रही थी । इसी समय उसकी दृष्टि राजकुमार पर पड़ी । उसने हाथ जोड़ लिए फिर बुलाया । राजकुमार समझ गया, डेरे पर मिलने के लिए इशारा किया है । हृदय में आशा की समीर बह चली । पैर कुछ तेजी से उठने लगे ।
कनक की मोटर एकान्त बँगले के द्वार पर आ ठहर गई । यहाँ कुँवर साहब अपने कुछ घनिष्ठ मित्रों के साथ कनक की प्रतीक्षा कर रहे थे । एक अर्दली कनक को उतारकर कुँवर साहब के बंगले में ले गया ।
कुँवर साहब का नाम प्रतापसिंह था, पर ये बिलकुल दुबले-पतले । इक्कीस वर्ष की उम्र में ही हाथ-पैर सूखी डाल की तरह, मुँह सीप की तरह पतला हो गया था । आँखों के लाल डोरे अत्यधिक अत्याचार का परिचय दे रहे थे । राजा साहब ने उठकर कनक से हाथ मिलाया, और एक कुर्सी की तरफ बैठने के लिए इशारा किया । वह बैठ गई । देखा, वहाँ कितने आदमी थे, सब आँखों-ही-आँखों में इशारे कर रहे थे । देखकर उसे बड़ा भय लगा । उधर अनर्गल शब्दों के अव्यर्थ बाण, एक ही लक्ष्य, सातों महारथियों ने निश्शक होकर छोड़ना प्रारम्भ कर दिए, “उस रोज जब हम आपके यहाँ गए थे, पता नहीं, आपकी बाँहें किसके गले में थीं ।” इसी तरह के और भी चुभते हुए व्यंग्य-वाक्य ।
कनक को आज तक ऐसे व्यंग्य सुनने का मौका न पड़ा था । यहाँ सुनकर चुपचाप सह लेने के सिवा दूसरा उपाय भी न था, और इतनी सहनशीलता भी उसमें न थी । कुँवर साहब जिस तीखी कामुक दृष्टि से एकटक देखते हुए इस मधुर आलाप का आनन्द ले रहे थे, कनक के रोएँ-रोएँ से घृणा का जहर निकल रहा था ।
“मेरी माँ अभी तक नहीं आई ?” कुँवर साहब की तरफ मुखातिब होकर कनक ने पूछा ।
कुँवर साहब के कुछ कहने से पहले ही परिषद्-वर्ग बोल उठे, “अच्छा, अब माँ की याद की जाएगी ।”
सब अट्टहास हँसने लगे ।
कनक सहम गई । उसने निश्चय कर लिया कि अब यहाँ से निस्तार पाना कठिन है । याद आई, एक बार राजकुमार ने उसे बचाया था; वह राजकुमार आज भी है, पर उसने उस उपकार का उसे जो पुरस्कार दिया, उससे उसे नफरत है, इसलिए आज वह उसकी विपत्ति का सहायक नहीं, केवल दर्शक होगा । वह पहुँच से दूर, अकेला है । यहाँ वह पहले की तरह होता भी, तो उसकी रक्षा न कर सकता । कनक इसी तरह सोच रही थी कि कुँवर साहब ने कहा, “आपकी माँ के लिए दूसरी जगह ठीक की गई है, यहाँ सिर्फ आप ही रहेंगी ।”
कनक के होश उड़ गए । रास्ता भूली हुई दृष्टि से चारों तरफ देख रही थी । तभी कुँवर साहब ने कहा, “आपकी महफिल लगने पर ले जाने के लिए यह मोटर है । आप किसी तरह घबराइए मत । यहाँ एकान्त है । आपको रहेगा । इसी खयाल से आपको यहाँ लाया गया है । चारों तरफ से जल से भीगी हवा आ रही थी । छोटी-छोटी नावें भी हैं । आप जब चाहें, जल-विहार कर सकती हैं । भोजन भी आपके लिए यहीं आ जाएगा ।”
“आपको कोई तकलीफ न होगी खुक-खुक-खुक-खुक-खो-ओ-ओ-ओ-खो-खो-” मुसाहबों का अट्टहास गूंज उठा ।
“मुझे महफिल में जाने से पहले अपनी माँ के पास जाना होगा, क्योंकि पेशवाज वगैरा उन्हीं के पास हैं ।” “अच्छा, तो घंटे-भर पहले चली जाइएगा ।” कुँवर साहब ने मुसाहिबों की तरफ देखकर कहा ।
“रास्ते की थकी हुई हैं, माफ फर्माएँ, कुछ देर आराम करना चाहती हूँ । आपके दर्शनों से कृतार्थ हो गई ।”
“कमरे में पलंग बिछा है, आराम कीजिए ।”
कुँवर साहब की इस श्रुति मधुर स्तुति में जो लालसा थी. कनक उसे ताड़ न सकी । शायद अभ्यास के कारण, पर उसका जी इतनी ही देर में हद से ज्यादा ऊब गया था । उसने स्वाभाविक ढंग से कहा, “यहाँ में आराम न कर सकूँगी । नई जगह है । मुझे मेरी माँ के पास भेज दीजिए । फिर जब आपकी आज्ञा होगी, चली आऊँगी ।”
कुँवर साहब ने कनक को भेज दिया ।
सर्वेश्वरी यहाँ ठहराई गई, जहाँ बनारस, आगरे की और-और तवायफें भी ठहरी थीं । सर्वेश्वरी का स्थान सबसे ऊँचा, सजा हुआ तथा सुखद था । सभी तवायफों पर पहले ही से उसका रोब गालिब था । वहाँ कनक को न देख सर्वेश्वरी अपने को जाल में फँसी जानकर बड़ी व्याकुल हुई । और भी जितनी तवायफें थीं, सबसे यह समाचार कहा । सभी त्रस्त हो रही थीं । उसी समय उदास कनक को लेकर मोटर पहुँची । सर्वेश्वरी की जान में जान आई । अन्य तथायफें आँखें फाड़-फाड़कर उसके अपार रूप पर विस्मय प्रकट कर रही थीं, और इस तरह का खतरा साथ में रखकर भी खतरे से बची रहने के खयाल पर, “बिस्मिल्ला, तोबा, अल्लाह ताला ने आपको कैसी अक्ल दी…इतना जमाना देखकर भी आपको पहले नहीं सूझा ।” आदि-आदि सहानुभूति के शब्दों से अभिनन्दित कर रही थीं ।
सर्वेश्वरी आशा कर रही थी कि कनक अपनी दुःख कथा कहेगी, पर वह उस प्रसंग पर कुछ बोली ही नहीं चुपचाप आकर माता के बिस्तरे पर बैठ गई । अन्य कई अपरिचित तवायफें परिचय के लिए पास आ, घेरकर बैठ गई । मामूली कुशल-प्रश्न होते रहे । सबने अनेक उपायों से कनक के एकान्तवास का हाल जानना चाहा, पर वह टाल गई, “कुछ नहीं, सिर्फ मिलने के लिए कुँवर साहब ने बुलवाया था ।”
यह भी एकान्त स्थान था । गढ़ के बाहर एक बड़ा-सा बँगला बाग के बीच में था । इनके रहने के लिए खाली कर दिया गया था । चारों तरफ हजारों किस्म के सुगन्धित फूल लगे हुए थे । बीच-बीच से पक्की, टेढ़ी, सर्प की गति की नकल पर, राहें कटी हुई थीं ।
राजकुमार भटकता-फिरता पूछता बाग के फाटक पर आया । एक बार तो जी में आया कि भीतर जाए, पर लज्जा से उधर ताकने की भी हिम्मत न होती थी । सूर्यास्त हो चुका था । गोधूलि का समय था । गढ़ के द्वार पर खड़ा रहना भी उसे अपमानजनक जान पड़ा । वह बाग में घुसकर एक बेंच पर बैठ गया, और जेब से एक सिगरेट निकालकर पीने लगा । वह जिस जगह बैठा था, वहीं से, कनक के सामने ही, एक झरोखा था, और उसने वहाँ तक नजर साफ चली जाती थी, पर अँधेरे के कारण बाहर का आदमी नहीं देख सकता था ।
कनक वर्तमान समय की उलझी हुई ग्रन्थि खोलने के लिए मन-ही-मन सहस्रों बार राजकुमार को याद कर चुकी थी, और हर प्रत्युत्तर में उसे निराशा ही मिलती, “राजकुमार यहाँ क्यों आएगा ?”
कनक की माता भी उसकी फिक्र में थी । कारण, वह जानती थी कि किसी भी अनिश्चित कार्य के लिए दबाव पड़ने पर उसकी कन्या जान पर खेल जाएगी । वह कनक के लिए दीन-दुनिया सबकुछ छोड़ सकती थी ।
राजकुमार के हृदय में लज्जा, अनिच्छा, घृणा, प्रेम, उत्सुकता, कई विरोधी गुण थे, जिनका कारण बहुत कुछ उसकी प्रकृति थी, और थोड़ा-सा उसका पूर्व संस्कार तथा भ्रम । सन्ध्या हो गई, नौकर भोजन पकाने में लगे । कमरों की बत्तियाँ जल गई । बाहर के लाइट-पोस्ट भी जला दिए गए । राजकुमार की बेंच एक लाइट-पोस्ट के नीचे थी । बत्ती जलानेवाला राज्य का मशालची था । उसने राजकुमार को तबलची आदि समझकर कोई पूछताछ न की । कन्धे की सीढ़ी पोस्ट से लगाकर, बत्ती जलाकर, राजकुमार की तरफ से घृणा से मुँह फेर, उस तबलची से वह मशालची होने पर भी अपने धर्म में रहने के कारण कितना बड़ा है, सिर झुकाए हुए इसका निर्णय करता चला गया । राजकुमार को दुबारा देखने पर वह शायद ही पहचानता, घृणा के कारण उसकी नजर राजकुमार पर इतनी कम ठहरी थी ।
प्रकाश के कारण अब बाहर से राजकुमार भी भीतर देख रहा था । कनक को उसने एक बार दो बार, कई बार देखा । राजकुमार के हृदय के भाव उसके आँसुओं में झलक रहे थे । मन उसके विशेष आचरणों की आलोचना कर रहा था ।
उस समय कनक की अचानक उस पर निगाह पड़ी । सर्वांग काँप उठा । इतना सुख उसे कभी नहीं मिला था । राजकुमार से मिलने के समय भी नहीं । फिर देखा आँखों की प्यास बढ़ती ही गई । उत्कंठा की तरंग उठी । वह भी उठकर खड़ी हो गई, और राजकुमार की तरफ चली । कनक को राजकुमार ने देखा । समझ गया, वह उसी से मिलने आ रही है ।
राजकुमार को बड़ी लज्जा लगी-कनक के वर्तमान व्यवसाय पर और उससे अपनी घनिष्ठता के कारण । वह हिम्मत करके भी उस जगह, उजाले में, न रह सका । तारा से कनक को यदि न मिलाना होता, तो शायद कनक को इस परिस्थिति में देखकर वह एक क्षण भी वहाँ न ठहरता ।
कनक ने देखा, राजकुमार एक अँधेरे कुंज की तरफ धीरे-धीरे बढ़ रहा है। कनक भी उधर ही चली । इतने समय की तमाम बातें एक ही साथ निकलकर हृदय और मस्तिष्क को मथ रही थीं । राजकुमार के पास पहुँचते ही कनक को चक्कर आ गया । उसे जान पड़ा कि वह गिर जाएगी । बचाव के लिए स्वभावतः एक हाथ उठकर राजकुमार के कन्धे पर पड़ा । अज्ञात-चालित राजकुमार ने उसे आपृष्ठ कमर एक हाथ से लपेटकर थाम लिया । कनक अपनी देह का तमाम भार राजकुमार पर रखे आराम करने लगी, जैसे अब तक की की हुई तपस्या का फल भोग रही हो । राजकुमार थामे खड़ा रहा।
“तुमने मुझे भुला दिया, मैं अपना अपराध भी न समझ सकी ।”
तकिए के तौर से राजकुमार के कन्धे पर कपोल रखे हुए अधखुली, सरल, सप्रेम दृष्टि से कनक उसे देख रही थी । इतनी मधुर आवाज कानों के इतने नजदीक से राजकुमार ने कभी नहीं सुनी थी । उसके तमाम विरोधी गुण उस ध्वनि के तत्त्व में डूब गए । उसे तारा की याद आई । वह उसकी तमाम बातों को परस्पर जोड़ने लगा । यह वही कनक है, जिस पर उसे सन्देह था । कुंज में बाहर की बत्तियों का प्रकाश क्षीण होता हुआ भी पहुँच रहा था । उसने एक बिन्दी कनक के मस्तक पर लाल-लाल चमकती हुई देखी । सन्देह हुआ कि उसके साथ कनक का विवाह कब हुआ ! द्विधा ने मन के विस्तार को संकुचित कर एक छोटी-सी सीमा में बाँध दिया । प्रतिज्ञा जाग उठी, मानो किसी ने कई कोड़े कस दिए हों । कलेजा काँप उठा । भीनी-भीनी हवा बह रही थीं । कनक ने सुख से पलकें मूँद लीं । निर्वाक सचित्र राजकुमार को अपनी रक्षा का भार सौंपकर विश्राम करने लगी । राजकुमार ने कई बार पूछने का इरादा किया, पर हिम्मत न हुई-कितनी अशिष्ट, अप्रासंगिक बात !
राजकुमार कनक को प्यार करता था, पर उस प्यार का रंग बाहरी आवरणों से दबा हुआ था, वह समझकर भी नहीं समझ पाता था । इसका बहुत कुछ कारण कनक के इतिहास के सम्बन्ध में उसका अज्ञान था । बहुत कुछ उसके पूर्व-संचित संस्कार थे । उसके भीतर एक इतनी बड़ी-प्रतिज्ञा थी, जिसके बड़े-बड़े शब्द दूसरों के दिल में त्रास पैदा करनेवाले थे, जिसका उद्देश्य जीवन की महत्ता थी, प्रेम नहीं । प्रेम का छोटा-सा चित्र वहाँ टिक ही नहीं पाया था, इसलिए प्रेम की छाया में पैर रखते ही चौंक पड़ता था । अपने सुख की कल्पना कर दूसरों की निगाहों में अपने को बहुत छोटा देखने लगता था, इसलिए उसका प्यार कनक के प्यार के सामने हल्का पड़ जाया करता था-पानी के तेल की तरह उसमें रहकर भी उससे जुदा रहता था, ऊपर-ही-ऊपर तैरता फिरता था । अनेक प्रकार की शंकाएँ जाग उठतीं, दोनों की आत्मा की ग्रन्थि को एक से खुला कर दोनों को जुदा कर देती थीं ।
इसी अवस्था में कुछ देर बीत गई । थकी हुई कनक प्रिय की बाँहों में विश्राम कर रही थी, पर हृदय में जागती थी । अपने सुख को आप ही अकेली तौल रही थी । उसी समय राजकुमार ने कहा, “बहूजी ने तुम्हें बुलाया है, इसीलिए आया था ।”
कनक की आत्मा में अव्यक्त प्रतिध्वनि हुई, “नहीं तो न आते !” फिर एक जलन पैदा हुई । शिराओं में तड़ित् का तेज प्रवाह बहने लगा । कितनी असहृदय बात ! कितनी नफरत ! कनक राजकुमार को छोड़, अपने ही पैरों सँभलकर खड़ी हो गई । चमकीली निगाह से एक बार देखा । पूछा, “नहीं तो न आते ?”
इस उत्तर की राजकुमार को आशा न थी । विस्मयपूर्वक खड़ा कनक को एक विस्मय की ही प्रतिमा के रूप में देखता रहा । अपने वाक्य के प्रथम अंश पर ही उसका ध्यान था, पर कनक को राजकुमार की बहूजी की अपेक्षा राजकुमार की ही ज्यादा जरूरत थी, इसलिए उसने दूसरे वाक्य को ही प्रधान माना । राजकुमार के भीतर जितना दुराव कुछ विरोधी गुणों के कारण कभी-कभी आ जाया करता था, वह उसके दूसरे वाक्य में अच्छी तरह खुल रहा था, पर उसकी प्रकृति के अनुकूल होने के कारण उस-जैसा विद्वान् मनुष्य भी उस वाक्य की फाँस नहीं समझ सका । कनक उसकी दृष्टि में प्रिय अभिनेत्री, केवल संगिनी थी ।
“तुम्हीं ने कहा था, याद तो होगा, तुम मेरी कविता हो । इसका जवाब भी, जो मैंने दिया था, याद होगा ।”
लौटकर कनक डेरे की तरफ चली । उसके शब्द राजकुमार को पार कर गए । वह खड़ा देखता और सोचता रहा, “कब, कहाँ गलती से एक बात निकल गई, उसका इतना बड़ा ताना ! मैं साहित्य की बुद्धि के विचार से अभिनय किया करता हूँ । स्टेज की मित्रता मानकर इनका यह बाँकपन (अहह, कैसा बल खाती हुई जा रही है) नाजोअदा, नजाकत बरदाश्त कर लेता हूँ । आई हैं रुपए कमाने, ऊपर से मुझ पर गुस्सा झाड़ती हैं । न-जाने किसके कपड़ों का बोझ गधे की तरह तीन घंटे तक लादे खड़ा रहा । काम की बात कही नहीं कि आँखें फेर लीं, फिर मचलकर चल दीं । आखिर जात कौन है ! अब मैं पैरों पड़ता फिरूँ ? न बाबा, इतनी कड़ी हिम्मत मुझसे न होगी । बहूजी से कह दूँगा, यह काम मेरे मान का नहीं । उसे भेजो, जिसे मनाने का अभ्यास हो ।”
राजकुमार धीरे-धीरे बगीचे के फाटक की तरफ चला । निश्चय कर लिया कि सीधे बहूजी के पास ही जाएगा । सर्वेश्वरी भी बड़ी देर तक कनक को न देख खोज रही थी । बाहर आ रही थी कि उससे मुलाकात हुई ।
“अम्मा ! वह आए हैं, और आए हैं इसलिए कि उनकी बहूजी मुझसे मिलना चाहती हैं ।” कनक ने सरोप कहा, “मैं चली आई, उधर कुंवर साहब के रंग-ढंग भी मुझे बहुत बुरे मालूम दे रहे थे । अम्मा, मुझे तो देखकर डर लग रहा था । ऐसा देखता था, जैसे खा जाएगा मुझे । छोड़ता ही न था । जब मैंने कहा, अभी अपनी माँ से मिल लूँ, फिर जब आप याद करेंगे, मिल जाऊँगी, तब आने दिया ।”
“तुमने कुछ कहा भी राजकुमार से ?” सर्वेश्वरी ने पूछा ।
“नहीं । मुझ पर उन्हें विश्वास नहीं, अम्मा !” कनक की आँखें छलछला आई ।
“अभी बाग में हैं ?” सर्वेश्वरी ने कुछ सोचते हुए पूछा ।
“थे तो ।”
“अच्छा, जरा में भी मिल लूँ ।”
कनक खड़ी-खड़ी देखती रही । सर्वेश्वरी बाग की तरफ चली । राजकुमार फाटक पार कर चुका था ।
“भैया, कहाँ जाते हो ?” घबराई हुई सर्वेश्वरी ने पुकारा ।
“घर ।” वहीं से, बिना रुके हुए रुखाई से राजकुमार ने कहा ।
“तुम्हारा घर यहीं पर है ?” बढ़ती हुई सर्वेश्वरी ने आवाज दी ।
“नहीं, मेरे दोस्त का घर है ।” राजकुमार और तेज चलने लगा ।
“भैया, जरा ठहर जाओ । सुन तो लो ।”
“अब माफ कीजिए, इतना बहुत हुआ ।”
सामने से एक आदमी आता हुआ देख पड़ा । सर्वेश्वरी रुक गई । भय हुआ, बुला न सकी । राजकुमार पेड़ों के अँधेरे में अदृश्य हो गया ।
“कुँवर साहब ने महफिल के लिए जल्द बुलाया है ।” उस आदमी ने कहा ।
“अच्छा ।” सर्वेश्वरी की आवाज क्षीण थी ।
“आप लोगों ने खाना न खाया हो, तो जल्दी कीजिए ।”
सर्वेश्वरी डेरे की तरफ चली । आदमी दूसरी तवायफों को सूचना देने चला ।
“क्या होगा अम्मा ?” कनक ने त्रस्त निगाहों से देखते हुए पूछा ।
“जो भाग्य में होगा, हो लेगा । तुमसे भी नहीं बना ।”
कनक सिर झुकाए खड़ी रही । और और तवायफें भोजन-पान में लगी हुई थीं । सर्वेश्वरी थोड़ा-सा खाना लेकर आई, और कनक को खा लेने के लिए कहा । स्वयं भी थोड़ा-सा जलपान कर तैयार होने लगी ।
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