चैप्टर 12 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 12 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas

चैप्टर 12 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास, Chapter 12 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas, Chapter 12 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

Chapter 12 Apsara Suryakant Tripathi Nirala

Chapter 12 Apsara Suryakant Tripathi Nirala

कनक की आँखों के झरोखे से, प्रथम यौवन के प्रभातकाल में, तमाम स्वप्नों की सफलता के रूप में राजकुमार ने ही झाँका था, और सदा के लिए उसमें एक शून्य रखकर तिरोहित हो गया । आज कनक के लिए संसार में ऐसा कोई नहीं जितने हैं, टूटे हुए यन्त्र को बार-बार छेड़कर उसके बेसुरेपन का मजाक उड़ानेवाले ! इसीलिए अपने आप में चुपचाप पड़े रहने के सिवा उसके पास दूसरा उपाय न रह गया था ।

जो प्रेम कभी थोड़े समय के लिए उसके अन्धकारमय हृदय को मणि की तरह प्रकाशित कर रहा था, वहीं अब दूसरों की परिचित आँखों के प्रकाश में जीवन के कलंक की तरह स्याह पड़ गया है । अन्धकार-पथ पर जिस एक ही प्रदीप को हृदय के अंचल में छिपा वह अपने जीवन के तमाम मार्ग को आलोकमय कर लेना चाहती थी, हवा के अकारण झोंके से ही गुल हो गया । उस हवा के आने की पहले ही उसने कल्पना क्यों नहीं की ।…अब ? अभी तो पूरा पथ ही पड़ा हुआ है । अब उसका कोई लक्ष्य नहीं । वह दिग्यन्त्र ही अचल हो गया है, अब वह केवल प्रवाह की अनुगामिनी है ।

और राजकुमार ? प्रतिश्रुत युवक के हृदय की आग रह-रहकर आँखों से निकल पड़ती है । उसने जाति, देश, साहित्य और आत्मा के कल्याण के लिए अपने समस्त सुखों का बलिदान कर देने की प्रतिज्ञा की थी, पर प्रथम पदक्षेप में ही इस तरह आँखों में आँखें बिंध गई कि पथ का ज्ञान ही जाता रहा । अब वह बारम्बार अपनी भूल के लिए पश्चात्ताप करता है, पर अभी उसकी दृष्टि पूर्ववत् साफ न हुई ।

कनक की कल्पना-मूर्ति उसकी तमाम प्रगतियों को रोककर खड़ी हो जाती और प्रत्येक समर में राजकुमार की वास्तव-शक्ति उस छायाशक्ति से परास्त हो जाती है । तमाम बाहरी कार्यों के भीतर राजकुमार का यह मानसिक द्वन्द्व चलता जा रहा है ।

आज दो दिन से वह युवती के साथ उसके मायके में है । वहीं से उसने यह खबर तार द्वारा लखनऊ भेज दी । चन्दन के बड़े भाई नन्दनसिंह ने तार से सूचित किया कि कोई चिन्ता न करें । मुमकिन है, को मिल जाए । इस खबर से घर के सभी लोग प्रसन्न हैं । राजकुमार भी कुछ निश्चिन्त हो गया । गर्मियों की छुट्टी थी । कलकत्ते के लिए विशेष चिन्ता न थी । युवती को उसके पिता-माता, बड़े भाई और भावजें तारा पुकारती थीं । तभी राजकुमार को भी उसका नाम ज्ञात हुआ । राजकुमार को नाम मालूम हो गया है, जानकर युवती कुछ लज्जित हुई ।

राजकुमार का अस्त-व्यस्त सामान युवती के सिपुर्द था । पहले दो-एक रोज तक सँभालकर रखने की उसे फुर्सत न मिलीं । अब एक दिन अवकाश पा, राजकुमार के कपड़े झाड़-झाड़, तह कर रखने लगी । कनक के मकानवाले कपड़े एक ओर लिपटे, अछूत की तरह, एक बाल्टी की डंडी में बँधे हुए थे । युवती ने पहले वही गठरी खोली, भीतर एक जोड़ी जूते भी थे । सभी कपड़े कीमती थे । युवती उनकी दशा देख राजकुमार के गार्हस्थ्य-ज्ञान पर खूब हँसी । जूते, धोती, कमीज, कोट अलग कर लिए । कमीज और कोट से सेंट की महक आ रही थी । झाड़-झाड़कर कपड़ों की चमक देखने लगी वह । कोट की दाहनी बाँह पर एक लाल धब्बा था । देखा, गौर से फिर देखा, सन्देह जाता रहा । वह सिन्दूर ही का धब्बा था । अब राजकुमार पर उसका सन्देह हुआ ।

रज्जू बाबू को वह महावीर तथा भीष्म ही की तरह चरित्रवान् समझती थी । उसके पति भी रज्जू बाबू की इज्जत करते थे । उसकी सास उन्हें चन्दन से बढ़कर समझती थी, पर यह क्या ? यह सिन्दूर, सूँघा, ठीक सिन्दूर ही था ।

युवती ने सन्देह को सप्रमाण सत्य कर लेने के निश्चय से राजकुमार को बलाया । एकान्त था । युवती के हाथ में कोट देखते ही राजकुमार की दृष्टि में अपराध की छाप पड़ गई । युवती हँसने लगी, “मैं समझ गई !”

राजकुमार ने सिर झुका लिया ।

“यह क्या है ?” युवती ने पूछा ।

“कोट ।”

“अजी, यह देखो, यह ।” धब्बा दिखाती हुई वह बोली ।

“मैं नहीं जानता ।”

“नहीं जानते ?”

“नहीं ।”

“यह किसी की माँग का सेन्दुर है जनाब !”

सुनते ही राजकुमार चौंक पड़ा, “सेन्दुर !”

“हाँ-हाँ, सेन्दुर-सेन्दुर । देखो ।”

राजकुमार की नजरों से वास्तव जगत गायब हो रहा था । क्या यह कनक की माँग का सेन्दुर है ? तो क्या कनक ब्‍याहता है ? हृदय को बड़ी लज्जा हुई । कहा, “बहूजी, इसका इतिहास बहुत बड़ा है । अभी तक में चन्दन की चिन्ता में फँसा था, इसलिए नहीं बता सका ।”

“अब बताओ ।”

“हाँ, मुझे कुछ छिपाना थोड़े ही है ! लेकिन बड़ी देर होगी ।”

“अच्छा, ऊपर चलो ।”

युवती राजकुमार को ऊपर एक कमरे में ले गई ।

युवती चित्त को एकाग्र कर कुल कहानी सुनती रही ।

“कहीं-कहीं छूट रही है । जान पड़ता है, सब घटनाएँ तुम्हें नहीं मालूम ।

जैसे-उसे तुम्हारी पेशी की बात कैसे मालूम हुई, उसने कौन-कौन-सी तदवीर की ?” युवती ने कहा ।

“हाँ, मुमकिन है । जब मैं चलने लगा, तब उसने कहा भी था कि बस, आज के लिए रह जाओ, तुमसे बहुत कुछ कहना है ।”

“आह ! सब तुम्हारा कुसूर है । तुम इतने पर भी उस पर कलंक की कल्पना करते हो ?”

राजकुमार को एक हूक-सी लगी ! घबराया हुआ युवती की ओर देखने लगा ।

“जिसने तुम्हारी सबसे नजदीक की बनने के लिए इतना किया, तुम्हें उसे इसी तरह का पुरस्कार देना था ! प्रतिज्ञा तो तुमने पहले की थी, कनक क्या तुम्हें पीछे नहीं मिली ?”

राजकुमार की छाती धड़क रही थी ।

“लोग पहले किसी सुन्दर वस्तु को उत्सुक आँखों से देखते हैं, पर जब किसी दूसरे स्वार्थ की याद आती है, आँखें फेरकर चल देते हैं । क्या तुमने उसके साथ ऐसा ही नहीं किया ?” युवती ने प्रश्न किया ।

राजकुमार के हृदय ने कहा, “हाँ, ऐसा ही किया है ।” जबान से उसने कहा, “नीचे कुछ लोगों को उसके चरित्र की अश्रव्य आलोचना करते हुए मैंने सुना है ।”

“झूठ बात । मुझे विश्वास नहीं । तुम्हारे कानों ने धोखा दिया होगा । और, किसी के कहने ही पर तुम क्यों गए ? इसलिए कि तुम खुद उस तरह की कुछ बातें उसके सम्बन्ध में सुनना चाहते थे ।”

राजकुमार का मन युवती की तरफ हो गया ।

युवती मुस्कुराई, “तो यह चलते समय की धर-पकड़ का दाग है- क्यों ?”

राजकुमार ने गर्दन झुका ली ।

“अब भी नहीं समझे, रज्जू बाबू ? यह आप ही के नाम का सेन्दुर है ।” राजकुमार को असंकुचित देखती हुई युवती हँस रही थी, “आपसे प्रेम की भी कुछ बातें हुईं ?”

“मैंने कहा था, तुम मेरी कविता हो ।”

युवती खिलखिलाकर हँसी, “कैसा चोर पकड़ा ! फिर आपकी कविता ने क्या जवाब दिया ?”

“कवि लोग अपनी ही लिखी पंक्तियाँ भूल जाते हैं ।”

“कितना सही उत्तर दिया । क्या अब भी आपको सन्देह है ।”

राजकुमार के मस्तक पर एक भार-सा आ पड़ा ।

“रज्जू बाबू, तुम गलत राह पर हो !”

राजकुमार की आँखें छलछला आई ।

“मैं बहुत शीघ्र उससे मिलना चाहती हूँ । छिः, रज्जू बाबू, किसी की ज़िन्दगी बरबाद कर दोगे ? और उसकी जबान से जिसके हो चुके ?”

“हम भी जाएँगे दीदी !” एक आठ साल का बालक दौड़ता हुआ ऊपर चढ़ गया, और दोनों हाथों में अपनी बैठी हुई बहन का गला भर लिया, “दीदी, आज राजा साहब के यहाँ गाना होगा । बड़े दादा जाएँगे, मुन्नी जाएँगी, हम भी जाएँगे ।” बालक उसी तरह अपनी बहन के गले में बाँहें डाले थिरक रहा था ।

“किसका गाना है ?” युवती ने बच्चे से पूछा ।

“कनक, कनक, कनक का ।” बालक आनन्द से थिरक रहा था ।

युवती और राजकुमार गम्भीर हो गए । बच्चे ने गला छोड़ दिया । बहन की मुद्रा देखी, फिर फुर्ती से जीने से उतर दौड़ता हुआ ही, मकान से बाहर निकल गया ।

युवराज का अभिषेक है, यह दोनों जानते थे । विजयपुर वहाँ से मीलभर है । युवती के पिता स्टेट के कर्मचारी थे । बालक की बात पर अविश्वास करने का कोई कारण न था ।

“देखा, बहूजी !” राजकुमार ने अपने अनुभव-सत्य की दृढ़ता से कहा ।

“अभी कुछ कहा नहीं जा सकता । रज्जू बाबू, किसके मन में कौन-सी भावना है, इसका दूसरा अनुमान लगाए, तो गलती का होना ही अधिक सम्भव है ।”

“अनुमान कभी-कभी सत्य भी होता है ।”

“पर तुम्हारी तरह का अनुमान नहीं ।”

अब तक कई लड़के आँगन में खड़े हुए, तालियाँ पीटते-थिरकते हुए, ‘हम भी जाएँगे, हम भी जाएँगे’ सम-स्वर में घोर संगीत छेड़े हुए थे ।

युवती ने झरोखे से लड़कों को एक बार देखा । फिर राजकुमार की तरफ मुँह करके कहा, “अच्छा हो, अगर आज स्टेशन पर कनक से मिला जाए । पूरब से एक ही गाड़ी चार बजे आती है ।”

“नहीं, यह उचित न होगा । आपको तो मैं मकान से बाहर निकलने की राय दे ही नहीं सकता, और इस तरह के मामले में !”

“किसी बहाने मिल लेंगे ।” युवती उत्सुक हो रही थी ।

“किसी बहाने भी नहीं, बहूजी ! स्टेट की बातें आपको नहीं मालूम ।”

राजकुमार गम्भीर हो गया । युवती त्रस्त हो संकुचित हो गई ।

“पर मुझे एक दफा जरूर दिखा दो ।” करुणाश्रित सहानुभूति की दृष्टि से देखती हुई युवती ने राजकुमार का हाथ पकड़कर कहा ।

“अच्छा ।”

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