चैप्टर 11 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 11 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas

चैप्टर 11 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास, Chapter 11 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas, Chapter 11 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

Chapter 11 Apsara Suryakant Tripathi Nirala

Chapter 11 Apsara Suryakant Tripathi Nirala

पीड़ित हृदय पर पुनः चोट लगी । कनक हृदय थामकर रह गई, “वज्र की तरह ऐसे ही लोग कठोर हुआ करते हैं !”

पहले जीवन में एकान्त की कल्पना ने जिन शब्दों का हार गूँथा था, उसकी लड़ी में यति-भंग हो गया । तमाम रात प्रणय-देवता के चरणों में पड़ी रोकर भोर कर दिया । प्रातःकाल ही उनके सत्य आसीस का कितना बड़ा प्रमाण ! अब यह समय की सरिता सागर की ओर नहीं, सूखे की ओर बढ़ रही थी ! जितना ही आँसुओं का प्रवाह बढ़ रहा था, हृदय उतना ही सूख रहा था ।

बरामदे से आकर वह फिर पलंग पर पड़ रही । हृदय पर साँप लोट रहा था, “कितना अपमान ! यह वही राजकुमार था, जिसने एक सच्चे वीर की तरह मेरी रक्षा की थी । छिः ! उसी दृढ़ प्रतिज्ञ मनुष्य की जबान थी-तुम मेरे शरीर की आत्मा, मेरी कल्पना की तस्वीर, रूप की रेखा, डाल की कली, गले की माला, स्नेह की परी, जल की तरंग, रात की चाँदनी, दिन की छाँह हो !”

कनक ने उठकर पंखा खोल दिया । पसीना सूख गया, किन्तु हृदय का ताप और बढ़ गया । इच्छा हुई, राजकुमार को खूब खरी-खोटी सुनाए, “तुम आदमी हो । एक बात कहकर फिर भूल जानेवाले तुम इनसान हो ! तुम होटलों में खानेवाले मेरे हाथ का पकाया भोजन नहीं खा सकते !”

“वह कौन थी ? होगी कोई”, मुझसे जरूरत ! न, इधर ही गई है । पता लगाना चाहिए, वह थी कौन । मयना ?”

मयना आकर सामने खड़ी हो गई ।

“गाड़ी जल्द तैयार कराओ ।”

उसी रात, राजकुमार के चले जाने के बाद, कनक ने अपने समस्त गहने उतार डाले थे । जिन वस्त्रों में थी, उन्हीं में जूते पहन खटाखट नीचे उतर गई । इतना उत्साह था, मानो तबियत खराब हुई ही नहीं ।

“खोजने जाऊँ ? न ।”

नीचे मोटर तैयार थी, बैठ गई ।

“किस तरफ चलूँ ?” ड्राइवर ने पूछा ।

राजकुमार की मोटर सियालदह की ओर गई थी । उसी ओर देखते हुए कहा, “इस तरफ ।” फिर दूसरी तरफ-वेलेस्ली-स्क्वायर की ओर-चलने के लिए कहा ।

मोटर चल दी । मोटर धर्मतल्ला पहुँची, तो बाएँ हाथ चलने के लिए कहा । वह राह भी सियालदह के करीब समाप्त हुई है । नुक्कड़ पर पहुँची, तो स्टेशन की तरफ चलने के लिए कहा ।

कनक ने राजकुमार की मोटर का नम्बर देख लिया था । सियालदह-स्टेशन पर कई मोटरें खड़ी थीं । उतरकर देखा, उस मोटर का नम्बर-न मिला । कलेजे में फिर नई लपटें उठने लगीं । स्टेशन पर पूछा, “क्या अभी कोई गाड़ी गई है ?”

“सिक्स अप एक्सप्रेस गया है ।”

“कितनी देर हुई ?”

“सात पाँच पर छूटता है ।”

स्तब्ध खड़ी रह गई वह ।

“कैसी इनसानियत ! देखा, पर मिलना भी उचित न समझा । और मैं? मैं पीछे-पीछे फिर रही हूँ । बस, अब पैरों भी पड़ें, तो मैं उधर न देखें ।” कनक चिन्ता में डूब रही थी । भीतर-बाहर, पृथ्वी अन्तरिक्ष, सब जगह जैसे आग लग गई हो । संसार आँखों के सामने रेगिस्तान-सा तप रहा था । शक्ति का, सौन्दर्य का एक चित्र नहीं देख पड़ता था । पहले की जितनी सुकुमार मूर्तियाँ कल्पना के जाल में आप ही फँस जाया करती थीं, अब वे सब जैसे जकड़ ली गई हों-मानो किसी ने उन्हें इस प्रलय के समय अन्यत्र कहीं विचरण करने के लिए छोड़ दिया हो ।

लौटकर कनक मोटर में बैठ गई । “घर चलो ।” कहा उसने ।

ड्राइवर मोटर ले चला ।

कनक उतरी कि एक दरबान ने कहा, “मेम साहब बैठी हैं ।” वह सीधे अपने पढ़नेवाले कमरे में चली गई ।

सर्वेश्वरी मिसेज कैथरिन के पास बैठी बातें कर रही थी । राजकुमार के जाने के बाद से सर्वेश्वरी के मन में एक आकस्मिक परिवर्तन हो गया था । वह अब कनक पर नियन्त्रण करना चाहती थी । उसे मानव स्वभाव की बड़ी गहरी पहचान थी । कुछ दिन अभी कुछ न बोलना ही वह उचित समझती थी । कैथरिन की इस सम्बन्ध में उसने सलाह माँगी । बहुत कुछ वार्तालाप के बाद उसने कैथरिन को कनक के गार्जियन के तौर पर, कुछ दिनों के लिए नियुक्त कर लेना उचित समझा । कैथरिन ने भी छः महीने तक के लिए आपत्ति न की । फिर उसे यूरोप जाना था’। उसने कहा, “अच्छा हो, अगर उस समय आप कनक को पश्चिमी आर्ट, नृत्य, गीत और अभिनय की शिक्षा के लिए यूरोप भेज दें ।”

कनक में जैसा एकाएक परिवर्तन हो गया था, उसका खयाल कर सर्वेश्वरी इस शिक्षा पर उसके प्रवृत्त होने की शंका कर रही थी । अतएव कैथरिन को मोड़ फेर देने के लिए नियुक्त कर लिया । कनक के आने की खबर मिलते ही सर्वेश्वरी ने उसे बुलवाया ।

“माजी बुलाती हैं ।” मयना ने आकर कहा ।

कनक माता के पास गई ।

“मेमसाहब से अभी तुम्हारे ही विषय में बातें हो रही थीं ।”

कनक की भौंहों में बल पड़ गए । कैथरिन ताड़ गई । बोली, “यही कि अगर कुछ दिन और पढ़ लेतीं, तो अच्छा होता ।”

कनक खड़ी रही ।

“तुम्हारी तबियत कैसी है ?”

“अच्छी है ।” कनक ने तीव्र दृष्टि से कैथरिन को देखा ।

“यूरोप चलने का विचार है ?”

“हाँ, सेप्टेम्बर में तय रहा ।”

“अच्छी बात है ।”

सर्वेश्वरी कनक की बेफॉस आवाज से प्रसन्न हो गई । माता की बगल में ही बैठ गई कनक ।

“विजयपुर के राजकुमार का राजतिलक है ।”

कनक काँप उठी, जैसे जल की तरंग मन में बहती हुई सोचने लगी, “राजकुमार का राजतिलक !”

“हमने बयाना भी ले लिया है-दो सौ रुपए रोज, खर्च अलग ।”

“कब है ?”

“हमें परसों पहुँच जाना चाहिए ।”

“मैं चलूँगी ।”

“तुम्हें बुलाया था, पर हमने इनकार कर दिया ।”

कनक माता की ओर प्रश्न-सूचक दृष्टि से देखने लगी ।

“क्या करते ! हमने सोचा, शायद तुम्हारा जाना न हो ।”

“नहीं, मैं चलूँगी ।”

“तुम्हारे लिए तो विशेष आग्रह था उनका । मेमसाहब, क्या साथ चलने के लिए आपको फुर्सत होगी ?” “फुर्सत कर ली जाएगी ।” कैथरिन की आँखें रुपयों की चर्चा से चमक उठी थीं ।

“तुम्हें 501 रु. रोज देंगे, अगर तुम में जाओ ।”

कनक के हृदय में मानो एक साथ किसी ने हजार सुइयाँ चुभो दीं । दर्द को दबाकर बोली, “सोचूँगी ।”

सर्वेश्वरी की मुरझाई हुई लता पर आषाढ़ की शीतल वर्षा हो गई । “यह बात है, अपने को सँभाल लो, तमाम उम्र बर्बाद करने से फायदा क्या ?”

हृदय की खान में बारूद का धड़ाका हुआ ।

करुण अधखुली चितवन से कनक राजकुमार का चित्र देख रही थी, जो किसी तरह भी हृदय-पट से नहीं मिट रहा था । मन में कह रही थी, हो पुरुष ! यह सब मुझे किसकी गलती से सुनना पड़ रहा है-चुपचाप दर्द को थामकर ?’

“तो तय रहा ?”

“हाँ ।”

“तार कर दिया जाए ?”

“कर दीजिए ।”

“तुम खुद लिखो अपने नाम से ।”

कनक झपटकर उठी । अपने पढ़नेवाले कमरे से एक तार लिखकर ले आई, “राजा साहब, तार मिला । अपनी माता के साथ महफिल करने आ रही हूँ ।”

सर्वेश्वरी तार सुनकर बड़ी प्रसन्न हुई । “सुनो ।” कैथरिन कनक को अलग बुला ले गई । उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं । कनक के स्वभाव का ऐसा चित्र उसने आज ही देखा था । वह उसे ऊपर उसके कमरे में ले गई । वहाँ अंग्रेजी में कहा, “तुम्हारा जाना अच्छा नहीं ।”

“बुरा क्या है ? मैं इसीलिए पैदा हुई हूँ !”

“राजा लोग, मैंने सुना है, बहुत बुरी तरह पेश आते हैं ।”

“हम रुपए पाने पर सब तरह का अपमान सह लेती हैं ।”

“तुम्हारा स्वभाव पहले ऐसा नहीं था ।”

“पहले बयाना भी न आता था ।”

“तुम यूरोप चलो । यहाँ के आदमी तुम्हारी क्या कद्र करेंगे ? में वहाँ तुम्हें किसी लार्ड से मिला दूँगी ।”

कनक की नसों में मानो किसी ने तेज झटका दिया । वह कैथरिन को घूरकर रह गई ।

“तुम क्रिश्चियन हो जाओ । राजकुमार तुम्हारे लायक नहीं । वह क्या तुम्हारी कद्र करेगा ! वह तुमसे दबता है, रद्दी आदमी ।”

“मैडम !” कड़ी निगाह से कनक ने कैथरिन को देखा । आँखों की बिजली से कैथरिन काँप उठी । कुछ समझ न सकी ।

“मैं तुम्हारे भले के लिए कहती हूँ, तुम्हें ठीक राह पर ले चलने का मुझे अधिकार है ।”

कनक सँभल गई, “मेरी तबियत अच्छी नहीं, माफ कीजिएगा, इस वक्त मुझे अकेली छोड़ दीजिए ।”

कनक को एक तीव्र दृष्टि से देखती हुई कैथरिन खड़ी हो गई । कनक पूर्ववत् बैठी रही । कैथरिन तेजी से पीछे उतर गई । “इसका दिमाग इस वक्त कुछ खराब हो रहा है । आप डॉक्टर की सलाह लें ।” सर्वेश्वरी से कहकर कैथरिन चली गई ।

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