चैप्टर 14 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 14 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas

चैप्टर 14 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास, Chapter 14 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas, Chapter 14 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

Chapter 14 Apsara Suryakant Tripathi Nirala

Chapter 14 Apsara Suryakant Tripathi Nirala

राजकुमार बाहर, एक रास्ते पर कुछ देर खड़ा सोचता रहा । दिल को सख्त चोट लगी थी । बहू से नाराज था । सोच रहा था, चलकर खूब फटकारूँगा । रात एक पहर बीत चुकी थी, भूख लग रही थी । बहू के मकान की ओर चला, पर दिल पीछे खींच रहा था, तरह-तरह से आरजू-मिन्नत कर समझा रहा था, “बहुत दूर चलना है ।” बहू का मकान वहाँ से मील ही भर के फासले पर था, “अब वहाँ खाना-पीना हो गया होगा । सब लोग सो गए होंगे ।”

राजकुमार को दिल की यह तजवीज पसन्द आई ।

रास्ते में एक पुल मिला । वह वहीं बैठकर फिर सोचने लगा । कनक उसके शरीर में प्राणों की ज्योति की तरह समा गई थी, पर बाहर से वह बराबर उससे लड़ता रहा । ‘कनक-स्टेज पर नाचेगी, गाएगी, दूसरों को खुश करेगी, खुद भी प्रसन्न होगी और मुझसे ऐसा जाहिर करती है, गोया, दूध की धुली हुई है, इन सब कामों में दिल से उसकी बिलकुल दिलचस्पी नहीं और वह ऐसी कनक की महफिल में बैठकर गाना सुनना चाहता है !’ राजकुमार के रोएँ-रोएँ से नफरत की आग निकल रही थी, जिससे तपकर कनक की कल्पना-मूर्ति उसे और भी चमकती हुई, स्नेहमयी बनकर घेर लेती । हृदय उमड़कर उसे स्टेज की तरफ चलने के लिए प्रेरित करता । उसके तमाम विरोधी प्रयत्न विफल हो रहे थे ।

अन्ततः उसने यन्त्रवत हृदय की इस सलाह को मान लिया, और उसके अनुकूल युक्तियाँ भी निकाल लीं । सोचा, ‘अब बहुत देर हो गई है, बहू सो गई होंगी । अच्छा हो, यहीं चलकर कहीं जरा जलपान कर लूँ, और रात महफिल के एक कोने में बैठकर पार कर दूँ । कनक मेरी है कौन ? फिर मुझे इतनी ग्लानि क्यों ? जिस तरह मैं स्टेज पर जाया करता हूँ, उसी तरह यहाँ भी बैठकर बारीकियों की परीक्षा करूँगा । कनक के सिवा और भी कई तवायफें हैं । उनके सम्बन्ध में मैं कुछ नहीं जानता । उनके संगीत से लेने लायक मुझे कुछ मिल सकता है ।’

बस, निश्चय हो गया । फिर बहू का मील-भर दूर मकान मंजिलों दूर सूझने लगा । राजकुमार लौट पड़ा ।

चौराहे पर कुछ दीपक जल रहे थे, उसी ओर चला । कई दुकानें थीं, पूड़ियों की भी एक दुकान थी । उसी तरफ बढ़ा । सामने कुर्सियाँ पड़ी थीं, बैठ गया । आराम की एक ठंडी साँस ली । पाव-भर पूड़ियाँ तोलने के लिए कहा ।

भोजन के पश्चात् हाथ-मुँह धोकर दाम दे दिए । इसी समय गढ़ के भीतर कुँवर साहब की सवारी का डंका सुनाई पड़ा । दुकानदार लोग चलने के लिए व्यग्र हो उठे । उन्हीं से उसे मालूम हुआ कि अब कुँवर साहब महफिल में जा रहे हैं । दुकानदार अपनी-अपनी दुकानें बन्द करने लगे । राजकुमार भी भीतर से पुलकित हो उठा । एक पानवाले की दुकान से दो बीड़े लेकर खाता हुआ गढ़ की तरफ चला ।

बाहर, खुली हुई जमीन पर, एक विशाल मंडप बना था । एक तरफ स्टेज था, तीन तरफ से गेट । हर पर संगीन-बन्द सिपाही पहरे पर था । भीतर बड़ी सजावट थी । विद्युदाधार मँगवाकर कुँवर साहब ने भीतर और बाहर बिजली की बत्तियों से रात में दिन कर रखा था ।

राजकुमार ने बाहर से देखा, स्टेज जगमगा रहा था । फुटलाइट का प्रकाश कनक के मुख पर पड़ रहा था, जिससे रात में उसकी सहस्रोंगुणा शोभा बढ़ गई थी । गाने की आवाज आ रही थी । लोग बातचीत कर रहे थे कि आगरेवाली गा रही है । राजकुमार ने बाहर ही से देखा, तवायफें दो कतारों में बैठी हुई हैं । दूसरी कतार में पहली तवायफ गा रही हैं । इस कतार में कनक ही सबसे आगे थी, बगल में उसकी माता । लोग मन्त्र-मुग्ध होकर रूप और स्वर की सुधा पी रहे थे, अचंचल आँखों से कनक को देख रहे थे । कनक भी दीपक की शिखा की तरह स्थिर बैठी थी । यौवन की उस तरुण ज्योति की तरफ कितने ही प्रतिंगे बढ़ रहे थे । कुँवर साहब एकटक उसे ही देख रहे थे ।

राजकुमार को बाहर-ही-बाहर घूमते हुए देखकर एक ने कहा, “बाबूजी, भीतर जाइए, आपके लिए कोई रोक थोड़े ही है । रोक तो हम लोगों के लिए है, जिनके पास मजबूत कपड़े नहीं । जब कुँवर साहब चले जाएँगे, तब पिछली रात को कहीं मौका लगेगा ।”

राजकुमार को हिम्मत हुई । एक गेट के भीतर घुसा । सभ्य देश देख सिपाही ने रास्ता छोड़ दिया । पीछे जगह बहुत खाली थी, एक जगह बैठ गया । उसे आते हुए कनक ने देख लिया । वह बड़ी देर से, जब से स्टेज पर आई, उसे खोज रही थी । कोई भी नया आदमी आता, तो उसकी आँखें जाँच करने के लिए बढ़ जाती थीं ।

कनक राजकुमार को देख रही थी । राजकुमार ने भी कनक को देखा, और समझ गया कि उसका आना कनक को ज्ञात हो गया है, फिर भी आँखें फेरकर एक ओर बैठ गया । कनक कुछ देर तक अचंचल दृष्टि से देखती ही रही । मुख पर किसी प्रकार का न था । राजकुमार के विचार को जैसे वह समझ रही थी, पर चेष्टाओं में किसी प्रकार की भावना न थी ।

क्रमशः दो-तीन गाने हो गए । दूसरी तरफवाली कतार खत्म होने पर थी । एक-एक संगीत की बारी थी । कारण, कुँवर साहब शीघ्र ही सबका गाना सुनकर चले जानेवाले थे । इधर की कतार में कनक का पहला नम्बर था, फिर उसकी माता का । कुँवर साहब उसके गाने के लिए उत्सुक हो रहे थे, और अपने पास के मुसाहिबों से पहले ही से उसके मँजे हुए गले की तारीफ कर रहे थे, और इस प्रतियोगिता में सबको वही परास्त करेगी इसका निश्चय भी दे रहे थे । कुँवर साहब के जल्द उठ जाने का एक और था, और इस कारण में उनके साथ कनक का भी बँगले पर जाना निश्चित था । इसकी कल्पना कनक ने पहले ही कर ली थी, परन्तु मुक्ति का कोई उपाय न सोच सकी थी । कोई युक्ति थी भी नहीं । एक राजकुमार था, अब उससे वह निराश हो चुकी थी । राजकुमार के प्रति कनक के मन में क्रोध कम न था ।

फर्श बिछा था । ऊपर इन्द्र-धनुषी रंग के रेशमी थानों को और बीच में सोने की चित्रित चर्खी में उन्हीं कपड़ों को पिरोकर नए ढंग की चाँदनी बनाई गई थी । चारों तरफ लोहे के लट्ठे गड़े थे, उन्हीं के सहारे मंडप खड़ा था । लोहे की उन कड़ियों में वही कपड़े लिपेटे थे । दो-दो कड़ियों के बीच एक तोरण उन्हीं कपड़ों से सजाया गया था । मंडप 100 हाथ से भी लम्बा और 50 हाथ से भी चौड़ा था । लम्बाई के सीध में, सटा हुआ, पर मंडप से अलग, स्टेज था-स्टेज की ही तरह सजा हुआ, फुट लाइटें जल रही थीं । साजिन्दे विंग्स के भीतर बैठे साज बजा रहे थे ।

कुँवर साहब की गद्दी के दो-दो हाथ के फासले से सोने की कामदार छोटी रेलिंग चारों तरफ लगी थी । दोनों बगल गुलाब-पाश, इत्रदान, फूलदान आदि सजे हुए थे । गद्दी पर रेशमी मोटी चादर बिछी थी, चारों तरफ एक-एक हाथ सुनहला काम था, और पन्ने तथा हीरे की कन्नियाँ जड़ी हुई थी । दोनों बगल दो छोटे-छोटे कामदार मखमली तकिए, वैसा ही पीठ की तरफ बड़ा गिरदा । कुँवर साहब की दाहिनी तरफ उनके परिवार के लोग थे, और बाईं तरफ राज्य के अफसर । पीछे आनेवाले सभ्य दर्शक तथा राज्य के पढ़े-लिखे और रईस लोग । राजकुमार यहीं बैठा था ।

कनक उठ गई । राजकुमार ने देखा । भीतर ग्रीन-रूम में जाकर उसने कुँवर साहब के नाम एक चिट्ठी लिखी, और अपने जमादार को खूब समझाकर चिट्ठी दे दी । इस काम में उसे पाँच मिनट से अधिक समय न लगा । वह फिर अपनी जगह आकर बैठ गई ।

जमादार ने चिट्ठी कुँवर साहब के अर्दली को दी । अर्दली से कह भी दिया कि जरूरी चिट्टी है । छोटी बाईजी ने जल्द पेश करने के लिए कहा है ।

कुँवर साहब के रंग-ढंग वहाँ के तमाम नौकरों को मालूम हो गए थे । छोटी बाई जी के प्रति कुँवर साहब की कैसी कृपा-दृष्टि है, और परिणाम आगे चलकर क्या होगा, इसकी चर्चा नौकरों में छिड़ गई थी । अतः उसने तत्काल चिट्ठी पेशकार को दे दी और साथ ही जल्द पेश कर देने की सलाह भी दी ।

पेशकार साहब मौका न होने के बहाने पत्र लेकर बैठे ही रहना चाहते थे, पर जब उसने बुलाकर एकान्त में समझा दिया कि छोटी बाई इस राज्य के नौकरों के लिए कोई मामूली बाईजी नहीं, यदि जल्द पत्र न गया, तो कल ही उससे तअल्लुक रखनेवालों पर बड़ी-बड़ी विपत्तियाँ आ सकती हैं । उसने इशारे से सारा मतलब समझा दिया, तब पेशकार मन-ही-मन पुरस्कार की कल्पना करते हुए कुँवर साहब की गद्दी की तरफ बढ़े, और झुककर पत्र पेश कर दिया ।

प्रकाश आवश्यकता से अधिक था । कुँवर साहब पढ़ने लगे । पढ़कर, बिना तपस्या के वर-प्राप्ति का सुन्दर सुयोग देख खुले हुए कमल पर बैठे भौरे की तरह प्रसन्न हो गए । पत्र में कनक ने शीघ्र ही कुँवर साहब को ग्रीन-रूम में बुलाया था ।

एकाएक वहाँ से उठकर कुँवर साहब न जा सकते थे, शान के खिलाफ था । उधर गाने से तृप्ति करने की अपेक्षा जाने की उत्सुकता प्रबल थी, अतः मुसाहबों को ही निर्णय के लिए छोड़ उठकर खड़े हो गए । पालकी लग गई । कुँवर साहब प्रासाद चले गए ।

इधर आम जनता के लिए द्वार खुल गया । सब तरह के आदमी भीतर धँस गए । महफिल ठसाठस भर गई । अब तक दूसरी कतार का गाना खत्म हो चुका था । कनक की बारी थी । लोग सिर उगाए आग्रह से मुँह ताक रहे थे । सर्वेश्वरी ने धीरे से उसे कुछ समझाया । कनक के उस्तादों ने स्वर भरा । कनक ने एक अलाप ली, फिर गाने लगी :

“दिल का आना था कि काबू से था जाना दिल का;

ऐसे जाने से तो बेहतर था न आना दिल का ।

हम तो कहते थे , मुहब्बत की बुरी हैं रस्में;

खेल समझे थे मेरी जान , लगाना दिल का ।”

स्वर की तरंग ने पूरी महफिल को डुबो दिया । लोगों के हृदय में एक नया स्वप्न, सौन्दर्य के आकाश के नीचे, शिशिर के स्पर्श से धीरे-धीरे पलक खोलती हुई चमेली की तरह विकसित हो गया । उसी स्वप्न के भीतर से लोग उस स्वर की परी को देख रहे थे । साधारण लोग अपने उमड़ते हुए उच्छ्वास को न रोक सके । एक तरफ से आवाज आई, “उवाह कनकौआ जस सुनत रहील, तइसै हऊ राजा !”

सभ्य जन सिर झुका मुस्कुराने लगे । कनक उसी धैर्य में अप्रतिभ बैठी गाती रही । एक बार राजकुमार को देखा, फिर आँखें झुका लीं ।

राजकुमार कलाविद् था । संगीत का उस पर पूरा असर पड़ गया था । एक बार, जब काक के कल ज्ञान की याद आती, हृदय के सहस्र कंठों से उसकी प्रशंसा करने लगता, पर दूसरे ही क्षण उस सोने की मूर्ति में भरे हुए जहर की कल्पना उसके शरीर को जर्जर कर देती थी । चित्त की वह डावाँडोल स्थिति उसकी आत्मा को क्रमशः कमजोर करती जा रही थी, हृदय में स्थायी प्रभाव जहर का ही रह जाता । एक अज्ञात वेदना उसे क्षुब्ध कर देती थी । कनक के स्वर, सौन्दर्य, शिक्षा आदि की वह जितनी ही बातें सोचता, और ये बातें उसके मन के यन्त्र को आप ही चला-चलाकर, उसे कल्पना के अरण्य में भटकाकर निर्वासित कर देती थी, उतनी ही उसकी व्याकुलता बढ़ जाती थी । तृष्णार्त को ईप्सित सुस्वादु जल नहीं मिल रहा था-सामने महासागर था, पर हाय, वह लवणाक्त था !

कुँवर साहब प्रासाद में पोशाक बदलकर सादे, सभ्य वेश में, कुछ विश्वास-पात्र अनुचरों को साथ ले, प्रकाश-हीन मार्ग से स्टेज की तरफ चल दिए । उनके अनुचर उन्हें चारों ओर से घेरे हुए थे, जिससे दूसरों की दृष्टि उन पर न पड़े । स्टेज के बहिर्द्वार से कुँवर साहब भीतर ग्रीनरूम की ओर चले । एक आदमी को साथ ले, और सबको वहीं, इधर-उधर प्रतीक्षा करने के लिए कह दिया । ग्रीनरूम से कुँवर साहब ने अपने आदमी को कनक को बुला लाने के लिए भेज दिया । खबर पा, उँगली मुँह के नजदीक तक उठा, दर्शकों को अदब दिखला सामने के विंग से भीतर चलने लगी । दर्शकों की तरफ मुँह किए विंग की ओर फिरते समय एक बार फिर राजकुमार की ओर देखा । दृष्टि नीची कर मुस्कुराई । क्योंकि राजकुमार की आँखों में वह आग थी, जिससे वह जल रही थी ।

कनक ग्रीनरूम की तरफ चली । शंकित हृदय काँप उठा, पर कोई चारा न था । राजकुमार की तरफ असहाय आँखें प्रार्थना की अनिमेष दृष्टि से आप-ही-आप बढ़ गईं, और हताश होकर लौट आईं । कनक के अंग-अंग राजकुमार की तरफ से प्रकाश-हीन सन्ध्या में कमल के दलों की तरह संकुचित हो गए । हृदय को अपनी शक्ति की किरण देख पड़ी, दृष्टि ने स्वयं अपना साथ निश्चित कर लिया ।

कनक एक विंग के भीतर सोचती हुई खड़ी हो गई थी । चली । कुँवर साहब ने बड़े आदर से उठकर उसका स्वागत किया ।

“बैठिए ।” कहकर कनक उनके बैठने की प्रतीक्षा किए बिना कुर्सी पर बैठ गई । कुँवर साहब नौकर को बाहर जाने के लिए इशारा कर बैठ गए ।

कनक ने कुँवर साहब पर एक तेज दृष्टि डाली । देखा, उनके अपार ऐश्वर्य पर तृष्णा की विजय थी । उनकी आँखें उसकी दृष्टि से नहीं मिल सकीं । वे कुछ चाहती हैं, इसलिए झुकी हुई हैं । उन पर कनक का अधिकार जम गया ।

“देखिए ।” कनक ने कहा, “यहाँ एक आदमी बैठा है, उसको कैद कर लीजिए ।”

आज्ञा-मात्र से प्रबल-पराक्रम कुँवर साहब उठकर खड़े हो गए, “कौन है ?”

“आइए ।” कनक आगे-आगे चली ।

स्टेज के सामने के गेटों की दराज से राजकुमार को दिखाया । उसके शरीर, मुख, कपड़े, रंग आदि की पहचान कराती रही । कुँवर साहब ने अच्छी तरह देख लिया । कई बार दृष्टि पर जोर दे-देकर देखा । दूसरी कतार की तवायफें तअज्जुब की निगाह से उस मनुष्य तथा कनक को देख रही थीं । गाना हो रहा था ।

कनक को उसकी इच्छा-पूर्ति से उपकृत करने के निश्चय से कुँवर साहब को उसे ‘तुम’ सम्बोधन करने का साहस तथा सुख मिला । कनक भी कुछ झुक गई, जब उन्होंने कहा, “अच्छा, तुम ग्रीनरूम में चलो, तब तक अपने आदमियों को बुलाकर इन्हें दिखा दूँ ।”

कनक चली गई । कुँवर साहब ने दरवाजे के पास से बाहर देखा । कई आदमी आ गए । दो को साथ भीतर ले गए । उसी जगह से राजकुमार को परिचित करा दिया, और खूब समझा दिया, “महफिल उठ जाने पर एकान्त रास्ते में अलग बुलाकर वह जरूर गिरफ्तार कर लिया जाए । किसी को कानोकान खबर न हो । आपस के सब लोग उसे पहचान लें ।”

कुँवर साहब के मनोभावों पर चढ़ा हुआ भेद का पर्दा कनक के प्रति किए गए उपकार की शक्ति से ऊपर उठ गया । सहस्रों दृश्य दिखाई पड़े । आसक्ति के उद्दाम प्रवाह में संसार अत्यन्त रमणीय, चिरंतन सुखों से उमड़ता हुआ एकमात्र उद्देश्य स्वर्ग देख पड़ने लगा । ऐश्वर्य की पूर्ति में उस समय किसी प्रकार का दैन्य न था । जैसे उनकी आत्मा में संसार के सब सुख व्याप्त हो रहे हों । उद्दाम प्रसन्नता से कुँवर साहब कनक के पास आए ।

जाल में फँसी हुई मृगी जिस तरह अपनी आँखों को विस्फारित कर मुक्त शून्य के प्रति मुक्ति के प्रयत्न में निकलती रहती है, उसी दृष्टि से कनक ने कुँवर साहब को देखा । इतनी सुन्दर दृष्टि कुँवर साहब ने कभी नहीं देखी थी । किन्हीं आँखों में उन्हें वश करने का इतना जादू न था । आँखों के जलते हुए दो स्फुलिंग उनकी प्रणय-वाटिका में खिले हुए दो थे । प्रतिहिंसा की गर्म साँस, वसन्त का शीतल समीर, और उस रूप की आग गुलाब में तत्काल जल जाने के लिए वह एक अधीर पतंग । स्टेज पर लखनऊ की नब्‍बाबजान गा रही थीं :

“तू अगर शमा बने, मैं तेरा परवाना बनूँ ।”

कुँवर साहब ने असंकुचित, कुंठित भाव से कनक की उन्हीं आँखों में अपनी दृष्टि गड़ाते हुए निर्लज्ज स्वर से दोहराया, “तू अगर शमा बने, मैं तेरा परवाना बनूँ ।”

कनक ने उसी तरह असंकुचित स्वर से जवाब दिया, “मैं तो शमा बनकर ही दुनिया में आई हूँ, जनाब !”

“फिर मुझे परवाना बना लो ।” परवाने ने परवाने के सर्वस्व दानवाले स्वर से नहीं, तटस्थ रहकर कहा ।

कनक ने एक बार आँख उठाकर देखा ।

“किस्मत !” कहकर अपनी ही आँखों की बिजली में दूर तक रास्ता देखने लगी ।

“क्या सोचती हो तुम भी; दुनिया में हँसने-खेलने के सिवा और है क्या ?”

“कुँवर साहब का हितोपदेश सुनकर एक बार कनक मुस्कुराई । जलती आग में आहुति डालती हुई बोली, “आप ठीक कहते हैं । आप-जैसा जहाँ परवाना हो, वहाँ तो शमा को अपनी तमाम खूबसूरती से जलते रहना चाहिए । लेकिन, मैं सोचती हूँ, मेरी माँ जब तक यहाँ है, में शीशे के अन्दर हूँ । शमा से मिलने से पहले उसके शीशे को निकाल दीजिए ।”

“जैसा कहो, वैसा किया जाए ।” उत्सुकता-प्रसन्नता से कुँबर साहब ने कहा ।

“ऐसा कीजिए कि वह आज ही सुबह यहाँ से चली जाएँ, और और तवायफें हैं, मैं भी हूँ, जलसा फीका न होगा । आप मुझे इस वक्त बँगले ले चलना चाहेंगे ।”

कृतज्ञ प्रार्थना से कुँवर साहब ने कनक की ओर देखा । कनक समझ गई । बोली, “अच्छा, ठहरिए, में जरा माँ से मिल लूँ ।”

कुँवर साहब खड़े रहे । माता को विंग्स की आड़ में बुलाकर, थोड़े शब्दों में कुछ कहकर कनक चली गई ।

गाना खत्म होने का समय आ रहा था । कुँवर साहब एक पालकी पर कनक को चढ़ा, दूसरी के बन्द पर्दे में खुद बैठकर बँगले चले गए ।

Prev | Next | All Chapters 

परिणीता शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास

नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास

रूठी रानी मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

Leave a Comment