चैप्टर 17 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 17 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas

चैप्टर 17 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास,  Chapter 17 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas, Chapter 17 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

Chapter 17 Apsara Suryakant Tripathi Nirala

Chapter 17 Apsara Suryakant Tripathi Nirala

कुछ दिन चढ़ आने पर राजकुमार की आँखों ने एक बार चिन्ता के जाल से बाहर प्रकाश के प्रति देखा । चन्दन की याद आई । उठकर बैठ गया । बहूजी झरोखे के पास, एक बाजू पकड़े बाहर सड़क की तरफ देख रही थीं । कोलाहल, कौतूहलपूर्वक हास्य तथा वार्तालाप के अशिष्ट शब्द सुन पड़ते थे ।

राजकुमार ने उठकर देखा, बगल में चन्दन सो रहा था । एक पलँग और विछा था । कोई सिर से पैर तक चादर ओढ़े सो रहा था । चन्दन को देखकर चिन्ता की तमाम गाँठें आनन्द के मरोर से खुल गईं । जगाकर उससे अनेक बातें पूछने के लिए इच्छाओं के रंगीन उत्स रोएँ-रोएँ से फूट पड़े ।

उठकर बहू के पास जाकर पूछा, “यह कब आए ? जगा दूँ ?”

“बात इस तरह करो कि बाहर किसी के कान में आवाज न पड़े । और, जरूरत पड़ने पर तुम्हें साड़ी पहनकर रहना होगा ।”

राजकुमार जल गया, “क्यों ?”

“बड़ी नाजुक स्थिति है, तुम्हें सब मालूम हो जाएगा ।”

“पर मैं साड़ी नहीं पहन सकता । अभी से कहे देता हूँ ।”

“अर्जुन तो साल-भर विराट के यहाँ साड़ी पहनकर नाचते रहे, तुम्हें क्या हो गया ?”

“वह उस वक्त नपुंसक थे ।”

“और इस वक्त तुम ! उससे पीछा छुड़ाकर नहीं भागे ?”

राजकुमार लज्जित प्रसन्नता से टल गया । पूछा, “यह है कौन जो पलँग पर पड़े हैं ?”

“मुँह खोलकर देखो ।”

“नाम से ही पता चल जाएगा ।”

“हमें नाम से ज्यादा काम पसन्द हैं ।”

“अगर कोई अनजान आदमी हो ?”

“तो जान-पहचान हो जाएगी ।”

“सो रहे हैं, नाराज होंगे ।”

“कुछ बक-झक लेंगे, पर जहाँ तक मेरा अनुमान है, जीत नहीं सकते ।”

“कोई रिश्तेदार हैं शायद ?”

“तभी तो इतनी दूर आ पहुँचे हैं ।”

राजकुमार पलँग के पास गया । चादर रेशमी और मोटी थी, मुँह देख नहीं पड़ता था । धीरे-से उठाने लगा । तारा खड़ी हँस रही थी । खोलकर देखा, विस्मय से फिर चादर उढ़ाने लगा । कनक की आँखें खुल गई थीं । चादर उढ़ाते हुए राजकुमार को देखा, उठकर बैठ गई । देखा, सामने खड़ी तारा हँस रही है । लज्जा से उठकर खड़ी हो गई । फिर तारा के पास चली गई । सिर उसी तरह खुला रखा ।

वार्तालाप तथा हँसी-मजाक की ध्वनि से चन्दन की नींद उखड़ गई । उठकर देखा, तो सब लोग उठे हुए थे । राजकुमार ने बड़े उत्साह से बाँहों में भरकर, उसे उठाकर खड़ा कर दिया ।

तारा और कनक दोनों को देख रही थीं । दोनों एक ही से थे । राजकुमार कुछ बड़ा था । शरीर भी कुछ भरा हुआ । लोटे में जल रखा था । राजकुमार ने चन्दन को मुँह धोने के लिए दिया । खुद भी उसी से ढालकर मुँह धोते हुए पूछा, “कल जब मैं आया, लोगों से मालूम हुआ, तुम आए हो । पर कहाँ हो, क्या बात है, बहूजी से बहुत पूछा, वह टाल गईं।”

“फिर बताऊँगा । अभी समय नहीं । बहुत-सी बातें हैं । अन्दाजा लगा लो । मैं न जाता, तो इनकी बड़ी संकटमय स्थिति थी । उन लोगों से इनकी रक्षा न होती ।”

“हाँ, कुछ-कुछ समझ में आ रहा है ।”

“देखो, हम लोगों को आज ही चलने के लिए तैयार हो जाना चाहिए, ऐसी सावधानी से कि पकड़ में न आएँ ।” “मतलब ?”

“तुम्हें गिरफ्तार करने का पहले ही हुक्म था, और आज्ञा तुम्हारी इन्होंने निकलवाई थी । उसी पर में गिरफ्तार हुआ, तुम्हें बचाने के लिए, क्योंकि तुम सब जगहों से परिचित न थे । फिर जब पेश हुआ, तब इनके दुबारा गाने का प्रकरण चल रहा था । बँगले में खास महफिल थी ।” चन्दन ने हाथ पोंछते हुए कहा ।

“हैमिल्टन साहब भी आए थे ।” कनक ने कहा ।

“फिर ?” राजकुमार ने चन्दन से पूछा ।

संक्षेप में कुल हाल चन्दन बतला गया । युवती कनक को लेकर बगलवाले कमरे में चली गई ।

“आज ही चलना चाहिए ।” चन्दन ने कहा ।

“चलो ।”

“चलो नहीं, चारों तरफ लोग फैल गए होंगे । इस व्‍यूह से बचकर निकल जाना बहुत मामूली बात नहीं । और, कोई तअज्जुब नहीं, लोगों को दो-एक रोज में बात मालूम हो जाए ।”

“गाड़ी सजा लें, और उसी पर चले चलेंगे ।”

“कहाँ ?”

“स्टेशन ।”

“खूब ! तो फिर पकड़ जाने में कितनी देर है ?”

“फिर ?”

“औरत बन सकते हो ?”

“न ।”

चन्दन हँसने लगा । कहा, “हाँ भाई, तुम औरतवाले कैसे औरत बनोगे, पर मैं तो बन सकता हूँ ।”

“यह तो पहले ही से बने हुए हैं ।” कहती हुई मुस्कुराती कनक के साथ युवती कमरे में आ रही थी ।

युवती कनक को वहीं छोड़कर भोजन-पान के इन्तजाम के लिए चली गई । चन्दन को कमरा बन्द कर लेने के लिए कहती गई । चन्दन ने कमरा बन्द कर लिया ।

कनक निष्कृति के मार्ग पर आकर देख रही थी, उसके मानसिक भावों में युवती के संग-मात्र से तीव्र परिवर्तन हो रहा था । इस परिवर्तन-चक्र पर जो सान उसके शरीर और मन की लग रही थी, उससे उसके चित्त की तमाम वृत्तियाँ एक-दूसरे ही प्रवाह में तेजी से बह रही थीं, और इस धारा में पहले की तमाम प्रखरता मिटती जा रही थी । केवल एक शान्त, शीतल अनुभूति चित्त की स्थिति को दृढ़तर कर रही थी । अंगों की चपलता उस प्रवाह से तट पर तपस्‍या करती हुई-सी, निश्‍चल हो रही थी ।

राजकुमार चन्दन से उसका पूर्वापर कुछ प्रसंग एक-एक कर पूछ रहा था । चन्दन बतला रहा था । दोनों के वियोग के समय से अब तक की सम्पूर्ण घटनाएँ एवं उनके पारस्परिक सम्बन्ध वार्तालाप से जुड़ते जा रहे थे ।

“तुम विवाह से घबराते क्यों हो ?” चन्दन ने पूछा ।

“प्रतिज्ञा तुम्हें याद होगी !” राजकुमार ने शान्त स्वर से कहा ।

“वह मानवीय थी, यह सम्बन्ध दैवी है । इसमें शक्ति ज्यादा है ।” चन्दन ने तर्क रखा ।

“जीवन का अर्थ समर है ।”

“पर जब तक वह कायदे से, सतर्क, सरस और अविराम होता रहे । विक्षिप्त का जीवन जीवन नहीं और न उसका समर समर ।”

“मैं अभी विक्षिप्त नहीं हुआ ।”

चोट खाकर वर्तमान स्थिति को कनक भूल गई । अत्रस्त दृष्टि, अकुंठित कंठ से कह उठी, “मैंने विवाह के लिए कब, किससे प्रार्थना की ?”

चन्दन देखने लगा । ऐसी आँखें उसने कभी नहीं देखी थीं । कितना तेज था उनमें !

कनक ने फिर कहा, “राजकुमारजी, आपने स्वयं जो प्रतिज्ञा की है, शायद ईश्वर के सामने की है, और मेरे लिए जो शब्द आपके हैं-आप इडेन-गार्डेन की बातें भूले नहीं होंगे-वे शायद वीरांगना के प्रति हैं !”

चन्दन एक बार कनक की आँखें और एक बार नत राजकुमार को देख रहा था । दोनों के चित्र सत्य का फैसला कर रहे थे ।

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