चैप्टर 16 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 16 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas

चैप्टर 16 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास, Chapter 16 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas, Chapter 16 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

Chapter 16 Apsara Suryakant Tripathi Nirala

Chapter 16 Apsara Suryakant Tripathi Nirala

कनक ने बँगले में पहुँचकर जो दृश्य देखा, उससे उसकी रही-सही आशा निर्मूल हो गई । बँगले में कुँवर साहब के मेहमान टिके हुए थे, जिनमें एक को कनक पहले से जानती थी । वह थे मिस्टर हैमिल्टन । अधिकांश मेहमान कुँवर साहब के कलकत्ते के मित्र थे-बड़े-बड़े तअल्लुकेदार और गोरे साहब । ये लोग उसी रोज गाड़ी से उतरे थे । बँगले में इनके ठहरने का खास इन्तजाम था । ये सभी कुँवर साहब के अन्तरंग मित्र थे, अन्तरंग आनन्द के हकदार । अपने स्थानों से इसी आशा से प्रयाण किया था ।

कुँवर साहब ने पहले ही से वादा कर रखा था कि अभिषेक हो जाने के समय से अन्त तक वह अपने मित्रों को दर्शाते रहेंगे कि मित्रों की खातिरदारी किस तरह से की जाती है । मित्र-मंडली कभी-कभी इसका तकाजा भी करती रही है । कनक के आने का तार मिलते ही इन्होंने अपने मित्रों को आने के लिए तार कर दिया था । करीब-करीब वे लोग भी कनक का नाम सुन चुके थे ।

कुँवर साहब की थोड़ी-सी जमींदारी 24 परगने में थी, जिससे कभी-कभी हैमिल्टन साहब से मिलने-जुलने का अवसर आ जाता था । धीरे-धीरे यह मित्रता और भी दृढ़ हो गई । कारण, दोनों एक ही घाट के पानी पीनेवाले थे, कई बार पी भी चुके थे, इससे हृदय भेद-भाव रहित हो गया था । हेमिल्टन साहब तार पाकर बड़े प्रसन्न हुए । हिन्दोस्तानी युवती को साहबी उद्दण्डता, क्रूरता तथा कूटता का ज्ञान करा देने के लिए वह तैयार हो रहे थे, उसी समय उन्हें तार मिला । एक बार कुँवर साहब के मानवीय मित्र की हैसियत से क्षुद्र नर्तकी देखने की लालसा प्रबल हो गई । वह कुछ दिन की छुट्टी लेकर चले आए ।

कनक ने सोचा था, कुँवर साहब को वह अपने इंगित पर नचाएगी । राजकुमार को गिरफ्तार करा. जब इच्छा हो, उसे मुक्त कर उसकी सहायता से स्वयं भी मुक्त हो जाएगी, पर यहाँ और ही रंग देखा । उसने सोचा था, कुँवर साहब अकेले रहेंगे । वह भय से पीली पड़ गई । हैमिल्टन उसे देखकर मुस्कुराया । दृष्टि में व्यंग्य फूट रहा था । अंकुश कनक के हृदय को पार कर गया । चारों तरफ से कटाक्ष हो रहे थे । सब उसकी लज्जा को भेदकर उसे देखना चाहते थे । कनक व्याकुल हो उठी । आवाज में कहीं भी अपनापन न था ।

कुँवर साहब पालकी से उतरे । सब लोगों ने शैतान की सूरत का स्वागत किया । कनक खड़ी सबको देख रही थी ।

“अजी, आप बड़ी मुश्किलों में मिली हैं । और, सौदा भी बड़ा महँगा रहा ।” कुँवर साहब ने अपने मित्रों से कनक की तरफ इशारा कर कहा ।

कनक कमल-कलिका-सी संकुचित खड़ी रही । हृदय में आग धधक रही थी । कभी-कभी आँखों से ज्वाला फूट पड़ती थी । याद आया, वह भी महाराजकुमारी है, पर हृदय उमड़कर आप ही बैठ गया, “मुझमें और इनमें कितना फर्क है । ये मालिक हैं, और मैं इनके इशारे पर नाचनेवाली ! और, यह फर्क केवल इसी सीमा तक है । चरित्र में ये किसी भी तवायफ से श्रेष्ठ नहीं । पर फिर भी समाज इनका है, इसलिए ये अपराधी नहीं । नीचता से ओत-प्रोत ऐसी वृत्तियाँ लिए हुए भी ये समाज के प्रतिष्ठित, सम्मान्य, विद्वान् और बुद्धिमान् मनुष्य हैं । और मैं ?”

कनक को चक्कर आने लगा । एक खाली कुर्सी पकड़कर उसने अपने को सँभाला । इस तरह तप-तपकर वह और सुन्दर हो रही थी, और चारों तरफ से उसके प्रति आक्रमण भी वैसे ही और चुभीले ।

कुँवर साहब मित्रों से खूब खुलकर मिले । हैमिल्टन की उन्होंने बड़ी आवभगत की । कुँवर साहब हैमिल्टन की जितनी ही कद्र कर रहे थे, वह उतना ही कनक को अकड़-अकड़कर देख रहा था ।

मुस्कुराते हुए कुँवर साहब ने कनक से कहा, “बैठो, इस बगलवाली कुर्सी पर अपने ही आदमियों की एक बैठक होगी, दोमंजिले पर । यहाँ भी हारमोनियम पर सुनाना होगा । सुरेश बाबू, दिलीपसिंह भी गाएँगे । तुम्हें आराम के लिए फुर्सत मिल जाया करेगी ।” कहकर चालाक पुतलियाँ फेर लीं ।

एक नौकर ने आकर कुँवर साहब को खबर दी, “सर्वेश्वरी बाई यहाँ से स्टेशन के लिए रवाना हो गई हैं । उनका हिसाब भी कर दिया गया है ।”

कहकर नौकर चला गया ।

एक दूसरा नौकर आया । सलाम कर उस आदमी के गिरफ्तार होने की खबर दी । कुँवर साहब ने कनक की तरफ देखा । कनक ने हैमिल्टन को देखकर राजकुमार को बुलवाना उचित न समझा । दूसरे, जिस अभिप्राय से उसने राजकुमार को कैद कराया था, यहाँ उसकी सफलता की कोई सम्भावना भी न थी ।

कनक को मौन देख कुँवर साहब ने कहा, “यहाँ ले आओ उसे ।”

कनक चौंक पड़ी । जल्दी में कहा, “नहीं-नहीं, अब उसकी कोई जरूरत नहीं । उसे छोड़ दीजिए ।” कनक का स्वर काँप रहा था ।

“जरा देख तो लें उस इशारेबाज को ।” कुँवर साहब ने नौकर को संकेत किया ।

चार सिपाही अपराधी को लेकर बँगले के भीतर आए । भीतर आते ही, किसी तरफ नजर उठाए बिना, अपराधी ने झुककर तीन बार सलाम किया ।

उसका शरीर और रंग-ढंग राजकुमार से मिलता-जुलता था, पर कनक ने देखा, वह राजकुमार न था । इसका चेहरा रूखा, कपड़े मोटे, बाल छोटे-छोटे, बराबर । उम्र राजकुमार से कुछ कम जान पड़ती थी ।

कुँवर साहब ने कहा, “क्योंजी, यह इशारेबाजी तुमने कहाँ सीखी ?”

अपराधी ने फिर झुककर तीन बार पुनः सलाम किया, और कनक को एक तेज निगाह से देखा ।

“यह वह नहीं हैं ।” कनक ने जल्दी में कहा ।

कुँवर साहब देखने लगे । पहचान न सके । स्टेज पर ध्यान आदमी की तरफ से ज्यादा कनक की तरफ था । पहले के आदमी से इसमें कुछ फर्क अवश्य देखते थे ।

अपराधी ने किसी की तरफ देखे बिना फिर सलाम किया, और जैसे दीवार से कह रहा हो, “हुजूर, ग्वालियर में पखावज सीखकर कुछ दिनों तक रामपुर, जयपुर, अलवर, इन्दौर, उदयपुर, बीकानेर, टीकमगढ़, रीवाँ, दरभंगा, बर्दवान- इन सभी रियासतों में मैं गया हूँ, और सभी राजा-महाराजों को पखावज सुनाई है । हुजूर के यहाँ जलसा सुनकर आया था ।” कहकर उसने फिर सलाम किया ।

“अच्छा, तुम पखावजिए हो ?”

“हुजूर !” उसने पुनः सलाम किया ।

हैमिल्टन की तरफ मुड़कर कुँवर साहब ने अंग्रेजी में कहा, “अब बन गया काम ।”

कनक आगन्तुक और कुँबर साहब को देख रही थी । रह-रहकर एक अज्ञात भय से कलेजा काँप उठता था ।

“एक पखावज ले आओ ।” सिपाही से कुँवर साहब ने कहा । बँगले की दूसरी मंजिल पर फर्श बिछा हुआ था, मित्रों को साथ लेकर चले । आगन्तुक से कनक को ले आने के लिए कहा । सिपाही पखावज लेने चला गया । और लोग बाहर फाटक पर थे ।

कुँवर साहब और उनके मित्र ऊपर चले गए । पीछे से दो खिदमतदार भी चले । कमरा सूना देख, युवक ने कनक के कन्धे पर हाथ रखकर फिसफिसाते हुए कहा, “मैं राजकुमार का मित्र हूँ ।”

कनक की आँखों से प्रसन्नता का स्रोत फूट पड़ा । अपलक देखने लगी ।

युवक ने कहा, “यही समय है । तीन मिनट में हम खाई पार कर जाएँगे । तब तक वे लोग हमारी प्रतीक्षा करेंगे । देर हुई, तो इन राक्षसों से में अकेले तुम्हें बचा न सकूँगा ।”

कनक आवेग में भरकर युवक से लिपट गई, और हृदय से रेलकर उतावली से कहा, “चलो ।”

“तैरना जानती हो ?” शीघ्रता से खाई की तरफ बढ़ते हुए कहा ।

“न ।” शंका से देखती हुई ।

“पेशवाज भीग जाएगी । अच्छा, हाँ” कमर-भर पानी में खड़े होकर युवक ने कहा, “धीरे से उतर पड़ो, घबराओ मत ।”

कनक उतर पड़ी ।

युवक ने अपनी चादर भिगोकर, पानी में हवा भरकर, गुब्बारे-सा बना कनक को पकड़ा दिया । ऊपर से आवाज आई, “अभी ये लोग आए नहीं । जरा नीचे जाकर देखो तो ।”

युवक कनक की बाँह पकड़कर चुपचाप तैरकर खाई पार करने लगा ।

लोग नीचे आए । फाटक की तरफ दौड़े । युवक खाई पार कर चुका था ।

उस पार घोर जंगल था । युवक कनक को साथ ले पेड़ों के बीच अदृश्य हो गया ।

बँगले के चारों तरफ खाई थी । केवल फाटक से जाने की राह थी । फाटक के पास से बड़ी सड़क कुँवर साहब की कोठी तक चली गई थी ।

शोर-गुल उठ रहा था । इस पार से ये लोग सुन रहे थे ।

“हम लोग पकड़ लिए गए, तो बड़ी बुरी गति होगी ।” कनक ने धीरे-से युवक से कहा ।

“अब हजार आदमी भी हमें नहीं पकड़ सकते । यह छः कोस का जंगल है । रात है । तब तक हम घर पहुँच जाएँगे ।” कपड़े निचोड़ते हुए युवक ने कहा ।

“क्‍या आपका घर में यहीं है ?” चलते हुए स्नेह-सिक्त स्वर से कनक ने पूछा ।

“मेरा नहीं, मेरे भाई की ससुराल है । राजकुमार भी वहीं होंगे ।”

“वे लोग जंगल चारों तरफ से घेर लें, तो ?”

“ऐसा हो नहीं सकता; और जंगल की बगल में ही वह गाँव है, इस तरफ तीन मील ।”

“आपको मेरे बारे में कैसे मालूम हुआ ?”

“भाभी ने मुझे राजकुमार की मदद के लिए भेजा था । उसे उन्होंने तुम्हें ले आने के लिए भेजा था न ।”

कनक के क्षुद्र हृदय में रस का सागर उमड़ रहा था ।

“आपकी भाभी को राजकुमार क्या कहते हैं ?”

“बहूजी ।”

“आपकी भाभी मायके कब आई ?”

“तीन-चार रोज हुए ।”

कनक अपनी स्मृति पर जोर देने लगी ।

“साथ राजकुमार थे ?”

“हाँ”

“आप, तब कहाँ थे ?”

“लखनऊ । किसानों का संगठन कर रहा था, पर बचकर, क्योंकि मुझे काम ज्यादा प्यारा है ।”

“फिर 2”

“लखनऊ में सरकारी खजाने का डाका पड़ा । शक पर मैं भी गिरफ्तार कर लिया गया, पर मेरी गैरहाजिरी ही साबित रही । पुलिस के पास कोई बहा सुबूत न था, सिर्फ नाम दर्ज था । खुफियावाले मुझे भला आदमी जानते थे । कोई सुबूत न रहने से जमानत पर छोड़ दिया गया ।”

“आप कब गिरफ्तार किए गए”

“छः-सात रोज हुए होंगे । अखबारों में भी छपा था ।”

“राजकुमार को कब मालूम हुआ ?”

“जिस रोज भाभी की यहाँ ले आए, उसी रात को तुम्हारे यहाँ ।”

कनक एक बार प्रणय से पुलकित हो गई ।

“देखिए, कैसी चालाकी, मुझे कुछ नहीं बतलाया । मुझसे नाराज होकर आए थे ।” कहा कनक ने ।

“हाँ, सुना है, तुमसे नाराज हो गए थे । भाभी से बतलाया भी नहीं था, पर एक दिन उनकी चोरी भाभी ने पकड़ ली । तुम्हारे यहाँ से जो कोट पहनकर आए थे, उसमें सिन्दूर लगा था ।”

कनक शरमा गई, “अच्छा, यह सब भी हो चुका है ?” हँसती हुई चल रही थी वह ।

“हाँ, राजकुमार की मदद के लिए यहाँ आने पर मुझे मालूम हुआ कि कुँवर साहब ने उन्हें गिरफ्तार करने का हुक्म दिया है । यहाँ मेरी भाभी के पिता नौकर है । गिरफ्तार करनेवालों में उनके गाँव का भी एक आदमी था । उसने उन्हें खबर दी । तभी मैंने उसे समझाया कि अपने आदमियों को बहकाकर मुझे ही गिरफ्तार होनेवाला आदमी बतलाए, और गिरफ्तार करा दे । राजकुमार की रक्षा के लिए दूसरे कई आदमियों को छोड़कर मैं गिरफ्तार हो गया । मैं जानता था, तुम मुझे नहीं पहचानतीं, इसलिए छूट जाऊँगा । राजकुमार की गिरफ्तारी की वजह भी समझ में नहीं आ रही थी ।”

कनक ने बतलाया, “हमी ने अपनी सहायता के लिए, राजकुमार को गिरफ्तार कराने का कुँवर साहब से आग्रह किया था ।”

धीरे-धीरे गाँव नजदीक आ गया । कनक ने थककर कहा, “अभी कितनी दूर है ?”

“बस आ गए ।”

“आपने अभी अपना नाम नहीं बतलाया ?”

“मुझे चन्दन कहते हैं । हम लोग अब नजदीक आ गए । इन कपड़ों से गाँव के भीतर जाना ठीक नहीं । मैं पहले जाता है, भाभी की एक साड़ी ले आऊँ, फिर तुम्हें पहनाकर ले जाऊँगा । एक दूसरे कपड़े में तुम्हारे ये सब कपड़े बाँध लूंगा । घबराना मत । इस जंगल में कोई बड़े जानवर नहीं रहते ।”

कनक को ढाढ़स बँधाकर चन्दन भाभी के पास चला । वहाँ से गाँव चार फर्लांग के करीब था । रात थोड़ी रह गयी थी ।

दरवाजे पर धक्का सुनकर तारा पलँग से उठी । नीचे उतरकर दरवाजा खोला । चन्दन को देखकर चाँद की तरह खिल गई, “आ गए तुम ?”

स्नेहार्थी शिशु की दृष्टि से भाभी को देखकर चन्दन ने कहा, “भाभी, मैं रावण से सीता को भी जीत लाया ।”

तारा तरंगित हो उठी, “कहाँ है वह ?”

“पीछेवाले जंगल में । बँगले से खाई तैराकर लाया । वहाँ बड़ी खराब स्थिति हो रही थी । अपनी एक साड़ी दो, बहुत जल्द, और एक चादर ओढ़ने के लिए, और एक उसके कपड़े बाँधने के लिए भी ।”

तुरन्त एक अच्छी साड़ी और दो चद्दरें निकालकर चन्दन को देते हुए तारा ने कहा, “हाँ, एक बात याद आई, जरा ठहर जाओ, मैं भी चलती हैं । मेरे साथ आएगी, तुम अलग हो जाना । जरा कड़े और छड़े निकाल लूँ ।”

तारा का दिया हुआ कुल सामान चन्दन ने लपेटकर ले लिया । फिर आगे-आगे तारा को लेकर जंगल की तरफ चला ।

कनक प्रतीक्षा कर रही थी । शीघ्र ही दोनों उसके पास पहुँच गए । कनक को देखकर तारा से न रहा गया । “बहन, ईश्वर की इच्छा से तुम राक्षसों के हाथ से बच गई !” कहकर तारा ने कनक को गले से लगा लिया ।

हृदय से जैसी सहानुभूति का सुख कनक को मिल रहा था, ऐसा उसे आज जीवन में नया ही मिला था । स्त्री के लिए स्त्री की सहानुभूति कितनी प्रखर और कितनी सुखद होती है, इसका आज ही उसे अनुभव हुआ ।

तारा ने साड़ी देकर कहा, “यह सब उतारकर इसे पहन लो ।”

कनक ने गील वस्त्र उतार दिए । तारा ने चन्दन से कहा, “छोटे साहब, ये कड़े पहना दो । देखें, कलाई में कितनी ताकत है !”

चन्दन ने कनक के पैरों में कड़े डालकर, दोनों हाथ घुटनों के बीच रखकर जोर लगाकर पहना दिए, फिर छड़े भी । युवती ने चन्दन की इस ताकत के लिए तारीफ की, फिर कनक से चद्दर ओढ़कर साथ चलने के लिए कहा । कनक चद्दर ओढ़ने लगी, तो युवती ने कहा, “नहीं, इस तरह नहीं, इस तरह ।” कनक को चद्दर ओढ़ा दी ।

आगे-आगे तारा, पीछे-पीछे कनक चली । चन्दन ने कनक के कपड़े बाँध लिए, और दूसरी राह के मिलने तक साथ-साथ चला ।

तारा चुटकियाँ लेती हुई बोली, “छोटे साहब, इस वक्त आप क्या हो रहे हैं ?”

कनक हँसी । चन्दन ने कहा, “एक दर्जा महावीर से बढ़ गया । केवल खबर लेने ही नहीं गया, बल्कि सीता को जीत भी लाया ।”

थोड़ी ही दूर पर एक दूसरी राह मिली । चन्दन उससे होकर चला । युवती कनक को लेकर दूसरे रास्ते से चली ।

प्रथम उषा का प्रकाश कुछ-कुछ फैलने लगा था । उसी समय तारा कनक को लेकर पिता के मकान पहुँची, और अपने कमरे में, जहाँ राजकुमार सो रहा था, ले जाकर दरवाजा बन्द कर लिया ।

कुछ देर में चन्दन भी आ गया । कनक थक गई थी । युवती ने पहले राजकुमार के पलँग पर सोने के लिए इंगित किया । कनक को लज्जित खड़ी देख, बगल के दूसरे पलँग पर सस्नेह बाँह पकड़कर बैठा दिया और कहा, “आराम करो, बड़ी तकलीफ मिली ।”

कनक के मुरझाए अधर खिल गए ।

चन्दन ने पेशवा सुखाने के लिए युवती को दिया । उसने लेकर कहा, “देखो, वहाँ चलकर इसका अग्नि-संस्कार करना है ।”

चन्दन थक रहा था, राजकुमार की बगल में लेट गया ।

युवती सबकी देख-रेख में रही । धीरे-धीरे चन्दन भी सो गया । कनक कुछ देर तक पड़ी सोचती रही । माँ की याद आई । कहीं ऐसा न हो कि उसकी खोज में उसी वक्त स्टेशन मोटर दौड़ाई गई हो, और तब तक गाड़ी न आई हो, वह पकड़ ली गई हो । समय का अन्दाजा लगाया । गाड़ी साढ़े तीन बजे रात को आती है, चढ़ जाना सम्भव है ।

फिर राजकुमार की बातें सोचती कि न जाने यह सब इनके मन में क्या भाव पैदा करें । कभी चन्दन की और कभी तारा की बातें सोचती, ये लोग कैसे सहृदय हैं ! चन्दन और राजकुमार में कितना स्नेह ! तारा उसे कितना चाहती है ! इस प्रकार, न-मालूम, उसकी सुख-कल्पना के बीच कब उसके पलकों के दल मुँद गए ।

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