चैप्टर 18 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 18 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas

चैप्टर 18 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास,  Chapter 18 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas, Chapter 18 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

Chapter 18 Apsara Suryakant Tripathi Nirala 

Chapter 18 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas

तारा ने दो नौकरों को बारी-बारी से दरवाजे पर बैठे रहने के लिए तैनात कर दिया कि बाहरी लोग उससे पूछकर भीतर आएँ ।

शोरगुल सुनकर वह ऊपर चली गई । देखा, कनक जैसे एकान्त में बैठी हुई हो । उसके चेहरे की उदास, चिन्तित चेष्टा से तारा के हृदय में उसके स्नेह का स्रवण खुल गया । उसने युवकों की तरफ देखा । राजकुमार मुँह मोड़कर पड़ा हुआ परिस्थिति का पूर्ण परिचय दे रहा था । भाभी को गम्भीर मुद्रा से देखते हुए देखकर चन्दन ने अकुंठित स्वर से कह डाला, “महाराज, दुष्यन्त को इस समय दिमाग की गर्मी से विस्मरण हो रहा है । असगर अली के यहाँ का गुलाब-जल चाहिए ।”

कनक मुस्कुरा दी । तारा हँसने लगी ।

“तुम यहाँ आकर आराम करो ।” कनक से कहकर तारा ने चन्दन से कहा, “छोटे साहब, जरा तकलीफ कीजिए । इस पलँग को उठाकर उस कमरे में डाल दीजिए । दूसरे किसी को अब इस वक्त न बुलाना ही ठीक हैं ।”

कनक को लेकर तारा दूसरे कमरे में चली गई ।

“उठो जी, पलँग बिछाओ ।” चन्दन ने राजकुमार को खोदकर कहा ।

राजकुमार पड़ा रहा । चन्दन ने हँसते हुए पलंग उठाकर बगलवाले कमरे में डाल दिया । बिस्तर बिछाने लगा । तारा ने बिस्तर छीन लिया । खुद बिछाने लगी । कनक की इच्छा हुई कि तारा से बिस्तर लेकर बिछा दे, पर इच्छा को कार्य का रूप न दे सकी, खड़ी ही रह गई-तारा के प्रति एक श्रद्धा का भाव लिए । और, इसी गुरुता से उसे लगा कि जैसे उसका मेरुदंड झुककर टूट जाएगा ।

तारा ने चन्दन से कहा, “जरा यहीं दो घड़े पानी भी ले आइए ।”

चलते-चलते चन्दन ने कहा, “एक स्टेशन आगे चलकर ही गाड़ी पर चढ़ना है ।”

चन्दन चला गया । तारा कनक को बैठाकर बैठ गई, और राजकुमार की बातें साद्यन्त पूछने लगी ।

चन्दन पानी ले आया, तो तारा ने कहा, “एक काम और है । आप लोग भी पानी भरकर जल्द नहा लीजिए, और जरा नीचे मुन्नी से कह दीजिए कि वह हरपालसिंह को बुला लाए । अम्मा शायद अब रोटियाँ सेंकती होंगी । आज खुद ही पकाने लगीं । कहा, अब चलते वक्त रोटियों से हैरान क्यों करें !”

चन्दन चला गया । तारा फिर कनक से बातचीत करने लगी । तारा के प्रति पहले ही व्यवहार से कनक आकर्षित हो चुकी थी । धीरे-धीरे वह देखने लगी, संसार में उसके साथ पूरी सहानुभूति रखनेवाली केवल तारा है । कनक ने पहले-पहल तारा को जब दीदी कहा, उस समय उसके हृदय पर रखा हुआ जैसे तमाम बोझ उतर गया । दीदी की एक स्नेहसिक्त दृष्टि से उसकी कुल थकावट, अशान्ति मिट गई । पारिवारिक सुख से अपरिचित कनक ने स्नेह का यथार्थ मूल्य उसी समय समझा ! उसकी बाधाएँ आप-ही-आप दूर हो गईं । अब जैसे भूली हुई वह एकाएक राजपथ पर आ गई हो । राजकुमार के प्रथम दर्शन से लेकर अब तक का पूरा इतिहास, अपने चित्त के विपक्ष की सारी कथा, राजकुमार से कुछ कह न सकने की लज्जा, सरल, सलज्ज, मन्द स्वर से कहती रही ।

राजकुमार बगलवाले कमरे में जाग रहा था । अपनी पूरी शक्ति से, आई हुई अड़चन को पार कर जाने के लिए, चिन्ताओं की छलाँग मार रहा था । कभी-कभी उठती हुई हास्य-ध्वनि से चौंककर, अपने वैराग्य की मात्रा बढ़ाकर वह चुप हो जाता ।

चन्दन अपना काम पूरा कर आ गया । पलँग पर बैठकर कहा, “उठो, तुम्हें एक मजेदार बात सुनाऊँ ।”

राजकुमार जानता था ही, उठकर बैठ गया ।

“सुनो, कान में कहूँगा ।” चन्दन ने धीरे से कहा ।

राजकुमार ने चन्दन की तरफ सिर बढ़ाया ।

चन्दन ने पहले इधर-उधर देखा, फिर राजकुमार के कान के पास मुँह ले गया । राजकुमार जब सुनने के लिए खूब एकाग्र हो गया, तो चुपके से कहा, “नहाओगे नहीं ?”

विरक्ति-भाव से राजकुमार पुनः लेटने लगा । चन्दन ने हाथ पकड़ लिया, “बस, अब इधर देखो । मुकदमा दायर है । अभी पुकार होती ही है ।”

“रहने भी दो । मैं नहीं नहाऊँगा ।” राजकुमार लेट रहा ।

एक बगल चन्दन लेट गया, “मैं तो प्रातः ही स्नान कर चुका हूँ ।”

नीचे हरपालसिंह खड़ा था । मुन्नी ‘दीदी दीदी’ पुकारती हुई ऊपर चढ़ आई । कमरे से निकलकर तारा ने हरपालसिंह को ऊपर बुलाया ।

चन्दन और राजकुमार उठकर बैठ गए । उसी पलँग पर तारा ने हरपालसिंह को भी बैठाया ।

हरपालसिंह चन्दन और राजकुमार को पहचानता था ।

“कहिए बाबू, कल आप बच गए !” राजकुमार से कहता और इशारे करता हुआ बैठ गया । फिर राजकुमार की दाहिनी बाँह पकड़कर, मुस्कुराते हुए कहा, “बड़े कस हैं !”

राजकुमार बैठा रहा । तारा स्नेह की दृष्टि से राजकुमार को देख रही थी, मानो उस दृष्टि से कह रही हो, आपकी सब बातें मालूम हो गई हैं । दृष्टि का कौतुक बतला रहा था, अपराध तुम्हारा ही है ।

तारा का मौन फैसला समझकर चन्दन चुपचाप मुस्कुरा रहा था ।

रात की घटना अब तक तीन कोस से ज्यादा फासले तक फैल चुकी थी । हरपालसिंह को भी खबर मिली थी । चन्दन के भाग आने का उसने निश्चय कर लिया था, पर बाईजी के भगाने का कारण नहीं समझ सका था । कमरे के इधर-उधर नजर दौड़ाई । बाईजी को न देखकर कुछ व्यग्र-सा हो रहा था-जैसी व्यग्रता किसी सत्य की श्रृंखला न मिलने पर होती है ।

इसी समय तारा ने धीमे स्वर में कहा, “भैया, तुम तो सब हाल जानते ही हो, बल्कि सारी कामयाबी तुम्हीं से हुई । अब थोड़ा-सा सहारा और कर दो, तो खेवा पार हो जाए ।”

हरपालसिंह ने फटाफट तम्बाकू झाड़कर, अन्तरदृष्टि होते हुए, फाँककर जीभ से नीचे के होंठ में दबाते हुए, सीना तानकर, सिर के साथ पलकें एक तरफ मरोड़ते हुए कहा, “हूँ….”

तम्बाकू की झाड़ से चन्दन को छींक आ गई । किसी को छींक से शुभ वार्तालाप के समय शंका न हो, इस विचार से सचेत हरपालसिंह ने एक बार सबको देखा, फिर कहा, “असुगन नहीं है, तम्बाकू की झार से छींक आई है ।”

तारा ने कहा, “भैया, आज शाम को अपनी गाड़ी ले आओ । चार आदमी और साथ ले लेना । अगले स्टेशन पर हमें छोड़ आओ । साहब बाईजी को भी बचाकर साथ ले आए हैं न, वरना वहाँ उन बदमाशों से छुटकारा न होता । बाईजी ने बचाने के लिए कहा, फिर संकट में भैया, आदमी ही आदमी का साथ देता है । भला, कैसे छोड़कर आते ?”

हरपालसिंह ने डंडा सँभाल, मुट्ठी से जमीन में दबाते हुए, एक पीक वहीं थूककर कहा, “यह तो छत्री का धरम है । गोसाईंजी ने कहा है :

रघुकुल-रीति सदा चलि आई ।

प्रान जाएँ , पै वचन न जाई ।”

फिर राजकुमार का कल्ला दबाते हुए कहा, “आप तो अंग्रेजी पढ़े हो, हम तो बस थोड़ी-बाड़ी हिन्दी पढ़े ठहरे, है न ठीक बात ?”

राजकुमार ने जहाँ तक गम्भीर होते बना, वहाँ तक गम्भीर होकर कहा, “ठीक कहते हैं आप ।”

तारा ने कहा, “तो भैया, शाम को आ जाओ, कुछ रात बीते चलना है ।”

“बस, बैल चरकर आए कि हम जोतकर चले । कुछ और काम तो नहीं है ?”

“नहीं भैया ! और कुछ नहीं ।”

हरपालसिंह ने उठकर तारा के पैर छुए, और खटाखट जीने से उतरकर, बाहर आ आल्हा अलापना शुरू कर दिया, “दूध लजावे ना माता को, चाहे तन धजी-धजी उड़ जाए; जीते बैरी हम ना राखे, हमरो क्षत्री धरम नसाय ।” गाते हुए चला गया वह ।

“रज्जू बाबू, गलती आपकी है ।” तारा ने सहज स्वर में कहा ।

“लो, मैं कहता न था, मुकदमा दायर है । फैसला छोटी अदालत का ही रहा ।” चन्दन ने हँसते हुए कहा ।

राजकुमार कुछ न बोला । उनका गाम्भीर्य तारा को अच्छा न लगा । बोली, “यह सब वाहियात है । क्यों रज्जू बाबू, मेरी बात नहीं मानोगे ? देखो, मैं तुम्हें यह सम्बन्ध करने के लिए कहती हूँ ।”

“अगर यह प्रस्ताव है तो मैं इसका अनुमोदन और समर्थन करता हूँ ।” चन्दन ने हँसते हुए कहा ।

चन्दन की हँसी राजकुमार के अंगों में तीर की तरह चुभ रही थी । “और अब आज “वह मेरी छोटी बहन है ।” तारा ने जोर देते हुए कहा ।

“तो मेरी कौन हुई ?” चन्दन ने शब्दों को दबाते हुए कहा ।

तारा अप्रतिम हो गई, पर सँभलकर कहा, “यह दिल्लगी का वक्त नहीं ।”

चन्दन चुपचाप लेट गया । दूसरी तरफ राजकुमार को खोदकर फिसफिसाते हुए कहा, “आप कर क्या रही हैं ?”

“यार, तुम्हारा लड़कपन नहीं छूटा अभी !” राजकुमार ने डाँट दिया ।

चन्दन भीतर-ही-भीतर हँसते-हँसते फूल गया । तारा नीचे उतर गई । एक बार तारा को झाँककर उसने राजकुमार से कहा, “तुम्हारा जवानपन बलबलाता रहा है, यह तो देख ही रहा हूँ ।”

तारा नीचे से लोटा और एक साड़ी लेकर आ रही थी । राजकुमार के कमरे में आकर कहा, “नहा डालो रज्जू बाबू ! देर हो रही है । भोजन तैयार हो गया होगा ।”

“आज नहाने की इच्छा नहीं है ।”

“व्यर्थ तबियत खराब करने से क्या फायदा ?” हँसती हुई तारा ने कहा, “न नहाने से यह बला टल थोड़े ही सकती है ।”

“उठो भी, अघोर-पन्थ से घिनवाकर लोगों को भगाओगे क्या ? साबुन और सेंट-पन्थियों से पाला पड़ा है । तुम्हारे अघोर-पन्थ के भूत उतार दिए जाएँगे ।” चन्दन ने पड़े हुए कहा ।

“और आप… आप भी जल्दी कीजिए ।” हँसती हुई तारा ने चन्दन से कहा ।

“अब बार-बार क्या नहाऊँ ? पिछली रात नहा तो चुका, और ऐसा वैसा स्नान नहीं, स्त्री-रूपी नदी को छूकर पहला स्नान, सरोवर में दूसरा, फिर डेढ़ घंटे तक ओस में तीसरा, और जो गीले कपड़ों में रहा, वह सब बट्टे खाते ।” चन्दन ने हँसते हुए कहा ।

तारा हँसती रही । राजकुमार से एक बार और नहाने के लिए कहकर कनक के कमरे में चली गई ।

मकान में ही कुआँ था । महरी पानी भर रही थी । राजकुमार नहाने चला गया ।

मुन्नी भोजन के लिए राजकुमार और चन्दन को बुलाने आई थी । कुएँ गया । पर राजकुमार को नहाते देखकर बाहर चली गई ।

अभी तक घर की स्त्रियों को कनक की खबर न थी । अकारण घृणा की शंका कर तारा ने किसी से कहा भी नहीं था । अधिक भय उसे रहस्य के खुल जाने का था । कनक को नहलाकर, वह माता के पास जाकर एक थाली में भोजन परोसवा लाई । माता ने पूछा भी, “यह किसका भोजन है ?”

“एक मेहमान आए हैं । आपसे फिर मिला दूंगी ।” संक्षेप में समाप्त कर तारा थाली लेकर चली गई ।

कनक बैठी हुई तारा की सेवा, स्नेह, सहृदयता पर विचार कर रही थी । बातचीत से कनक को मालूम हो गया कि तारा पढ़ी-लिखी है और मामूली अंग्रेजी भी अच्छी जानती है । उसके इतिहास के प्रसंग पर जो अंग्रेजी के नाम आए थे, तारा ने उनका बड़ा सुन्दर उच्चारण किया था, और अपनी तरफ से भी एक-आध अंग्रेजी के शब्द कहे थे । ‘तारा का जीवन कितना सुखमय है !” कनक सोच रही थी । और, जितनी ही उसकी आलोचना कर रही थी, अपने सारे स्त्री-स्वभाव से उसके उतने ही निकट आ रही थी, जैसे लोहे को चुम्बक देख पड़ा हो । तारा ने जमीन पर आसन डालकर थाली रख दी, और भोजन के लिए सस्नेह कनक का हाथ पकड़, उठाकर बैठा दिया । कनक के पास इस व्यवहार का, वश्यता स्वीकार के सिवा और कोई प्रतिदान न था । वह चुपचाप आसन पर बैठ गई, और भोजन करने लगी । वहीं तारा भी बैठ गई ।

“दीदी ! मैं अब आप ही के साथ रहूँगी ।”

तारा का हृदय भर आया । कहा, “मैंने पहले ही यह निश्चय कर लिया है । हम लोगों में पुराने खयालात के जो लोग हैं, उन्हें तुमसे कुछ दुराव रह सकता है, क्योंकि ये लोग उन्हीं खयालात के भीतर पले हैं । उनसे तुम्हें कुछ दुःख होगा, पर बहन, मनुष्य के अज्ञान की मार मनुष्य ही तो सहते हैं । फिर स्त्री तो अपनी क्षमा और सहिष्णुता के कारण ही पुरुष से बड़ी है । उसके ये ही गुण तो पुरुष की जलन को शीतल करते हैं !”

कनक सोच रही थी, उसकी दीदी इसीलिए मोम की प्रतिमा बन गई है ।

तारा ने पुनः कहा, “मेरी अम्मा, छोटे साहब की माँ, शायद वहाँ तुमसे कुछ नफरत करें । अगर उनसे तुम्हारी मुलाकात होगी, तो मैं उनसे कुछ छिपाकर न कह सकूँगी । तुम्हारा वृत्तान्त सुनकर वह जिस स्वभाव की है, तुम्हें छूने में तथा अच्छी तरह बातचीत करने में जरूर कुछ संकोच करेंगी । वह शीघ्र ही काशी चली जानेवाली हैं । अब वहीं रहेंगी । मैं अबकी जाते ही उनके काशी-वास का प्रबन्ध करवाऊँगी ।”

कनक को हिन्दू-समाज से बड़ी घृणा हुई, यह सोचकर कि क्या वह मनुष्य नहीं है । अब तक मनुष्य कहलानेवाले समाज के बड़े-बड़े अनेक लोगों के जैसे आचरण उसने देखे हैं, क्या वह उनसे किसी प्रकार भी पतित है ? कनक ने भोजन बन्द कर दिया । पूछा, “दीदी, क्या किसी जात का आदमी तरक्की करके दूसरी जात में नहीं जा सकता ?”

“बहन, हिन्दुओं में अब यह रिवाज नहीं रहा । यों, पौराणिक काल में, ऋषि विश्वामित्र का उदाहरण हमारे सामने अवश्य है । तुम्हें छोटे साहब विस्तार में बता सकेंगे । वह यह सब नहीं मानते । काफी पढ़ा भी है । वह कहते हैं, आदमी आदमी है, और ऊँचे शास्त्रों के अनुसार सब लोग एक ही परमात्मा से हुए हैं । यहाँ जिस तरह शिक्षा-क्रम से बड़े-छोटे का अन्दाज लगाया जाता है, पहले इसी तरह शिक्षा, सभ्यता और व्यवसाय का क्रम रखकर ही जातियों का वर्गीकरण हुआ था । वह और भी बहुत-सी बातें कहते हैं ।”

कनक ने इस प्रसंग के पहले गुस्से से भोजन बन्द कर दिया था; अब खुश होकर फिर खाने लगी । दिल-ही-दिल चन्दन से मिलकर तमाम बातें पूछने की तैयारी कर रही थी ।

तारा निविष्ट चित्त से कनक का भोजन करना देख रही थी । जब से कनक मिली, तारा तभी से उसकी सब प्रकार से परीक्षा कर रही थी । कनक में बहुत बड़े-बड़े लक्षण उसने देखे । उसने किसी भी बड़े खानदान में इतने बड़े लक्षण नहीं देखे । उसका चाल-चलन, उठना-बैठना, बोलना-चालना, सब उसके बड़े खानदान में पैदा होने की सूचना दे रहे थे । उसके एक-एक इंगित में आकर्षण था । सत्रह साल की युवती की इतनी पवित्र चितवन उसने कभी नहीं देखी । सिर्फ एक दोष तारा को मिल रहा था, वह थी कनक की तीव्रता ।

मुन्नी बाहर से घूमकर आ गई । राजकुमार नहाकर ऊपर चला गया । उसने उँगली पकड़कर कहा, “चलिए, खाना तैयार है ।” फिर उसी तरह चन्दन की उँगली पकड़कर खींचा, “उठिए ।”

राजकुमार और चन्दन भोजन करने चले गए ।

तारा डब्बा उठाकर पान लगाने लगी । कनक भोजन समाप्त कर उठी । तारा ने पानी दिया । पलँग पर आराम करने के लिए कहा, और कह दिया कि तीसरे पहर उसके घर की स्त्रियाँ और उसकी माता मिलेंगी । अभी तक उनको कनक के आने के सम्बन्ध में विशेष कुछ मालूम नहीं है । साथ ही यह भी बतला दिया कि एक झूठा परिचय दे देने से नुकसान कुछ नहीं, बल्कि फायदा ज्यादा है; यों उन लोगों को पीछे से तमाम इतिहास मालूम हो ही जाएगा ।

कनक यह परिचय छिपाने का मतलब कुछ-कुछ समझ रही थी । उसे अच्छा नहीं लगा, पर तारा की बात उसने मान ली । चुपचाप सिर हिलाकर सम्मति दी ।

तारा भी भोजन करने चली गई । कनक को इस व्यक्तिगत घृणा से एक जलन हो रही थी । यह समझने की कोशिश करके भी समझ न पाती थी । एक सान्त्वना उसके तत्कालीन जीवन के लक्ष्य में तारा थी । तारा के मौन प्रभाव की कल्पना करते-करते उसकी आँख लग गई ।

राजकुमार और चन्दन भोजन करके आ गए । चन्दन को नींद लग रही थी । राजकुमार स्वभावतः गम्भीर हो चला था । कोई बातचीत न हुई । दोनों लेट रहे ।

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