चैप्टर 19 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 19 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas

चैप्टर 19 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास, Chapter 19 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas, Chapter 19 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

Chapter 19 Apsara Suryakant Tripathi Nirala

Chapter 19 Apsara Suryakant Tripathi Nirala

कुछ दिन के रहते अपना असबाब बँधवाकर तारा कनक को देखने गई । चन्दन सो रहा था । राजकुमार एक किताब बड़े गौर से पढ़ रहा था । कनक को देखा, सो रही थी । जगा दिया । घड़े से पानी डालकर मुँह धोने के लिए दिया । फिर पान लगाने लगी ।

कनक मुँह धो चुकी । तारा ने पान दिया । एक बार फिर समझा दिया कि अब घर की स्त्रियों से मिलना होगा, खूब सँभलकर बातचीत करेगी । फिर वह चन्दन के पास गई । चन्दन को जगाया, कहा कि अब सब लोग आ रही हैं, और वह छीटों के लिए तैयार होकर, हाथ-मुँह धोकर बैठे ।

तारा नीचे चली गई । चन्दन भी हाथ-मुँह धोने के लिए नीचे उतर गया । राजकुमार किताब में तल्लीन था ।

देखते-देखते कई औरतें बराबर के दूसरे मकान से निकलकर तारा के कमरे की ओर बढ़ने लगीं । आगे-आगे तारा थी ।

तारा के घर के लोग, उसके पिता और भाई, जो स्टेट में नौकर थे, चन्दन की गिरफ्तारी का हाल जानते थे । इससे भागने पर निश्चय कर लिया था कि छोटी बाईजी को वही लेकर भागा है । इस समय इन्तजाम से उन्हें फर्सत न थी । अतः घर सिर्फ दोपहर को भोजन के लिए आए । थे, और चुपचाप तारा से पूछकर भोजन करने चले गए थे । घर की स्त्रियों से इसकी कोई चर्चा नहीं की । डर रहे थे कि इस तरह भेद खुल जाएगा । तारा उसी दिन चली जाएगी, इससे उन्हें कुछ प्रसन्नता हुई, और कुछ चिन्ता भी । तारा के पिता ने उसे बताया कि बड़े जोर-शोर से खोज हो रही है, और शायद कलकत्ते के लिए आदमी रवाना किए जाएँ । उन्होंने यह भी बतलाया कि कई साहब आए थे । एक घबराए हुए हैं, शायद आज ही चले जाएँ ।

तारा दो-एक रोज और रहती, पर भेद खुल जाने के डर से उसी रोज तैयार हो गई थी । उसने सोच लिया था कि वह किसी तरह विपत्ति से बच भी सकती है, पर एक बार भी अगर गढ़ में यह खबर पहुँच गई, तो उसके पिता का किसी प्रकार भी बचाव नहीं हो सकेगा ।

स्त्रियों को लेकर तारा कनक के कमरे में गई । दोनों पलँग के बिस्तर के नीचे से दरी निकालकर फर्श पर बिछाने लगीं । तारा की भावज ने उसकी सहायता की ।

कनक को देखकर तारा की भावजें और बहनें एक दूसरी को खोदने लगीं । तारा की माँ को देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ । कनक की ऐसी दृष्टि थी, जिसे देखकर किसी भी गृहस्थ स्त्री को क्रोध होता । उसकी दृष्टि में श्रद्धा न थी, थी स्पर्धा । बिलकुल सीधी चितवन, उम्र में उससे बड़ी-बड़ी स्त्रियाँ थीं, कम-से-कम तारा की माँ तो थी ही, पर उसने किसी प्रकार भी अपना अदब जाहिर नहीं किया । लगता था, जैसे जंगल की हिरनी अभी-अभी कैद की गई हो ।

तारा कुल मतलब समझती थी, पर कुछ कह न सकती थी । कनक ने स्त्रियों से मिलने की सभ्यता का एक अक्षर भी नहीं पढ़ा था, उसे जरूरत भी नहीं थी । वह प्रणाम करना तो जानती ही न थी । खड़ी कभी तारा को देखती, कभी आगन्तुक स्त्रियों को ।

तारा की माता प्रणाम करवाने और ब्राह्मण-कन्या या ब्राह्मण-बहू होने पर उसके प्रणाम करने की लालसा लिए खड़ी रह गई । तारा से पूछा, “कौन हैं ?”

तारा ने कहा, “अपनी ही जात ।”

कनक को हार्दिक कष्ट था । जाहिर करने का कोई उपाय न था, इससे और कष्ट ।

कनक का सिन्दूर धुल गया था, पर उम्र से तारा की माँ तथा औरों को विवाह हो जाने का ही निश्चय हो रहा था । फिर सोचा, शायद विधवा हो, परन्तु पहनावे से फिर शंका होती । इन सब मानसिक प्रहारों से कनक का कलेजा जैसे चारों ओर दबा जा रहा हो, कहीं साँस लेने की भी जगह न रह गई हो ।

कुछ देर तक यह दृश्य देखकर तारा ने माता से कहा, “अम्मा । बैठ जाओ ।”

तारा की माँ बैठ गई । अन्य स्त्रियाँ भी बैठ गई । तारा ने कनक को भी बैठा दिया ।

कनक किसी तरह उनमें नहीं मिल पा रही थी । तारा की माँ उसके प्रणाम न करने के अपराध को किसी तरह भी क्षमा नहीं करना चाहती थी । और, उतनी बड़ी लड़की का विवाह होना उनके पास निन्यानबे फीसदी निश्चय में दाखिल था । प्रखर स्वर से कनक से पूछा, “कहाँ रहती हो बच्ची ?”

कनक के दिमाग के तार एक साथ झनझना उठे । उत्तर देना चाहती थी, पर गुस्से से बोल न सकी । तारा ने सँभाल लिया, “कलकत्ते में ।”

“यह गूँगी है क्या ?” तारा की माँ ने दूसरा वार किया । अन्य स्त्रियाँ एक-दूसरी को खोदकर हँस रही थीं । उन्हें ज्यादा खुशी कनक के तंग किए जाने पर इसलिए थी कि वह इन सबसे सुन्दरी थी, और एक-एक बार जिसकी तरफ भी देखा था, सबने पहले आँखें झुका ली थी, और दुबारा आँखों के प्यालों में ऊपर तक जहर भरकर उसकी तरफ उँड़ेला था । उसके जैसे सौन्दर्य के अभाव से, उतने समय के लिए, वीतराग होकर उसके सौन्दर्य को मन-ही-मन कस्बियों की सम्पत्ति करार दे रही थीं ।

“जी नहीं, गूँगी तो नहीं हूँ ।” कनक ने अपनी समझ में बहुत मुलायम स्वर में कहा, पर तारा की माँ के लिए इससे तेज दूसरा उत्तर था ही नहीं । फिर घर आई से, पराजय होने पर भी, हमेशा विजय की गुंजाइश बनी रहती है । इस प्राकृतिक अनुभूति से स्वतः प्रेरित स्वर को मध्यम से धवैत-निषाद तक चढ़ाकर, भौंएँ तीन जगह से सिकोड़कर; जैसे बहुत दूर की कोई वस्तु देख रही हो, मनुष्य नहीं, फिर आक्रमण किया, “अकेले यहाँ कैसे आई ?”

तारा को इस हद तक आशा न थी । उसे बहुत ही बुरा लगा । उसने उसी वक्त बात बना ली, “स्टेशन आ रही थी-अपने मामा के यहाँ । छोटे साहब से मुलाकात हो गई, तो साथ ले लिया । कहा, एक साथ चलेंगे । उन्हीं ने मुझे बताया कि यह भी साथ चलेंगी ।”

“अरे, वही कहा न कि अकेले घूमना… विवाह हो गया है कि नहीं ?” तारा की माता के मुख पर शंका, सन्देह, नफरत आदि भाव बादलों-से, पहाड़ी दृश्य की तरह, बदल रहे थे ।

“अभी नहीं ।” कनक को अच्छी तरह देखते हुए तारा ने कहा ।

मुद्रा से माता ने आश्चर्य प्रकट किया । और और स्त्रियाँ असंकुचित हँसने लगीं । कनक की मानसिक स्थिति बयान से बाहर हो गई ।

चन्दन वहीं, दूसरे कमरे में पड़ा यह सब आलम परिचय सुन रहा था । उसे बड़ा बुरा लगा । स्त्रियों ही की तरह निर्लज्ज हँसी हँसता हुआ कहने लगा, “अम्मा ! बस, इसी तरह समझिए, जैसे बिट्टन मामा के यहाँ गई हैं, और रास्ते में मैं मिल गया होऊँ, और मेरे खानदान की कोई स्त्री हो, वहाँ टिका लूँ, फिर यहाँ ले आऊँ । हाँ, बिट्टन में और इनमें यह फर्क अवश्य लू है कि बिट्टन को चाहे, तो कोई भगा ले जा सकता है, पर इन्हें नहीं, क्योंकि यह काफी पढ़ी-लिखी हैं ।”

तारा की माता पस्त हो गई । बिट्टन उन्हीं की लड़की है । उम्र पन्द्रह साल की, पर अभी विवाह नहीं हुआ था । चन्दन से विवाह करने के इरादे से रोक रखा है । बिट्टन अपने मामा के यहाँ गई हुई थी ।

तारा को चन्दन का जवाब नितान्त युक्तिसंगत लगा, और कनक के गाल तो मारे प्रसन्नता के लाल पड़ गए । राजकुमार उसी तरह निर्विकार चित्त से किताब पढ़ने का ठाट दिखा रहा था । भीतर से सोच रहा था, किसी तरह कलकत्ता पहुँचूँ, तो बताऊँ ।

महिला-मंडली का रंग फीका पड़ गया ।

“अभी पिसनहर के यहाँ पिसना देने जाना है ।” कहकर, काँखकर, वैसे ही त्रिभागी दृष्टि से कनक को देखती हुई, मुँह बनाकर तारा की माता उठी, और धीरे-धीरे नीचे उतर गई । जीने से एक बार चन्दन की ओर घूरकर देखा । उसके बाद घर की और और स्त्रियों ने भी ‘महाजनो येन गतः स पन्था’ का अनुसरण किया ।

कनक बैठे-बैठे सबको देखती रही । सब चली गई, तो तारा से पूछा, “दीदी ! ये लोग कोई पढ़ी-लिखी नहीं थीं शायद ?”

“न, यहाँ तो बड़ा पाप समझा जाता है ।”

“आप तो पढ़ी-लिखी जान पड़ती हैं ?”

“मेरा पढ़ना-लिखना वहीं हुआ है । घर में कोई काम था ही नहीं । छोटे साहब के भाई साहब की इच्छा थी कि कुछ पढ़ लूँ । उन्हीं से तीन-चार साल में हिन्दी और कुछ अंग्रेजी पढ़ ली ।”

कनक बैठी सोच रही थी, और उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वे सब स्त्रियाँ, जो अपने घर में भी इतनी असभ्यता से पेश आईं, किस अंश में उससे बड़ी थीं । दीदी की सहृदयता और चन्दन का स्नेह-स्मरण कर रोमांचित हो उठती, पर राजकुमार की याद से उसे वैसी ही निराशा हो रही थी । उसके अविचल मौन से वह समझ गई कि अब वह उसे पत्नी-रूप में ग्रहण नहीं करेगा । इस चिन्ता से उसका चित्त न जाने कैसा हो जाता ! मानो पक्षी के उड़ने की सब दिशाएँ अन्धकार से ढक गई हों, और ऊपर आकाश हो और नीचे समुद्र । अपने पेशे का जैसा अनुभव तथा उदाहरण वह लेकर आई थी, उसकी याद आते ही घृणा और प्रतिहिंसा की एक लपट बनकर जल उठती, जो जलाने से दूसरों को दूर देखकर अपने ही तृण और काष्ठ जला रही थी ।

सन्ध्या हो चुकी थी । सूर्य की अन्तिम किरणें पृथ्वी से विदा हो रही थीं । नीचे हरपालसिंह ने आवाज दी ।

तारा ने उसे ऊपर बुला लिया । हरपालसिंह बिलकुल तैयार होकर आज्ञा लेने आया था कि तारा कहे, तो वह गाड़ी लेकर आ जाए । हरपालसिंह को चन्दन के पास पलँग पर बैठाकर तारा नीचे चली गई, और थोड़ी देर में चार सौ रुपए के नोट लेकर लौट आई । हरपालसिंह को रुपए देकर कहा कि वह सौ-सौ रुपए के तीन थान सोने के गहने और दस-दस रुपए तक के दस थान चाँदी के, जो भी मिल जाएँ, बाजार से जल्द ले आवे !

हरपालसिंह चला गया । तारा कमरों में दिए जलाने लगी । फिर पान लगाकर दो-दो बीड़े सबको देकर नीचे माता के पास चली गई । उसकी माता पूड़ियाँ निकाल रही थी । उसे देखकर पुनः प्रश्न कर बैठी, “इससे तुम्हारी कैसे पहचान हुई ?”

तभी एक भावज ने कहा, “देखो न, मारे उसक के किसी से बोली ही नहीं ! ‘प्रभु से गरब कियो, सो हारा, गरब कियो वे बन को घुँघची, मुख कारा कर डारा ।’ हमें तो बड़ी गुस्सा लगी पर हमने कहा, कौन बोले इस बहेदी से !”

दूसरी बोल उठी, “इसी तरह तो औरत बिगड़ जाती है । जुअँटा है, ब्याह नहीं हुआ, और अकेली घूमती है !”

“छोटे बाबू से जान-पहचान अच्छी है ।” पूड़ियाँ बेलती हुई अपनी जिठानी की तरफ देखकर आँखों में बड़ी मार्मिक हँसी हँसकर तीसरी ने कहा ।

जिठानी ने साथ दिया, “हाँ, देखो न, बेचारे उतनी दूर से बिना बोले नहीं रह सके । कैसा बनाया, जैसे और कोई सत्तू में छेद करना जानता ही नहीं !”

उत्साह से तीसरी ने कहा, “इसीलिए तो ब्याह नहीं करते ।”

तारा को इस आलोचना-प्रत्यालोचना के बीच बच रहने की काफी जगह मिली । काम हो रहा है, देख वह लौट गई । इनके व्यवहार से मन-ही-मन उसे बड़ी ग्लानि हुई ।

तारा कनक के पास चली आई । उसके प्रति जो व्यावहारिक अन्याय उसके घर की स्त्रियों ने किया था, उसके लिए बार-बार क्षमा माँगने लगी । पहले उसे लज्जा होती थी, पर अब उसे काफी बल मिल रहा था ।

“दीदी ! आप मुझे मिलें, तो सबकुछ छोड़ सकती हूँ ।” कनक ने स्नेह-सिक्त स्वर से कहा ।

तारा के हृदय में कनक के लिए पहले ही से बड़ी जगह थी, इस शब्द से वहाँ उसकी इतनी कीमत हो गई, जितनी आज तक किसी की भी न हुई थी ।

चन्दन पड़ा हुआ सुन रहा था, उससे न रहा गया । कहा, “बस, जैसी तजवीज आपने निकाली है, कुल रोगों की एक ही दवा है । मजबूती से इन्हें पकड़े रहिए । गुरु समर्थ है, तो चेला कभी तो सिद्ध हो ही जाएगा ।”

हरपालसिंह ने आवाज लगाई, तारा उठ गई । दिखाकर हरपालसिंह ने दरवाजे पर ही कुछ सामान दे दिया, और पूछकर अपनी गाड़ी लेने चला गया । रात एक घंटे से ज्यादा पार हो चुकी थी ।

यह सब सामान तारा ने अपनी भावजों तथा अपने नियुक्त किए हुए लोगों और कुछ परजों को देने के लिए मँगवाया था ।

मकान में जाकर अपनी माँ से तैयारी करने के लिए कहा । पूड़ियाँ बाँध दी गईं । असबाब पहले ही से बाँधकर तैयार कर रखा था ।

घर में स्त्रियाँ एकत्र होने लगीं । पड़ोस की भी कुछ स्त्रियाँ आ-आकर जमने लगीं । तारा उठकर बार-बार देवता को स्मरण कर रही थी । ऊपर जा कनक को ओढ़ने के लिए अपनी चादर दी । भूल गई थी, छत से उसकी पेशवाज ले आई, और बाँधकर एक बॉक्स में, जिसमें पुराने कपड़े आदि मामूली सामान थे, डाल दी ।

हरपालसिंह गाड़ी ले आया । कोई पूछता, तो कह देता, गाँव के स्टेशन गाड़ी ले जानी है ।

तारा ने भावजों को भेंट दी । माता और गाँव की स्त्रियों से मिली । नौकरों को इनाम दिया । फिर कनक को ऊपर से लिवा लाई । थोड़े ही शब्दों में उसका परिचय देकर, गाड़ी पर बैठाल, सामान रखवा, स्वयं भी भगवान् विश्वनाथ का स्मरण कर बैठ गई । गाड़ी चल दी । राजकुमार और चन्दन पैदल चलने लगे ।

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