चैप्टर 20 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 20 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas

चैप्टर 20 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास, Chapter 20 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas, Chapter 20 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

Chapter 20 Apsara Suryakant Tripathi Nirala

Chapter 20 Apsara Suryakant Tripathi Nirala

दूसरा स्टेशन वहाँ से पाँच-छः कोस पड़ता था । रात डेढ़-दो बजे के करीब गाड़ी पहुँची । तारा ने रास्ते से ही कनक को घूँघट से अच्छी तरह छिपा रखा था । स्टेशन के पास एक बगल गाड़ी खड़ी कर दी गई । चन्दन टिकट खरीदने और आवश्यक बातें जानने के लिए स्टेशन चला गया । राजकुमार से वहीं रहने के लिए कह गया । ट्रेन रात चार बजे के करीब आती थी ।

चन्दन ने स्टेशन-मास्टर से पूछा, तो मालूम हुआ कि सेकेंड क्लास का डब्बा मिल सकता है । चन्दन भाभी के पास लौटकर समझाने लगा कि फर्स्ट क्लास का टिकट खरीदने की अपेक्षा, उसके विचार से, एक सेकेंड क्लास छोटा डब्बा रिजर्व करा लेने से सुविधा ज्यादा होगी । दूसरे, खर्च में भी कमी रहेगी । तारा सहमत हो गई । चन्दन ने सौ रुपए तारा से और ले लिए ।

रास्ते-भर कनक के सम्बन्ध में कोई बातचीत नहीं हुई । चन्दन ने सबको समझा दिया था कि कोई इस विषय पर किसी प्रकार का जिक्र न छेड़े । हरपालसिंह के आदमी, स्टेशन से दूर उसके लौटने की प्रतीक्षा कर रहे थे । चन्दन सोच रहा था, स्त्रियों को वेटिंग-रूम में ले जाया जाए या गाड़ी आने तक यहीं ठहरे । हरपालसिंह फुरसत पा टहलता हुआ स्टेशन की तरफ चला गया । चन्दन डब्बा रिजर्व कराने चला । राजकुमार को तारा ने अपने पास बैठा लिया ।

कुछ देर बाद, शंका से अगल-बगल देख-दाख, सीना तानता हुआ हरपालसिंह लौटा । तारा से कहा, “यहाँ तो बड़ा खतरा है बहन ! सँभलकर जाना । लोग लगे हैं । सबकी बातचीत सुनते हैं, और बड़ी जाँच हो रही है । राज्य के कई सिपाही भी हैं ।”

सुनकर राजकुमार की आँखों से ज्वाला निकलने लगी, पर सँभलकर रह गया । तारा घबराकर राजकुमार की तरफ देखने लगी । कनक भी तेज निगाह से राजकुमार को देख रही थी । स्टेशन की बत्तियों के प्रकाश से घूँघट के भीतर उसकी चमकती हुई आँखें झलक रही थीं । कुल मुखाकृति जाहिर हो रही थी । तारा ने एक साँस लेकर हरपालसिंह से कहा, “भैया, छोटे बाबू को बुला तो लाओ ।”

स्टेशन बड़ा था । बगल में डब्बे लगे । कई कर्मचारी थे । चन्दन का काम हो गया था । वह हरपालसिंह को रास्ते में ही मिल गया । उनके पास आने पर तारा शंकित, दबे हुए स्वर से स्टेशन के वायुमंडल का हाल, अवश्यम्भावी विपत्ति से घबराई हुई, कहने लगी ।

चन्दन थोड़ी देर सोचता रहा, फिर उसने हरपालसिंह से कहा, “भैया, तुम चले जाओ, भेद अगर खुल गया, और तुम साथ रहे, तो तुम्हारे लिए बहुत बुरा होगा ।”

हरपालसिंह की भौंहें तन गईं, निगाह बदल गई । बोला, “भैया हे ! जान का खयाल करते, तो आपका साथ न देते ! आपकी इच्छा होए, तो हियैं लाठी…”

चन्दन ने उतावली से रोक लिया । इधर-उधर देखकर धीरे से कहा, “यह सब हमें मालूम है भैया, तुम्हारे कहने से पहले ही, पर अब ज्यादा बहस इस पर ठीक नहीं । तुम चले जाओ, हम आराम-कमरे में जाते हैं । गाड़ी आती ही होगी । हमारे साथ तुम स्टेशन पर रहोगे, तो देखकर लोग शक कर सकते हैं ।”

“हाँ, यह तो ठीक है ।” बात हरपालसिंह को जँच गई ।

उसे बिदा करने के लिए तारा उठकर खड़ी हो गई । सामान पहले ही गाड़ी से उतारकर नीचे रख लिया गया था । हरपालसिंह ने बैल नह दिए, और तारा के चरण छुए । तारा खड़ी रही । कनक के दिल में भी हरपालसिंह के प्रति इज्जत पैदा हो गई थी । तारा के साथ ही वह भी उठकर खड़ी हो गई । उसका खड़ा होना हरपालसिंह को बहुत अच्छा लगा । इस सभ्यता से उसके वीर हृदय को एक प्रकार की शान्ति मिली । तारा उसके पुरस्कार की बात सोचकर भी कुछ ठीक न कर सकी । एकाएक सरस्वती के दिए शब्दों की तरह उसे एक पुरस्कार सूझा, “भैया, जरा रुक जाओ । जिसके लिए यह हो रहा है, उसे अच्छी तरह देख लो ।” यह कह उसने कनक का घूँघट उलट दिया ।

वीर हरपालसिंह की दृष्टि में जरा देर के लिए विस्मय देख पड़ा । फिर न जाने क्या सोचकर उसने गर्दन झुका ली, और अपनी गाड़ी पर बैठ गया । फिर उस तरफ उसने नहीं देखा । सड़क से गाड़ी ले चला । राजकुमार और चन्दन पचास कदम तक बढ़कर उसे छोड़ने गए ।

लौटकर राजकुमार को वे ही कीमती कपड़े, जो कनक के यहाँ उसे मिले थे, पहनाकर, खुद भी इच्छानुसार दूसरी पोशाक बदलकर चन्दन कुली बुलाने स्टेशन गया । तारा से कह गया, जरूरत पड़ने पर वह कनक को अपनी देवरानी बताएगी, बाकी परिचय वह दे लेगा ।

आगे-आगे सामान लिए हुए तीन कुली, उनके पीछे चन्दन, बीच में दोनों स्त्रियाँ, सबसे पीछे राजकुमार अपना सुरक्षित व्यूह बनाकर स्टेशन चले । कनक अवगुंठित, तारा तारा की तरह खुली हुई पर बारीक विचार रखनेवाले देखकर ही समझ सकते थे, कि उन दोनों में कौन अवगुंठित, और कौन खुली हुई थी । कनक सब अंगों से ढकी हुई होने पर भी कहीं से भी झुकी हुई न थी । बिलकुल सीधी, जैसे अपनी रेखा और पदक्षेप से ही अपना खुला हुआ जीवन सूचित कर रही हो । उधर तारा की तमाम झुकी मानसिक वृत्तियाँ, उसके अनवगुंठित रहने पर भी, आत्माविरोध का हाल बयान कर रही थीं ।

नौकर ने जनाने वेटिंग-रूम का द्वार खोल दिया । तारा कनक को लेकर भीतर चली गई । बाहर दो कुर्सियाँ डलवा, बुक स्टाल से दो अंग्रेजी उपन्यास खरीदकर, दोनों मिल बैठकर पढ़ने लगे । लोग चक्कर लगाते हुए आते, देखकर चले जाते । कुँवर साहब के आदमी भी कई बार आए । देर तक देखकर चले गए । जिस पखावजिए ने कनक को भगाया था, चन्दन अपनी स्थिति द्वारा उससे बहुत दूर, बहुत ऊँचे, सन्देह से परे था । किसी को शक होने पर वह अपने शक पर ही शक करता ।

राजकुमार किताब कम पढ़ रहा था, अपने को ज्यादा । यह जितना ही कनक से भागता, चन्दन और तारा उतना ही उसका पीछा करते । कनक अपनी जगह पर खड़ी रह जाती । उसकी दृष्टि में उसके लिए कोई प्रार्थना न थी, कोई शाप भी न था, जैसे वह केवल राजकुमार के इस अभिनय को खुले हृदय की आँखों से देखनेवाली हो । यह राजकुमार की ओर चोट करता था । स्वीकार करते हुए उसका जैसे तमाम बल ही नष्ट हो जाता ।

राजकुमार की समस्त दुर्बलताओं को अपने उस समय के स्वभाव के तीखेपन और तेजी से आकर्षित कर चन्दन लोगों को अपनी तरफ मोड़ लेता था । वह भी कुछ पढ़ नहीं रहा था, पर राजकुमार जितनी हद तक मनोराज्य में था, उतनी ही हद तक चन्दन बाहरी दुनिया में, अपनी तमाम वृत्तियों को सतर्क किए हुए-जैसे आकस्मिक आक्रमण को तत्काल रोकने के लिए तैयार हो । पन्ने केवल दिखावे के लिए उलटता था, और इतनी जल्दबाजी थी कि लोग उसी की तरफ आकृष्ट होते थे । चन्दन का सोलहो आने बाहरी आडम्बर था । राजकुमार का बाह्य ज्ञान-साहित्य उस पर आक्रमण करने, पूछताछ करने का मौका देता था, पर चन्दन से लोगों में भय और सम्भ्रम पैदा हो जाता । वे त्रस्त हो जाते थे, और खिंचते भी थे उसी की तरफ पहले । वहाँ जिसकी खोज में स्टेट के आदमी से उसकी पूछताछ बेअदबी तथा मूर्खता थी, और स्टेट की भी इससे बेइज्जती होती थी-कहीं बात फैल गई; शंका थी, कहीं यह कोई बड़ा आदमी हो; पाप था- हिम्मत थी नहीं, लोग आते और लौट जाते । चन्दन समझता था, इसलिए वह और गम्भीर बना रहा ।

गाड़ी का वक्त हो गया । लोग प्लेटफार्म पर जमने लगे । चन्दन का डब्बा दूसरी लाइन पर लाकर लगा दिया गया । सिगनल गिरा । देखते-देखते गाड़ी भी आ गई । स्टेशन-मास्टर ने गाड़ी कटवाकर चन्दन के सामने ही वह डब्बा लगवा और फिर बड़े अदब से आकर चन्दन को सूचना दी । दस रुपए का एक नोट निकालकर चन्दन ने स्टेशन-मास्टर को पुरस्कृत किया । स्टेशन-मास्टर प्रसन्न हो गए । पास खड़े पुलिस के दो सिपाही देख रहे थे । सामने आकर उन्होंने भी सलामी दी । दो-दो रुपए चन्दन ने उन्हें भी दिए ।

चन्दन ने तारा को बाहर ही से आवाज दी, “भाभी, चलिए !”

सिपाहियों ने आदमियों को हटाकर रास्ता बना दिया । हटाते वक्त दो-एक धक्के स्टेट के आदमियों को भी मिले । कुली सामान उठा-उठाकर डब्बे में रखने लगे । चन्दन ने खिड़कियाँ बन्द करा दीं । दरवाजा चपरासी ने खोल दिया । तारा कनक को साथ लेकर धीरे-धीरे डब्बे के भीतर चली गई । चन्दन ने कुलियों और चपरासियों को भी पुरस्कार दिया । राजकुमार भीतर चला गया । चन्दन के चढ़ते समय पुलिस के सिपाहियों ने फिर सलामी दी । चन्दन ने दो-दो रुपए फिर दिए, और गाड़ी में चढ़ गया ।

पुलिस के सिपाहियों ने फिर अपनी मुस्तैदी दिखाकर चलते-चलते प्रसन्न कर जाने के विचार से, “क्या देखते हो, हटो यहाँ से” कह-कहकर सामने खड़ी भीड़ को दो-चार धक्के और लगा दिए । प्रायः सभी लोग स्टेट के ही खुफिया-विभाग के थे ।

गाड़ी चल दी । कनक ने आप-ही-आप घूँघट उठा दिया । विगत प्रसंग पर बातें होती रहीं । चारों ने खुलकर एक-दूसरे से बातें की । जो कुछ भी राजकुमार को अविदित था, मालूम हो गया । कनक के अन्दर अब किसी प्रकार का उत्साह नहीं रह गया था । वह जो कुछ कहती थी, सिर्फ कहना था, इसलिए । उसके स्वर में किसी प्रकार का अभियोग न था, कोई आकांक्षा न थी । राजकुमार के पिछले भावों से उसके मर्मस्थल पर गहरी चोट लग चुकी थी ।

जितनी ही बातें होतीं, राजकुमार उतना ही बदलता जा रहा था । तारा ने फिर विवाह आदि के लिए आग्रह नहीं किया । चन्दन भी दो-एक बार उसे दोष देकर चुप रह गया ।

हाँ, उसने जिस मनोवैज्ञानिक ढंग से बात की थी । उसे सुनकर राजकुमार को अपनी त्रुटि मालूम हो रही थी, पर कनक ने इधर जिस तेजी से, सम्बन्ध-रहित की तरह, बिलकुल खुली हुई बातचीत की, इससे चन्दन के प्रसंग पर अत्यन्त संकोच और हेठी के कारण राजकुमार हारकर भी विवाह की बात स्वीकृत नहीं कर रहा था ।

उस समय कनक को जो कुछ आनन्द मिला था, वह केवल चन्दन की बातचीत से । नाराज थी कि उसके इस प्रसंग का इतना बढ़ाव किया जा रहा है । सत्य-प्राप्ति के बाद जैसे सत्य की बहस केवल तकरार होती रही है, हृदय-शून्य ये तमाम बातें कनक को वैसी ही लग रही थीं । राजकुमार प्रति तारा के हृदय में क्रोध था और कनक के हृदय में दुराव ।

चारों एक-एक बर्थ पर बैठे थे । तारा थक रही थी । लेट रही । चन्दन ने स्टेशन पर जितनी शक्ति खर्च की थी, उसके लिए विश्राम करना आवश्यक हो रहा था । वह भी लेट रहा । हवा नहीं लग रही थी, इसलिए उठकर, खिड़की खोलकर फिर लेट रहा ।

राजकुमार बैठा कुछ सोच रहा था । कनक बैठी अपने भविष्य की कल्पना कर रही थी, जहाँ केवल भावना ही भावना थी, सार्थक शब्दजाल कोई नहीं । बड़ी देर हो गई । गाड़ी पूरी रफ्तार से चली जा रही थी । कनक चन्दन की किताब उठाकर पढ़ने लगी । तारा और चन्दन सो गए थे ।

राजकुमार अपने गत जीवन के चित्रों को देख रहा था । कुछ संस्मरण लिखने के लिए पॉकेट से नोटबुक निकाली । लिखने लगा । एक विचित्र अनुभव हुआ, जैसे उसकी तमाम देह बँधी हुई खिंची जा रही हो कनक की तरफ, हर अंग उसके उसी अंग से बँधा हुआ । जोर लगाना चाहा, पर जैसे शक्ति ही न हो । इच्छा का वाष्प जैसे शरीर के शत छिद्रों से निकल गया हो । केवल उसका निष्क्रिय अहं-ज्ञान और निष्क्रिय शरीर रह जाता था, मानो केवल प्रतिघात करते रहने के लिए, कुछ सृष्टि करने के लिए नहीं । इसके बाद ही उसका शरीर काँपने लगा । ऐसी दशा उसकी कभी नहीं हुई थी । उसने अपने को सँभालने की बड़ी चेष्टा की, पर संस्कारगत शरीर पर उसके नए प्रयत्न चल नहीं रहे थे, जैसे उसका श्रेय जो कुछ था, कनक ने ले लिया हो, जो उसी का हो गया था; वह जिसे अपना समझता था, जिसके दान में उसे संकोच था, जैसे उसी के पास रह गया हो, और उसकी वश्यता से अलग । अपनी तमाम रचनाओं की ऐसी विशृंखल अवस्था देख वह हताश हो गया । आँखों में आँसू भर आए । चेष्टा विकृत हो गई ।

तारा और चन्दन सो रहे थे । कनक राजकुमार को देख रही थी । अब तक वह मन से उससे पूर्णतया अलग थी । राजकुमार के साथ जिन-जिन भावनाओं के साथ वह लिपटी थी, उन सबको बैठी हुई अपनी तरफ खींच रही थी । कभी-कभी राजकुमार की मुख-चेष्टा से हृदय की करुणाश्रित सहानुभूति उसके स्त्रीत्व की पुष्टि करती हुई राजकुमार की तरफ उमड़ पड़ती थी, तब राजकुमार की क्षुब्ध चित्त-वृत्तियों पर एक प्रकार का सुख झलक जाया करता, कुछ सान्त्वना मिलती थी । नवीन बल प्राप्त कर वह अपने समर के लिए फिर तैयार होता था । रह-रहकर, खुद चलकर, अपनी निर्दोषिता जाहिर कर एक बार फिर अन्तिम बार प्रार्थना करने का निश्चय कर रही थी । लज्जा और मर्यादा का बाँध तोड़कर उसके स्त्रीत्व का प्रवाह एक बार फिर उसके पास पहुँचने के लिए व्याकुल हो उठा, पर दूसरे ही क्षण राजकुमार के रुक्ष बर्ताव याद आते ही वह संकुचित हो बैठी रही ।

जब कनक के भीतर सहृदय कल्पनाएँ उठती थीं, तब राजकुमार देखता था, कनक उसके भीतर, उसकी भावनाओं में रँगकर, अत्यन्त सुन्दर हो गई है । हृदय में उसका उदय होते ही एक ज्योति-प्रवाह फूट पड़ता था । स्नेह, सहानुभूति और अनेक कल्पनाओं के साथ उसकी कविता सुन्दर तरंगों से उसे बहलाकर बह जाती थी ।

गाड़ी आसनसोल-स्टेशन पर खड़ी थी । राजकुमार बिलकुल सामने की सीट पर था । डब्बे के झरोखे खुले हुए थे । गाड़ी को स्टेशन पहुँचे दस मिनट के करीब हो चुका था । कनक का मुँह प्लेटफार्म की तरफ था । बाहर के लोग उसे अच्छी तरह देख सकते थे, और देख रहे थे । प्लेटफार्म की तरफ राजकुमार की पीठ थी ।

राजकुमार चौंक पड़ा, जब एकाएक गाड़ी का दरवाजा खुल गया । कनक सिकुड़कर शकित दृष्टि से एक आदमी को देख रही थी । घूँघट काढ़ना, अनभ्यास के कारण, उसके शकित स्वभाव के प्रतिकूल हो गया ।

दरवाजे के शब्द से राजकुमार की चेतना ने आँखें खोल दीं । झटपट उठा । एक अपरिचित आदमी देख पड़ा । कनक ने तारा और चन्दन को जगा दिया । दोनों ने उठकर देखा, एक साहब और ‘राजकुमार, दोनों एक-दूसरे को तीव्र स्पर्धा की दृष्टि से देख रहे थे ।

“तुम शायद मुझे भूले नहीं हैमिल्टन !” राजकुमार ने अंग्रेजी में उपटकर कहा ।

साहब देखते रहे । साहब के साथ एक पुलिस का सिपाही, स्टेशन-मास्टर, स्टेशन के कर्मचारी और कुछ परिदर्शक एकत्र थे । साहब को बुरी तरह डाँटे । जाते देखकर स्टेशन-मास्टर ने मदद की, “इस डब्बे में भगाई हुई औरत है-वह कौन है ?”

“है नहीं, हैं कहिए, उत्तर तब मिलेगा । पर आप कौन हैं, जिन्हें उत्तर देना है ?” राजकुमार ने तेज स्वर से पूछा । “मेरी टोपी बतला रही है ।” स्टेशन-मास्टर ने भी आँखें निकालकर कहा ।

“मैं आपको आदमी तब समझँगा, जब जरूरत के वक्त आप कहें कि एक रिजर्व सेकंड क्लास के यात्री को आपने ‘कौन है’ कहा था ।”

स्टेशन मास्टर का चेहरा उतर गया । तब कान्स्टेबिल ने हिम्मत की, “आपके साथ वह कौन बैठी हुई है ?”

‘मेरी स्त्री, भावज और भाई ।”

स्टेशन-मास्टर ने साहब को भी अंग्रेजी में समझा दिया । साहब ने दो बार आँखें झुकाए हुए सिर हिलाया, फिर अपने कम्पार्टमेण्ट की तरफ चल दिए । और लोग भी पीछे-पीछे चले ।

दरवाजा बन्द करते हुए राजकुमार ने सुनाकर कहा, “कावर्ड्स !” गाड़ी चल दी ।

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