चैप्टर 21 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 21 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas

चैप्टर 21 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास, Chapter 21 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas, Chapter 21 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

Chapter 21 Apsara Suryakant Tripathi Nirala

Chapter 21 Apsara Suryakant Tripathi Nirala

राजकुमार के होंठों का शब्द-बिन्दु पीकर कनक सीपी की तरह आनन्द के सागर पर तैरने लगी । भविष्य की मुक्ता की ज्योति उसकी वर्तमान दृष्टि मैं चमक उठी । अभी तक उसे राजकुमार से लज्जा नहीं थीं, पर अब दीदी के सामने आप-ही-आप लाज के भार से पलकें झुकी पड़ती थीं राजकुमार के हृदय का भार भी उसी क्षण दूर हो गया । एक प्रकार की गरिमा से चेहरा वसन्त के खिले हुए फूल पर पड़ती हुई सूर्यरश्मि से जैसे चमक उठा ।

तारा के तारक नेत्र पूरे उत्साह से उसका स्वागत कर रहे थे, और चन्दन तो अपनी मुक्त प्रसन्नता से जैसे सबको छाप रहा हो ।”

चन्दन राजकुमार को भाभी और कनक के पास पकड़ ले गया, “ओह ! देखा भाभी, कितने गहरे हैं जनाब !”

कनक अब राजकुमार से आँखें नहीं मिला पा रही थी । राजकुमार को देखती, तो जैसे कोई उसे गुदगुदा देता । और, उससे सहानुभूति रखनेवाली उसकी दीदी और चन्दन भी इस समय उसकी लज्जा की तरफ न होंगे, उसने समझ लिया था । राजकुमार के पकड़ आते ही वह उठकर तारा की दूसरी बगल से सटकर बैठ गई । राजकुमार और चन्दन भी उसी बर्थ पर बैठ गए ।

राजकुमार की तरफ देखकर तारा सस्नेह हँस रही थी, “तो यह कहिए, आप दोनों सधे हुए थे, यह अभिनय अब तक केवल दिखलाने के लिए ही कर रहे थे ? आपने अभिनय की सफलता में कमाल कर दिया ।”

“आप लोगों को प्रसन्न करना भी तो धर्म है ।” राजकुमार मुस्कुराता जाता था ।

कनक दीदी की आड़ में छिपकर हँस रही थी ।

चन्दन मानव-प्रकृति का ज्ञाता था । उसने सोचा, आनन्द के समय जितना ही चुप रहा जाए, आनन्द उतना ही स्थायी होता है, और तभी उसकी अनुभूति का सच्चा सुख भी प्राप्त होता है । इस विचार से उसने प्रसंग बदलकर कहा, “भाभी, ताश तो होंगे ?”

“हाँ, बक्से में पड़े तो थे ।”

“निकाल दो । अच्छा, मुझे गुच्छा दो, और किस बॉक्स में हैं, बतला दो, मैं निकाल लूँगा ।” चन्दन ने हाथ बढ़ाया ।

तारा स्वयं उठकर चली । “रज्जू बाबू, जरा यह बॉक्स तो उतार दो ।” राजकुमार ने उठकर ऊपरवाला तारा का कैश-बॉक्स नीचे रख उस बड़े बॉक्स को उतार लिया ।

खोलकर तारा ने ताश निकाल लिए । कौन किस तरफ हो, इसका निर्णय होने लगा । राजकुमार बॉक्स को उठाकर रखने लगा । फैसला नहीं हो रहा था । चन्दन कहता था, तुम दोनों एक तरफ हो जाओ, मैं और राजकुमार एक तरफ, पर तारा चन्दन को लेना चाहती थी । क्योंकि मजाक के लिए मौका राजकुमार और कनक को एक तरफ करने में था । दूसरे चन्दन खेलता भी अच्छा था ।

कनक सोचती थी, दीदी हार जाएगी, वह जरूर अच्छा नहीं खेलती होगी । अपनी ही तरह दिल से तारा भी कनक को कमजोर समझ रही थी । राजकुमार जरा-सी बात के लिए इस लम्बे विवाद पर चुपचाप हँस रहा था । कनक ने खुलकर कह दिया, मैं छोटे साहब को लूँगी । यही फैसला रहा ।

अब बात उठी, क्या खेला जाए । चन्दन ने कहा, ब्रिज तारा इनकार कर गई । वह ब्रिज अच्छा नहीं जानती थी । उसने कहा, बादशाह पकड़ । कनक हँसने लगी ।

चन्दन बोला, “अच्छा, टुएंटीनाइन खेलो ।”

राजकुमार ने कहा, “भई अपनी डफली, अपना राग, स्क्रू खेलो । बहूजी टुएंटीनाइन-खेल अच्छा नहीं जानतीं, में हार जाऊँगा ।”

मैं सड़ियत खेल नहीं खेलता, क्यों भाभीजी ? उनतीस के लिए पत्ते छाँटता हूँ ।” चन्दन ने सबसे छोटे होने के छोटे स्वर में बड़ी दृढ़ता रखकर कहा ।

अन्ततः यही निश्चय रहा ।

“आप तो जानती हैं न दुएंटीनाइन ?” कनक से चन्दन ने पूछा ।

“खोलिए ।” कनक मन्द मुस्कुरा दी ।

कनक और चन्दन एक तरफ, तारा और राजकुमार दूसरी तरफ हुए । चन्दन ने पत्ते अलग कर लिए । कह दिया, बोली चार-ही-चार पत्तों पर होगी, और रंग छिपाकर रखा जाएगा, जिसे जरूरत पड़े, साबित करा ले । रंग खुलने के बाद रॉयल पेयर की कीमत होगी ।

चार-चार पत्ते बाँटकर चन्दन ने कहा, “कुछ बाजी भी ?”

“हाँ, घुसावल । हर सेट पर पाँच पैसे ।” राजकुमार ने कहा ।

“यार, तुम गँवार के गँवार ही रहे । एम.ए. तो पास किया, पर सिंहजी का शिकारी स्वभाव वैसा ही बना हुआ है । मैं तो कहता हूँ, बाजी यह रही कि हावड़ा-स्टेशन पर हैमिल्टन की कारस्तानी का मोरचा वह से, जो जीते ।”

राजकुमार चन्दन की सूझ पर खुश हो गया । खेल शुरू किया । कहा, “सेवन्टीन ।”

कनक ने कहा, “नाइनटीन ।”

राजकुमार, “पास ।”

चन्दन, “बस ! तुम तो एक ही धौल में फिस्स हो गए ।”

तारा और चन्दन ने भी पास किया । कनक के उन्नीस रहे । उसने रंग रख दिया । खेल होता रहा । कनक ने उन्नीस कर लिए ।

खेल में राजकुमार कभी घायल नहीं हुआ, पर आज एक ही बार हारकर उसे बड़ी लज्जा मालूम दी ।

अब राजकुमार ने पत्ते बाँटे ।

कनक, “सेवन्टीन ।”

तारा, “नाइनटीन ।”

चन्दन ने कहा, “गोइयाँ पर क्या बोलें ! पास ।”

राजकुमार के पास रंग न था, पर कनक फिर बढ़ रही थी । उसका पुरुषोचित बड़प्पन अकारण फड़क उठा, कहा, “टुएंटी ।”

कनक, “एक्सेप्टेड ।”

राजकुमार, “दुएंटीवन”

कनक, अच्छी तरह अपने पत्ते देखती हुई, मुस्कुराकर बोली, “ऐक्सेप्टेड ।”

राजकुमार, “टुएंटी टू ।”

कनक, “ऐक्सेप्टेड ।”

राजकुमार (बिना पत्ते देखे, खुलकर), “टुएंटी थ्री ।”

कनक ने हँसकर कहा, “पास ।”

राजकुमार ने बड़ी शिथिलता से रंग रखा । खेल होने लगा । पहला हाय चन्दन ने लिया । कनक ने एक पेअर दिखलाया । चन्दन ने कहा, टुएंटी फाइव । राजकुमार के पास पत्ते थे नहीं । शान पर चढ़ गया था । हारता रहा । खेल हो जाने पर देखा गया, राजकुमार के आये भी न बने थे । दो काली बिन्दियाँ खुलीं । राजकुमार बहुत झेंपा ।

गाड़ी बर्दवान पार कर चुकी थी । खेल होता रहा । अब तक राजकुमार पर तीन काले और चार लाल खुल चुके थे ।

तारा ने स्टेशन करीब देख, तैयार हो रहने के विचार से, खेल बन्द कर दिया । पहले उसे राजकुमार की बातों से जितना आनन्द मिला था, अब हावड़ा ज्यों-ज्यों नजदीक आने लगा, उतना ही हृदय से डरने लगी । मन-ही-मन सकुशल सबके घर पहुँच जाने की कालीजी से प्रार्थना करने लगी । कनक को अच्छी तरह ओढ़कर, मुँह पर घूँघट डालकर चलने की शिक्षा दी ।

चन्दन ने कहा, “करार हो चुका है-अब मैं जैसा-जैसा कहूँ, करो । कहीं मारपीट की नौबत आएगी, तो तुम्हें सामने कर दूँगा ।”

इस मित्र-परिवार की तमाम आशाओं और शंकाओं को लिए पूरी रफ्तार से बढ़ती हुई गाड़ी लिलुआ-स्टेशन पर आकर खड़ी हो गई । हर डब्बे पर एक-एक टिकट-कलक्टर चढ़कर यात्रियों से टिकट लेने लगा ।

कनक से हारकर अब राजकुमार उससे नजर नहीं मिलाता था । कनक स्पर्धा की दृष्टि से, अलि-युवती की तरह, जो अपने फूल के चारों ओर मँडरावा करती है, सीधे, तिरछे, एक बगल, जिस तरह भी आँखों को जगह मिलती है, दीदी और चन्दन से बचकर पूरी बेहयाई से उससे चुभ जाती है । उसे गिरफ्तार कर खींचती, झुका हुआ देख सस्नेह छोड़ देती है । एक स्त्री के सामने राजकुमार की यह पहली हार थी-हर तरह ।

गाड़ी ने लिलुआ-स्टेशन छोड़ दिया । चन्दन ने नेतृत्व सँभाला । तारा का हृदय रह-रहकर काँप उठता था । राजकुमार महापुरुष की तरह स्थिर हो रहा था, अपनी तमाम शक्तियों में संकुचित, चन्दन की जरूरत के वक्त तत्काल मदद करने के लिए । कनक पारिजात की तरह अर्द्धप्रस्फुट निष्कलंक दृष्टि से हावड़ा-स्टेशन की प्रतीक्षा कर रही थी । केवल सिर चादर से ढका हुआ, श्वेत बादलों में अधखुले सूर्य की तरह ।

देखते-देखते हावड़ा आ गया । गाड़ी पहले प्लेटफार्म पर लगी । चन्दन तुरन्त उतर पड़ा । दो टैक्सियाँ कीं । कुली सामान उठाकर रखने लगे । चन्दन ने एक ही टैक्सी पर कुल सामान रखवाया । सिर्फ बहू का कैश-बॉक्स लिए रहा । राजकुमार को धीरे-से समझा दिया कि सामान वह अपने डेरे पर उतारकर रखेगा, वह बहू को छोड़कर घर से गाड़ी लेकर आता है । कुतियों को दाम दे दिए ।

एक टैक्सी पर राजकुमार अकेला बैठा, एक पर बहु, कनक और चन्दन । टैक्सियाँ चल दीं । चन्दन रह-रहकर पीछे देखता जाता था । पुल पार कर उसने देखा, एक टैक्सी आ रही है । उसे कुछ सन्देह हुआ । उस पर जो आदमी था, वह यात्री नहीं जान पड़ता था । चन्दन ने सोचा, यह जरूर खुफिया का कोई है, और हैमिल्टन ने इसे पीछे लगाया है । अपने ड्राइवर से कहा, इस गाड़ी को दूसरी गाड़ी की बगल करो । ड्राइवर ने वैसे ही किया । चन्दन ने सर बाहर निकालकर राजकुमार से कहा, ‘टी’ पीछे लगा है । टैक्सी एक है, देखें, किसके पीछे लगती है । चन्दन और कलकत्ते के विद्यार्थी गुप्त विभागवालों को ‘टी’ कहते थे ।

राजकुमार ने एक बार फिर लापरवाह निगाह से पीछे देखा । सेंट्रल एवेन्यू के पास दोनों गाड़ियाँ दो तरफ हो गईं । राजकुमार की टैक्सी दक्षिण चली, और चन्दन की उत्तर । कुछ दूर चलकर चन्दन ने देखा, टैक्सी बिना रुके राजकुमार की टैक्सी के पीछे चली गई । चन्दन को चिन्ता हुई । सोचने लगा ।

बहू ने कहा, “छोटे साहब, वह गाड़ी शायद उधर ही गई है ?”

“हाँ ।” चन्दन का स्वर गम्भीर हो रहा था ।

“तुम्हारा मकान तो आ गया, इस तरफ है न ?” तारा ने कनक से पूछा ।

“हाँ । चलो दीदी, आज हमारे यहाँ ही रहो ।” ड्राइवर से कनक ने कहा, “बाई तरफ ।”

टैक्सी कनक के मकान के सामने खड़ी हो गई । कोठी देखकर चन्दन के हृदय में कनक के प्रति सम्भ्रम पैदा हुआ । कनक उत्तर पड़ी । सब लोग बड़े प्रसन्न हुए । दौड़कर सर्वेश्वरी को खबर दी । कनक ने अपने नौकर से टैक्सी का किराया चुका देने के लिए कहा । चन्दन ने कहा, अब घर चलकर किराया चुका दिया जाएगा । कनक ने न सुना । तारा का हाथ पकड़कर कहा, “दीदी चलो ।”

तारा ने कहा, “अभी नहीं बहन, इसका अर्थ तुम्हें फिर मालूम हो जाएगा । फिर कभी रज्जू बाबू को साथ लेकर आया जाएगा । तुम्हारा विवाह तो हमें यहीं करना है ।”

कनक कुछ खिन्न हो गई । अपने ड्राइवर से गाड़ी ले आने के लिए कहा । तारा और चन्दन उतरकर अहाते में खड़े हो गए । सर्वेश्वरी ऊपर से उतर आई । कनक को गले लगाकर चूमा । एक साँस में कनक बहुत कुछ कह गई । सर्वेश्वरी ने तारा को देखा, तारा ने सर्वेश्वरी को तारा ने मुँह फेरकर चन्दन से कहा, “छोटे साहब, जल्द चलो ।”

तारा को बड़ी घुटन मालूम दे रही थी । सर्वेश्वरी अत्यन्त सुन्दर होने पर भी तारा को बड़ी कुत्सित देख पड़ी उसके मुख की रेखाओं के स्मरण मात्र से तारा को भय होता था अपने चरित्र बल से सर्वेश्वरी के विकृत परमाणुओं को हुई जैसे मुहूर्त-मात्र में थककर ऊब गई हो । तब तक कनक- ड्राइवर मोटर ले आया ।

पहले सर्वेश्वरी तारा को स्नेह करना चाहती थी, क्योंकि दीदी का परिचय कनक ने सबसे पहले दिया था, पर हिम्मत करके भी तारा की तरफ स्नेह-भाव से नहीं बढ़ सकी, मानो तारा की प्रकृति उससे किसी प्रकार का भी दान करने के लिए तैयार नहीं, उसे उससे परमार्थ के रूप में जो कुछ लेना हो ले ।

कनक ने दीदी की ऐसी मूर्ति कभी न देखी थी-यह वह दीदी न थी ! कनक के हृदय में यह पहलेपहल विशद भावना का प्रकाश हुआ । सर्वेश्वरी इतना सब नहीं समझ सकी समझी सिर्फ अपनी क्षुद्रता और तारा की महता- अविचल स्त्रीत्व, पतिनिष्ठा । आप-ही-आप सर्वेश्वरी का मस्तक झुक गया । उसका विष पीकर तारा एक बार तपकर फिर धीर हो गई । सर्वेश्वरी के हृदय में शान्ति का उद्रेक हुआ । ऐसी परीक्षा कभी नहीं दी थी । सिद्धान्त वह बहुत जानती थी, पर इतना प्रत्यक्ष प्रमाण अब तक न मिला था । वह जानती थी, हिन्दू-घराने में, और खासकर बंगाल छोड़कर भारत के अपर उत्तरी भागों में, कन्या को देवी मानकर, घरवाले उसके पैर छूते हैं । कनक की दीदी को उसने देवी और कन्या के रूप में मानकर, पास आ पैर छुए । तारा शान्त खड़ी रही । चन्दन स्थिर, झुका हुआ ।

ड्राइवर गाड़ी लगाए हुए था । तारा बिना कुछ कहे गाड़ी की तरफ बढ़ी, मन से भगवान् विश्वनाथ और कालीजी को स्मरण करती हुई । पीछे-पीछे चन्दन चला ।

सर्वेश्वरी ने बढ़कर दरवाजा खोल दिया । तारा बैठ गई । नौकर ने कैश-बॉक्स रख दिया । चन्दन भी बैठ गया ।

कनक देखती रही । पहले उसकी इच्छा थी कि वह भी दीदी के साथ उसके मकान जाएगी, पर इस भाव-परिवर्तन को देख वह कुछ घबरा-सी गई थी । जड़वत् उसी जगह खड़ी रही । गाड़ी चल दी, चन्दन के कहने पर ।

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