चैप्टर 23 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 23 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas

चैप्टर 23 अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास, Chapter 23 Apsara Suryakant Tripathi Nirala Ka Upanyas, Chapter 23 Apsara Suryakant Tripathi Nirala

Chapter 23 Apsara Suryakant Tripathi Nirala

Chapter 23 Apsara Suryakant Tripathi Nirala

चार का समय था । चन्दन उठ बैठा । राजकुमार को उठाया । दोनों ने हाथ-मुँह धोकर कुछ जलपान किया । चन्दन ने चलने के लिए कहा । राजकुमार तैयार हो गया ।

तारा ने सास को कल जाने की बात बाकू-छल से याद दिला दी । पड़ोस की वृद्धाओं का जिक्र करते हुए पूछा, वह कैसी हैं, उनका लड़का विलायत से लौटनेवाला था, लौटा या नहीं; उनके पोते की शादी होनेवाली थी, किसी कारण से रुक गई थी, वह शादी होगी या नहीं, आदि-आदि । वृद्धा को स्वभावतः सबसे मिलने की इच्छा हुई । जल्द जाने के विचार से तारा के प्रश्नों के बहुत सक्षिप्त उत्तर दिए । चलने लगी, तो तारा से अपनी जरूरत की चीजें बतलाकर कह दिया कि सब सँभालकर इकट्ठी कर रखे । तारा ने बड़ी तत्परता से उत्तर दिया कि वह निश्चित रहें । तारा जानती थी, यह सब दस मिनट का काम है, चलते समय भी कर दिया जा सकता है ।

तारा की सास मोटर पर गई । राजकुमार और चन्दन ट्राम पर चलें । राजकुमार भीतर-ही-भीतर अपने जीवन के उस स्वप्न को देख रहा था, जो किरणों में कनक को खोलकर उसके हृदय की काव्य-जन्य रूप-तृष्णा तृप्त कर रहा था । बाहर तथा भीतर वह सब सिद्धियों के द्वार पर चक्कर लगा चुका था । बाहर अनेक प्रकार से सुन्दरी स्त्रियों के चित्र देखे थे, पर भीतर ध्यान-नेत्रों से न देख सकने के कारण जब कभी उसने काव्य-रचना की, उसके दिल में एक असम्पूर्णता हमेशा खटकती रही । उसके सतत प्रयत्न इस त्रुटि को दूर नहीं कर सके ।

अब, वह देखता है, आप-ही-आप, अशब्द ऋतु-वर्तन की तरह जीवन का एक चक्र उसे प्रवर्तित कर परिपूर्ण चित्रकारिता के रहस्य-द्वार पर ला खड़ा कर गया है । दिल में आप-ही-आप निश्चय हुआ, सुन्दरी स्त्री को अब तक मैं दूर से प्यार करता था, केवल इन्द्रियाँ देकर, आत्मा अलग रहती थी, इसलिए सिर्फ उसके एक-एक अंग-प्रत्यंग लिखने के समय आते थे, परिपूर्ण मूर्ति नहीं, पूर्ण प्राप्ति पूर्ण दाब चाहती है, मैंने परिपूर्ण पुरुष-देह देकर सम्पूर्ण स्त्री-मूर्ति प्राप्त की, आत्मा और प्राणों से संयुक्त, साँस लेती हुई, पलकें भारती हुई, रस से ओत-प्रोत, चंचल, स्नेहमयी । तत्त्व के मिलने पर जिस तरह सन्तोष होता है, राजकुमार को वैसी ही तृप्ति हुई ।

राजकुमार जितनी भीतर की उधेड़बुन में था, चन्दन उतनी ही बाहर की छानवीन में । धौरंगी की रंगीन परकटी परियों को देख जिस नेम से उसके विचार के रथ-चक्र बराबर चक्कर लगाया करते थे, उसी से देश की दुर्दशा, भारतीयों का अर्थ-संकट, सम्पत्ति-वृद्धि के उपाय, अनेकता में एकता का मूल सूत्र आदि-आदि सद्विप्रों की अनेक उक्तियों की एक राह से वह गुजर रहा था । इसी से उसे अनेक चित्र, अनेक भाव, अपार सौन्दर्य मिल रहा था । संसार की तमाम जातियाँ उसके एक ताँगे से बँधी हुई थीं, जिन्हें इंगित पर नचाते रहनेवाला वही सूत्रधार था ।

“उतरो जी ।” राजकुमार की बाँह पकड़कर चन्दन ने उसे झकझोर दिया ।

तब तक राजकुमार कल्पना के मार्ग से बहुत दूर गुजर चुका था, जहाँ वह और कनक आकाश और पृथ्वी की तरह मिल रहे थे; जैसे दूर आकाश पृथ्वी को हृदय से लगा, हृदय-बल से उठाता हुआ हमेशा उसे अपनी ही तरह सीमा-शून्य, अशून्य कर देने के लिए प्रयत्न-तत्पर हो, और यही जैसे सृष्टि की सर्वोत्तम कविता हो रही हो ।

राजकुमार सजग हो धीरे-धीरे उतरने लगा । तब तक श्याम-बाजारवाली ट्राम आ गई । खींचते हुए चन्दन ने कहा, “गृहस्थी की फिर चिन्ता करना, चोट खाकर कहीं गिर जाओगे ।”

दोनों श्याम-बाजारवाली ट्राम पर बैठ गए । बहू-बाजार के चौराहे के पास ट्राम पहुँची, तो उतरकर कनक के मकान की तरफ चले । चन्दन ने देखा, कनक तिमंजिले पर खड़ी दूसरी तरफ-चितरंजन एवेन्यू की तरफ देख रही है ।

राजकुमार को बड़ी खुशी हुई । वह मर्म समझ गया । चन्दन से कहा, “बतला सकते हो, आप उस तरफ क्यों देख रही हैं ?”

“अजी, ये सब इन्तजारी के नजारे, प्रेम के मजे हैं । तुम मुझे क्या समझाओगे ?”

“मजे तो हैं, पर ठीक वजह यह नहीं । बहू को मैं इसी तरफ से लेकर गया था ।”

“अच्छा ! लड़ाई के बाद ?

राजकुमार ने हँसकर कहा, “हाँ ।”

“अच्छा, तो इन्होंने सोचा, मियाँ इसी राह मसजिद दौड़ते हैं ।”

दोनों कनक के मकान पर आ गए । नौकर से पहले ही कनक ने कह रखा था कि दीदी के यहाँ के लोग आवें, तो वह बिना खबर दिए ही उसके पास ले आएगा ।

नौकर दोनों को कनक के पास ले गया । कनक राजकुमार को जरा-सा सिर झुका, हँसकर चन्दन से मिली । हाथ पकड़कर गद्दी पर बैठाया ।

चन्दन बैठते हुए कहता गया, “पहले अपने…अपने उनको उठाओ-बैठाओ; मैं तो यहाँ उन्हीं के सिलसिले से हूँ।”

“उनका तमाम मकान है, जहाँ चाहें, उठे-बैठें ।” कनक होंठ काटकर मुस्कुराती जाती थी ।

तत्काल चन्दन ने कहा, “उनका तमाम मकान है, और मेरा ?”

“तुम्हारा ? तुम्हारी में और यह ।”

राजकुमार भी चन्दन के पास बैठ गया ।

चन्दन झेंप गया था । कनक भी उसी गद्दी पर बैठ गई । चन्दन ने कहा, “तुम मुझसे बड़ी हो, पर मुझे आप-आप कहते बड़ा बुरा लगता है । मैं तुम्हारे इन्हीं को आप नहीं कहता ! तुम्हीं चुन दो तुम्हें क्या कहूँ ?”

“तुम्हारी जो इच्छा ।” कनक स्नेह से हँस रही थी ।

“मैं तुम्हें जो कहूँगा ।”

“तुमने जीजी का एक बटे दो कर दिया । एक हिस्सा मुझे मिला, एक किसके लिए रखा ?”

“वह इनके लिए है । क्योंजी, इस तरह ‘जीजी’ यन्नव्येति तदव्ययम् कही जाएगी, या कहा जाएगा ?”

राजकुमार कुछ न बोला । कनक ने बगल से उठाकर घंटी बजाई । नौकर के आने पर पखावज और वीणा बढ़ा देने के लिए कहा ।

खुश होकर चन्दन ने कहा, “हाँ जी-तुम्हारा गाना तो अवश्य सुनूँगा ।”

“पखावज लीजिए ।”

“गाना लौटकर हो, तो अच्छा होगा । अभी बहू के पास जाना है ।”

राजकुमार ने साधारण गम्भीरता से कहा ।

“हाँ-हाँ, भूल गया था । भाभी ने तुम्हें बुलाया है ।” चन्दन ने कनक से कहा ।

कनक ने वीणा रख दी । गाड़ी तैयार करने के लिए कहा । इनकी प्रतीक्षा में कपड़े पहले ही बदल चुकी थी । उठकर खड़ी हो गई । जूते पहने । आगे-आगे उतरने लगी । पति का अदव-कायदा सब भूल गया । बीच में राजकुमार था, पीछे चन्दन । चन्दन मुस्कुरा रहा था । मन-ही-मन कह उठा, इस आकाश के पक्षी को पिंजड़े में ‘राम-राम’ रटाना समाज की बेवकूफी है । इसका तो इसी रूप में सौन्दर्य है ।

गाड़ी तैयार थी । आगे ड्राइवर और अर्दली बैठे थे, पीछे दाहिनी ओर राजकुमार, बाईं ओर चन्दन, बीच में कनक बैठ गई ।

गाड़ी भवानीपुर चली ।

कुछ सोचते हुए चन्दन ने कहा, “जी, मुझे एक हजार रुपए दो । मैंने हरदोई-जिले में, देहात में, एक राष्ट्रीय विद्यालय खोला है, उसकी मदद के लिए ।”

“आज तुम्हें अम्मा से चेक दिला दूंगी ।” कनक ने बिना कुछ सोचे, सहज स्वर में कहा ।

“नहीं, मुझे चेक देने की जरूरत नहीं । मैं तुम्हें बता दूँगा, उसी पते पर अपने नाम से भेज देना ।” कुछ सोचते हुए चन्दन कह उठा ।

“तुम भीख माँगने में बड़े निपुण देख पड़ते हो ।” राजकुमार कह उठा ।

“तुम जी को उपहार नहीं दोगे ?” चन्दन ने पूछा ।

“क्यों, वक्तृता के प्रभाव से बेचवाने का इरादा है ?”

“नहीं, पहले जब उपन्यासों की चाट थी, कॉलेज-जीवन में देखता था,

प्यार के उबाल में उपहार ही ईंधन का काम करते थे ।”

“पर यह तो देवी संयोग है ।” राजकुमार ने मुस्कुराकर कहा ।

बातों-ही-बातों में रास्ता पार हो गया । गेट के सामने गाड़ी पहुँची । तारा प्रतीक्षा कर रही थी । नीचे उतर आई । बड़े स्नेह से कनक को ऊपर ले गई । राजकुमार और चन्दन पीछे-पीछे चले ।

तारा ने पहले ही से कनक की पेशवाज निकाल रखी थी । दियासलाई और पेशवाज लेकर सीधे छत पर चढ़ने लगी । ये लोग भी पीछे-पीछे जा रहे थे ।

पेशवाज छत पर रखकर, दियासलाई जला, आग लगा दी ।

कनक गम्भीर हो रही थी । निष्पन्द पलकें, अन्तर्दृष्टि ।

तारा ने कहा, “प्रतिज्ञा करो, आज से यह काम कभी नहीं करूँगी ।”

“कभी नहीं करूँगी ।” कनक ने कहा ।

“कहो, सुबह नहाकर रोज शिव-पूजन करूँगी ।”

“सुबह नहाकर रोज शिव-पूजन करूँगी ।”

उस समय की कनक को देखकर चन्दन तथा राजकुमार के हृदय में मर्यादा के भाव जाग रहे थे ।

तारा ने कनक को गले लगा लिया । कहा, “अपनी माँ से दूसरी जगह रहने के लिए कहो । मकान में यज्ञ कराओ । एक दिन गरीबों को भोजन दो । मकान में एक छोटा-सा शिव मन्दिर बनवा लो । जब तक मन्दिर नहीं बनता, तब तक किसी कमरे में, अलग, जहाँ लोगों की आमदरफ्त ज्यादा न हो, पूजा-स्थान कर लो । आज आदमी भेजकर एक शिवमूर्ति मैंने मँगा ली है । चलो, लेती जाओ ।”

“भाभी ।” चन्दन ने रोककर कहा, “यह सब सोना, जो मिट्टी में पड़ा है, कहो तो मैं ले लूँ ।”

राजकुमार हँसा ।

“ले लीजिए ।” कहकर तारा, कनक को साथ ले, नीचे उतरने लगी । वह चन्दन को पहचानती थी । राजकुमार खड़ा देखता रहा । चन्दन राख फूँककर सोने के दाने इकट्ठे कर रहा था । एकत्र कर तअज्जुब की निगाह से देखता रहा । सोना दो सेर से ज्यादा था ।

“ईश्वर करे, एक पेशवाज रोज ऐसे जले, और सोना गरीबों को दिया जाए ।” कहकर, अपनी धोती के छोर में बाँधकर चन्दन अपने कमरे की तरफ उतर गया । राजकुमार बहू के पास रह गया ।

चन्दन के बड़े भाई भी आ गए थे, कहीं बाहर गए हुए थे । तारा से उन्होंने बहू देखने की इच्छा जाहिर की थी । तारा ने कह दिया था कि कुछ नजर करनी होगी । शायद इसी विचार से बाजार की तरफ गए थे । नीचे बैठे प्रतीक्षा कर रहे थे, कब बुलावा आए । बहू ने दरवान से रोक रखने के लिए कह दिया था ।

तारा ने अपनी खरीदी हुई एक लाल रेशमी साड़ी कनक को पहना दी । सुबह की पूजा का पुष्प चढ़ाया हुआ रखा था, सिर से छुला, चलते समय सुबह अपने हाथों गंगा में छोड़ने का उपदेश दे, सामने के आँचल में बाँध दिया, जिसकी भद्दी गाँठ चाँद के कलंक की तरह कनक को और सुन्दर कर रही थी । इसके बाद नया सिन्दूर निकाल, मन-ही-मन गौरी को अर्पित कर, कनक की माँग अच्छी तरह भर दी । राजकुमार से कहा, जाओ, अपने भाई को बुला लाओ, वह देखेंगे । कनक का घूँघट काढ़ दिया । फर्श पर बैठा, दरवाजा बन्द कर, दरवाजे के पास खड़ी रही ।

नन्दन ने भेंट करने की बड़ी-बड़ी कल्पनाएँ कीं, पर कुछ सूझा नहीं । तारा से उन्हें मालूम हो चुका था, कनक ऐश्वर्यवती है । इसलिए हजार-पाँच सौ की भेंट से उन्हें सन्तोष नहीं हो रहा था । कोई नई चीज सूझ नहीं रही थी । तभी उनके सामने से एक आदमी चर्खा लेकर गुजरा । कलकत्ते में कहीं-कहीं जनेऊ के शुद्ध सूत निकालने के अभिप्राय से बनते और बिकते थे । स्वदेशी-आन्दोलन के समय कुछ प्रचार स्वदेशी वस्त्रों का भी हुआ था, तब से और भी बनने लगे थे । छाँटकर एक अच्छा चर्खा उन्होंने खरीद लिया । इसके साथ उन्हें शान्तिपुर और बंगाल-कैमिकल की याद आई । एक शान्तिपुरी कीमती साड़ी और कुछ बंगाल-कैमिकल के तेल-फुलेल, सेंट-पाउडर आदि खरीद लिए, पर ये सब बहुत साधारण कीमत पर मिल गए थे । उन्हें सन्तोष नहीं हुआ । वह जवाहरात की दुकान पर गए । बड़ी देखभाल के बाद एक अँगूठी उन्हें बहुत पसन्द आई-हीरे जड़ी । कीमत हजार रुपए । खरीद ली । उसमें खूबी यह थी कि ‘सती’ शब्द पर, नग की जगह, हीरक-चूर्ण जड़े थे, जिनमें अक्षर जगमगा रहे थे ।

राजकुमार से खबर पा, भेंट की चीजें लेकर नन्दनसिंह बहू को देखने ऊपर चले । तारा कमरे के दरवाजे पर खड़ी थी । एक बार कनक को देखकर दरवाजा खोल दिया । नन्दन ने भेंट का सामान तारा के सामने टेबिल पर रख दिया । फिर अँगूठी पहना देने के लिए दी । अँगूठी के अक्षर पढ़कर-पढ़कर, प्रसन्न हो, तारा ने कनक को पहना दी, और कहा, “बहू, तुम्हारे जेठ तुम्हारा मुँह देखेंगे ।”

राजकुमार नीचे चन्दन के पास उतर गया । तारा ने कनक का मुँह खोल दिया । जिस रूप में उसने बहू को सजा रखा था, उसे देखकर नन्दन की तबियत भर गई । प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया, “अखण्ड सौभाग्यवती रहो !”

कनक अचंचल पलकें झुकाए बैठी रही ।

“हमारी एक साध बहू और तुम्हें पूरी करनी है । एक भजन गाकर सुना दो । याद हो, तो गुसाईंजी का ।” नन्दन ने कहा ।

तारा ने कनक की ओर निहारा । उसने सिर हिलाकर सम्मति दी । तारा ने कहा, “उस कमरे में बैठकर सुनिएगा, और जरा छोटे साहब को बुला दीजिए ।”

राजकुमार और चन्दन तब तक स्वयं ऊपर आ गए । तारा चन्दन से तबला बजाने का प्रस्ताव कर मुस्कुराई । चन्दन राजी हो गया । कमरे में एक बॉक्स-हारमोनियम था । चन्दन तबलों की जोड़ी ले आया । राजकुमार बाहर कर दिया गया । भीतर नन्दन के साथ तारा, कनक और चन्दन रहे ।

स्वर मिलाकर कनक गाने लगी :

श्रीरामचन्द्र कृपालु भजु मन हरन भव भय दारुनम्:

नव-कंज लोचन , कंज मुख, कर कंज, पद कंजारुनम् ।

कंदर्प-अगनित-अमित छवि नव-नील नीरज सुन्दरम् ;

पट पीत मानहु तड़ित रुचि सुचि नौमि जनकसुतावरम् ।

एक-एक शब्द से कनक अपने शुद्ध हुए हृदय से भगवान् श्रीरामचन्द्रजी को अर्घ्य दे रही थी । चन्दन गम्भीर हो रहा था, तारा और नन्दन रो रहे थे ।

नन्दन ने राजकुमार को अप्सरा-विवाह के लिए हार्दिक धन्यवाद दिया । कनक के रुपहले तार-से चमचमाते हुए भावनसुंदर बेफाँस स्वर की बड़ी तारीफ की ।

तारा ने चन्दन की ठेकेबाजी पर चुटकियाँ कसीं । कनक का श्रमित, शान्त मुख चूमकर, उसे परी -बहू श्रुति-सुखद शब्द सुना कुछ उभाड़ दिया ।

नन्दन ने छोटे भाई से कहा, “अब तुम्हारे लखनऊ जाने की जरूरत न होगी । वकील की चिट्ठी आई है, पुलिस ने लिखा-पढ़ी करके तुम्हारा नाम निकाल दिया ।

चन्दन ने भौं सिकोड़कर सुन लिया ।

चन्दन और राजकुमार बातचीत करते हुए नीचे उतर गए । नन्दन राजकुमार को कुछ उपदेश दे रहे थे ।

तारा ने चन्दन से बहू के पुष्प-विसर्जनोत्सव पर गंगाजी चलने के लिए कहा । कार्य अन्त तक अपने ही सामने करा देना उसे पसन्द आया । कनक के मोजे उतरवा दिए, और देव-कार्य के समय सदा नंगे पैर रहने का उपदेश भी दिया ।

गंगा में कनक के आँचल का फूल छुड़वा, कालीजी के दर्शन करवा जब वह लौटी, तब आठ बज रहे थे । कनक ने चलने की आज्ञा माँगी । बिदा हो, प्रणाम कर चन्दन और राजकुमार के साथ घर लौटी ।

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