चैप्टर 7 खौफनाक इमारत : इब्ने सफ़ी का उपन्यास | Chapter 7 Khaufnaak Imarat Novel By Ibne Safi

Chapter 7 Khaufnaak Imarat Novel By Ibne Safi

Chapter 7 Khaufnaak Imarat Novel By Ibne Safi

Chapter  1 | 2 | 3 | 45 | | | | | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 

Prev | Next | All Chapters

कैप्टन फैयाज़ काम में व्यस्त था कि उसके पास इमरान का पैगाम पहुँचा। उसने फैताज़ को उसके ऑफिस से करीबी रेस्तरां में बुलवा भेजा था। फैयाज़ ने वहाँ पहुँचने में देर नहीं लगाई। इमरान एक खाली मेज पर तबला बजा रहा था। फैयाज़  को देखकर अहमकों की तरह मुस्कुराया।

“कोई नई बात?” फैयाज़ ने उसके करीब बैठते हुए पूछा।

“मीर तकी मीर गालिब तकल्लुस करते थे!”

“यह इत्तला तुम डाक के जरिये भी दे सकते थे।” फैयाज़ चिढ़कर बोला।

“14 तारीख की रात को वह महबूबा एक आँख वाली कहाँ थी?”

“तुम आखिर उसके पीछे क्यों पड़ गए हो?”

“पता लगाकर बताओ! अगर वह कहे कि उसने अपनी वह रात अपने किसी ख़ाला के साथ बिताई है, तो तुम्हारा फ़र्ज़ है कि उस ख़ाला से बात की तहकीकात करके हमदर्द दवा खाने को फौरन इत्तला कर दो, वरना खतों किताबत खुफिया न रखी जायेगी।”

“इमरान मैं बहुत मशगूल हूँ।”

“मैं भी देख रहा हूँ। क्या आजकल तुम्हारे ऑफिस में मक्खियों की कसरत हो गई है। कसरत से यह मुराद नहीं कि मक्खियाँ डंक पेलती हैं।”

“मैं जा रहा हूँ।” फैयाज़ झुंझला कर उठता हुआ बोला।

“अरे क्या तुम्हारी नाक पर मक्खियाँ नहीं बैठती।” इमरान ने उसका हाथ पकड़कर बिठाते हुए कहा। फैयाज़ उसे घूरता हुआ आ बैठा। वह सचमुच झुंझला गया था।

“तुम आए क्यों थे?” उसने पूछा।

“यह तो मुझे भी याद नहीं रहा। मेरे ख़याल से शायद मैं तुमसे चावल का भाव पूछने आया था, मगर तुम कहोगे कि मैं कोई नाचने वाली तो हूँ नहीं कि भाव बताऊं। वैसे तुम्हें इत्तला दे सकता हूँ कि लाशों के सिलसिले में कहीं ना कहीं एक आँख वाली महबूबा का कदम ज़रूर है। मैंने कोई गलत लफ्ज़ तो नहीं बोला, हाँ!”

“उसका कदम किस तरह?” फैयाज़ यकायक चौंक पड़ा।

“इनसाइक्लोपीडिया में यही लिखा है।” इमरान सिर हिलाकर बोला, “बस यह मालूम करो कि उसने 14 की रात कहाँ गुजारी?”

“क्या तुम संजीदा हो?”

“ओफ्फ हो! बेवकूफ आदमी हमेशा संजीदा रहते हैं।”

“अच्छा, मैं मालूम करूंगा।”

“ख़ुदा तुम्हारी मादा को सलामत रखे। दूसरी बात यह कि मुझे जज साहब के दोस्त अयाज़ के मुकम्मल हालात की जानकारी चाहिए। वह कौन था? कहाँ पैदा हुआ था? किस खानदान से ताल्लुक रखता था? उसके अलावा दूसरे रिश्तेदार वगैरा कहाँ रहते हैं? सब मर गए या अभी कुछ ज़िन्दा हैं?”

“तो ऐसा करो, आज शाम की चाय मेरे घर पर पियो।” फैयाज़ बोला।

“और इस वक्त की चाय?” इमरान ने बड़े भोलेपन से पूछा।

फैयाज़ ने हँसकर वेटर को चाय का आर्डर दिया। इमरान उल्लू की तरह आँखें घुमा रहा था। वह कुछ देर बाद बोला, “क्या तुम मुझे जज साहब से मिलाओगे।”

“हाँ, मैं तुम्हारी मौजूदगी में ही उनसे उसके बारे में गुफ्तगू करूंगा।”

“ही ही…मुझे तो बड़ी शर्म आयेगी।” इमरान दांतो तले उंगली दबा कर दोहरा हो गया।

“क्यों…क्यों बोर कर रहे हो? शर्म की क्या बात है?”

“नहीं, मैं वालिद साहब को भेज दूंगा।”

“क्या बक रहे हो?”

“मैं अपनी शादी खुद तय करना नहीं चाहता।”

“ख़ुदा समझे! अरे मैं अयाज़ वाली बात कर रहा था।”

“लाहौल विला कूवत!” इमरान ने झेंप जाने की एक्टिंग की।

“इमरान आदमी बनो!”

“अच्छा!” इमरान ने आज्ञाकारिता से सिर हिलाया। चाय आ गई थी। फैयाज़ कुछ सोच रहा था। कभी-कभी वह इमरान की तरफ भी देख लेता था, जो अपने सामने वाली दीवार पर लगे हुए आईने में देख-देख कर मुँह बना रहा था। फैयाज़ ने चाय बनाकर प्याली उसके आगे खिसका दी।

“यार फैयाज़! वह शहीद मर्द की कब्र वाला मुज़ाविर बड़ा ग्रेट आदमी मालूम होता है।” इमरान बोला।

“क्यों?”

“उसने एक बड़ी ग्रेट बात कही थी।”

“क्या?”

“यही कि पुलिस वाले गधे हैं।”

“क्यों कहा था उसने?” फैयाज़ चौंक कर बोला।

“पता नहीं! लेकिन उससे बात बने पते की कही थी।”

“तुम खामखा गाली देने पर तुले हुए हो।”

“नहीं प्यारे! अच्छा तुम यह बताओ! वहाँ कब्र किसने बनाई थी और उस एक कमरे के प्लास्टर के बारे में तुम्हारा क्या ख़याल है?”

“मैं बेकार बातों में सर नहीं खपाता।” फैयाज़ चिढ़कर बोला, “इस मामले में उसका क्या ताल्लुक?”

“तब तो किसी अजनबी की लाश का वहाँ पाया जाना कोई अहमियत नहीं रखता।” इमरान ने कहा।

“आखिर तुम कहना क्या चाहते हो?” फैयाज़ झुंझला कर बोला।

“यह कि नेक बच्चे सुबह उठकर अपने बड़ों को सलाम करते हैं। फिर हाथ मुँह धो कर नाश्ता करते हैं और फिर स्कूल चले जाते हैं। किताब फुल कर अलिफ से उल्लू, ब से बंदर, प से पतंग…!”

“इमरान ख़ुदा के लिये।” फैयाज़ हाथ उठाकर बोला।

“और खुद को हर वक्त याद रखते हैं।”

“बके जाओ।”

“चलो खामोश हो गया। एक खामोशी हजार टलायें बालती हैं…हांय, क्या टलायें…लाहौल विला कूवत…मैंने अभी क्या कहा?”

“अपना सर!”

“शुक्रिया! मेरा सर बड़ा मजबूत है। एक बार इतना मजबूत हो गया था कि मैं उसे बैगन का भुर्ता कहा करता था।”

“चाय खत्म करके दफ़ा हो जाइये।” फैयाज़ बोला, “मुझे अभी बहुत काम है। शाम को घर जरूर आना।”

Prev | Next | All Chapters

Chapter  1 | 2 | 3 | 45 | | | | | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 

Ibne Safi Novels In Hindi :

कुएं का राज़ ~ इब्ने सफ़ी का उपन्यास

जंगल में लाश ~ इब्ने सफ़ी का ऊपन्यास

नकली नाक ~ इब्ने सफ़ी का उपन्यास

Leave a Comment