चैप्टर 6 खौफनाक इमारत : इब्ने सफ़ी का उपन्यास | Chapter 6 Khaufnaak Imarat Novel By Ibne Safi

Chapter 6 Khaufnaak Imarat Novel By Ibne Safi

Chapter 6 Khaufnaak Imarat Novel By Ibne Safi

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यह सोचना कतई गलत ना होगा कि इमरान के कदम बिना मकसद टिपटॉप नाइट क्लब की तरफ उठ गए थे। उसे पहले से ही खबर थी कि सर जहांगीर आज को शहर में मुकीम नहीं है और वह यह भी जानता था कि ऐसे मौके पर लेडी जहांगीर अपनी रातें कहाँ गुज़ारती है। यह भी हकीकत थी कि लेडी जहांगीर किसी ज़माने में उसकी मंगेतर रह चुकी थी और खुद इमरान की हिमाकतों की वजह से यह शादी नहीं हो सकी।

सर जहांगीर की उम्र लगभग साठ साल ज़रूर रही होगी, लेकिन जिस्म की मजबूती के कारण यह बहुत ज्यादा बूढ़े नहीं मालूम होते थे। इमरान दम साधे लेटा रहा। आधा घंटा गुज़र गया। उसने कलाई पर बंधी हुई घड़ी देखी और फिर उठकर ख्वाबगाह की रोशनी बंद कर दी। पंजों के बल पर चलता हुआ लेडी जहांगीर की ख्वाबगाह के दरवाजे पर आया, जो अंदर से बंद था।

अंदर गहरी नीली रोशनी थी। इमरान ने दरवाजे के शीशे के अंदर झांका। लेडी जहांगीर मसहरी पर औंधी पड़ी बेखबर सो रही थी। इमरान पहले की तरह एहतिहात से चलता हुआ सर जहांगीर की लाइब्रेरी में दाखिल हुआ।

यहाँ अंधेरा था। इमरान ने जेब से टॉर्च निकालकर रोशनी की। काफ़ी लंबा-चौड़ा कमरा था। चारों तरफ बड़ी-बड़ी अलमारियाँ थी और दरमियान में तीन लंबी-लंबी मेजें। बहरहाल यह निजी लाइब्रेरी से ज्यादा पब्लिक रीडिंग रूम मालूम हो रहा था। पूर्वी सिरे पर लिखने की एक मेज थी। इमरान सीधा उसी की तरफ गया। जीत से वह पर्चा निकाला, जो उसे उस खौफ़नाक इमारत से रहस्यमय तरीके से मरने वाले के पास मिला था। वह उसे गौर से देखता रहा, फिर मेज पर रखे हुए कागजात उलटने लगा।

थोड़ी देर बाद वह हैरत से आँखें फाड़े एक राइटिंग पैड के लेटर हेड की तरफ देख रहा था। उसके हाथ में दबे हुए कागज में और उसमें कोई फ़र्क न था। दोनों पर एक ही किस्म के निशान थे और यह निशान सर जहांगीर के पूर्वजों के कारनामों की यादगार थे, जो उन्होंने मुगलिया दौरे हुकूमत में सर अंजाम दिए थे। सर जहांगीर के इन निशानों को अब तक इस्तेमाल कर रहे थे। उनके कागजात पर उसके नाम की बजाय अक्सर यही निशान छपे हुए थे।

इमरान ने  मेज़ पाये रखे कागज़ात को पहले सी तरतीब में रख दिया और चुपचाप लाइब्रेरी से निकल गया। लेडी जहांगीर के बयान के मुताबिक सर जहांगीर एक माह से गायब थे…तो फिर!

इमरान का ज़ेहन चौकड़ियाँ भरने लगा…आखिर उन मामलात से जहांगीर का क्या ताल्लुक! ख्वाबगाह में वापस आने से पहले उसने एक बार फिर उस कमरे में झांका, जहाँ लेडी जहांगीर सो रही थी और मुस्कुराता हुआ उस कमरे में चला आया, जहाँ उसे खुद सोना था।

सुबह नौ बजे लेडी जहांगीर उसे बुरी तरह से झिंझोड़-झिंझोड़ कर जगा रही थी।

“वेलडन वेलडन!” इमरान हड़बड़ा कर उठ बैठा और मसहरी पर उकडू बैठकर इस तरह ताली बजाने लगा, जैसे किसी खेल के मैदान में बैठा हुआ खिलाड़ियों को दाद दे रहा हो।

“यह क्या बेहूदगी है?” लेडी जहांगीर झुंझला कर बोली।

“ओह सॉरी!” वह चौंककर लेडी जहांगीर को हैरान नज़रों से देखता हुआ बोला, “हेलो लेडी जहांगीर! फरमाइये! सुबह-सुबह कैसे तकलीफ़ की?”

“तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया!” लेडी जहांगीर ने इन्तेहाई गुस्से में कहा।

“हो सकता है!” इमरान ने बुरा सा मुंह बनाकर कहा और अपने नौकरों के नाम ले लेकर उन्हें पुकारने लगा।

लेडी जहांगीर उसे चंद लम्हे घूरती रही फिर बोली, “बराहे करम अब तुम यहाँ से चले जाओ, वरना…”

“हाय! तुम मुझे मेरे घर से निकालने वाली कौन ही?” इमरान उछल कर खड़ा हो गया।

“जो तुम्हारे बाप का घर है?” लेडी जहांगीर की आवाज बंद हो गई।

इमरान चारों तरफ हैरानी से देखने लगा। फिर इस तरह उछला, जैसे अचानक सिर पर कोई चीज गिरी हो, “अरे मैं कहाँ हूँ? कमरा तो मेरा मालूम नहीं होता।”

“अब जाओ, वरना मुझे नौकरों को बुलाना पड़ेगा।”

“नौकरों को बुला कर क्या करोगी? मेरे लायक खिदमत! वैसे तुम गुस्से में बहुत हसीन लगती हो।”

“शट अप!”

“अच्छा कुछ नहीं कहूंगा।” इमरान बिसूरकर बोला और फिर मसहरी पर बैठ गया। लेडी जहांगीर उसे खा जाने वाली नज़रों से घूरती रही। उसकी सांस फूल रही थी और चेहरा सुर्ख हो गया था। इमरान ने जूते पहने। खूंटी से कोट उतारा और फिर इतना से लेडीस जहांगीर की श्रृंगार मेज पर जम गया और फिर अपने बाल दुरुस्त करते वक्त इस तरह गुनगुना रहा था, जैसे सचमुच अपने कमरे में बैठा हो। लेडी जहांगीर दांत पीस रही थी, लेकिन साथ ही बेबसी के भाव भी उसके चेहरे पर उमड़ आए थे।

“टाटा!” इमरान दरवाजे के करीब पहुँचकर मुड़ा और अहमकों की तरह मुस्कुराता हुआ बाहर निकल गया। उसका ज़ेहन बिल्कुल साफ हो गया था। पिछली रात की जानकारी ही उसकी तसल्ली के लिए काफ़ी थी। मरे हुए आदमी के हाथ में रहस्यमय ढंग से  मैडम से सर जहांगीर के लेटर पैड का पाया जाना इस बात की दलील है कि इस मामले से सर जहांगीर का कुछ ना कुछ ताल्लुक ज़रूर है। और शायद सर जहांगीर शहर ही में मौजूद थे। हो सकता है कि लेडी जहांगीर यह न जानती हो। इमरान को आकर्षक आदमी की फ़िक्र थी, जिसे इन दिनों जज साहब की लड़की के साथ देखा जा रहा था।

“देख लिया जायेगा।” वह आहिस्ता से बड़बड़ाया। उसका इरादा तो नहीं था कि घर की तरफ जाये, मगर जाना ही पड़ा। घर गए बगैर मोटरसाइकिल किस तरह मिलती है। उसे यह भी तो मालूम करना था कि वह खौफ़नाक इमारत दरअसल थी किसकी। अगर उसका मालिक गाँव वालों के लिए अजनबी था, तो ज़ाहिर है कि उसने वह इमारत खुद ही बनवाई होगी। क्योंकि इमारत बहुत पुराने ढंग से बनी हुई थी। लिहाज़ा ऐसी सूरत में यही सोचा जा सकता था कि मौजूदा मालिक ने भी उसे किसी तरह खरीदा ही होगा।

घर पहुँचकर इमरान की शामत ने उसे पुकारा। बड़ी बी शायद पहले ही से भरी बैठी थी। इमरान की सूरत देखते आग बबूला हो गई, “कहाँ था रे कमीने!”

“ओहो! अम्मा बी! गुड मॉर्निंग डियरेस्ट!”

“मॉर्निंग के बच्चे, मैं पूछती हूँ रात कहाँ था?”

“वह अम्मा बी, क्या बताऊं? वह हजरत मौलाना…बल्कि मशिर्दी मौलाई सै यदना जिगर मुरादाबादी है ना…लाहौल विला कूवत…मतलब यह कि मौलवी तफज्जुल हुसैन किब्ला की खिदमत में रात हाज़िर था। अल्लाह अल्लाह क्या बुजुर्ग हैं? अम्मा बी बस यह समझ लीजिए कि मैं आज से नमाज़ शुरु कर दूंगा।”

“अरे कमीने कुत्ते! तू मुझे बेवकूफ बना रहा है।” बड़ी बी झुंझलाई हुई मुस्कुराहट के साथ बोली।

“अरे तौबा अम्मा बी!” इमरान जोर से अपना मुँह पीटने लगा, “आपकी कदमों के नीचे मेरी जन्नत है।” और फिर सुरैया को आता देखकर इमरान ने जल्द से जल्द वहाँ से खिसक जाना चाहा। बड़ी बी बराबर बड़बड़ाये जा रही थी।

“अम्मा बी! आप ख़ामखा अपनी तबीयत खराब कर रही हैं। दिमाग में खुश्की चढ़ जायेगी ।” सुरैया ने आते ही कहा।

“और ये भाई जान! उनको खुद के हवाले कीजिये।”

इमरान कुछ ना बोला। अम्मा बी को बड़बड़ाता छोड़ कर तो नहीं जा सकता था।

“शर्म नहीं आती, बाप की पगड़ी उछालते फिर रहे हैं।” सुरैया ने अम्मा बी के किसी मिसरे पर गिरह लगाई।

“हाँय!  तो क्या अब्बाजान ने पगड़ी बांधनी शुरू कर दी।“ इमरान आनंदित लहज़े में चीखा।

अम्मा बी दिल की मरीज थी, कमजोर भी थी। लिहाज़ा उन्हें गुस्सा आ गया। ऐसी हालत में हमेशा उनका हाथ जूती की तरफ जाता था। इमरान इत्मीनान से जमीन पर बैठ गया और फिर तड़ातड़ की आवाज के अलावा और कुछ नहीं सुन सका। अम्मा भी जब उसे जी भर के पीट चुकी, तो उन्होंने रोना शुरू कर दिया। सुरैया उन्हें दूसरे कमरे में घसीट ले गई। इमरान की चचाजाद बहनों ने उसे घेर लिया। कोई उसके कोट की धूल झाड़ रही थी और कोई टाई की गांठ दुरुस्त कर रही थी। एक ने सिर पर चंपी शुरू कर दी। इमरान ने जेब से सिगरेट निकालकर सुलगाया और इस तरह खड़ा रहा, जैसे वह बिल्कुल तन्हा हो। दो चार कश लेकर उसने अपने कमरे की राह ली और उसकी चचाजाद बहनें ज़रीना और सूफिया एक दूसरे का मुँह ही देखती रह गई। इमरान ने कमरे में आकर बेल्ट हैट एक तरफ उछाल दी। कोट मसहरी पर फेंका और एक आराम कुर्सी पर गिरकर ऊंघने लगा। रात वाला कागज अभी उसके हाथ में दबा हुआ था। उस पर कुछ हिन्दसे लिखे हुए थे। कुछ पैमाईशें थीं। ऐसा मालूम होता था जैसे किसी बढ़ई ने कोई चीज करने से पहले उसके मुख्तलिफ़ हिस्सों के अनुपात का अंदाजा लगाया हो। ज़ाहिर तौर पर उस कागज के टुकड़े की कोई अहमियत नहीं थी, लेकिन उसका ताल्लुक एक अज्ञात लाश से था। ऐसे आदमी की लाश से जिसका कत्ल बड़ी रहस्यमय स्थिति में हुआ था और उस हालत में यह दूसरा क़त्ल था। इमरान को इस सिलसिले में पुलिस या इंटेलिजेंस डिपार्टमेंट की व्यस्तता की कोई जानकारी नहीं थी। उसने फैयाज़ से यह भी मालूम करने की कोशिश नहीं की थी कि पुलिस ने इन हादसों के बारे में क्या राय कायम की है। इमरान ने कागज का टुकड़ा अपने सूटकेस में डाल दिया और दूसरा सूट पहनकर दोबारा बाहर जाने के लिए तैयार हो गया। थोड़ी देर बाद उसकी मोटरसाइकिल उसी कस्बे की तरफ जा रही थी, जहाँ वह खौफ़नाक इमारत थी। कस्बे में पहुँचकर इस बात का पता लगाने में ज्यादा दिक्कत नहीं हुई कि वह इमारत पहले किसकी मिल्कियत थी। इमरान कस्बे के एक जिम्मेदार आदमी से मिला, जिसने इमारत जज साहब को बेच दी थी।

“अब से आठ साल पहले की बात है।” उसने बताया, “अयाज़ साहब ने वह इमारत हमसे खरीदी थी। मरने से पहले भी उसे कानूनी तौर पर शहर के किसी जज साहब के नाम कर गये।”

“अयाज़ साहब कौन थे? पहले कहाँ रहते थे?” इमरान ने सवाल किया।

“हमें कुछ नहीं मालूम। इमारत खरीदने के बाद तीन साल तक ज़िन्दा रहे। लेकिन किसी को कुछ न मालूम हो सका कि वह कौन थे और पहले कहाँ रहते थे। उनके साथ एक नौकर था, जो अभी इमारत के सामने वाले एक हिस्से में रहता है।”

“यानी कब्र का वह मुज़ाविर!” इमरान ने कहा और बूढ़े आदमी ने ‘हाँ’ में सिर हिला दिया। वह थोड़ी देर तक कुछ सोचता रहा, फिर बोला, “वह कब्र भी अयाज़ साहब ही ने खोजी थी। हमारे खानदान वालों को तो इसकी जानकारी नहीं थी। वहाँ पहले कभी कोई कब्र नहीं थी। हमने अपने बुजुर्गों से भी उसके बारे में कुछ नहीं सुना।”

“ओह!” इमरान घूरता हुआ बोला, “भला कब्र किस तरह खोजी गई थी?”

“उन्होंने ख्वाब में देखा था कि इस जगह पर कोई शहीद मर्द दफ़न है। दूसरे ही दिन कब्र बनानी शुरू कर दी।”

“खुद ही बनानी शुरू कर दी?” इमरान ने हैरत से पूछा।

“जी हाँ’! वे अपना सारा काम खुद ही करते थे। काफ़ी दौलतमंद भी थे, लेकिन उन्हें कंजूस नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह दिल खोलकर खैरात करते थे।”

“जिस कमरे में लाश मिली थी, उसकी दीवारों पर प्लास्टर है, लेकिन दूसरे कमरे में नहीं। इसकी क्या वजह है? प्लास्टर भी अयाज़ साहब ही ने किया था खुद ही?”

“जी हाँ!”

“इस पर यहाँ कस्बे में तो बड़ी कानाफूसी हुई होगी?”

“कतई नहीं जनाब! अब भी यहाँ लोगों का यही ख़याल है कि अयाज़ साहब कोई पहुँचे हुए बुजुर्ग थे और मेरा ख़याल है, उनका नौकर भी बुजुर्गी से खाली नहीं।”

“कभी ऐसे लोग भी याज़ साहब से मिलने के लिए आए थे, जो यहाँ वालों के लिए अजनबी रहे हों?”

“जी नहीं! मुझे तो याद नहीं। मेरा ख़याल है कि उनसे कभी कोई मिलने के लिए नहीं आया।”

“अच्छा बहुत शुक्रिया!” इमरान बूढे आदमी से हाथ मिलाकर अपनी मोटरसाइकिल की तरफ बढ़ गया।

अब वह उस इमारत की तरफ जा रहा था और उसके ज़ेहन में एक साथ कई ख़याल थे। अयाज़ ने वह कब्र खुद ही बनाई थी और कमरे में प्लास्टर खुद ही किया था। क्या वह एक अच्छा राजगीर भी था? कब्र वहाँ पहले नहीं थी। वह अयाज़ ही की खोज थी। उसका नौकर आज भी कब्र से चिमटा हुआ है। आखिर क्यों? उसी एक कमरे में प्लास्टर करने की क्या ज़रूरत थी?” इमरान इमारत के करीब पहुँच गया। बाहरी बैठक जिसमें कब्र का मुज़ाविर भी रहता था, खुली हुई थी और वह खुद भी मौजूद था। इमरान ने उस पर एक उचटती हुई नज़र डाली। अधेड़ उम्र का मजबूत कद-काठी का आदमी था। चेहरे पर घनी दाढ़ी और आँखें सुर्ख थी, शायद वह हमेशा ऐसी ही रहती थीं। इमरान ने दो-तीन बार जल्दी-जल्दी पलकें झपकाईं और फिर उसके चेहरे पर पुराने बेवकूफी के लक्षण उभर आये।

“क्या बात है?” उसे देखते ही नौकर ने ललकारा।

“मुझे आपकी दुआ से नौकरी मिल गई है।” इमरान विनम्र लहज़े में बोला, “सोचा आप की खिदमत करता चलूं।”

“भाग जाओ!” कब्र का मुज़ाविर सुर्ख-सुर्ख आँखें निकालने लगा।

“अब इतना ना तड़पाइये। इमरान हाथ जोड़कर बोला, “बस आखरी दरख्वास्त करूंगा।”

“कौन हो तुम क्या चाहते हो?” मुज़ाविर यकायक नरम पड़ गया।

“लड़का! बस एक लड़के के बगैर घर सूना लगता है या हज़रत तीस साल के बच्चे की आरजू है।”

“तीस साल? तुम्हारी उम्र क्या है?” मुसाफिर उसे घूरने लगा।

“पच्चीस साल!”

“भागो! मुझे लौंडा बनाते हो। अभी भस्म में कर दूंगा।”

“आप गलत समझे या हज़रत! मैं अपने बाप के लिए कह रहा था दूसरी शादी करने वाले हैं!”

“जाते हो या…” मुज़ाविर उठता हुआ बोला।

“सरकार!” इमरान हाथ जोड़कर विनम्र लहज़े में बोला, “पुलिस आपको बेहद परेशान करने वाली है।”

“भाग जाओ! पुलिस वाले गधे हैं। वह फ़कीर का क्या बिगाड़ लेंगे।”

“फ़कीर के साये में दो खून हुए हैं।”

“हुए होंगे। पुलिस जज साहब की लड़की से क्यों नहीं पूछती कि वह एक मुस्टंडे को लेकर यहाँ क्यों आईं थी।”

“या हज़रत पुलिस वाकई गधी है। आप कुछ रास्ता दिखाइये।”

“तुम खुफिया पुलिस में हो ना!”

“नहीं सरकार! मैं एक अखबार का रिपोर्टर हूँ। कोई नई खबर मिल जायेगी, तो पेट भरेगा।”

“हाँ, अच्छा बैठ जाओ। मैं इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता कि वह मकान जहाँ एक बुजुर्ग का मज़ार है, बदकारी का अड्डा बने। पुलिस को चाहिए कि उसकी रोकथाम करें।”

“या हज़रत, मैं बिल्कुल नहीं समझा।” इमरान मायूसी से बोला।

“मैं समझाता हूँ।” मुज़ाविर अपनी सुर्ख-सुर्ख आँखें फाड़कर बोला, “14 तारीख को जज साहब की लौंडिया अपने यार को लेकर यहाँ आई थी और घंटो अंदर रही।”

“आपने एतराज़ नहीं किया। मैं होता, तो दोनों के सर फाड़ देता। तौबा तौबा इतने बड़े बुजुर्ग के मज़ार पर…” इमरान अपना मुँह पीटने लगा।

“बस खून के घूंट पीकर रह गया। क्या करूं, मेरे मुर्शिद मकान उन लोगों को दे गए हैं, वरना बता देता।”

“आपके मुर्शिद?”

“हाँ, हज़रत अयाज़ रहमत अल्लाह अल्लाह! वे मेरे पीर थे। इस मकान का यह  कमरा मुझे दे गए हैं, ताकि मज़ार शरीफ़ की देखभाल करता रहूं।”

“अयाज़ साहब का मज़ार शरीफ़ कहाँ है?” इमरान ने पूछा।

“कब्रिस्तान में…उनकी तो वसीयत थी कि मेरी कब्र बराबर कर दी जाये, कोई निशान न रखा जाये।”

“तो जज साहब की लड़की को पहचानते हैं आप?”

“हाँ, पहचानता हूँ। वह कानी है।”

“हाय!” इमरान ने सीने पर हाथ मारा। मुज़ाविर उसे घूरने लगा।

“अच्छा हज़रत! 14 की रात को वह यहाँ आई थी और 16 की सुबह को लाश पाई गई।”

“एक नहीं अभी हजारों मिलेंगी।” मुज़ाविर को जलाल आ गया। मज़ार शरीफ़ की बेहुरमति है।”

“मगर सरकार मुमकिन है कि वह उनका भाई रहा हो।”

“हरगिज़ नहीं! जज साहब के कोई लड़का नहीं है।”

“तब तो फिर मामला…हिप!” इमरान अपना दाहिना नाखून खुजाने लगा। इमरान वहाँ से भी चल पड़ा हुआ। वह फिर कस्बे के अंदर वापस जा रहा था। तीन घंटे तक वह मुख्तलिफ़ लोगों से पूछताछ करता रहा और फिर शहर की तरफ रवाना हो गया।

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