चैप्टर 8 खौफनाक इमारत : इब्ने सफ़ी का उपन्यास | Chapter 8 Khaufnaak Imarat Novel By Ibne Safi

Chapter 8 Khaufnaak Imarat Novel By Ibne Safi

Chapter 8 Khaufnaak Imarat Novel By Ibne Safi

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उसी शाम को इमरान और फैयाज़ जज साहब के ड्राइंग में बैठे उनका इंतज़ार कर रहे थे। उनकी लड़की भी मौजूद थी और उसने उस वक्त भी काले रंग की ऐनक लगा रखी थी। इमरान बार-बार उसकी तरफ देखकर ठंडी आहें भर रहा था। फैयाज़ कभी-कभी राबिया की नजर बचाकर उसे घूरने लगता। थोड़ी देर बाद जज साहब आ गए और राबिया उठ कर चली गई।

“बड़ी तकलीफ हुई आपको।” फैयाज़ बोला।

“कोई बात नहीं, फरमाइये।”

“बात क्या है कि मैं अयाज़ उसके बारे में और जानकारी चाहता हूँ।”

“मेरा ख़याल है कि मैं आपको सब कुछ बता चुका हहूँ।”

“मैं उसे खानदानी हालात मालूम करना चाहता हूँ. ताकि उसके रिश्तेदारों से मिल सकूं।”

“अफ़सोस कि मैं उसके बारे में कुछ न बताना सकूंगा।” जज साहब ने कहा, “बात आपको अजीब मालूम होगी, लेकिन यह हकीकत है कि मैं उसके बारे में कुछ नहीं जानता, हालांकि हम गहरे दोस्त थे।”

“क्या आप यह भी न बता सकेंगे कि वह बाशिंदा कहाँ का था?”

“अफ़सोस मैं यह भी नहीं जानता।”

“बड़ी अजीब बात है। अच्छा पहली मुलाकात कहाँ हुई थी?”

“इंग्लैंड में!”

फैयाज़ एकदम चौंक पड़ा। लेकिन इमरान बिल्कुल ठस बैठा रहा। उस पर कोई असर नहीं पड़ा।

“कब की बात है?” फैयाज़ ने पूछा।

“तीस साल पहले की और यह मुलाकात बड़े अजीब हालात में हुई थी। यह उस वक्त की बात है, जब मैं ऑक्सफोर्ड में कानून पढ़ रहा था। एक बार हंगामे में फंस गया, जिसकी वजह सौ फ़ीसदी गलतफहमी थी। अब से तीस साल पहले का लंदन नफ़रत-अंगेज़ था। जितनी नफ़रत की जाये, कम थी। इसी से अंदाज़ा लगाइए कि वहाँ के एक होटल पर एक ऐसा साइन बोर्ड था, जिस पर लिखा था – हिंदुस्तानी और कुत्तों का दाखिला मना है। मैं नहीं कह सकता कि वह अभी है या नहीं। बहरहाल ऐसे माहौल में अगर किसी हिंदुस्तानी और किसी अंग्रेज के दरमियान में कोई गलतफहमी पैदा हो जाये, तो अंज़ाम ज़ाहिर ही है। वह एक रेस्तरां था, जहाँ एक अंग्रेज से मेरा झगड़ा हो गया। इलाका ईस्ट एंड का था, जहाँ ज्यादातर जंगली ही रहा करते थे। आज भी जंगली ही रहते हैं। इंतिहाई गैर मुहज्जब लोग, जो जानवरों की तरह ज़िन्दगी बसर करते हैं। मैं ख़ामखा बात को लंबी कर रहा हूँ। मतलब यह कि झगड़ा बढ़ गया। सच्ची बातें क्या है कि मैं खुद ही किसी तरह जान बचाकर निकल जाना चाहता था। अचानक एक आदमी भीड़ को चीरता हुआ मेरे पास पहुँच गया। वह अयाज़ था। उसी दिन मैंने उसे पहले पहल देखा और इस रूप में देखा कि आज तक हैरान हूँ। वह मज़मा, जो मुझे मार डालने पर तुल गया था, उसकी शक्ल देखकर तितर-बितर हो गया। ऐसा मालूम हुआ जैसे भेड़ों के झुंड में कोई भेड़िया घुस आया हो। बाद में मालूम हुआ कि अयाज़ उस इलाके के दार-ओ-असर लोगों में से था। ऐसा क्यों था, मुझे आज तक न मालूम हो सका। हमारे तालुकात बढ़े और बढ़ते चले गये। लेकिन मैं उसके बारे में कभी कुछ ना जान सका। हिंदुस्तानी ही था, लेकिन मुझे यहाँ तक मालूम नहीं हो सका किस कस्बे या शहर का बाशिंदा था।” जज साहब ने आपने ख़ामोश होकर उनकी तरफ सिगार केस बढ़ाया। इमरान खामोश बैठा छत की तरफ घूर रहा था। ऐसा मालूम हो रहा था, जैसे फैयाज़ जबरदस्ती किसी बेवकूफ को पकड़ लाया हो। बेवकूफ ही नहीं, बल्कि ऐसा आदमी, जो उनकी गुफ्तगू ही समझने के लायक ना हो। फैयाज़ ने कई बार उसे कनखियों से देखा भी, लेकिन वह ख़ामोश ही रहा।

“शुक्रिया!” फैयाज़ ने शिकार लेते हुए कहा और फिर इमरान की तरफ देख कर बोला, “जी यह नहीं पीते।”

इस पर इमरान ने छत से अपनी नज़रें न हटाई। ऐसा मालूम हो रहा था, जैसे वह खुद को तन्हा महसूस कर रहा हो। जज साहब ने भी अजीब नज़रों से उसकी तरफ देखा, लेकिन कुछ बोले नहीं। अचानक इमरान ने ठंडी सांस लेकर ‘अल्लाह’ कहा और सीधा होकर बैठ गया। वह मुँह चलाता हुआ उन दोनों को बेवकूफ की तरह देख रहा था। इस पर फैयाज़ को खुशी हुई कि जज साहब ने इमरान के बारे में कुछ नहीं पूछा।

फैयाज़ कोई दूसरा सवाल सोच रहा था और साथ ही साथ यह दुआ भी कर रहा था कि इमरान की ज़ुबान बंद ही रहे तो बेहतर है। मगर शायद इमरान चेहरा पढ़ने में भी माहिर था, क्योंकि दूसरे ही लम्हे उसने बकना शुरू कर दिया।

“हाँ साहब! अच्छे लोग बहुत कम ज़िन्दगी लेकर आते हैं। अयाज़ साहब तो वली अल्लाह थे। चर्ख कज रफ्तारो नाहंजार कब किसी को…ग़ालिब का शेर है।”

लेकिन इसके पहले कि इमरान शेर सुनाता, फैयाज़ बोल पड़ा, “जी हाँ! कस्बे वालों में कुछ इसी किस्म की अफ़वाह है।”

“भई, यह बात तो किसी तरह से मेरे हलक से नहीं उतरती। सुना मैंने भी है।” जज साहब बोले, “उसकी मौत के बाद कस्बे के कुछ मुज्जिज लोगों से मिला भी था। उन्होंने भी यही ख़याल ज़ाहिर किया था कि वह कोई पहुँचा हुआ आदमी था। लेकिन मैं नहीं समझता। उसकी शख्सियत भेद भरी ज़रूर थी, मगर इस मानी में नहीं।”

“उसके नौकर के बारे में क्या ख़याल है, जो कब्र में मुज़ाविरी करता है।” फैयाज़ ने पूछा।

“वे भी एक पहुँचे हुए बुजुर्ग हैं!” इमरान तड़ से बोला। जज साहब फिर उसे घूरने लगे। लेकिन इस बार भी उन्होंने उसके बारे में कुछ नहीं पूछा।

“क्या वसीयत में यह बात ज़ाहिर कर दी गई है कि कब्र का मुज़ाविर इमारत के बाहर ही कमरे पर काबिज रहेगा।” फैयाज़ ने जज साहब से पूछा।

“जी हाँ! कतई!” जज साहब ने उकाताये हुए लहज़े में कहा, “बेहतर होगा, अगर हम दूसरी बातें करें। उस इमारत से मेरा बस इतना ही ताल्लुक है कि मैं कानूनी तौर पर उसका मालिक हूँ, इसके अलावा और कुछ नहीं। मेरे घर का कोई आदमी आज तक उसमें नहीं रहा।”

“कोई कभी उधर गया भी ना होगा!” फैयाज़ ने कहा।

“भई क्यों नहीं? शुरू में तो सभी को उसको देखने का शौक था। ज़ाहिर है कि वह एक हैरतअंगेज तरीके से हमारी मिल्कियत में आई थी।”

“अयाज़ की जनाजे पर नूर की बारिश हुई थी।” इमरान ने फिर तुक्का लगाया।

“मुझे पता नहीं।” जज साहब बेज़ारी से बोले, “मैं उस वक्त वहाँ पहुँचा था, जब वह दफ़न किया जा चुका था।”

“मेरा ख़याल है कि उस इमारत पर किसी हवा का असर है।” फैयाज़ ने कहा।

“हो सकता है। काश वो मेरी मिल्कियत ना होती है। क्या अब आप लोग मुझे इज़ाजत देंगे?”

“माफ कीजियेगा।” फैयाज़ उठता हुआ बोला, “आपको बहुत तकलीफ दी, मगर मामला ही ऐसा है।”

फैयाज़ और इमरान बाहर निकले। फैयाज़ उस पर झल्लाया हुआ था। बाहर आते ही बरस पड़ा।

“तुम्हें जगह अपने गधेपन का सबूत देने लगते हो।”

“और मैं यह सोच रहा हूँ कि तुम्हें गोली मार दूं।” इमरान बोला।

“क्यों मैंने क्या किया है?”

“तुम्हें यह क्यों नहीं पूछा कि एक आँख वाली 14 तारीख की रात को कहाँ थी?”

“क्यों बोर करते हो? मेरा मूड ठीक नहीं है।”

“खैर मुझे क्या? मैं खुद ही पूछ लूंगा।” इमरान ने कहा, “सर जहांगीर को जानते हो?”

“हाँ क्यों?”

“वह मेरा रकीब है।”

“होगा, तो मैं क्या करूं?”

“किसी तरह पता लगाओ कि वह आजकल कहाँ है?”

“मेरा वक्त बर्बाद ना करो।” फैयाज़ झुंझला गया।

“तब फिर तुम भी वही जाओ, जहाँ शैतान कयामत के दिन जायेगा।” इमरान ने कहा और लंबे-लंबे डग भरता हुआ जज साहब के गैराज की तरफ चला गया। यहाँ से राबिया जाने के लिए कार से निकाल रही थी।

“मिस सलीम!” इमरान खखार कर बोला, “शायद हम पहले भी मिल चुके हैं।”

“ओह! जी हाँ जी हाँ!” राबिया जल्दी से बोली।

“क्या आप मुझे लिफ्ट देना पसंद करेंगी?”

“शौक से आइए…”

राबिया को ड्राइव कर रही थी। इमरान शुक्रिया अदा करके उसके बराबर बैठ गया।

“कहाँ उतरियेगा?” राबिया ने पूछा।

“सच पूछिये, तो मैं उतरना ही ना चाहूंगा।”

राबिया सिर्फ मुस्कुरा कर रह गई। उस वक्त उसने एक नकली आँख लगा रखी थी। इसलिए आँखों पर ऐनक नहीं थी।

फैयाज़ की बीवी ने उसे इमरान के बारे में बहुत कुछ बताया था। इसलिए वह उसे बेवकूफ समझने के लिए तैयार नहीं थी।

“क्या आप कुछ नाराज नहीं है?” इमरान ने थोड़ी देर बाद पूछा।

“जी!” राबिया चौंक पड़ी, “नहीं तो!” फिर हँसने लगी।

“मैंने कहा, शायद मुझ से लोग आमतौर से नाराज रहा करते हैं। उनका कहना है कि मैं उन्हें ख़ामखा गुस्सा दिला देता हूँ।”

“पता नहीं! मुझे तो आपने अभी तक गुस्सा नहीं दिलाया।”

“तब तो यह मेरी खुशकिस्मती है।” इमरान ने कहा, “वैसे अगर मैं कोशिश करूं, तो आपको गुस्सा दिला सकता हूँ।”

राबिया फिर हँसने लगी।

 “कीजिए कोशिश!” उसने कहा।

“अच्छा तो आप शायद यह समझती हैं कि यह नामुमकिन है।” इमरान ने बेवकूफों की तरह हँसकर कहा।

“मैं तो यही समझती हूँ। मुझे गुस्सा कभी नहीं आता।”

“अच्छा तो संभालिये।” इमरान ने इस तरह कहा, जैसे एक तलवारबाज किसी दूसरे तलवारबाज को ललकारता हुआ किसी घटिया सी फिल्म में देखा जा सकता है। राबिया कुछ ना बोली। वह कुछ बोर सी होने लगी थी।

“आप 14 तारीख की रात को कहाँ थी?” इमरान ने अचानक पूछा।

“जी!” राबिया एकदम चौंक पड़ी।

“ओह! स्टीयरिंग संभालिये। कहीं कोई एक्सीडेंट ना हो जाये।” इमरान बोला, “देखिये! मैंने आपको गुस्सा दिलाया ना!”

फिर उसने एक जोरदार कहकहा लगाया और अपनी टांग पीटने लगा। राबिया की सांस फूलने लगी थी और उसके हाथ स्टीयरिंग पर कांप रहे थे।

“देखिये!” उसने हांफते हुए कहा, “मुझे जल्दी है, वापस जाना होगा। आप कहाँ उतरेंगे?”

“आपने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया।” इमरान शांत लहजे में बोला।

“आपसे मतलब? आप कौन होते हैं पूछने वाले?”

“देखे आ गया ना गुस्सा! वैसे यह बात बहुत अहम है और अगर पुलिस के कानों तक जा पहुँची, तो ज़हमत होगी, मुमकिन है कि कोई ऐसी कार्रवाई कर सकूं, जिसकी वजह से पुलिस यह सवाल ही ना उठाये।”

राबिया कुछ ना बोली। वह अपने खुश्क होठों पर ज़ुबान पर रही थी।

“मैं यह भी नहीं पूछता था कि आप कहाँ थी?” इमरान ने फिर कहा, “क्योंकि मुझे मालूम है। मुझे आप सिर्फ इतना बता दीजिए कि आपके साथ कौन था?”

“मुझे प्यास लग रही है।” राबिया भराई भी आवाज में बोली।

“ओहो! तो रोकिये…कैफे नब्रास्का नजदीक है।”

कुछ आगे चलकर राबिया ने कार खड़ी कर दी और वह दोनों उतरकर फुटपाथ से गुजरते हुए कैफे नब्रास्का में चले गये। इमरान ने नज़र दौड़ाई। कोने वाली टेबल खाली थी। वे बैठ गये। चाय से पहले इमरान ने एक गिलास ठंडे पानी के लिए कहा।

“मुझे यकीन है कि वापसी में कुंजी उसके पास रह गई होगी।” इमरान ने कहा।

“किसके पास?” राबिया फिर चौंक पड़ी।

“फ़िक्र ना कीजिये! मुझे यकीन है कि उसने आपको अपना सही नाम और पता हरगिज न बताया होगा और कुंजी वापस कर देने के बाद से अब तक मिला भी न होगा।”

राबिया बिल्कुल निढाल हो गई। उसने मुर्दा सी आवाज में कहा, “फिर अब आप क्या पूछना चाहते?”

“आप उसे कब और किन हालात में मिली थी?”

“अब से दो माह पहले।”

“कहाँ मिला था?”

“एक फंक्शन में। मुझे यह याद नहीं कि किसने मिलवाया था।”

“फंक्शन कहाँ था?”

“शायद सर जहांगीर की सालगिरह का मौका था।”

“ओह!” इमरान कुछ सोचने लगा। फिर उसने आहिस्ता से कहा, “कुंजी आपको उसने कब वापस की थी।”

“पंद्रह की शाम को।”

“और सोलह की सुबह को लाश पाई गई थी।” इमरान ने कहा।

राबिया बुरी तरह हांफने लगी। उसने चाय की प्याली में मेज पर रखकर कुर्सी से टेक लगा ली। उसकी हालत बाज के पंजे में फंसी हुई किसी नन्ही-मुन्नी चिड़िया की तरह थी।

“पंद्रह को दिन भर कुंजी उसके पास रही। उसने उसकी नकल तैयार करा कर कुंजी आपको वापस कर दी, उसके बाद फिर वह आप से नहीं मिला। गलत कह रहा हूँ?”

“ठीक है!” वह आहिस्ता से बोली, “वह मुझसे कहा करता था कि वह सैलानी है। जफरिया होटल में रुका है। लेकिन परसों मैं वहाँ गई थी…”

वह ख़ामोश हो गई। उस पर इमरान ने सिर हिलाकर कहा, “और आपको वहाँ मालूम हुआ कि उस नाम का कोई आदमी वहाँ कभी ठहरा ही नहीं।”

“जी हाँ!” राबिया सिर झुकाकर बोली।

“आप से उसकी दोस्ती का मकसद सिर्फ इतना ही था कि वह किसी तरह आपसे उस इमारत की कुंजी हासिल कर ले।”

“मैं घर जाना चाहती हूँ…मेरी तबीयत ठीक नहीं।”

“दो मिनट!” इमरान ने हाथ हिलाकर कहा, “आपकी मुलाकातें कहाँ होती थी?”

“टिप टॉप नाइटक्लब में!”

“लेडी जहांगीर से उसके ताल्लुक कैसे थे?”

“लेडी जहांगीर…” राबिया चिढ़कर बोली, “आखिर इस मामलात में आप उनका नाम क्यों ले रहे हैं?”

“क्या आप मेरे सवाल का जवाब न देंगी?” इमरान ने बड़ी शराफ़त से पूछा।

“नहीं! मेरा ख़याल है कि मैंने उन दोनों को कभी मिलते नहीं देखा।”

“शुक्रिया! अब मैं उसका नाम नहीं पूछूंगा। ज़ाहिर है कि उसने नाम भी सही न बताया होगा। लेकिन अगर आप उसका हुलिया मुझे बता सके, तो शुक्रगुज़ार रहूंगा।”

राबिया को बताना ही पड़ा, लेकिन वह बहुत ज्यादा डरी हुई थी और साथ ही साथ संजीदा भी।

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