चैप्टर 12 खौफनाक इमारत : इब्ने सफ़ी का उपन्यास | Chapter 12 Khaufnaak Imarat Novel By Ibne Safi

Chapter 12 Khaufnaak Imarat Novel By Ibne Safi

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इमारत के गिर्द हथियार-बंद पहरा था। दस्ते के इंचार्ज ने फैयाज़ को पहचान कर सैल्यूट किया। फैयाज़ ने उसे चंद सरकारी किस्म की रस्मी बातें की और सीधा मुज़ाविर के कमरे की तरफ चला गया, जिसके दरवाजे खुले हुए थे और अंदर मुज़ाविर शायद समाधि में बैठा था। फैयाज़ की आहट पर उसने आँखें खोल दी, जो अंगारों की तरह दहक रही थीं।

“क्या है?” उसने झल्लाये हुए लहज़े में कहा।

“कुछ नहीं! मैं देखने आया था, सब ठीक-ठाक है या नहीं।” फैयाज़ बोला।

“मेरी समझ में नहीं आता कि आखिर यह सब कुछ क्या हो रहा है। उन गधों की तरह पुलिस भी दीवानी हो गई है।”

“किन गधों की तरह?”

“वही जो समझते हैं कि शहीद मर्द की कब्र में खज़ाना है।”

“कुछ भी हो..” फैयाज़ ने कहा, “हम नहीं चाहते कि यहाँ से रोजाना लाशें बरामद होती रहे। अगर ज़रूरत समझी, तो कब्र खुदवाई जायेगी।”

“भस्म हो आओगे।” मुज़ाविर गरज कर बोला, “खून थूकोगे…मरोगे।”

“क्या सचमुच इसमें खज़ाना है?”

इस पर मुज़ाविर फिर गरजने बरसने लगा। फैयाज़ बार-बार घड़ी की तरफ देखता जा रहा था। इमरान को गए हुए पंद्रह मिनट हो चुके थे। वह मुज़ाविर को बातों में उलझाये रहा। अचानक एक अजीब किस्म की आवाज सुनाई दी। मुज़ाविर उछलकर मुड़ा। उसकी पीठ की तरफ दीवार में एक बड़ा-सा खाली स्थान नजर आ रहा था। फैयाज़ बौखला कर खड़ा हो गया। मैं सोच रहा था कि यकायक दीवार को क्या हो गया। उससे पहले भी कई बार उस कमरे में आ चुका था, लेकिन उसे भूलकर भी यह ख़याल नहीं आया था कि यहाँ कोई चोर दरवाजा भी हो सकता है। अचानक मुज़ाविर चीख मारकर उस दरवाजे में धंसता चला गया। फैयाज़ बुरी तरह बौखला गया था। उसने जेब से टॉर्च निकाली और वह भी उसी दरवाजे में दाखिल हो गया। यहाँ चारों तरफ अंधेरा था। शायद वह किसी तहखाने में चल रहा था। कुछ दूर चलने के बाद सीढ़ियाँ नज़र आई। यहाँ कब्रिस्तान की सी ख़ामोशी थी। फैयाज़  सीढ़ियों पर चढ़ने लगा और जब ऊपर पहुँचा, तो उसे खुद को मुर्शीद मर्द की कब्र से निकलते पाया, जिसका पत्थर किसी संदूक के ढक्कन की तरह सीधा उठा हुआ था।

टॉर्च की रोशनी का दायरा सहन में चारों तरफ गर्दिश कर रहा था। फिर फैयाज़  ने मुज़ाविर को वारदातों वाले कमरे से निकलते देखा।

“तुम लोगों ने मुझे बर्बाद कर दिया।” वह फैयाज़ को देखकर चीखा, “आओ अपनी करतूत देख लो।”

वह फिर कमरे में घुस गया। फैयाज़ तेजी से उसकी तरफ झपटा। टॉर्च की रोशनी दीवार पर पड़ी। यहाँ का बहुत सा प्लास्टर चढ़ा हुआ था और उसी जगह पाँच-पाँच इंच के फासले पर तीन बड़ी छुरियाँ गड़ी थी। फैयाज़ आगे बढ़ा। उधड़े हुए प्लास्टर के पीछे एक बड़ा-सा तहखाना था और उन छुरियों के दूसरे सिरे इसी में गायब हो गए थे। इन छुरियों के अलावा इस खाने में और कुछ नहीं था। मुज़ाविर खा जाने वाली नज़रों से फैयाज़ को घूर रहा था।

“यह सब क्या है?” फैयाज़ ने मुज़ाविर को घूरते हुए कहा।

मुज़ाविर ने इस तरह का खंखार कर गला साफ किया, जैसे कुछ कहना चाहता हो, लेकिन उम्मीद के खिलाफ़ उसने फैयाज़ के सीने पर एक जोरदार टक्कर मारी और उछल कर भागा। फैयाज़ चारों खाने चित हो गया। संभलने से पहले उसका दाहिना हाथ होलस्टर से रिवाल्वर निकाल चुका था। मगर बेकार, मुज़ाविर ने कब्र में छलांग लगा दी थी। फैयाज़ उठकर कब्र की तरफ दौड़ा। लेकिन मुज़ाविर के कमरे में पहुँचकर भी उसका निशान न मिला। फैयाज़ इमारत से बाहर निकल आया। ड्यूटी कॉन्स्टेबल बदस्तूर अपनी जगह पर मौजूद थे। उन्होंने भी किसी भागते हुए आदमी के बारे में अनभिज्ञता ज़ाहिर की। उनका ख़याल था कि कोई इमारत के बाहर निकला ही नहीं। अचानक उसे इमरान का ख़याल आया। आखिर वह कहाँ गया था? कहीं यह उसी की हरकत ना हो। इस खुफिया खाने में क्या चीज थी? अब सारे मामले फैयाज़ के ज़ेहन में साफ हो गए थे। लाश का राज, तीन जख्म, जिनके बीच का फासला पाँच-पाँच इंच का था। अचानक किसी ने उसके कंधे पर हाथ रख दिया। फैयाज़ चौंक कर मुड़ा। इमरान खड़ा बुरी तरह बिसूर रहा था।

“तो यह तुम थे।” फैयाज़ उसे नीचे से ऊपर तक घूरता हुआ बोला।

“मैं था नहीं, बल्कि हूँ…उम्मीद है कि अभी दो-चार दिन ज़िन्दा रहूंगा।”

“वहाँ से क्या निकाला तुमने?”

“चोट हो गई प्यारे!” इमरान भर्राई हुई आवाज में बोला, “वह मुझसे पहले ही हाथ साफ कर गये। मैंने तो बाद में जरा इस खुफिया खाने के मैकेनिज्म पर गौर करना चाहा था कि एक खटके को हाथ लगाते ही कब्र तड़क गई।”

“लेकिन वहाँ था क्या?”

“बाबा की कागजात, जो चमड़े के उस हैंडबैग में नहीं थे।”

“क्या! अरे ओ अहमक, पहले ही क्यों नहीं बताया था?” फैयाज़ अपनी पेशानी पर हाथ मार कर बोला, “लेकिन वे अंदर घुसे किस तरह?”

“आओ दिखाऊं।” इमरान एक तरफ बढ़ता हुआ बोला। वह फैयाज़ को इमारत के पश्चिमी कोने की तरफ लाया। यहाँ दीवार से मिली हुई आदम का झाड़ियाँ थी। इमरान ने झाड़ियाँ हटाकर टॉर्च रोशन की और फैयाज़ का मुँह से खुला का खुला रह गया। दीवार में इतनी बड़ी सेंध थी कि एक आदमी बैठ कर आसानी से उससे गुज़र सकता था।

“यह तो बहुत बुरा हुआ।” फैयाज़ बड़बड़ाया।

“और मैं पहुँचा हुआ फकीर कहाँ है?” इमरान ने पूछा।

“वह भी निकल गया। लेकिन तुम किस तरह अंदर पहुँचे थे?”

“उसी रास्ते से, आज ही मुझे इन झाड़ियों का ख़याल आया था।”

“अब क्या करोगे, बाकी कागजात?” फैयाज़ ने बेबसी से कहा।

“बाकी कागजात भी उन्हें वापस कर दूंगा। भला आधे कागजात किस काम के? जिसके पास भी रहें, पूरे रहें। उसके बाद मैं बाकी ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए कब्र अपने नाम एलॉट करा लूंगा।”

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