चैप्टर 4 खौफनाक इमारत : इब्ने सफ़ी का उपन्यास | Chapter 4 Khaufnaak Imarat Novel By Ibne Safi

Chapter 4 Khaufnaak Imarat Novel By Ibne Safi

Chapter 4 Khaufnaak Imarat Novel By Ibne Safi

Chapter  1 | 2 | 3 | 45 | | | | | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 

Prev | Next | All Chapters

रात अंधेरी थी और आसमान में स्याह की टुकड़ी चक्कर लगाते घूम रहे थी।

कैप्टन फैयाज़ की मोटरसाइकिल अंधेरे का सीना चीरती हुई चिकनी सड़क पर फिसलती जा रही थी। कैरियर पर इमरान उल्लू की तरह बैठा था। उसके होंठ भींचे  हुए थे और नथुने फड़क रहे थे। अचानक वह फैयाज़ का कंधा थपथपा कर बोला –

“यह तो तयशुदा बात है कि किसी ने एक आँख वाली के वालिद की कुंजी की नकल तैयार करवाई है।”

“हूं! लेकिन आखिर क्यों?”

“पूछकर बताऊंगा!”

“किससे?”

“नीले आसमान से, तारों भरी रात से, हौले-हौले चलने वाली ठंडी अदाओं, लाहौल वला… हवाओं से!”

फैयाज़ कुछ ना बोला। इमरान बड़बड़ाता रहा। “लेकिन शहीद मियां की कब्र की साफ-सफाई करने वाले की कुंजी…उसको हासिल करना आसान रहा होगा। बहरहाल हमें इस इमारत की तारीख मालूम करनी है। शायद हम उसके आसपास पहुँच गए हैं। मोटरसाइकिल रोक दो।”

फैयाज़ ने मोटरसाइकिल रोक दी।

“अब बंद कर दो।”

फैयाज़ ने इंजन बंद कर दिया। इमरान ने उसके हाथ से मोटरसाइकिल लेकर एक जगह झाड़ी में छुपा दी।

“आखिर करना क्या चाहते हो।” फैयाज ने पूछा।

“मैं पूछता हूँ, तुम मुझे क्यों साथ लिए फिरते हो।” इमरान बोला।

“वह क़त्ल जो उस इमारत में हुआ था!”

“क़त्ल नहीं हादसा कहो!”

“हादसा क्या मतलब!” फैयाज़ हैरत से बोला।

“मतलब के लिए देखो डिक्शनरी…पेज एक सौ बारह। एक सौ बारह पर बेगम पारा याद आ रही है। बेगम पारा के साथ अमृतधारा जरूरी है। वरना डेविड की तरह चंदिया साफ।”

फैयाज़ झुंझला कर ख़ामोश हो गया। दोनों आहिस्ता-आहिस्ता उस इमारत की तरफ बढ़ रहे थे। उन्होंने पहले पूरी इमारत का चक्कर लगाया। फिर मुख्य दरवाजे के करीब पहुँच कर रुक गये।

“ओह!” इमरान आहिस्ता से बड़बड़ाया, “ताला बंद नहीं है।”

“कैसे देख लिया तुमने, मुझे तो सुझाई नहीं देता।” फैयाज़ ने कहा।

“तुम उल्लू नहीं हो।” इमरान बोला, “चलो इधर से हट जाओ।”

दोनों वहाँ से हटकर फिर मकान के पीछे आये। इमरान ऊपर की तरफ देख रहा था। दीवार काफ़ी ऊँची थी। उसने जेब से टॉर्च निकाली और दीवार पर रोशनी डालने लगा।

“मेरा भार संभाल सकोगे।” उसने फैयाज़ से पूछा।

“मैं नहीं समझा।”

“तुम्हें समझाने के लिए तो बकायदा ब्लैक बोर्ड और चॉक चाहिए। मतलब यह कि मैं ऊपर जाना चाहता हूँ।”

“क्यों? क्या यह समझते हो कि कोई अंदर मौजूद है?” फैयाज़ उसने कहा।

“नहीं यूं ही झक मारने का इरादा है। चलो बैठ जाओ, मैं तुम्हारे कंधों पर खड़ा होकर…”

“फिर भी दीवार बहुत ऊँची है।”

“यार फिर बहस ना करो।” इमरान उकताकर बोला, “वरना मैं वापस जा रहा हूँ।”

मजबूरन फैयाज़ दीवार के नीचे में बैठ गया।

“अमां जूते तो उतार लो।” फैयाज़ ने कहा।

“लेकर भागना मत।” इमरान ने कहा और जूते उतार कर उसके कंधों पर खड़ा हो गया, “चलो अब उठो।”

फैयाज़ आहिस्ता-आहिस्ता उठ रहा था। इमरान का हाथ रोशनदान तक पहुँच गया और दूसरे ही लम्हे वह बंदरों की तरह दीवार पर चढ़ गया। फैयाज़ मुँह फाड़े हैरत से उसे देख रहा था। वह सोच रहा था कि इमरान आदमी है या शैतान। क्या यह वही अहमक है, जो कभी-कभी किसी केंचुये की तरह बिल्कुल बेज़रर मालूम होता है।

जिन रोशनदानों की मदद से इमरान ऊपर पहुँचा था, उन्हीं के जरिये दूसरी तरफ उतर गया। चंद लम्हे वह दीवार से लगा खड़ा रहा। फिर आहिस्ता-आहिस्ता उस तरफ बढ़ने लगा, जिधर से कई कदमों की आहट ही मिल रही थी।

और फिर उसे यह मालूम कर लेने मुश्किल ना हुए कि वह अपरिचित आदमी उसी कमरे में थे, जिसमें उसने लाश देखी थी। कमरे का दरवाजा अंदर से बंद था, लेकिन दरवाजों से मोमबत्ती की हल्की पीली रोशनी छन रही थी। उसके अलावा दालान में बिल्कुल अंधेरा था।

इमरान दीवार से चिपका हुआ आहिस्ता-आहिस्ता दरवाजे की तरफ बढ़ने लगा। लेकिन अचानक उसकी नज़र शहीद आदमी की कब्र की तरह उठ गई। उसका पत्थर ऊपर उठ रहा था। पत्थर और फर्श के बीच की जगह में हल्की सी रोशनी थी और इस जगह से दो खौफ़नाक आँखें अंधेरे में घूर रही थी।

इमरान साहस कर रुक गया। वह ऑंखें फाड़े कब्र की तरफ देख रहा था। अचानक कमरे से एक चीख बुलंद हुई थी। चीख थी या किसी ऐसी बंदरिया की आवाज, जिसकी गर्दन किसी कुत्ते ने दबोच ली हो।

इमरान झपटकर बराबर वाले कमरे में घुस गया। वह जानता था कि इस चीख की प्रतिक्रिया दूसरे कमरे वालों पर क्या होगी। वह दरवाजे में खड़ा कब्र की तरफ देख रहा था। पत्थर अभी तक उठा हुआ था और वे खौफ़नाक आँखें अब भी चिंगारियाँ बरसा नहीं थीं। दूसरी चीज के साथ ही बराबर वाले कमरे का दरवाजा खुला। एक चीख भी सुनाई दी, जो पहली से अलग थी। शायद यह उन्हीं अपरिचित आदमियों में से किसी की चीख थी।

“भूत भूत!” कोई कांपती हुई आवाज में बोला और फिर ऐसा लगा जैसे कई आदमी मुख्य दरवाजे की तरफ भाग रहे हो।

थोड़ी देर बाद सन्नाटा हो गया। कब्र का पत्थर बराबर हो गया था।

इमरान जमीन पर लेट का सीने के बल रेंगता हुआ मुख्य दरवाजे की तरफ बढ़ा। कभी-कभी वह पलट के कब्र की तरफ भी देख लेता था। लेकिन फिर पत्थर नहीं उठा।

मुख्य दरवाजा बाहर से बंद हो चुका था। इमरान अच्छी तरह इत्मीनान कर लेने के बाद फिर लौट पड़ा । लाश वाले कमरे का दरवाजा खुला हुआ था। लेकिन अब वहाँ अंधेरे की हुकूमत थी। इमरान ने आहिस्ता से दरवाजा बंद करके टॉर्च निकाली लेकिन रोशनी होते ही…

“इल्ला लिल्लाही वइन्ना इलैही राजिउन।” इमरान बड़ाबड़ाया, “ख़ुदा तुम्हारी भी मगफ़िरत करें।”

ठीक उसी जगह जहाँ पर पहले भी एक लाश देख चुका था, दूसरी पड़ी हुई दिखाई दी। उसकी पीठ पर भी तीन जख्म थे, जिससे खून बह कर फर्श पर फैल रहा था। इमरान ने झुककर उसे देखा। वह एक हट्टा-कट्टा और काफ़ी ख़ूबसूरत जवान था और लिबास से किसी ऊँची सोसाइटी का शख्स मालूम होता था।

“आज उनकी कल अपनी बारी है।” इमरान साधुओं के अंदाज में बड़बड़ाता हुआ सीधा हो गया। उसके हाथ में कागज का एक टुकड़ा था, जो उसके मरने वाले की मुट्ठी से बहुत मुश्किल से निकाला था।

वह चंद लम्हे उसे टार्च की रोशनी में देखता रहा। फिर अर्थपूर्ण अंदाज में सिर हिला कर उसने कागज को कोट अंदरूनी जेब में रख लिया। कमरे के बाकी हिस्सों की हालत वैसी थी, जो उसने पिछले बार देखी थी। कोई ख़ास फ़र्क नज़र नहीं आ रहा था।

थोड़ी देर बाद में पिछली दीवार से नीचे उतर रहा था। आखिरी रोशनदान पर पैर रखकर उसने छलांग लगा दी।

“तुम्हारी यह खुसूसियत भी आज ही मालूम हुई।” फैयाज़ आहिस्ता से बोला, “क्या अंदर किसी बंदरिया से मुलाकात हो गई थी?”

“आवाज पहुँची थी यहाँ तक।” इमरान ने पूछा।

“हाँ! लेकिन मैंने इस तरफ बंदर नहीं देखे।”

“इनके अलावा कोई दूसरी आवाज।”

“हाँ! शायद तुम डर कर चीखे थे।” फैयाज़ बोला।

“लाश इसी वक्त चाहिए या सुबह।” इमरान ने पूछा।

“लाश!” फैयाज़ उछाल पड़ा, “क्या कहते हो? कैसी लाश?”

“किसी शायर ने दो गज़ला अर्ज़ कर दिया है।”

“ए दुनिया के अक्ल मंद अहमक साफ-साफ कहो।” फैयाज़ झुंझलाकर बोला।

“एक दूसरी लाश…तीन ज़ख्म…ज़ख्मों का फ़ासला पाँच इंच…पोस्टमार्टम की रिपोर्ट के मुताबिक की गहराई में बराबर निकलेगी।”

“यार बेवकूफ मत बनाओ।” फैयाज़ परेशान होकर बोला।

“जज साहब आदि कुंजी मौजूद है। अक्लमंद बन जाओ।” इमरान ने खुश्क लहज़े  में कहा।

“लेकिन यह हुआ किस तरह?”

“उसी तरह जैसे शेर होते हैं। लेकिन या शेर मुझे भरती का मालूम होता है, जैसे मीर का यह शेर  – 

मीर के दीनो-मजहब को क्या पूछते हो अब उनने तो

कश्का खींचा देर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया,

भला बताओ देर में क्यों बैठा जल्दी क्यों नहीं बैठ गया?”

“दे नहीं दैर है यानी बुतखाना!” फैयाज़ ने कहा। फिर बड़बड़ाकर आकर बोला, “लाहौल विला कूवत! मैं भी उसी बेहूदगी में पड़ गया। वह लाश इमारत के किस हिस्से में है?”

“उसी कमरे में और ठीक उसी जगह जहाँ पहली लाश मिली थी।”

“लेकिन वह आवाजें कैसी थीं?” फैयाज़ ने पूछा।

“ओह, ना पूछो तो बेहतर है। मैंने इतना हँसी वाला मंज़र आज तक नहीं देखा।”

“यानी!”

“पहले एक गधा दिखाई दिया, जिस पर एक बंदरिया सवार थी। फिर दूसरा साया नज़र आया, जो यकीनन किसी आदमी का था। अंधेरे में भी गधे और आदमी में फ़र्क किया जा सकता है, क्यों तुम्हारा क्या ख़याल है?”

“मुझे अफ़सोस है कि तुम हर गैर संजीदा रहते हो।”

“यार फैयाज़! सच कहना, अगर तुम एक आदमी को किसी बंदरिया का मुँह चूमते देखो, तो तुम्हें गुस्सा आयेगा या नहीं?”

“फिज़ूल वक्त बर्बाद कर रहे हो तुम।”

“अच्छा चलो!” इमरान उसका कंधा थपकता हुआ बोला।

वे दोनों सदर दरवाजे की तरफ आये।

“क्यों ख़ामखा परेशान कर रहे हो।” फैयाज़ ने कहा।

“कुंजी निकालो।”

दरवाजा खोल का दोनों लाश वाले कमरे में आये। इमरान ने टॉर्च रोशन की,  लेकिन वह दूसरे ही लम्हे इस तरह सिर सहला रहा था, जैसे दिमाग पर अचानक गर्मी पड़ गई हो।

लाश गायब थी।

“यह क्या मज़ाक है?” फैयाज़ भन्नाकर पलट पड़ा।

“हूं! बाज़ अक्लमंद शायर भरती के शेर अपनी गलतियों से निकाल दिया करते हैं।”

“यार इमरान ने बाज़ आया तुम्हारी मदद से।”

“मगर मेरी जान यह लो देखो…नक्श फ़रियादी है किस शोखिए तहरीर का…लाश गायब करने वाले ने अभी खून के दाग धब्बों का कोई इंतज़ाम नहीं किया। मिर्ज़ा इफ्तेखार रफ़ी सौदा या कोई साहब फ़रमाते हैं –

कातिल हमारी लाश को तशहीर  दे ज़रूर

आइंदा ता ने कोई किसी से वफ़ा करें।”

फैयाज़ झुककर फर्श पर फैले हुए खून को देखने लगा।

“लेकिन लाश क्या हुई?” घबराए हुए लहज़े में बोला।

“फ़रिश्ते उठा ले गये। मरने वाला बहिश्ती था, मगर लाहौल विला… बहिश्ती….सक्के को भी कहते हैं…ओह हो…फिरदौसी था….लेकिन फ़िरदौसी तो महमूद गजनबी की ज़िन्दगी ही में मर गया था। फिर क्या कहेंगे…भई, बोलो ना!”

“यार भेजा मत चाटो।”

“उलझन! बताओ जल्दी क्या कहेंगे सिर चकरा रहा है दौरा पड़ जायेगा।”

“जन्नती कहेंगे इमरान तुमसे ख़ुदा समझे!”

“जिओ! हाँ तो मरने वाला जन्नती था और क्या कह रहा था मैं?”

“तुम यहीं रुके क्यों नहीं रहे?” फैयाज़ बिगड़ कर बोला, “मुझे आवाज दे ली होती।”

“सुनो यार! बंदरिया तो क्या मैंने आज तक किसी मक्खी का भी बोसा नहीं लिया।” इमरान मायूसी से बोला।

“क्या मामला है? तुम कई बार बंदरिया का हवाला दे चुके।”

“जो कुछ अभी तक बताया है बिल्कुल सही था। उस आदमी ने गधे पर से बंदरिया उतारी, उसे कमरे में ले गया…फिर बंदरिया दोबारा चीखी और वह आदमी एक बार….उसके बाद सन्नाटा छा गया….फिर लाश दिखाई दी। गधा और बंदरिया गायब थे।”

“सच कह रहे हो।” फैयाज़ भर्राई हुई आवाज में बोला।

“मुझे झूठा समझने वाले पर कहरे ख़ुदा बंदी क्यों नहीं टूटता।” फैयाज़ थोड़ी देर तक ख़ामोश रहा, फिर थूक निकल कर बोला, “तो…तो फिर सुबह पर रखो।”

इमरान की नज़रें फिर कब्र की तरफ उठ गई। कब्र का पत्थर उठा हुआ था और वही खौफ़नाक आँखें अंधेरे में घूर रही थी। इमरान ने टॉर्च बुझा दी और फैयाज़ को दीवार की ओट में धकेल ले गया। न जाने क्यों वह चाहता था कि फैयाज़ की नज़र उस पर न पड़ने पाये।

“क… क….क्या?” फैयाज़ कांप कर बोला।

“बंदरिया!” इमरान ने कहा।

कुछ और भी कहना चाहता था कि कहीं चीख एक बार फिर सन्नाटे में लहरा गई।

“अरे बाप…” फैयाज़ किसी खौफ़ज़दा बच्चे की तरह बोला।

“आँखें बंद कर लो।” इमरान ने संजीदगी से कहा, “ऐसी चीजों पर नज़र पड़ने से हार्टफेल भी हो जाया करता है। रिवाल्वर लाये हो?’

“नहीं…नहीं…तुमने बताया कब था!”

“खैर कोई बात नहीं! अच्छा ठहरो!” इमरान आहिस्ता-आहिस्ता दरवाजे की तरफ बढ़ता हुआ बोला।

कपड़े का पत्थर बराबर हो चुका था और सन्नाटा पहले से भी कुछ ज्यादा गहरा लगने लगा था।

Prev | Next | All Chapters

Chapter  1 | 2 | 3 | 45 | | | | | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 

Ibne Safi Novels In Hindi :

कुएं का राज़ ~ इब्ने सफ़ी का उपन्यास

जंगल में लाश ~ इब्ने सफ़ी का ऊपन्यास

नकली नाक ~ इब्ने सफ़ी का उपन्यास

 

Leave a Comment